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Tuesday, 30 April, 2024
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अयोध्या और हिंदू अतीत पर दो पुरातत्वविदों के भिन्न दृष्टिकोण

पुरातत्वविदों ने कई अवसरों पर अयोध्या में उत्खनन किया है, लेकिन राम के जन्मस्थान को चिन्हित करने के लिए नहीं, बल्कि परंपरागत पुरातत्वशास्त्र के अभ्यास के लिए.

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भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) की अयोध्या में उत्खनन संबंधी रिपोर्ट – जो बाबरी मस्जिद वाली जगह पर मंदिर जैसी संरचना के अस्तित्व की पुष्टि करती है – की सर्वोच्च न्यायालय के आगामी फैसले में एक निर्णायक भूमिका रहने की संभावना है.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि एएसआई की 2003 की रिपोर्ट को वैज्ञानिक सबूत माना जाएगा, हालांकि कोर्ट ने 1991 की इतिहासकारों की रिपोर्ट (जिसमें विवादित स्थल पर राम मंदिर होने की संभावना से इनकार किया गया है) को राजनीति से प्रेरित कुछ इतिहासकारों की राय बताते हुए खारिज कर दिया था.

राम के जन्मस्थान के बारे में अंतिम सत्य के निर्धारण के लिए कानून की नज़र में इतिहास को महज विचार जबकि पुरातत्वशास्त्र को विज्ञान माना जाना दिलचस्प है क्योंकि पुरातात्विक निष्कर्षों की भी कई प्रकार से व्याख्या संभव है, जैसा कि अयोध्या विवाद में देखा भी गया है.

पुरातत्वविदों ने कई अवसरों पर अयोध्या में उत्खनन किया है – राम के सटीक जन्मस्थान की खोज करने के लिए नहीं, बल्कि परंपरागत पुरातत्वशास्त्र के अभ्यास के लिए. (सूरज भान, रिसेंट ट्रेंड्स इन इंडियन आर्कियोलॉजी, सोशल साइंटिस्ट, खंड 25, सं. 1 और 2, जनवरी-फरवरी 1997)

दो पुरातत्वविदों ने अयोध्या को किस नज़रिए से देखा, उस पर न केवल सुप्रीम कोर्ट में चल रहे मौजूदा मामले का निर्णय, बल्कि द्वारका से लेकर कुरुक्षेत्र तक इस तरह के कई अन्य मामलों का भविष्य निर्भर करता है.

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पुरातत्वशास्त्र संबंधी तीन विचार

देश की आज़ादी के बाद से भारतीय पुरातत्वविद रामायण और महाभारत की ऐतिहासिकता के सबूत ढूंढने में निरंतर जुटे रहे हैं.

हालांकि 1950 के दशक में एएसआई के उत्खननों में मुख्य ज़ोर ‘वैज्ञानिक पुरातत्वशास्त्र’ पर होता था, पर इसको लेकर तीन अलग-अलग विचार थे. ए घोष जैसे पुरातत्वविदों का समूह अतीत के बारे में ‘विशुद्ध धर्मनिरपेक्ष तथ्यों’ के अनुसंधान के लिए परंपरागत पुरातत्वशास्त्र के पक्ष में था. इसके विपरीत, बीबी लाल (जिन्होंने 1950 में हस्तिनापुर उत्खनन किया था) जैसे पुरातत्वविदों का वर्ग वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रदान करने के लिए हिंदू महाकाव्यों को विश्वसनीय स्रोतों के रूप में परखना चाहते थे.


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पर, वरिष्ठ पुरातत्वविद एचडी संकलिया इन अनिवार्यवादी विचारों से संतुष्ट नहीं थे. उनका मानना था कि पुरातात्विक अन्वेषणों के लिए परंपराओं और विश्वासों को कमतर नहीं आंका जाना चाहिए, लेकिन पुरातत्वशास्त्र का उद्देश्य किसी परंपरा या विश्वास की पुष्टि करना या उसे खारिज करना नहीं है. इसके बजाय, अतीत के अज्ञात पहलुओं की खोज के लिए पुरातात्विक उत्खनन खुले दिमाग से किया जाना चाहिए. (एचडी संकलिया, अयोध्या ऑफ द रामायण इन अ हिस्टॉरिकल पर्सपेक्टिव, एनल्स ऑफ द भंडारकर ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट, खंड 58/59, डायमंड जुबली संस्करण (1977-1978), पृ.893-919)

संकलिया और लाल : अयोध्या दो पुरातत्वविदों की दृष्टि में

संकलिया ने अयोध्या की ऐतिहासिकता का पता लगाने के लिए व्याख्यात्मक तरीके का उपयोग किया है. उन्होंने 1977 में प्रकाशित अपने लंबे लेख – अयोध्या ऑफ द रामायण इन अ हिस्टॉरिकल पर्सपेक्टिव – में रामायण में वर्णित स्थलों, भवनों आदि की सूचनाओं को उपलब्ध पुरातात्विक जानकारियों के साथ मिलाते हुए प्राचीन अयोध्या की तस्वीर तैयार करने की कोशिश की.

संकलिया के दो महत्वपूर्ण निष्कर्ष राम मंदिर पर मौजूदा बहस के लिए बहुत प्रासंगिक हैं. पहला, एक सार्वजनिक मंदिर के विचार से संबंधित है. रामायण में पूजा की प्रथा का विश्लेषण करते हुए, संकलिया कहते हैं, ‘राम के राज्याभिषेक के फैसले के बाद न तो दशरथ, न ही राम और न ही कोई और किसी सार्वजनिक पूजा स्थल पर जाते हैं. इसका ये मतलब निकाला जा सकता है कि उस वक्त किसी सार्वजनिक मंदिर का अस्तित्व नहीं था, या उस अवसर पर सारे रस्मो-रिवाज़ राजमहल की चारदीवारियों के भीतर ही हुए थे.’ (पृ.913)

संकलिया के रामायण के पुरातात्विक पठन का दूसरा दिलचस्प पहलू राम के निवास को लेकर है. वह हमें रामायण में वर्णित अयोध्या के शहरी बसावट के बारे में बताते हैं. उनके अनुसार, ‘दशरथ की तीनों रानियां और राम अलग-अलग घरों में रहते थे. खास कर राम का निवास दशरथ के निवास से जुड़ा हुआ नहीं था, बल्कि कुछ दूरी पर था. तभी जब दशरथ उन्हें बुलाते, तो उनके लिए रथ भेजा जाता था.’ (पृ.914)

संकलिया ने इन पाठ आधारित निष्कर्षों का मिलान पुरातात्विक सूचनाओं से करने के बाद लिखा-  ‘जहां तक मंदिरों के संरचनात्मक इतिहास का सवाल है, छठी शताब्दी से पहले ऊंचे शिखरों वाले मंदिरों का अस्तित्व नहीं था. और उन शिखरों की भी कलश से तुलना शंक्वाकार संरचना की दृष्टि से भले ही की जा सकती है, पर ऊंचाई की दृष्टि से नहीं.’ (पृ.915) संकलिया का निष्कर्ष ये है कि रामायण शायद बाद के काल में लिखी गई हो.


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इन आकलनों की व्याख्या दो तरीकों से की जा सकती है. सबसे पहले, देवता की प्रतिमा वाले मंदिर का निर्माण रामायण के बाद के काल की परंपरा है और दूसरा, उस काल में महत्वपूर्ण व्यक्तित्वों, जिनमें राम भी शामिल हैं, के हूबहू जन्मस्थान को चिह्नित करने का कोई रिवाज नहीं था. अब, यह सवाल उठता है- हम पुरातत्वशास्त्र का विज्ञान के रूप में उपयोग कैसे कर सकते हैं, जब मुख्य स्रोत – रामायण – ही राम के जन्मस्थान की सटीक जगह को चिन्हित नहीं करता हो?

दूसरी ओर, 1990 के दशक में हिंदुत्व समर्थक पुरातत्वविद के रूप में चर्चित हो चुके बीबी लाल ने 1970 के दशक में अयोध्या में भगवान राम की जन्मभूमि का निर्धारण करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई थी. वास्तव में, 1975 में प्रकाशित एक लेख (बीबी लाल, इन सर्च ऑफ इंडियाज़ ट्रेडिशनल पास्ट: लाइट फ्रॉम द एक्सकवेशन फ्रॉम हस्तिनापुर एंड अयोध्या, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर क्वार्टरली, खंड 2, अंक 4 (अक्टूबर 1975), पृ.311-314) में उन्होंने रामायण की कहानी के उपलब्ध पुरातात्विक सबूतों से मेल नहीं होने की दलील का समर्थन किया था. उसी दलील को बाद में संकलिया ने भी अपने लेख में शामिल किया था.

हालांकि, बाद के लेखन में, मस्जिद के नीचे मंदिर की खोज बीबी लाल का प्राथमिक ध्येय बन गया. उन्होंने विवादित बाबरी मस्जिद और उससे सटे स्थलों पर ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया. अपने उत्खननों के आधार पर लाल ने ‘स्तंभों का सिद्धांत’ प्रस्तुत किया. उन्होंने बाबरी मस्जिद की नींव में ऐसे स्तंभों का इस्तेमाल होने का दावा किया जो कि पूर्व में किसी मंदिर का हिस्सा रहे थे.

दिलचस्प बात ये है कि लाल के निष्कर्षों का किसी पेशेवर अकादमिक पत्रिका में प्रकाशन नहीं हुआ. लाल ने 1990 में भाजपा से संबद्ध पत्रिका ‘मंथन’ में प्रकाशित अपने एक लेख में इस सिद्धांत के बारे में लिखा था. लेख का प्रकाशन ठीक उसी समय हुआ था जब भाजपा ने राम मंदिर आंदोलन को एक राष्ट्रीय मुद्दे में बदल दिया था. (बीबी लाल, आर्कियोलॉजी ऑफ द रामायण साइट्स प्रोजेक्ट, मंथन, अक्टूबर 1990, पृ.9-21)

संघर्ष का पुरातत्वशास्त्र

बीबी लाल के स्तंभों के सिद्धांत को 2002 में अदालत द्वारा नियुक्त एएसआई की उत्खनन टीम के लिए एक व्याख्यात्मक प्रारूप के रूप में मान्यता दी गई थी. (वॉज़ देयर ए टेंपल अंडर द बाबरी मस्जिद? रीडिंग द आर्कियोलॉजिकल ‘एविडेंस’, इकोनॉमिक एंड पॉलिटकल वीकली)

शायद यही कारण रहा हो कि 2003 की रिपोर्ट में मंदिर के सिद्धांत के खिलाफ संकेत देने वाले पुरातात्विक सामग्रियों को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया था. उदाहरण के लिए, उत्खनन में मिले कब्रों और मानव कंकालों, जो कि वहां एक पुराने कब्रिस्तान के अस्तित्व की ओर इशारा करते हैं, का कोई उल्लेख नहीं है.


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अयोध्या संबंधी पुरातत्वशास्त्र अंततः संघर्ष का पुरातत्वशास्त्र बन गया – न सिर्फ मंदिर और मस्जिद के बीच बल्कि उत्खनन और मौजूदा विरासत के संरक्षण के बीच भी. इसने इस धारणा को निर्मित किया कि राष्ट्रवादी पुरातत्वशास्त्र का उद्देश्य मात्र गहरे उत्खनन के ज़रिए सच्चे और प्रामाणिक हिंदू अतीत का पता लगाना है, और तब गैर-हिंदू स्मारकों और स्थलों के संरक्षण की किसी भी बात को बौद्धिक विश्वासघात करार दिया जाने लगा.

एचडी संकलिया का कहना था कि पेशेवर पुरातत्वशास्त्र हमेशा भविष्य के लिए अतीत पर गौर करता है. इस सिद्धांत के अनुसार अतीत की हमारी समझ क्षणिक है इसलिए हमें इसे अनम्य और अटल नहीं बनाना चाहिए. हमारे लिए अब उस पुरातात्विक ब्रह्मांड की खोज संभव नहीं है जिसमें कि रामकथा की परिकल्पना की गई थी – खास कर इसलिए भी क्योंकि इस कारुणिक नायक से जुड़ी हर बात को अनम्य आस्था का विषय बनाया जा चुका है.

निश्चय ही भारत में ‘परंपरागत पुरातत्वशास्त्र’ को अपनाने की गुंजाइश होनी चाहिए. साथ ही, भारतीय पुरातत्वविदों को इस बारे में बौद्धिक ईमानदारी से चर्चा करनी चाहिए कि अयोध्या में उत्खननों और उनसे जुड़े निष्कर्षों की प्रक्रिया क्या थी और कैसे उनका राजनीतिकरण किया गया.

(लेखक नॉट इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज़, फ्रांस में अध्येता और सीएसडीएस, नई दिल्ली में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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