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Friday, 29 March, 2024
होममत-विमतसिंधिया को सिर्फ सत्ता हासिल करने के लिए भाजपा में नहीं लाया गया, शिवराज सिंह पर लगाम लगाना बड़ा कारण था

सिंधिया को सिर्फ सत्ता हासिल करने के लिए भाजपा में नहीं लाया गया, शिवराज सिंह पर लगाम लगाना बड़ा कारण था

मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान को अब ज्योतिरादित्य सिंधिया का ख्याल रखते हुए भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के मूड को भी पढ़ते रहना पड़ेगा. 

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‘टाइगर अभी ज़िंदा है’- ज्योतिरादित्य सिंधिया का यह ऐलान चाहे जितना बेमानी लगता हो, इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि एक भाजपा नेता के तौर पर वे मध्य प्रदेश में मजबूत होकर उभरे हैं. यह और बात है कि कई लोग यह उम्मीद कर रहे थे कि कांग्रेस या दूसरे दलों से भाजपा में आए दूसरे नेताओं की तरह वे भी नई पार्टी में हाशिये पर डाल दिए जाएंगे.

वे मुख्यमंत्री की गद्दी पर भले न हों, राज्य की राजनीति में वे पहले के मुकाबले (जब वे कांग्रेस में थे) अब अपना दबदबा ज्यादा जता रहे हैं. जिन कांग्रेसजनों ने उन पर भरोसा करते हुए कमलनाथ की कांग्रेस सरकार को धक्का दे दिया था, उन्हें भी काफी पुरस्कृत किया जा चुका है. लेकिन यह मान लेना भी गलत होगा कि सिंधिया को उनकी राजनीतिक अहमियत के मुताबिक सब कुछ हासिल हो रहा है. जरा ध्यान से देखिए तो आप समझ जाएंगे कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने किस तरह शिवराज सिंह चौहान पर अंकुश लगाए रखने के लिए ‘ग्वालियर के महाराजा’ को कांग्रेस से तोड़कर भाजपा में शामिल किया. यह कहानी 2013 में ही शुरू हो गई थी.

भाजपा में सिंधिया के मंसूबे

कांग्रेस से सिंधिया की विदाई पार्टी के अंदर पुराने और नये नेताओं के बीच की तनातनी का नतीजा थी. कमलनाथ और दिग्विजय सिंह से उनकी अहम् की टक्कर थी. इन दोनों को नीचा दिखाने के लिए वे उम्मीद कर रहे थे कि गांधी परिवार उन्हें राज्य की राजनीति में उनसे ज्यादा अहमियत हासिल करने में मदद देगा. लेकिन प्रदेश में कांग्रेस नाथ और सिंह की वजह से सत्ता में लौटी थी इसलिए गांधी परिवार सिंधिया की ख़्वाहिश पूरी नहीं कर सकता था.

सिंधिया का ‘टाइगर अभी ज़िंदा है’ वाला युद्धघोष कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के लिए ही है. इस शाही प्रतिशोध के लिए सिंधिया को भाजपा की जितनी जरूरत थी उस राजनीतिक सौदे का केवल आधा ही पूरा हुआ है. बाकी आधे हिस्से के मुताबिक भाजपा को शिवराज का कद छोटा करने के लिए सिंधिया की जरूरत है. प्रदेश के मंत्रिमंडल में अब सिंधिया के वफादारों को वर्चस्व दिला कर शिवराज के पर तो कतर ही दिए गए हैं. शिवराज के पिछले कार्यकालों में उनके ही वफादारों का बोलबाला रहा था. कोरोना संकट के दौरान बिना मंत्रिमंडल के शिवराज को इस तरह सकते में डाल दिया गया था कि उन्हें अकेले ही कई मंत्रालयों का काम देखना पड़ा. जाहिर है, नाकामियों के लिए उन्हें ही जवाबदेह ठहराया जाएगा. इससे सिंधिया ही अगले विकल्प के रूप में उभरे.


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शिवराज का घटता कद

प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने पार्टी पर अपनी पकड़ और मजबूत की है. 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले और मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने से पहले शिवराज को उनका प्रतिद्वंदी माना जा रहा था. लालकृष्ण आडवाणी के बेहद करीबी माने जाने वाले शिवराज को भाजपा के बड़े, ताकतवर नेताओं का भी समर्थन हासिल था. इस बीच आडवाणी को लगभग राजनीतिक संन्यास देकर ‘मार्गदर्शक मंडल’ में पहुंचा दिया गया है. लेकिन कॉर्पोरेट घरानों के समर्थन, चुनाव की भारी फंडिंग और आरएसएस में अपने दबदबे के बूते मोदी ने शिवराज को ऊंची गद्दी की उम्मीदवारी की दौड़ में पछाड़ दिया.

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मध्य प्रदेश में भाजपा 15 साल तक राज्य पर राज करने के बाद भी 2018 का विधानसभा चुनाव हार गई तो शिवराज की स्थिति और कमजोर हो गई. 13 साल तक मुख्यमंत्री रहे शिवराज सरकार विरोधी भावना के निशाने पर आ गए थे और नतीजे आने से पहले ही ‘मामाजी’ के विकल्पों के बारे में सोच-विचार शुरू हो गया था. विकल्प के रूप में इन नामों की चर्चा थी— भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कैलाश विजयवर्गीय, केंद्रीय मंत्री थावर चंद गहलोत और नरेंद्र सिंह तोमर, प्रदेश विधानसभा में विपक्ष के नेता गोपाल भार्गव या विधायक दल के मुख्य सचेतक नरोत्तम मिश्रा. लेकिन राज्य में वर्षों तक सत्ता की कुंजी अपने हाथ में रखने का ही फल था कि शिवराज तीन महीने बाद फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल करने में सफल रहे.

उन्हें 2019 के लोकसभा चुनाव में भी उपेक्षा का सामना करना पड़ा, जब उनकी सिफारिश वाले उम्मीदवारों पर विचार तक नहीं किया गया. उनकी पत्नी तक को विदिशा लोकसभा सीट के लिए टिकट नहीं दिया गया जबकि शिवराज उन्हें वहां से चुनाव लड़ाना चाहते थे. राज्यसभा सदस्य और भाजपा नेता रघुनंदन शर्मा ने यहां तक बयान दे दिया कि शिवराज को न तो खुद चुनाव लड़ना चाहिए और न ही लोकसभा चुनाव के उम्मीदवारों के बारे में फैसला करना चाहिए.


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अब उपचुनाव का आसरा

ऐसा लगता है कि शिवराज को विधानसभा की 24 सीटों पर आगामी उपचुनाव के मद्देनज़र ही मुख्यमंत्री पद पर बनाए रखा गया है. भाजपा इन 24 सीटों पर कोई जोखिम मोल नहीं ले सकती. अगर वह इनमें से 15 सीटें भी जीत जाती है तो भी उसे विधानसभा में स्पष्ट बहुमत नहीं मिल पाएगा. 24 सीटों के लिए एक साथ उपचुनाव अभूतपूर्व ही है. और आश्चर्य नहीं कि हम वहां मध्यावधि चुनाव होता देखें.

बहरहाल, इन 24 में से 16 सीटें ‘सिंधिया बेल्ट’ में हैं. भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व की नज़र इस पर होगी कि उसने सिंधिया के रूप में जो नया हथियार हासिल किया है वह कितना कारगर होता है, राज्य में उसकी सरकार को कितनी मजबूती देता है और साथ-ही-साथ शिवराज को क्या संकेत देता है.

जमीन पर अपनी पकड़ और प्रदेश में गहरी जड़ें रखने वाले शिवराज ‘मामाजी’ आरएसएस से अपनी करीबी के बूते उपचुनावों में भाजपा को बेशक फायदा ही दिलाएंगे. अगर विधानसभा भंग कर दी गई तो शिवराज की मौजूदगी भाजपा को चुनाव जितवा सकती है, खासकर इस तथ्य के मद्देनज़र कि 2018 का चुनाव वह बेहद कम अंतर से हारी थी.

इसके अलावा, मुस्लिम और ओबीसी वोटों का भी मामला है. शिवराज खुद ओबीसी पृष्ठभूमि से हैं जो उन्हें प्रदेश के पिछड़ों के बीच पैठ बनाने में मददगार है. और जहां तक मुस्लिम वोटों की बात है उनके बीच शिवराज की लोकप्रियता का अंदाजा 2013 के विधानसभा चुनाव से लगाया जा सकता है. भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और राज्य सभा सदस्य प्रभात झा का कहना है कि तब भी 70 फीसदी मुसलमानों ने उन्हें वोट दिया था. राज्य की प्रमुख मुस्लिम हस्ती, इंदौर के काज़ी अब्दुल रहमान फारूकी सरीखे लोग कह चुके हैं कि अगर मोदी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर न पेश किया जाता तो 2013 के विधानसभा चुनाव में मुसलमानों ने शिवराज को एकमुश्त वोट दिया होता. यह भावना पूरे प्रदेश में देखी जाती है.

मुसलमान उन्हें एक सेकुलर नेता के रूप में देखते हैं क्योंकि उन्होंने अल्पसंख्यक समुदाय के कल्याण के कई कार्यक्रम शुरू किए. मसलन ‘मुख्यमंत्री कन्यादान योजना’ या हाजी हाउस की नींव डालना या उर्दू विश्वविद्यालय के लिए ज़मीन का आवंटन. अब अगर फिर से चुनाव हुए तो शिवराज ही अकेले ऐसे मुख्य भाजपा नेता हैं जो मुस्लिम-बहुल चुनाव क्षेत्रों में भाजपा की अगुआई कर सकते हैं.


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शिवराज को अमित शाह का उपहार

जाहिर है मोदी और शाह मध्य प्रदेश में नेतृत्व की दूसरी पंक्ति को तैयार करने में जुटे हैं. वे नहीं चाहते कि शिवराज राष्ट्रीय राजनीति में अपने कदम रखें और वे यह भी नहीं चाहते कि दूसरा चेहरा सामने न होने के कारण प्रदेश उनके हाथ से निकलकर कांग्रेस के हाथ में चला जाए.

दरअसल, वे शिवराज का कद इसलिए छोटा करना चाहते हैं कि 13 साल तक मुख्यमंत्री की गद्दी संभालने के बाद कौन नहीं चाहेगा कि राष्ट्रीय मंच के लिए वह अपनी महत्वाकांक्षाएं पूरी करे. नरेंद्र मोदी ने तो इसे हासिल करके दिखाया ही है. शिवराज को ऐसी महत्वाकांक्षा पालने से हतोत्साहित करने के लिए वे प्रदेश में एक नये सितारे— युवा और लोकप्रिय ग्वालियर के महाराजा को परवान चढ़ा रहे हैं. शिवराज को अब प्रदेश में भाजपा के इस नये सितारे का निरंतर ख्याल रखना पड़ेगा. शिवराज के लिए अमित शाह का यही उपहार है.

(लेखिका एक राजनीतिक पर्यवेक्षक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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1 टिप्पणी

  1. Sir ji itani gahri bat likhne ke liy .bahut yes nasha karna hota hai……Kon sa bala karte ho aap.jo aisi bakwass ko likne ka man b karta. Hai

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