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Wednesday, 17 April, 2024
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लॉकडाउन में अमीर और गरीब दोनों तरह के राज्यों के लिए आफत बनेगी मजदूरों की घर वापसी

रिवर्स माइग्रेशन से पैदा होने वाला संकट रोजगार देने वाले अमीर राज्यों और श्रम बल मुहैया कराने वाले पिछड़े राज्यों, दोनों के लिए तबाही लेकर आ सकता है.

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देश में इस वक्त प्रवासी मजदूरों का मसला दोधारी तलवार बन गया है. यह समस्या अमीर और गरीब राज्य दोनों के लिए भारी पड़ने वाली है. पंजाब जैसे अमीर राज्यों की इकनॉमी के लिए ये बेहद जरूरी लोग हैं. लेकिन बिहार जैसे पिछड़े राज्य प्रवासी मजूदरों की घर वापसी को बड़ी आफत की तरह देख रहे हैं, जहां नीतीश कुमार ने सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों का हवाला देकर मजदूरों की घर वापसी रोकने की कोशिश की वहीं कैप्टन अमरिंदर सिंह कुमार को फोन कर कह रहे हैं कि मजदूरों से रुके रहने की अपील करें. पंजाब उनकी देखभाल का बेहतरीन इंतजाम कर रहा है.

देश में लॉकडाउन को छह सप्ताह हो चुके हैं और इस बीच प्रवासी मजदूरों की इसने जो दुर्दशा की, उसे पूरे देश ने देखा. काम बंद होने की वजह से मजदूरों का बहुत बड़ा हुजूम हजारों किलोमीटर दूर अपने घर जाने के लिए पैदल ही सड़कों पर उतर पड़ा. गम और गुस्से की गठरियां लादे महिला और पुरुष और उनके साथ घिसटते बच्चे, जो लोग रुके रहे वे भी बेहाल दिखे. इतनी बड़ी तादाद में मजदूरों के रहने-खाने का इंतजाम करना प्रशासन के लिए मुश्किल था. लॉकडाउन में कैद, भूख-प्यास से परेशान मजदूरों के बीच छटपटाहट और बेचैनी लाजिमी थी. अब लंबे इंतजार के बाद सरकार की इजाजत से उनकी घर वापसी का रास्ता खुला है.

इस वक्त यह राहत की बात लग सकती है, लेकिन यह रिवर्स माइग्रेशन दोनों तरह के राज्यों के लिए आफत साबित होने वाला है. उन राज्यों के लिए भी जो आर्थिक गतिविधियों के केंद्र हैं और उनके लिए भी जहां से लोग इन राज्यों की फैक्टरियों, दुकानों, खेतों और दूसरे श्रम बाजारों में रोजी-रोटी कमाने लिए पहुंचते हैं.


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देश में 40 साल पहले ही प्रवासी मजदूरों का डेटाबेस बनाने का कानून बना गया था. लेकिन अभी तक इसका कोई सेंट्रल रजिस्टर नहीं बना है, फिर भी एक अनुमान के मुताबिक देश में प्रवासी मजदूरों की संख्या 10 करोड़ के आसपास है. यह भारत के कुल वर्क फोर्स का 20 फीसदी हिस्सा है, जो फसल काटने, मकान, पुल, सड़क बनाने, गाड़ियां चलाने और टेक्सटाइल मिलों में काम करने के साथ तमाम आर्थिक गतिविधियों का हिस्सा बनने लिए एक जगह से दूसरे जगह जाती रहती है. इसका एक बड़ा हिस्सा सीजनल मजदूरों का है, जो गांव-देहातों में खेती का काम न होने पर शहरों और कस्बों की ओर काम की तलाश में निकल पड़ता है.

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इकोनॉमी में प्रवासी मजदूरों की भूमिका

भारत में इंटरनल माइग्रेशन के तहत एक इलाके से दूसरे इलाके में जाने वाले मजदूरों की कमाई देश की जीडीपी की लगभग 6 फीसदी है. ये मजदूर इसका एक तिहाई यानी जीडीपी का लगभग दो फीसदी घर भेजते हैं. इस समय के जीडीपी के हिसाब से यह 4 लाख करोड़ रुपये बैठती है. यह पैसा मुख्य रूप से बिहार, उत्तर प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान, मध्य प्रदेश और झारखंड जैसे राज्यों में जाता है.

माइग्रेशन कोई बुरी चीज नहीं है. यह देश की तरक्की में योगदान देता है. 2001 से 2011 के बीच देश जब अपने आर्थिक विकास के सबसे अच्छे दौर से गुजर रहा था, तो माइग्रेशन काफी बढ़ गया था. 1991 से 2011 के बीच माइग्रेशन में 2.4 फीसदी का सालाना इजाफा दर्ज किया गया वहीं 2001 से 2011 के बीच इसकी सालाना बढ़ोतरी दर 4.5 फीसदी रही, कहने का मतलब यह है कि माइग्रेशन ने मजदूरों का भी भला किया और उद्योगों का भी. लेबर इंटेंसिव उद्योगों, मसलन जेम्स-ज्वैलरी, टेक्सटाइल, लेदर और ऑटोपार्ट्स सेक्टर में बड़ी तादाद में मजदूर काम करते हैं. जब इकनॉमी मे मांग बढ़ती है तो इन मजदूरों को बोनस, इन्क्रिमेंट, मोबाइल फोन, आने-जाने की सुविधा और कैंटीन जैसी सुविधाएं देकर कंपनियां अपने पास बरकरार रखना चाहती हैं. लुधियाना से लेकर सूरत और तिरुपुर से लेकर मानेसर तक में यही ट्रेंड दिखता है.

मजदूरों के जाने से उद्योगों में खलबली

अब जबकि मजदूरों का रिवर्स माइग्रेशन शुरू हो चुका है तो देश के बड़े औद्योगिक केंद्रों में खलबली मची हुई है. भले ही अभी उद्योगों में काम कम हो गया है या रुक गया है. लेकिन लॉकडाउन खत्म होते ही मजदूरों की भारी मांग पैदा होगी.

हाल में कई उद्योगों और ऑल इंडिया जेम्स एंड ज्वैलरी डोमेस्टिक काउंसिल जैसी संस्थाओं ने लेबर शॉर्टेज पर चिंता जताई है. जेम्स एंड ज्वैलरी देश का दूसरा बड़ा निर्यात सेक्टर है. आप समझ सकते हैं कि एक बार उत्पादन शुरू होने पर इसे कितने बड़े पैमाने पर कामगारों की जरूरत होगी. लेकिन तब ये कामगार इस इंडस्ट्री को नहीं मिलेंगे क्योंकि इनका एक बड़ा हिस्सा अपने घर लौट चुका होगा. बड़े शहरों ने लॉकडाउन के दौरान इन मजदूरों के प्रति जिस तरह की संवेदनहीनता दिखाई, उससे अगले छह महीने या एक साल तक तो ये लोग इधर का रुख करने से जरूर हिचकेंगे.

लेकिन, रिवर्स माइग्रेशन का यह दौर उन राज्यों के लिए भी बुरा साबित होने वाला है, जहां ये लौट रहे हैं. सबसे ज्यादा माइग्रेशन यूपी और बिहार से होता है. इंटरनल माइग्रेशन में सबसे बड़ी 25 फीसदी हिस्सेदारी यूपी की है. इसके बाद 14 फीसदी बिहार की. एक अनुमान के मुताबिक 40 से 60 लाख कामगार यूपी और 18 से 28 लाख बिहार अपने घरों को लौट सकते हैं. हाल में जब बिहार सरकार ने राज्य के प्रवासी मजदूरों के खातों में एक-एक हजार रुपये डालने का ऐलान किया था तो लगभग 25 लाख लोगों ने इसके लिए अप्लाई किया था. अब तक 17 लाख लोगों के खातों में यह पैसा डाला जा चुका है.

रिवर्स माइग्रेशन का बोझ नहीं सह सकेंगे पिछड़े राज्य

बड़ा सवाल यह है कि क्या यूपी, बिहार, झारखंड, ओडिशा, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे आर्थिक तौर पर पिछड़े राज्य मजदूरों की इतनी बड़ी तादाद में घर वापसी को झेल सकेंगे? क्या इन राज्यों की माली हालत इसकी इजाजत देगी? बिहार में कम लोगों के पास जमीन है, इसलिए यहां से पलायन भी ज्यादा है. यूपी में भी लगभग यही हाल है और यह औद्योगीकरण में लगातार पिछड़ता जा रहा है. झारखंड में उद्योग-धंधों का विस्तार नहीं हो रहा है.

सावर्जनिक उद्योग तेजी से सिकुड़ रहे हैं और इन के दम पर बसे शहर दम तोड़ रहे हैं. ओडिशा की हालत भी कोई अच्छी नहीं है. राज्यों के पास पैसे की किल्लत बनी हुई है. जीएसटी में राज्यों की जो हिस्सेदारी होती है उसका बड़ा हिस्सा केंद्र के पास बकाया है. खुद केंद्र सरकार की कमाई कम हो गई है. ऐसे में उसके लिए राज्यों की मदद करना भी बेहद मुश्किल साबित होने वाला है.


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ऐसे राज्यों की अर्थव्यवस्था के लिए इन मजदूरों का लौटना किसी दु:स्वप्न से कम नहीं होगा. इन मजदूरों के लिए इन्हें राशन की व्यवस्था करनी होगी. इनके बच्चों के लिए स्कूल खोलने होंगे और स्वास्थ्य सुविधाओं का विस्तार करना होगा. बगैर बड़े फंड और बड़ी सामाजिक योजनाओं के इतनी बड़ी तादाद में लौटे मजदूरों को खपाना मुश्किल होगा. जो लोग लौटेंगे उनके लिए रोजगार के अवसर काफी कम होंगे. बड़े शहरों की इंडस्ट्रीज में काम करने के दौरान उन्होंने जो स्किल हासिल की थी उसका भी कोई खास इस्तेमाल वहां नहीं हो पाएगा. यानी ये मजदूर लगातार गरीबी की ओर बढ़ेंगे.

इस संकट का एक और पहलू है, बिहार, यूपी जैसे राज्यों में जिस तरह की सामाजिक असमानता हैं. जातियों के झगड़े हैं और सामंतवाद का वर्चस्व है. उसमें रिवर्स माइग्रेशन और मुसीबतें पैदा करेगा. इन राज्यों का कमजोर सामाजिक ताना-बाना इसे झेलने की स्थिति में नहीं है.

क्या है समाधान

आखिर इस संकट से निकलने का रास्ता क्या है? इतिहास और अर्थशास्त्र के विद्यार्थी जानते हैं कि 1929 की महामंदी के दौर में अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने क्या किया था. यह वह दौर था जब 1932 से 33 के बीच अमेरिका में बेरोजगारी की दर 5 फीसदी से बढ़ कर 32 फीसदी तक पहुंच गई थी. रूजवेल्ट ने इकनॉमी में राहत, सुधार और रोजगार पैदा करने के बड़े कदम उठाए थे. मशहूर ‘न्यू डील’ कार्यक्रम के तहत 30 लाख नौजवानों के रोजगार के लिए तुरंत कदम उठाए गए थे. बैंकिंग और शेयर मार्केट में नए सुधार किए गए थे. मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में जान फूंकने के बड़े पैकेज दिए गए थे. इस तरह उन्होंने पूरे अमेरिका को एक कल्याणकारी राज्य में तब्दील कर दिया था.

आज लॉकडाउन से पैदा हालात में भारतीय नेतृत्व से भी ऐसे ही कदम की उम्मीद है. वरना रिवर्स माइग्रेशन से पैदा होने वाला संकट रोजगार देने वाले और श्रम बल मुहैया कराने वाले, दोनों तरह के राज्यों को एक साथ ले डूबेगा.

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं. उन्होंने हिंदी साहित्य पर शोध किया है)

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