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Monday, 6 May, 2024
होममत-विमतEWS के बाद कोई नहीं होगा जनरल, हर जाति अब लाभार्थी, आरक्षण पर नहीं बनेंगे चुटकुले

EWS के बाद कोई नहीं होगा जनरल, हर जाति अब लाभार्थी, आरक्षण पर नहीं बनेंगे चुटकुले

नई परिभाषा के मुताबिक ईडब्ल्यूएस कैटेगरी का मतलब सिर्फ वो लोग हैं जो एससी, एसटी या ओबीसी नहीं है. यानी संविधान के अनुच्छेद 15(4) और 16(4) में जिन वर्गों की बात है, वे ईडब्ल्यूएस नहीं हो सकते.

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ईडब्ल्यूएस यानी इकोनॉमिकली वीकर सेक्शन कैटेगरी भारतीय समाज और राजनीतिक व्यवस्था की एक नई कैटेगरी है. ये समाज में आई सबसे नई श्रेणी है. लेकिन इसके आने से एक कैटेगरी का अंत भी हो रहा है. वो है जनरल कैटेगरी. एक तरह से देखें तो जनरल कैटेगरी की लाश पर ही ईडब्ल्यूएस कैटेगरी का जन्म हुआ है.

ईडब्ल्यूएस एक दिलचस्प कैटेगरी है. 2019 से पहले ईडब्ल्यूएस का मतलब गरीब हुआ करता था. गरीब यानी हर समाज, जाति, धर्म के गरीब लोग. ईडब्ल्यूएस कोई भी हो सकता था. ईडब्ल्यूएस के लिए सरकारी स्कॉलरशिप होती थी. ईडब्ल्यूएस के लिए हाउसिंग स्कीम होती थी. लेकिन 2019 के जनवरी महीने में संसद में 103वां संविधान संशोधन पास होने के बाद ईडब्ल्यूएस की नई परिभाषा आ गई.

नई परिभाषा के मुताबिक ईडब्ल्यूएस कैटेगरी का मतलब सिर्फ वो लोग हैं जो एससी, एसटी या ओबीसी नहीं है. यानी संविधान के अनुच्छेद 15(4) और 16(4) में जिन वर्गों की बात है, वे ईडब्ल्यूएस नहीं हो सकते. इनसे बाहर विभिन्न धर्मों के सवर्ण ही आते हैं. कितनी आमदनी वाले ईडब्ल्यूएस में होंगे, ये तय करने का जिम्मा सरकार को दिया गया. फिलहाल सरकार ने ईडब्ल्यूएस के लिए आमदनी की लिमिट 8 लाख रुपए प्रति वर्ष रखी है, जो भारत जैसे गरीब देश के लिए बहुत बड़ी रकम है. पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने ईडब्ल्यूएस कोटे को संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन मानने से इनकार कर दिया. इस तरह ये कोटा अब राष्ट्र जीवन का अंग बन गया.

लेकिन इस बीच, जनरल कटेगरी का पूरा विचार भी ध्वस्त हो गया.

क्या थी जनरल कैटेगरी?

जनरल कटेगरी दरअसल उन समुदायो का खुद को दिया हुआ नाम था, जो अब तक किसी तरह के आरक्षण के दायरे में नहीं थे. इस कटेगरी को रिजर्व कटेगरी के सापेक्ष या मुकाबले में ही देखा और समझा जा सकता है. यानी जो रिजर्व नहीं, वो जनरल. ये एक बदलती हुई श्रेणी है. संविधान लागू होने के बाद, जब एससी और एसटी का आरक्षण लागू हुआ तो जो लोग इस आरक्षण से बाहर थे (यानी ओबीसी और तथाकथित उच्च जातियां) उन्होंने खुद को जनरल या अनरिजर्व कटेगरी कहना शुरू किया. अनरिजर्व या ओपन सीटों को जनरल सीट भी तब से ही कहा जा रहा है. लोकसभा और विधानसभा में एससी और एसटी के लिए रिजर्व सीटों के अलावा बाकी सीटों को जनरल सीट कहा गया. हालांकि अनरिजर्व सीटें हमेशा तमाम वर्गों और लोगों जैसे एससी-एसटी के लिए भी खुली रही हैं. नौकरियों और शिक्षा में भी यही व्यवस्था रही.

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इस समय तक जनरल कैटेगरी के दायरे में पिछड़ी और सवर्ण दोनो तरह की जातियां थीं. समाज की सबसे नीचे की श्रेणी के अलावा, बाकी लोगों के जनरल श्रेणी में होने के कारण जनरल कैटेगरी प्रिविलेज प्राप्त प्रभु वर्ग के लोगों की कटेगरी मान ली गई. इस कटेगरी को मेरिट और टैलेंट वाले लोगों की श्रेणी भी कहा गया, क्योंकि ये आरक्षण लिए बगैर सरकारी सेवाओं और शिक्षा में आ रहे थे. हालांकि मेरिट और टैलेंट की जो परिभाषा बनाई गई, वह दोषपूर्ण थी, लेकिन तब ये बहस हुई नहीं.

कई राज्यों में ओबीसी या बीसी यानी पिछड़ा वर्ग की पहचान करके उन्हें सामाजिक न्याय और आरक्षण के दायरे में लाए जाने से जनरल कैटेगरी संकुचित और छोटी हो गई. 1990 में मंडल कमीशन लागू होने के बाद ये स्थिति पूरे देश में हो गई. एससी, एसटी के साथ ओबीसी भी आरक्षण के दायरे में आ गए और रिजर्व कैटेगरी बन गए. जनरल कैटेगरी में अब सिर्फ कुछ मझौली जातियां और सवर्ण रह गए. आरक्षण का विरोध करने का दारोमदार भी सवर्ण जातियों पर आ गया. इसके बावजूद सवर्ण जातियों का जनरल होने का एहसास बना और बचा रहा क्योंकि इस समय तक भी वे आरक्षण के दायरे में नहीं थे. आरक्षण का लाभ न नहीं लेना एक श्रेष्ठताबोध या बेहतर होने के एहसास के तौर पर उनके पास सुरक्षित रहा.

ये बात ईडब्ल्यूएस कोटा लागू होने के बाद बदल गई है. अब भारत की कोई जाति या जाति समूह ये दावा नहीं कर सकता कि वह आरक्षण के दायरे से बाहर है. हर जाति का अब ऐसा सर्टिफिकेट बन रहा है या बन सकता है, जो उन्हें सरकारी सेवाओं और शिक्षा में कम रैंकिंग के बावजूद स्थान दिला सकता है. हर जाति अब आरक्षण की लाभार्थी है. इस तरह अनरिजर्व या जनरल जाति के विचार का अंत हो गया है. सवर्ण और ओबीसी जातियों में जो लोग प्रति वर्ष 8 लाख रुपए से ज्यादा कमा रहे हैं, वे आरक्षण का फायदा नहीं उठा पाएंगे, लेकिन ये व्यक्तियों की बात है. समूह के तौर पर इन श्रेणियों की सभी जातियां आरक्षण की लाभार्थी हैं.

जनरल होने का सुख

जनरल होना दरअसल जाति में होते हुए भी जातिमुक्त होने का एहसास दिलाने का जरिया था. सामाजिक व्यवस्था के तौर पर जाति में होने के तमाम तरह के फायदे और नुकसान है. जैसे जैसे जातिक्रम में नीचे से नीचे से ऊपर की यात्रा करेंगे, जाति ज्यादा से ज्यादा फायदेमंद होती जाएगी. ये फायदे कई तरह के होते हैं, जिसमें श्रेष्ठता बोध से उपजा आत्मविश्वास, जमीन और संपत्ति में बेहतर हिस्सेदारी, सामाजिक वंचना और उत्पीड़न से मुक्ति, समाज में सम्मान, शिक्षा तक पहुंच और संपर्कों और जानपहचान का बेहतर और प्रभावशाली दायरा आदि शामिल है.

लेकिन जाति से जुड़े तमाम विशेषाधिकारों और फायदों से सबसे ज्यादा लाभान्वित जाति के लोगों के लिए ये बहुत आसान था कि वे खुद को जातिमुक्त या जनरल बताकर इन फायदों को लेते हुए भी इनको अदृश्य बना ले. जातिमुक्त दिखने की ये सुविधा उन्हें सिर्फ इस लिए मिल रही थी क्योंकि उनकी जाति सरकार के आरक्षण कार्यक्रमों की लाभार्थी नहीं थी. इसलिए वे आसानी से ये कह पा रहे थे कि “जाति तो खत्म हो चुकी है, जो थोड़ी समस्या है, वह आरक्षण के कारण है.” या कि “मैं तो जाति को नहीं मानता” या “जातिवाद तो पुराने दिनों की बात है.”

ये विचार मीडिया से लेकर साहित्य और अकादमिक क्षेत्रों में भी हावी रहा. जाति समस्या का मतलब दलित समस्या और दलितों और ओबीसी के बीच होने वाले टकरावों तक सीमित रह गया. जाति की राजनीति का प्रभावी होना उस दौर को माना गया, जब राजनीति में किसान जातियों, ओबीसी और फिर दलितों ने सवर्ण वर्चस्व को चुनौती दी. जब तक सवर्णों का दबदबा राजनीति में कायम रहा तब तक ये नहीं कहा गया कि कुछ जातियों का राजनीति में वर्चस्व है. जाति का अध्ययन करने के नाम पर दलित, आदिवासी और पिछड़ी जातियों को लेकर रिसर्च किए गए मानों, सवर्ण जातियों की जाति नहीं होती.

इस वजह से ओबीसी या दलित समुदायों से आने वाले नेताओं को मीडिया कई बार इन जातियों का नेता बताता है, जबकि यही बात सवर्ण नेताओं के साथ नहीं कही जाती. यहां तक कि के.आर. नारायणन और रामनाथ कोविंद को मीडिया ने दलित राष्ट्रपति लिखा और बोला जबकि राजेंद्र प्रसाद से लेकर शंकर दयाल शर्मा और प्रणव मुखर्जी को उनकी जाति का राष्ट्रपति कभी नहीं कहा गया. जाति में होते हुए जाति से मुक्त होने का सौभाग्य सिर्फ सवर्ण जातियों को ही मिलता रहा. इसी तरह मोहनदास करमचंद गांधी को राष्ट्रपिता कहा गया जबकि राष्ट्र निर्माण में बराबर के योगदान के बावजूद डॉ. बी.आर. आंबेडकर को कई बार दलितों का मसीहा कहा गया.

ये सारा फर्क इस तर्क के कारण आया कि जो जातियां सरकारी योजनाओं और नीतियों की लाभार्थी हैं, उनकी जाति बताने या लिखने का मतलब है. जो जाति से जुड़ी योजनाओं और नीतियों का लाभ नहीं लेते, उनकी जाति बताने का क्या मतलब?

ईडब्ल्यूएस कोटा लागू होने के बाद यही चीज बदल जाएगी. उम्मीद की जानी चाहिए कि आरक्षण को लेकर मजाक और चुटकुले अब नहीं बनेंगे. खासकर जातिवादी चुटकुले क्योंकि जो ऐसे चुटकुले बनाएगी, उसकी जाति खुद आरक्षण की लाभार्थी होगी. इस बारे में राजनीति विज्ञानी अरविंद कुमार का लेख पढ़ा जाना चाहिए जिनका तर्क है कि अब आरक्षण को लेकर मजाक उड़ाने का चलन बंद हो जाएगा.

दूसरी महत्वपूर्ण बात ये है कि सवर्ण जातियों का सवर्ण के तौर पर संगठित होना अब तेज हो जाएगा. अब तक आरक्षण विरोध उन्हें एकजुट कर रहा था. अब ईडब्ल्यूएस का समर्थन उन्हें एकजुट करेगा. बीजेपी ने सवर्ण वोट बैंक की पहचान करके ही ईडब्ल्यूएस कोटा लाया है. सवर्णों के आपसी मतभेद भी अब कम होंगे, और जाति के बदले वे वर्ग की तरह खुद को चिन्हित करेंगे. शादी के विज्ञापनों में “तमाम ऊंची जातियां स्वीकार्य” जैसी शर्तें अब नजर आने लगी हैं. ये चलन बढ़ सकता है.

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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