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Thursday, 25 April, 2024
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बजट 2023 रक्षा खर्च पर बहस तेज कर रहा है लेकिन भारतीय पुलिस ने भीख मांगना छोड़ दिया है

बरसों से विशेषज्ञों ने पुलिस के संबंध में केंद्र-राज्य संबंधों पर पुनर्विचार करने की दलील दी है. पुलिस की फंडिंग पर बहस करने का समय तेजी से निकला जा रहा है.

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जबकि भारतीय आधी रात को स्वतंत्रता का जश्न मना रहे थे, खुफिया ब्यूरो के महानिदेशक ने चेतावनी दी कि आगे अंधेरा बाकी है. बी.एन. मलिक ने 1953 की एक आधिकारिक रिपोर्ट में अस्पष्ट रूप से कहा कि देश के बड़े हिस्से ने पुलिस के बंटवारे को ‘एक प्रभावी फोर्स’ के रूप में देखा. उन्होंने आगे कहा- “अपराधियों के बीच पुलिस ने जो पुराना डर पैदा कर रखा था, वह काफी हद तक दूर हो गया है.” जो कि खराब प्रशिक्षण और पुलिसकर्मियों की कमी का नतीजा है. उन्होंने कहा कि “जांच के तरीकों और वैज्ञानिकता के प्रयोग में कोई सुधार नहीं हुआ है.”

पिछले 70 सालों में – जैसा कि भारत ने कई विद्रोह देखे, बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा देखी, और जातीय संघर्षों की आग में भी झुलसता रहा है – केंद्र सरकार की वार्षिक रिपोर्टों ने उन निराशाजनक डेटा को उसी तरह से उठाया और चिपका दिया, जिस पर महान स्पाईमास्टर ने अपनी नज़र डाली.

हर साल की तरह बजट 2023 भी रक्षा खर्च पर जोरदार बहस छिड़ने वाला है. भारत की आंतरिक सुरक्षा के मूलभूत स्तंभ – इसके पुलिस बल – का इसमें कोई भी जिक्र नहीं है. संविधान, पुलिस की जिम्मेदारी राज्य सरकारों को देता है. 2,780.88 करोड़ रुपये आवंटित करके, विद्रोह से लड़ने वाले राज्यों के पुलिस बलों की प्रतिपूर्ति के अलावा केंद्र सरकार केवल उन बलों के लिए जिम्मेदार है जो सीधे तौर पर इसके तहत काम करते हैं.

कहने को तो भारतीय पुलिस की कहानी ऑफ-बजट है लेकिन उसे बजट के केंद्र में होना चाहिए था. वर्षों से, विशेषज्ञों ने पुलिस के संबंध में केंद्र-राज्य संबंधों पर पुनर्विचार करने पर जोर दिया है. पुलिस को कैसे धन मुहैया कराना है और कैसे विनियमित किया जाना चाहिए, इस पर बहस करने का समय निकलता जा रहा है.


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साधारण दिखता है पर है नहीं

भले ही बजट 2023 में पुलिस के लिए पिछले साल की तुलना में थोड़ा ही पैसा बढ़ाया गया है – 1,29,627.52 करोड़ रुपये, जो कि वित्त वर्ष 2021-2022 के लिए 1,20,026.19 रुपये के संशोधित अनुमान से अधिक – और मोदी सरकार के ये कुछ कदम स्वागत योग्य हैं और इस बात के सबूत हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार की कुछ प्राथमिकताएं सही हैं. फोरेंसिक साइंस और अपराध विज्ञान फेसिलिटी, जिसे केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने विश्वसनीय जांच के लिए मूलभूत संस्था के रूप में पहचाना उसे 28.25 करोड़ रुपये आवंटित किए गए, जो पिछले वर्ष की तुलना में लगभग तीन गुना अधिक है. राज्यों को 250 करोड़ रुपये की तुलना में 700 करोड़ रुपये ज्यादा मिलेंगे.

पैसे की भारी कमी वाला इंटेलिजेंस ब्यूरो, जिसे वित्तवर्ष 2021-2022 में पूंजीगत व्यय के लिए सिर्फ 62.69 करोड़ रुपये और पिछले साल के संशोधित अनुमानों में 65.71 करोड़ रुपये मिले थे, उसके पास इस वित्तीय वर्ष में खर्च करने के लिए 255.06 करोड़ रुपये होंगे. राज्यों और केंद्र के बीच डेटाबेस को जोड़ने वाले नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड की भी फंडिंग में काफी बढ़ोत्तरी की गई है.

आंतरिक सुरक्षा के साथ-साथ और भी बहुत कुछ करने की जरूरत है, हालांकि, यह जितना साधारण दिखता है उतना है नहीं.

पुलिस अनुसंधान और विकास ब्यूरो (बीपीआरडी) द्वारा पिछले साल प्रकाशित सबसे हालिया उपलब्ध आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि नकदी की तंगी वाली राज्य सरकारें पुलिस के लिए नकदी देने में सक्षम नहीं हैं. 26/11 के घातक मुंबई हमले वाले साल में, जिसने आंतरिक सुरक्षा के प्रति सरकार के दृष्टिकोण को बदलने का दावा किया था, राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने अपने पुलिस बलों पर 26,269.09 करोड़ रुपये या अपने बजट का 3.88 प्रतिशत खर्च किया. पिछले साल, अनुपात मामूली रूप से बढ़कर 4.13 प्रतिशत हो गया था – और अगर करीब से इसकी जांच की जाए तो संख्या और भी निराशाजनक है.

विद्वान पॉल स्टैनिलैंड ने कहा- मुंबई पर हमला करने वाले लश्कर-ए-तैयबा के डेथ स्क्वॉड का मुकाबला “कम स्टाफ, कम प्रशिक्षित और तकनीकी रूप से पिछड़े” पुलिसवालों से हुआ. उस वर्ष, राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने पुलिसकर्मियों के प्रशिक्षण पर 413.36 करोड़ रुपये खर्च किए, जो कि पुलिस बजट के 26,269.09 करोड़ रुपये का लगभग 1.5 प्रतिशत है- और अधिकारियों ने सुधारों का संकल्प लिया.

2022 में, पुलिस प्रशिक्षण पर राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा खर्च किया गया पैसा 1,652.88 करोड़ रुपये था- इस उद्देश्य के लिए बजट में रखे गए 2,480.02 करोड़ रुपये का दो-तिहाई और सशस्त्र बलों पर होने वाले खर्च के एक प्रतिशत से भी कम है.

राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में पुलिस प्रशिक्षण पर खर्च वास्तव में कम हुआ है. राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा पुलिस के बजट में दिए गए धन को बार-बार खर्च न कर पाने का भी एक पैटर्न रहा है. राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने वित्तवर्ष 2020-2021 में आवंटित 1,78,338.47 करोड़ रुपये में से केवल 1,53,766.19 करोड़ रुपये और वित्त वर्ष 2021-2022 में 1,94,116.34 करोड़ रुपये में से 1,67,489.15 करोड़ रुपये खर्च किए.

भारत के सबसे खतरनाक माहौल में काम कर रही जम्मू-कश्मीर पुलिस ने पिछले साल प्रशिक्षण के लिए आवंटित 102.4 करोड़ रुपये में से महज 82 करोड़ रुपये ही खर्च किए. केंद्र शासित प्रदेश ने आधुनिकीकरण पर और भी खराब प्रदर्शन किया, 150 करोड़ रुपये के बजट में से सिर्फ 16.57 करोड़ रुपये खर्च किए.

अर्थशास्त्री रेणुका साने और नेहा सिन्हा ने कहा, यहां तक कि समृद्ध महाराष्ट्र में भी “पुलिस स्टेशनों को चलाने या कंप्यूटर सिस्टम, हथियारों और गोला-बारूद के रखरखाव के खर्चों के लिए बमुश्किल धन आवंटित किया जाता है”. भारत में कहीं और, कम बजट की वजह से पुलिस को ईंधन और गोला-बारूद जैसी आवश्यक चीजों में कटौती करने के लिए मजबूर होना पड़ा है. इस तरह की कमी की वजह से अपराध को जड़ पकड़ने में मदद मिलती है.

समस्या बड़ी है

दिल्ली पुलिस को पूंजीगत व्यय के लिए 1,019.92 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं, जो सीमा सुरक्षा बल को मिलने वाले- 555.77 करोड़ – से लगभग दोगुना है, और महत्वपूर्ण भारत-तिब्बत सीमा पुलिस की तुलना में पांच गुना अधिक है, जिसे 174.61 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं. प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए गठित स्पेशल प्रोटेक्शन फोर्स को पूंजीगत व्यय के लिए 77 करोड़ रुपये मिले हैं.

राज्यों की एक मुख्य परेशानी यह भी है कि वे वेतन पर बहुत अधिक खर्च कर रहे हैं और मूलभूत क्षमता को बढ़ाने पर या इन्फ्रास्ट्रक्चर पर पर्याप्त नहीं खर्च कर रहे— जो कि केंद्रीय बलों को भी प्रभावित करती हैं. इस वित्तीय वर्ष में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल, कोर नेशनल पुलिस फोर्स, वेतन पर 31,154.09 करोड़ रुपये खर्च करेगी. हालांकि, फोर्स के पास पूंजीगत व्यय के लिए केवल 618.14 करोड़ रुपये होंगे.

सीमा-पार उग्रवाद और हिंसा का सामना करते हुए, जिसने राज्य पुलिस को पूरी तरह से पस्त कर दिया, आजादी के बाद के शुरुआती वर्षों से केंद्र सरकार, केंद्रीय बलों पर निर्भर रही. बीपीआरडी डेटा दिखाता है कि केंद्रीय पुलिस संगठनों की संख्या में लगातार वृद्धि हुई है. छत्तीसगढ़ से कश्मीर तक, हालांकि, केंद्रीय पुलिस बलों ने संघर्ष किया है – जबकि, स्थानीय बलों के पास बेहतर स्थानीय जानकारी और सामाजिक स्वीकार्यता है.

आंतरिक सुरक्षा के योजनाकारों के लिए, केंद्रीय पुलिस की संख्या में कटौती कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि राज्य पुलिस बल पहले से ही अपनी संख्या में आवश्यकता से काफी कम है. बीपीआरडी ने कहा कि राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों ने भारत की 1.2 अरब आबादी में से प्रत्येक 1,00,000 पर 192 पुलिस अधिकारी प्रदान करने का बजट रखा है. हालांकि, वित्तीय बाधाओं का मतलब है कि प्रति 1,00,000 लोगों पर 150.8 पुलिस अधिकारी ही हो पाएंगे, जो संयुक्त राष्ट्र के 250 के मानक से काफी नीचे हैं.

तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने 2010 में इस संख्या पर चिंता जताई थी, जो प्रति 1,00,000 पर लगभग 160 थी, और जो आज भी वैसी ही है. तेलंगाना, जहां माओवादी उग्रवाद बार-बार उभरा है, प्रति 1,00,000 लोगों पर 218 पुलिस होनी चाहिए. लेकिन बीपीआरडी के मुताबिक वहां प्रति लाख सिर्फ 131 पुलिसवाले हैं जबकि प्रति लाख 185 होना चाहिए. बिहार में सिर्फ 73 पुलिसकर्मी प्रति 1,00,000 है.

प्रभावी पुलिस बलों की कमी की वजह से भारत को कई दुष्परिणाम झेलने पड़े हैं. आभिजात्य वर्ग से लेकर क्रिमिनल्स तक स्थानीय नेता काफी प्रभावशाली हैं. जिसकी वजह से कानून के शासन के आधार पर नीति निर्माण को कमजोर किया है. कमजोर पुलिस बल अक्सर राज्य के अधिकार को लागू कराने के लिए क्रूरता का सहारा लेते हैं.

दशकों से, नई दिल्ली ने देश के सामने मौजूद कई संकटों को दूर करने के लिए केंद्रीय पुलिस बलों—और सेना— का सहारा लिया है. कानून-व्यवस्था के मामले में मौजूदा मॉडल ने व्यवस्था तो बनाई है लेकिन कानून को सुनिश्चित नहीं कर पाया है.

प्रवीण स्वामी दिप्रिंट के राष्ट्रीय सुरक्षा संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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