चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) जनरल बिपिन रावत 4 दिसंबर को गोरखपुर के महाराणा प्रताप इंटर कॉलेज में महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद की स्थापना की 88वीं वर्षगांठ के मौके पर सप्ताह भर के समारोह के उदघाटन कार्यक्रम में मुख्य अतिथि की गद्दी की शोभा बढ़ा रहे थे. अध्यक्ष की कुर्सी पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ विराजमान थे, जो गोरखनाथ मंदिर और उक्त परिषद का प्रबंध संभालने वाले गोरखनाथ मठ के मुख्य महंत भी हैं.
इस मौके पर जनरल रावत ने छात्रों को प्रेरित करने वाला भाषण देते हुए उन्हें यह भी नसीहत दी कि सदियों के विदेशी शासन ने जिस भारतीय संस्कृति को कमजोर कर दिया उसे वे पुनर्स्थापित करें. उन्होंने वहां ‘हिंदू सूर्य’ महाराणा प्रताप, और मठ के दो पूर्व महंतों— ब्रह्मलीन महंत दिग्विजय और ब्रह्मलीन महंत आदित्यनाथ— की आदमक़द प्रतिमाओं का अनावरण भी किया. इससे पहले, 3 दिसंबर को अपने सरकारी विमान से गोरखपुर के फौजी हवाई अड्डे पर उतरने के बाद वे सीधे गोरखनाथ मंदिर के महंत योगी आदित्यनाथ के साथ मंदिर में शीश नवाने गए.
लेकिन 4 दिसंबर को भारतीय नौसेना 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में कराची बन्दरगाह पर हमले की वर्षगांठ भारतीय नौसेना दिवस के रूप में मनाती है. परंपरा यह रही है कि सेना दिवसों पर तीनों सेनाओं के अध्यक्ष राष्ट्रीय युद्ध स्मारक पर पुष्प अर्पित करते हैं, पहले यह अमर जवान ज्योति पर किया जाता था. इस समारोह का नेतृत्व 1 जनवरी से ‘सीडीएस’ यानी तीनों सेनाओं की एकता के लिए ज़िम्मेदार उनके ‘नंबर वन’ अधिकारी करते हैं. लेकिन गोरखनाथ मठ के समारोह को इतनी अहमियत दी गई कि ‘सीडीएस’ ने नौसेना दिवस को नज़रअंदाज़ कर दिया.
अज्ञानता के कारण हो या अविवेक के कारण, ‘सीडीएस’ का यह आचरण हमें इस बारे में बहुत कुछ बताता है कि हमारी सेनाओं में आजकल क्या चल रहा है. सबसे पहले तो, खासकर तीनों सेनाओं की एकता को मजबूत करने वाली एक स्थापित परंपरा की उपेक्षा की गई; दूसरे, सेनाओं के नियमों-कायदों और कानून का उल्लंघन किया गया; तीसरे, सेनाओं के धर्मनिरपेक्ष और अराजनीतिक स्वरूप के साथ खिलवाड़ किया गया.
प्रोटोकॉल और परंपरा : तीन सेनाओं की एकता
तीनों सेनाओं की एकता का अभाव हमारी सेनाओं के लिए एक अभिशाप है, जो इनकी पूरी क्षमता के विकास में बाधक रहा है. ‘सीडीएस’ और संयुक्त कमान के न होने से तीनों सेनाओं में आपसी सहयोग के लिए परंपरा और प्रोटोकॉल का ही सहारा लिया जाता था. ऐसी एक परंपरा यह थी कि हरेक सेना दिवस पर तीनों सेनाओं के अध्यक्ष साथ-साथ खड़े होकर राष्ट्रीय युद्ध स्मारक पर पुष्प अर्पण करते थे. थलसेना अध्यक्ष के तौर पर जनरल रावत खुद नौ बार यह कर चुके हैं. अब जबकि भारत के प्रथम ‘सीडीएस’ के रूप में उनकी यह ज़िम्मेदारी है कि वे तीनों सेनाओं में एकता स्थापित करें, तो उनके लिए ज्यादा महत्वपूर्ण यह था कि वे भारतीय नौसेना दिवस पर राष्ट्रीय युद्ध स्मारक पर पुष्प अर्पण के लिए उपस्थित होते.
गोरखनाथ मठ के शिक्षा संस्थान की 88वीं वर्षगांठ के समारोह एक सप्ताह चलने वाले थे. भारतीय नौसेना दिवस एक वार्षिक आयोजन है. इसलिए यह समझ से परे है कि उन्हें इस आयोजन में उपस्थित रहने की व्यवस्था क्यों नहीं की जा सकती थी. अगर उनमें इच्छा और तैयारी होती तो वे उस दिन राष्ट्रीय युद्ध स्मारक पर तीनों सेनाओं के अध्यक्षों के साथ जरूर खड़े होते और उसके बाद वे अपने सरकारी विमान से दोपहर तक गोरखपुर पहुंच सकते थे. लेकिन इतना ही नहीं, उन्होंने तो नौसेना दिवस के समारोह में अपनी गैरहाजिरी पर सोशल मीडिया में आलोचनाओं के बाद नौसेना को 0934 बजे एएनआइ के जरिए ट्वीटर पर प्रतीकात्मक शुभकामनाएं भेज दी.
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क्या पता, उनकी अनुपस्थिति की वजह कहीं यह न रही हो कि नौसेना के लिए तीसरे विमानवाही पोत की जरूरत पर नौसेना अध्यक्ष के साथ उनके मतभेद हैं. रावत का मानना है कि यह पोत बहुत महंगा है, इसलिए वे अधिक पनडुब्बियों रखने की वकालत कर रहे हैं. लेकिन यह मामला नौसेना के बेड़े के स्वरूप के बारे में रणनीतिक फैसला करने का है, जिसे नौसेना अध्यक्ष के भरोसे छोड़ना ही बेहतर है जिनका मानना है कि नौसेना के लिए तीसरा विमानवाही पोत भी जरूरी है और ज्यादा पनडुब्बियां भी. लेकिन क्या ‘सीडीएस’ को गोरखनाथ मठ का समारोह ज्यादा महत्वपूर्ण लगा? वजह जो भी रही हो, नौसेना के औपचारिक कार्यक्रम से— जो ‘सीडीएस’ के पद पर उनकी नियुक्ति के बाद पहला कार्यक्रम था— उनकी अनुपस्थिति तीनों सेनाओं के समन्वय के लिए अच्छा संकेत नहीं है. ‘टेलीग्राफ’ के ई-पेपर में शामिल तीन फोटो और उनका यह कैप्शन बहुत कुछ कह देता है कि ‘जरा कल्पना कीजिए कि नौसेना दिवस पर हमारे चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ कहां थे?’
नियम-कायदे और कानून का उल्लंघन
वैसे तो इसमें कुछ गलत नहीं लगता कि ‘सीडीएस’ महाराणा प्रताप इंटर कॉलेज के वार्षिक दिवस के समारोह में मुख्य अतिथि बने और उन्होंने छात्रों को संबोधित किया. लेकिन यह कॉलेज महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद का है, जिसे गोरखनाथ मठ चलाता है और यह मठ एक अर्द्ध-राजनीतिक/धार्मिक संगठन है. इसके महंत दिग्विजय नाथ पूर्व संयुक्त प्रांत में हिंदू महासभा के मुखिया थे और उन्हें ऐसी भावनाएं भड़काने के आरोप में नौ महीने जेल की सजा दी गई थी, जिसके चलते महात्मा गांधी की हत्या हुई थी. पिछले तीन दशकों से यह मठ भाजपा के साथ सक्रिय रूप से जुड़ा रहा है. ‘सीडीएस’ जिन योगी आदित्यनाथ के साथ मंच पर बैठे थे, वे हिंदू युवा वाहिनी के संस्थापक भी हैं, जिस पर सांप्रदायिक दंगों में शरीक होने के आरोप हैं और जिसके खिलाफ पुलिस में मामले भी दर्ज हैं.
सेना का खुफिया महकमा सभी सैनिकों को निरंतर निर्देश जारी करता रहता है कि वे किसी अर्द्ध- राजनीतिक/धार्मिक संगठन से न तो जुड़ें और न उसके किसी कार्यक्रम में जाएं. यह शुद्ध रूप से पूजा करने के लिए धार्मिक स्थल पर जाने से नहीं मना करता. ऐसे संगठनों की कोई सूची तो नहीं है लेकिन गोरखनाथ मठ और उससे जुड़े संगठनों को सैनिकों के लिए ऐसे निषिद्ध संगठन में शामिल किया जा सकता है. बेशक गोरखनाथ मंदिर में पूजा करने कोई भी जा सकता है.
संविधान के अनुच्छेद 33, आर्मी एक्ट की धारा 21 और आर्मी रूल्स 19-20 के तहत किसी के खिलाफ भी आर्मी एक्ट की धारा 63 के तहत समय-समय पर बनाए गए नियमों/विनियमों के मुताबिक प्रतिबंधित संगठनों की गतिविधियों में भाग लेने पर आरोपपत्र दायर किया जा सकता है. मुझे कोई संदेह नहीं है कि ‘सीडीएस’ ने वहां जाने से पहले नियम-क़ानूनों की जरूरी जांच कर ली होगी. अगर गोरखनाथ मठ और उससे जुड़े संगठनों/संस्थाओं को सेना की प्रतिबंधित सूची में शामिल नहीं किया जा सकता, तो मुझे विश्वास है कि दारुल उलूम देवबंद या दमदमी टकसाल, मेहता चौक, अमृतसर द्वारा चलाई जा रही संस्थाओं को भी उसमें नहीं शामिल किया जाना चाहिए. मेरा ख्याल है, सेना की धर्मनिरपेक्ष परंपरा के अनुरूप ‘सीडीएस’ इन संस्थाओं के निमंत्रण पर उनके यहां जाने पर भी जरूर विचार करेंगे.
सेना के राजनीतिकरण की ओर बड़ी छलांग
मुझसे अक्सर पूछा जाता है कि क्या सेना का राजनीतिकरण हो गया है? मैं हमेशा से कहता रहा हूं कि सेना कुल मिलाकर अराजनीतिक और धर्मनिरपेक्ष रही है लेकिन राजनीतिक तबका उसका शोषण करता रहा है. और प्रोमोशन तथा सेवानिवृत्ति के बाद के लाभों से जुड़े निहित स्वार्थ इस शोषण की राह को आसान बनाते हैं. उम्मीद की जाती है कि सेना का ऊपरी तबका खुद में सुधार करके नीचे वालों के लिए एक मिसाल पेश करेगा, जिसे सोशल मीडिया मार्का नव-राष्ट्रवाद से बहकाया जा रहा है. जनरल रावत देश के सबसे वरिष्ठ सेना अधिकारी हैं. किसी धार्मिक/राजनीतिक संगठन से जुड़ी संस्था में उनकी मौजूदगी और एक विवादास्पद नेता एवं महंत के साथ एक धार्मिक स्थल में उनका शीश नवाना सेना और देश के लिए कोई शुभ संकेत नहीं है. इसी तरह की घटना अमेरिकी सेना के संयुक्त चीफ ऑफ स्टाफ जनरल मार्क मिल्ले के साथ घाटी, उन्होंने जून 2020 में एक चर्च के बाहर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ फोटो खिंचवाई लेकिन सार्वजनिक तौर पर माफी भी मांगी कि ‘मुझे वहां नहीं होना चाहिए थे. उस समय और उस माहौल में मेरी वहां उपस्थिति से यह धारणा बनी बनी कि सेना घरेलू राजनीति में भागीदार बन गई है.’ हमारे ‘सीडीएस’ भी इस तरह की भूल सुधार पर विचार कर सकते हैं.
बहरहाल, मैं अभी भी इसे एक गफलत मानूंगा और कहूंगा कि सेना के राजनीतिकरण की दिशा में अभी निषेध की रेखा पार नहीं की गई है. इसलिए मैं फिलहाल कोई अंतिम फैसला नहीं कर रहा.
(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटा.) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड थे. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज़ ट्रिब्युनल के सदस्य थे. व्यक्त विचार निजी हैं)
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