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Tuesday, 25 March, 2025
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बलूचिस्तान में ट्रेन हाइजैक पाकिस्तानी फौज के लिए अच्छी खबर, इस बहाने वह दबाव बढ़ा सकती है

हाल के वर्षों में बलूचिस्तान में कई नए लोकतांत्रिक आंदोलन हुए हैं. पाकिस्तानी सेना यह तो नहीं चाहेगी कि कोई नई बगावत फूटे. हालांकि, अपनी ताकत को चुनौती दिए जाने की जगह वह इसे ही पसंद करेगी.

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जिन शब्दों ने कलत के मीर खुदादाद खान की हुकूमत का खात्मा कर दिया वह तलवार से भी धारदार निब वाली कलम और अंग्रेज़ी मूल्यों की स्याही से लिखे गए थे. अंग्रेज़ी साम्राज्य का ज़मीर इस बात को माफ नहीं कर सका कि देसी हुक्मरान ने अपने महल से महज़ 8,5000 रुपये की चोरी के आरोप में अपने दो गुलामों का बधिया कर दिया था, तीसरे की हत्या पत्थरों से मार-मार कर दी थी, पांच औरतों के सिर कलम कर दिए थे. इस घटना से 15 साल पहले, 1877 में खुदादाद ने ब्रिटिश वायसराय रॉबर्ट बुल्वर-लिट्टन से गुजारिश की थी कि उसे एक आज़ाद सूबे के शासक के रूप में नहीं बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा प्राप्त एक हिंदुस्तानी ‘सरदार’ के रूप में मान्यता दी जाए. तभी उसे यह सबक सिखा दिया गया था कि वह साम्राज्य का दोस्त नहीं बल्कि महज़ एक जागीरदार है.

बुधवार की सुबह करीब 350 रेलयात्री और सुरक्षाबल के 200 से ज्यादा सैनिक बोलन दर्रे के पास पेहरो कुनरी के बदहाल रेलवे स्टेशन पर बंधक बने पड़े थे. उन्हें बलूच लिबरेशन आर्मी (बीएलए) की मजीद ब्रिगेड ने कैदी बना रखा है. इस ब्रिगेड ने मंगलवार को जफर एक्सप्रेस पर हमला बोला था. आशंका है कि दर्जनों लोगों को मार डाला गया है. चश्मदीदों ने मीडिया को बताया कि जब-तब गोलियां चलती रही हैं, लेकिन कोई विस्तृत खबर नहीं मिली है.

खुदादाद को जब देशनिकाला दिया गया था तब वह इसी जफर एक्सप्रेस से लोरालाई पहुंचा था. इतिहासकार सरदार खान बलूच की शिकायत है कि “खुदादाद एक सरकार का गठन करने के लिए ज़िंदगी भर लड़ता रहा, लेकिन महमूद खान-2 ने सरकार के लिए ताबूत तैयार किया. और मौजूदा खान अहमद यार ने अपने खानदान की सारी आन-बान दफन कर दी.”

बीएलए की हिंसक लड़ाई उस दुखद इतिहास को बदल देना चाहती है जिसने इस क्षेत्र के कबीलों की आज़ादी ब्रिटिश साम्राज्य तथा वह जिस राष्ट्र-राज्य का प्रतिनिधित्व करता था उसके हाथों में सौंप दी थी. आर्थिक अन्याय, पंजाब तथा दूसरे इलाकों से बड़े पैमाने पर प्रवासियों के आगमन, और अफगानिस्तान में अमेरिका द्वारा छोड़े गए हथियारों तक पहुंच आदि ने बलूचियों की पांचवीं बगावत को तेज़ करने में मदद दी. यह बगावत 2004 से सुलग रही है.

लेकिन पाकिस्तान के फौजी महकमे के लिए यह अच्छी खबर है. हिंसा सरकार को बदलाव की मांग करने वाले सही लोकतांत्रिक आंदोलनों की उपेक्षा करने और कुचलने का बहाना जुटाती है. बलूचिस्तान में यह आंदोलन ‘बलूच यक्जेहती कमिटी’ (बीवाईसी) के नेता डॉ. महरंग बलूच जैसी हस्तियों के नेतृत्व में चल रहा है. गैर-कानूनी हत्याओं और लोगों के जबरन लापता हो जाने की घटनाओं के खिलाफ बीवाईसी की मुहिम ने सूबे के उभरते मध्यवर्ग को अपने अधिकारों की दावेदारी करने की नई भाषा दे दी है. हालांकि, पैसे की तंगी से जूझ रही फौज एक और लंबी बगावत का स्वागत नहीं करेगी, लेकिन यह उसकी सत्ता को जनता की ओर से मिलने वाली सियासी चुनौती से तो बेहतर ही होगी.


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असुविधाजनक अधिग्रहण

पाकिस्तान की रणनीतिक कल्पना में बलूचिस्तान को क्या विशेष स्थिति हासिल है इसे समझने के लिए इसकी दूरदराज़ की सीमाओं पर शाही संप्रभुता के कमज़ोर स्वरूप को ध्यान में रखना होगा. इतिहासकार टी.ए. हीथकोट ने लिखा है कि लगभग पूरी 19वीं सदी में ब्रिटिश नीति अफगानिस्तान की ओर से रूसी हमले की आशंका और बोलन दर्रे के मद्देनज़र आकार लेती रही, लेकिन अंग्रेज़ी हुकूमत संसाधन के मामले में गरीब इस क्षेत्र में गैरिसन स्थापित करने की बड़ी लागत का बोझ उठाने को तैयार नहीं थी. इसलिए उसके अफसरों ने अपने मकसद में कबीलों के सरदारों का सहयोग हासिल करने के लिए उन्हें रिझाने और घूस देने का रास्ता अपनाया.

अब दोनों पक्षों के बीच मुठभेड़ यही दर्शाती है कि बलूच कोई भोलेभाले नहीं हैं.

एक सरदार ने मेजर जनरल चार्ल्स मैकग्रेगर से पूछा था : “घड़ी! घड़ी की क्या खासियत है?”

“मैंने जवाब दिया — ‘यह वह समय बताती है कि कब इबादत करनी है’. वह बोला : ‘घड़ी के बिना भी हर किसी को मालूम होता है कि कब खाना खाना है, कब इबादत करनी है. इसलिए मुझे तो यही लगता है कि आपकी ताबेदारी करने के सिवा इसका कोई इस्तेमाल नहीं है’.”

कबायली ने निष्कर्ष निकाला : “हरेक के लिए दो रुपये बेहतर हैं.”

ब्रिटेन जब भारत छोड़ने वाला था तब कलत के खान, मीर अहमद यार खान ने ऐसी सौदेबाजी की कोशिश की कि उसकी गद्दी बनी रहे. इतिहासकार दुष्का सईदी ने कहा कि समस्या यह थी कि तीन अलग-अलग बलूचिस्तान थे : एक, अफगान सीमा के आसपास का क्षेत्र जो अंग्रेज़ों के कब्ज़े में था; दूसरा वह क्षेत्र जिसे 1884 में कलत के खान ने जिसके जिलों पर कब्ज़ा किया था और पट्टे पर दिया था और तीसरा, कबीलों के सरदारों के अधीन के क्षेत्र. वापस लौट रहे साम्राज्य की स्पष्ट मान्यता थी कि कलत कोई संप्रभु क्षेत्र नहीं है.

कलत की सबसे महत्वपूर्ण लास बेला, खरान, मकरान जैसी जागीरों ने इस अपुष्ट अफवाह पर अलग रास्ता पकड़ लिया कि यार खान भारत में शामिल होने पर विचार कर रहा है, लेकिन पाकिस्तान में शामिल होने का वादा करने के बावजूद वह विलय के दस्तावेज़ पर दस्तखत करने से पीछे हट गया. अपने भाई, हथियारबंद लश्कर के नेतृत्व में उसने लड़ाई छेड़ने की भी धमकी दी.

इसके बाद 1955 में बांग्ला राष्ट्रवाद से मुकाबले की कोशिश में बलूचिस्तान स्टेट्स यूनियन (बीएसयू) पश्चिम पाकिस्तान में शामिल हो गया, लेकिन अब यह डर फैल गया कि पाकिस्तान में बाहर से आकर बसे पढ़े-लिखे लोग उन पर हावी हो जाएंगे. तो, बलूच सरदार अब स्वायत्तता की मांग करने लगे, लेकिन एकजुट मोर्चा न बना पाए.

जनरल अयूब खान ने 1958 में जो तख्तापलट किया उसके बाद राजनीतिक वार्ता के दरवाजे बंद हो गए और यार खान को जेल में डाल दिया गया. अब ब्रिटिश हुकूमत से बगावत करने वाले विख्यात बागी, ज़ाराक्ज़ई के नौरोज़ खान ने पाकिस्तान के खिलाफ हथियार उठा लिए, लेकिन करीब 1000 लड़ाकों का पुराना समूह अलग होने में कामयाब नहीं हो पाया. बाद में नौरोज़ खान के बेटे समेत इस समूह के पांच बागियों को फांसी दे दी गई.

अटूट बगावत

अपने पूर्ववर्तियों की तरह प्रधानमंत्री ज़ुल्फिकार अली भुट्टो भी बांग्लादेश से मिले सबक के बावजूद, बलूच स्वायत्तता को कोई तवज्जो न देने का निश्चय कर चुके थे. युद्ध के बाद बलूचिस्तान में जो चुनाव हुए उसमें नेशनल अवामी पार्टी (एनएपी) जीत गई और उसने वहां की सिविल सेवा से पंजाबियों को निकाल बाहर करके और अपनी अलग स्थानीय पुलिस का गठन करके भुट्टो को नाराज़ कर दिया. एनएपी की सरकार को देशद्रोह के आरोप में बर्खास्त कर दिया गया, जिसके बाद लड़ाई छिड़ गई जिसमें 3,300 सैनिक और 5,300 बागी मारे गए.

सितंबर 1974 में पाकिस्तानी फौज ने ईरान से मिले एएच-1 हेलिकॉप्टर से चामलांग घाटी के चारागाहों में बलूचियों की तंबुओं की बस्ती पर गोलाबारी करके उन्हें नष्ट कर दिया. जैसी कि उम्मीद थी, इसके बाद पहाड़ों में छिपे बागी अपने परिवारों की रक्षा के लिए बाहर निकल आए. उनके हथियार खत्म हो गए तो वे अपनी बस्तियों से भागने को मजबूर हो गए और उनके सैनिक पहाड़ों में अपने अड्डों की ओर लौट गए. इतिहासकर रिजवान ज़ेब ने लिखा है कि चामलांग की लड़ाई ने मर्री के क़बायली इलाके में बगावत को कुचल दिया.

1975 के आखिरी दिनों में, बलूच पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट के नेता मीर हज़र रमखानी बचे-खुचे बागियों को लेकर सीमा पार अफगानिस्तान चले गए और कंधार तथा कलत गिलजईमें अपने अड्डे बनाए. इन अड्डों ने सीमा से सटे तीन अड्डों से कार्रवाई कर रहे बागियों को मदद पहुंचाने का काम किया.

लड़ाई के दौरान ही पाकिस्तान सरकार ने बलूचिस्तान के क़बायली सरदार अकबर खान बुगटी को सूबे का गवर्नर नियुक्त कर दिया, हालांकि बाद में वे बागियों का नेतृत्व करते हुए मारे गए. सेना के इंजीनियरों को भेजकर कोहलू से माइवांद और चेल से कहान तक सड़कों का जाल बिछाया गया. सड़कों के कारण उस इलाके में आधुनिक शिक्षा तथा स्वास्थ्य सेवाओं की शुरुआत हुई.

लोकतांत्रिक आंदोलनों की हत्या

बलूचियों की राजनीतिक मांगों की उपेक्षा के कारण 2005 में विस्फोट हो गया. यह तब फूट पड़ा जब जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने कथित तौर पर एक स्थानीय डॉक्टर का बलात्कार करने वाले एक फौजी पर मुकदमा चलाने से इनकार कर दिया. 1973 में राष्ट्रवादी बागियों से मुक़ाबला करने वाले नवाब अकबर खान बुगटी के प्रति वफादार बागियों ने इस इनकार के जवाब में सुइ गैसफील्ड पर हमला कर दिया. यही नहीं, उन्होंने सूबे में फैले दर्जनों फौजी चौकियों पर कब्जा कर लिया. जनरल मुशर्रफ ने इसके जवाब में चेतावनी दी : “हमें मजबूर मत करो. यह 1970 वाला जमाना नहीं है कि तुम हमला करके भाग जाओगे और पहाड़ों में छिप जाओगे.”

इसके बाद हुई लड़ाई में बुगटी मारे गए लेकिन बलूच बगावत और तेज हो गई. इसके नये नेताओं में सबसे प्रमुख थे तकरी मोहम्मद असलम. 1975 में जन्मे असलम पढ़े-लिखे, शहरी युवा बलूचों की नयी पीढ़ी में से उभरे. ये युवा बालूच इस इलाके के पारंपरिक क़बायली ढांचे से अलग दिखते हैं. अपनी पीढ़ी के कई लोगों की तरह असलम भी अपने इलाके में पंजाबी प्रवासियों से काफी नाराज थे क्योंकि माना जाता है कि इन पंजाबियों ने आर्थिक अवसरों और उपजाऊ जमीन पर कब्जा कर लिया था.

अपनी जवानी के दिनों में असलम बलूच राष्ट्रवादी जमातों से जुड़े. बाद में वे प्रमुख वामपंथी बलूच नेता खैर बख्श मर्री की गोष्ठियों में जाने लगे. मर्री दो दशक तक देशनिकाला झेलने के बाद 1994 में पाकिस्तान लौटे थे.

पत्रकार नज़म सेठी का कहना है कि “बलूचिस्तान के पुराने गैर-मजहबी क़बायली नेतृत्व और नये सेकुलर शहरी मध्यवर्ग को भी नये फौजी-मुल्ला गठजोड़ में अपने लिए कोई आर्थिक या राजनीतिक गुंजाइश नहीं नजर आई.”

2000 के आसपास असलम बीएलए में शामिल हो गए और बोलन में उसके पहले ट्रेनिंग अड्डे की कमान संभाली. माना जाता है कि बीएलए में कई सौ स्वयंसेवक शामिल हुए, जिनमें असलम के बेटे रेहान भी थे, जो 2018 में चीनी इंजीनियरों पर हमले के दौरान मारे गए. लेकिन यह संगठन लगातार बागी मुहिम चलाने में अक्षम साबित हुआ. 2006 में असलम बाकी बचे बीएलए को लेकर सीमा पार पाकिस्तान में चले गए.

पाकिस्तान लंबे समय से आरोप लगाता रहा है कि अफगानिस्तान की खुफिया एजेंसियां बीएलए के नेताओं की मदद करती रही हैं. ऐसा वे पाकिस्तान द्वारा तालिबान को बढ़ावा दिए जाने और भारत की एजेंसी रॉ की शाखा के विरोध में करती रही हैं. 2016 में, घायल हुए असलम का इलाज नयी दिल्ली के साकेत में मैक्स अस्पताल में किया गया.

काबुल में तालिबान की जीत के बाद दक्षिण अफगानिस्तान में बीएलए का सुरक्षित अड्डा टूट गया और कई लोग यह मानने लगे कि यह बागी गुट अब इतिहास के पन्नों में ही दर्ज होकर रह जाएगा. लेकिन घटनाएं अलग कहानी बयान करती हैं.

ट्रेन पर हुए आतंकवादी हमले को पाकिस्तानी सेना फौजी दबाव बढ़ाने के मौके के रूप में देख सकती है. शोधार्थी फ़र्जाना शेख का मानना है कि इस बात कोई गारंटी नहीं है कि पाकिस्तानी सेना बीएलए को नष्ट कर सकती है, लेकिन अपने पंजाब में अपनी घटती राजनीतिक वैधता, और खैबर पख्तूनख्वा और बलूचिस्तान में उभरते नये राजनीतिक आंदोलनों से परेशान फौजी जनरलों के लिए अब कोई उपाय नहीं बचा है.

बलूच आकांक्षाओं और उम्मीदों को तरजीह देने वाला राजनीतिक रास्ता ही एक भिन्न और लोकतांत्रिक पाकिस्तान के निर्माण का रास्ता साबित हो सकता है. लेकिन फौजी जनरलों और उनके सियासी मुरीदों को यह तो पता ही होगा कि वह एक ऐसा पाकिस्तान होगा जिसमें उनके लिए कोई जगह नहीं होगी.

(प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कॉन्ट्रीब्यूटर एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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