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Tuesday, 15 October, 2024
होममत-विमतअयोध्या पर फैसले की नहीं, बल्कि मुझे बाबरी से लेकर दादरी तक के दोषियों को दंड नहीं मिलने की चिंता है

अयोध्या पर फैसले की नहीं, बल्कि मुझे बाबरी से लेकर दादरी तक के दोषियों को दंड नहीं मिलने की चिंता है

27 साल बाद, लालकृष्ण आडवाणी की अगुआई वाली कुख्यात रथ यात्रा की वजह से शुरू हुए खून-खराबे के लिए शायद ही किसी को दंडित किया गया है.

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मैं बमुश्किल पांच वर्ष का था जब एक उन्मादी भीड़ ने बाबरी मस्जिद को धराशाई कर दिया था. अब जबकि देश अयोध्या के राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के अगले कुछ दिनों में संभावित फैसले का इंतजार कर रहा है, मुझे याद है कि कैसे हम एक शाम ब्लैक-एंड-व्हाइट टीवी के सामने बैठे थे और डीडी न्यूज के एंकर ने बिना किसी नाटकीयता के साथ गंभीर अंदाज में मस्जिद के विध्वंस की खबर दी थी. उस घटना के मुझ पांच साल के बच्चे पर पड़े मनोवैज्ञानिक असर तथा आसपास के बच्चों, युवाओं और बूजुर्गों के मुरझाए चेहरे की याद है मुझे.

आज मुझे अयोध्या विवाद पर फैसले की चिंता नहीं है, बल्कि मैं इसके संभावित परिणामों को लेकर चिंतित हूं. खास कर इसलिए क्योंकि अदालत के आने वाले फैसले पर हो रहे शोरगुल ने अयोध्या आंदोलन के बाद हुए खून-खराबे पर बनी खामोशी को दबा दिया है.

दिन-प्रतिदिन हिंसा का खतरा

एक बच्चे के रूप में मेरी प्रतिक्रिया अलग तरह की थी. मैंने अपनी ड्राइंग बुक में कागज के एक टुकड़े पर इस हमले पर अपनी सहज प्रतिक्रिया अंकित की थी. हमने तीन मस्जिदों की बचकानी ड्राइंग बनाई थी– एक दुरुस्त मस्जिद, एक ध्वस्त मस्जिद और एक पुनर्निर्मित मस्जिद. यह न्याय के नितांत अपरिपक्व भाव वाले एक बच्चे की मांग थी.

डेढ़ दशक बाद, एक वामपंथी कार्यकर्ता के रूप में मैंने वही मांग उठाई थी. जो पांच साल के एक बच्चे की भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं बल्कि एक कहीं अधिक सुविचारित राय थी– भारत के लोगों को भारत के संविधान द्वारा किए गए वादे और करार के बारे में.

लेकिन, आज मेरी चिंताएं हिंसा और दिन-प्रतिदिन हिंसा के खतरे के लोगों पर पड़ने वाले असर पर आधारित हैं. ये उन्हें अपने संवैधानिक अधिकारों से मुंह मोड़ने और एक अन्यायपूर्ण शांति को कबूल करने के लिए बाध्य करता है.

मुझे बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद के उन उन्माद भरे दिनों और महीनों की याद है, जब हमारे गणतंत्र को अनगिनत ज़ख्म दिए गए थे. देश के विभिन्न हिस्सों से दंगों, हिंसा और कर्फ्यू की खबरें आ रही थीं. अफवाहों और तथ्यों में भेद करना मुश्किल हो रहा था. मुंबई से आने वाली खबरें विशेष रूप से परेशान करने वाली थीं.


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27 साल बाद, लालकृष्ण आडवाणी की अगुआई वाली कुख्यात रथ यात्रा की वजह से शुरू हुए खून-खराबे के लिए शायद ही किसी को दंडित किया गया है. वास्तव में, उस दौर में हुई मौतों और कानून के शासन की दुर्दशा को बड़ी सहूलियत से जनचेतना से मिटा दिया गया है. चर्चा अब सिर्फ भूमि विवाद की हो रही है.

सजा में पक्षपात?

यह विस्मृति सांप्रदायिक हिंसा करने तथा निरंतर विभाजन और ध्रुवीकरण करने में मशगूल लोगों को बचाने के लिए चालाकी से निर्मित व्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा है. न्याय का विचार लोकतंत्र के विचार के केंद्र में होता है और इसलिए ये आवश्यक है कि अन्याय की हमारी यादों को लोप नहीं होने दिया जाए.

मस्जिद गिराए जाने के 10 दिन बाद ही गठित लिब्रहान आयोग ने जब आखिरकार 17 साल बाद अपनी रिपोर्ट दी तो उसने लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती और कल्याण सिंह जैसे भाजपा के शीर्ष नेताओं को हिंसा भड़काने और घृणा फैलाने का दोषी बताया. रिपोर्ट में आरएसएस, बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद के नाम गिनाए गए थे. ये बेहद उल्लेखनीय है कि जब जांच आयोग का गठन किया गया था, तो उससे समयबद्ध जांच कर तीन महीने के भीतर रिपोर्ट देने की अपेक्षा थी. इस देरी ने पूरी कवायद को निरर्थक और खोखला बना दिया और रिपोर्ट में दोषी ठहराए गए लोगों में से आज तक किसी को भी सजा नहीं मिली है.

आयोग की रिपोर्ट की वजह से कांग्रेस की अगुवाई वाले यूपीए को धर्मनिरपेक्षता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के बारे में खोखले दावे करने का मौका मिल गया. लेकिन इसके अलावा, आयोग के निष्कर्षों को लेकर कार्रवाई करने के लिए ना तो उसमें राजनीतिक इच्छाशक्ति थी और ना ही साहस. स्वतंत्र भारत के इतिहास में सर्वाधिक लंबे समय तक कार्यरत इस आयोग पर खर्च किए गए करोड़ों रुपए बेकार गए और न्याय प्रक्रिया मज़ाक बनकर रह गई.

बाबरी विध्वंस के बाद हुए मुंबई के रक्तरंजित दंगों की जांच के लिए गठित श्रीकृष्ण आयोग का भी यही हाल हुआ. मुंबई दंगे दिसंबर 1992 और जनवरी 1993 में दो चरणों में हुए थे और उनमें करीब 900 लोगों की जान गई थी. मरने वालों में 275 हिंदू और 575 मुसलमान थे. इसके अलावा 2,000 से अधिक लोग घायल हुए थे. समिति ने अपनी लगभग 25,000 पृष्ठों की रिपोर्ट में कहा कि जनवरी 1993 के दंगे दिसंबर के दंगों की तरह स्वत:स्फूर्त नहीं थे. जांच आयोग ने विस्तृत सबूतों के साथ बताया कि कैसे शिवसेना की देखरेख में दंगों की योजना बनाई गई और मुसलमानों को निशाना बनाया गया. इसने बाल ठाकरे, गजानन कीर्तिकर और मिलिंद वैद्य जैसे शिवसेना नेताओं तथा मधुकर सरपोतदार और गोपीनाथ मुंडे जैसे भाजपा नेताओं को दोषी ठहराया था.

श्रीकृष्ण आयोग का सबसे उल्लेखनीय निष्कर्ष मुसलमानों के खिलाफ पुलिस में ‘अंतर्निहित पक्षपात’ के बारे में था. आयोग ने 11 घटनाओं को सूचीबद्ध किया, जिनमें कुल 31 पुलिसकर्मी हत्या, आगजनी और लूट में सक्रिय रूप से शामिल पाए गए थे. इसमें कुख्यात सुलेमान बेकरी ऑपरेशन में नौ मुस्लिम लड़कों की नृशंस हत्या मामले में संयुक्त पुलिस आयुक्त आरडी त्यागी की संलिप्तता का भी उल्लेख था.

इस रिपोर्ट के साथ राज्य सरकार के सलूक की तुलना दंगों के बाद हुए मुंबई बम धमाकों के संबंध में उसकी सक्रियता से कर न्याय प्रणाली में सांप्रदायिक पूर्वाग्रह को समझा जा सकता है.


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मुंबई धमाकों से संबंधित कानूनी प्रक्रिया टाडा अदालत के तहत हुई, जिसमें 100 लोगों को दोषी ठहराया गया, उनमें से मौत की सज़ा पाए एक आरोपी को मृत्युदंड दिया भी जा चुका है. दूसरी ओर, मुंबई दंगों पर श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट को लेकर कभी कोई कार्रवाई नहीं की गई. वास्तव में, शिवसेना-भाजपा सरकार ने आयोग को भंग करने तक की कोशिश की थी. यहां तक कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ कांग्रेस-एनसीपी सरकारों ने भी आयोग की सिफारिशों को लेकर कोई कार्रवाई नहीं की. किसी भी पुलिस अधिकारी को दंडित नहीं किया गया. इसके विपरीत कुछ लोगों को वास्तव में प्रभावशाली पदों पर तरक्की दी गई.

तब और आज

बाबरी से लेकर दादरी तक, हमने एक लंबा फासला तय कर लिया है, लेकिन तब और आज के बीच एक अबाध और डरावना संबंध कायम है. सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या मामले की सुनवाई में सुन्नी वक्फ बोर्ड का प्रतिनिधित्व करने वाले अधिवक्ता राजीव धवन, कथित रूप से विवादित स्थल को ‘एक अपराध स्थल’ कहते रहे. लेकिन वास्तव में, अपराध स्थल न तो भूमि के उस टुकड़े तक सीमित था और न ही 6 दिसंबर 1992 के उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन तक.

एक तरह से 1990 के दशक की शुरुआत की इन घटनाओं ने नफरत और सांप्रदायिक हिंसा की नींव रखी थी जो आज बेखौफ फैलाई जा रही है. श्रीकृष्ण आयोग ने मुसलमानों के खिलाफ सांप्रदायिक उन्माद को हवा देने के लिए विशेष रूप से दो अखबारों ‘सामना’ और ‘नवकाल’ का उल्लेख किया था. मौजूदा दौर में टीवी न्यूज़ के प्रस्तुतकर्ता ने कहीं अधिक प्रभावी ढंग से नफरत को मुख्यधारा में लाने का काम किया है. लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा की वजह से शुरू रक्तपात और तबाही की वारदातों में किसी को सजा नहीं मिलने का ही असर है कि आज एक केंद्रीय मंत्री खुलेआम मॉब लिंचिंग के दोषियों को माला पहनाता है. अल्पसंख्यकों के बारे में बुरा बोलना या उनके साथ दुर्व्यवहार करना अब कोई समस्या नहीं रह गई है, क्योंकि ऐसा करने वाले प्राइम-टाइम के एंकरों से लेकर मंत्रियों और सड़क की भीड़ तक – जानते हैं कि उन्हें कानून से डरने की जरूरत नहीं है.

संवैधानिक गणतंत्र के रूप में भारत का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि हम दंडमुक्ति की इस व्यवस्था को खत्म कर पाते हैं या नहीं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

(लेखक एक जनवादी कार्यकर्ता और जेएनयू के पूर्व छात्र हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

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