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Friday, 29 March, 2024
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राष्ट्रवाद पर मोदी से टक्कर लेने को तैयार केजरीवाल, उन्हें तिरंगा-दर-तिरंगा लोहा लेना पड़ेगा

नरेंद्र मोदी को लेकर अरविंद केजरीवाल ने अपना ‘मौन व्रत’ तोड़ दिया है. राजनीति में आया यह मोड़ बिहार में आए नाटकीय मोड़ जितना ही महत्वपूर्ण है.

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75वां स्वतंत्रता दिवस समारोह मनाने के लिए हमें संयोग से सप्ताहांत की यह जो लंबी छुट्टी मिली है और इस बीच ‘अमृत महोत्सव’ के जो हैशटैग निरंतर ट्रेंड हो रहे हैं उसके साथ जोशीले राष्ट्रवाद पर दावे की होड़ भी जुड़ गई है.

कांग्रेस अपनी नयी जवानी के जोश में ‘हर घर तिरंगा’ आयोजन को लेकर ट्विटर पर नरेंद्र मोदी का मज़ाक उड़ाने में लगी है और इस तरह के मुद्दे उछाल रही है कि तिरंगा खादी का हो या पॉलिएस्टर का. दूसरी गैर-भाजपा पार्टियां अपने जरूरी कामों में उलझी हैं, जो उनके लिए प्रायः ‘ईडी’ या सीबीआई तय कर रही है. भाजपा के इस अभियान का जवाब केवल के. चंद्रशेखर राव ने तेलंगाना में, और आम आदमी पार्टी ने दिल्ली और कुछ दूसरी जगहों पर दिया है. ‘आप’ का जवाब ज्यादा ठोस और प्रासंगिक है क्योंकि कांग्रेस के अलावा वही अखिल भारतीय स्तर पर चुनौती देती दिख रही है. उसका प्रभाव फैल रहा है जबकि कांग्रेस पार्टी कमजोर पड़ती दिख रही है.

‘आप’ सड़कों पर उतरकर लड़ने के मामले में कांग्रेस से ज्यादा सक्षम भी दिख रही है. उसने तुरंत यह ताड़ लिया कि राष्ट्रवाद पर दावे का अगला अध्याय तिरंगे पर जंग को लेकर ही लिखा जाने वाला है. और इस जंग में संख्या और आकार, दोनों महत्वपूर्ण साबित होंगे. इसलिए उसने राजधानी को राष्ट्रध्वज के रंग में रंगने के लिए 500 स्थानों पर तिरंगा फहरा दिया. इन सबका आकार इतना बड़ा है कि वे दूर से भी आपका ध्यान खींच लेंगे. संदेश साफ है- हमारा झंडा न केवल तुम्हारे झंडे से बड़ा है, बल्कि उसकी संख्या भी ज्यादा है.


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तिरंगे को लेकर तकरार कोई स्कूली लड़कों के दो ‘गैंग’ के बीच की लड़ाई जैसी नहीं है. तिरंगा विचारों के बीच नयी टक्कर के लिए एक रूपक के समान है. मोदी की भाजपा ने 2013 के बाद अपनी राजनीति जिस मूल अवधारणा पर आधारित की वह थी— हिंदू धर्म और राष्ट्रवाद. धर्म और राष्ट्रवाद का मेल अधिकतर लोकतांत्रिक देशों के लिए मारक साबित होता है, बशर्ते प्रतिद्वंद्वी दल इस पर ज्यादा प्रभावी दावा न कर ले. उस समय तक कांग्रेस के मामले में यह स्थिति नहीं आई थी.

हाल के वर्षों में कांग्रेस और ‘आप’, दोनों ने हिंदू धार्मिक भावनाओं पर भाजपा के एकाधिकार को चुनौती दी है. राहुल गांधी मंदिर-मंदिर घूमे, धार्मिक अनुष्ठान किए, उनके लोगों ने उनके जनेऊ और ब्राह्मण गोत्र के हवाले दिए. लेकिन यह सब प्रायः क्षमा प्रार्थना भाव से किया गया प्रतीत हुआ. मानो वे यह कह रहे हों कि देखो, मैं भी हिंदू हूं. लेकिन इससे मोदी के लिए हिंदुओं का आकर्षण कम नहीं होता. इससे सिर्फ इतना होता है कि मोदी की पार्टी को यह दावा करने का मौका मिल जाता है कि हमने तो कांग्रेस को भी देवी-देवताओं की याद दिला दी और उसे यह मानने को मजबूर किया कि राजनीति में हिंदू धर्म भी एक मुद्दा है.

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अरविंद केजरीवाल इस मामले में ज्यादा सफल रहे, भले ही इसके लिए उन्हें एक टीवी स्टूडियो जाते हुए अपने मोबाइल से हनुमान चालीसा सुनकर उसे याद करना पड़ा, और एंकर पर हावी होने के लिए उसे यह चुनौती देनी पड़ी कि क्या उसे यह याद है. और फिर उन्होंने खुद हनुमान चालीसा सुनाकर हिंदुओं को खुश करने की कोशिश की. इसके अलावा उन्होंने बुजुर्ग नागरिकों को मुख्यतः हिंदू तीर्थ स्थानों की मुफ्त यात्रा कराने की चतुर चाल भी चली जिसमें अजमेर शरीफ और कुछ प्रमुख गुरुद्वारों की यात्रा भी शामिल कर दी थी. इसके साथ उनकी सरकार ने अपने एक विज्ञापन में उन्हें ‘श्रवण कुमार’ के रूप में पेश करके सब कुछ साफ कर दिया.

वे हिंदू धर्म के इस्तेमाल का मुक़ाबला हिंदू धर्म के इस्तेमाल से कर रहे हैं. हम यहां हिंदुत्व शब्द का इस्तेमाल विशेष, सावरकरवादी राजनीति से इतर संदर्भ में करने से परहेज करेंगे. दिल्ली में सरकार चला रही ‘आप’ ने जनवरी 2021 के दिल्ली दंगों, कई मुस्लिम युवाओं को कैद किए जाने पर कुछ नहीं कहा था. न ही उसने कई जगहों पर गोमांस के नाम पर मुसलमानों की ‘लिंचिंग’ पर कुछ कहा था, ‘एक्टिविस्ट’ वाली अपनी पहचान के अनुरूप तो नहीं ही.

बहुत चालाकी दिखाते हुए अब वह गुजरात में इन्फ्रास्ट्रक्चर के निर्माण की खातिर ‘मंदिरों को तोड़े जाने’ पर सवाल उठा रही है, भले ही वे मंदिर जबरन कब्जे वाली जमीन पर क्यों न बनाए गए थे. लेकिन वह यह भी जानती है कि धर्म के मामले में आप बचाव की मुद्रा में घेराबंदी की लड़ाई ही लड़ सकते हैं. राष्ट्रवाद अलग चीज है. इसको लेकर अब ‘आप’ और भाजपा के बीच खुली मुट्ठी से मुक्केबाज़ी शुरू हो गई है, और इसे तिरंगे से झंडी दिखाई गई है. और क्या चाहिए?
हालांकि खुली मुट्ठी भी सटीक उपमा नहीं है क्योंकि तात्कालिक संदर्भ तो फ्रीस्टाइल कुश्ती का है लेकिन यह उपयुक्त है क्योंकि हम ठोस राजनीति को दंगल जैसे खेल से जोड़ रहे हैं. इसलिए, बर्मिंघम में ब्रॉन्ज मेडल जीतने वाली महिला पहलवान दिव्या काकरन की शिकायत को लेकर भाजपा और ‘आप’ की जंग पर नज़र रखिएगा. दिव्या की शिकायत यह है कि वे दिल्ली में रहती हैं फिर भी केजरीवाल सरकार ने उनके लिए कुछ नहीं किया. अब भाजपा इस मुद्दे का इस्तेमाल ‘आप’ पर जम कर हमला करने में कर रही है. आरोप है कि सच्चाई और राष्ट्रवाद के प्रति केजरीवाल सरकार की प्रतिबद्धता डांवाडोल है. सच्चाई यह कि इस सरकार ने दिव्या से वादे किए थे; और राष्ट्रवाद क्या खेल में पदक जीतने से जुड़ा नहीं है?

अब केजरीवाल सरकार अगर अपने बचाव में यह कहती है कि दिव्या उत्तर प्रदेश की हैं तो दिल्ली सरकार उन्हे क्यों पुरस्कार दे? तो इसका जवाब यह है कि वे दिल्ली में रहती हैं, वहीं ट्रेनिंग कर रही हैं और वहीं भारतीय रेलवे में नौकरी करती हैं. भाजपा पूरी कोशिश करती है कि केजरीवाल हर तरह से बचाव के मुद्रा अपनाने को मजबूर रहें. अब हमें केजरीवाल के अगले कदम का इंतजार है.

तिरंगे की तरह यह भी राष्ट्रीय राजनीति की उस बड़ी तस्वीर का एक हिस्सा है जिसमें विचारों को लेकर नयी जंग छिड़ गई है. और वह हिस्सा है—राष्ट्रवाद.

2019 में मोदी ने अपना दूसरा राष्ट्रीय जनादेश हासिल किया, तब से तीन साल तक केजरीवाल ने उन पर सीधा हमला करने से परहेज रखने की पूरी सावधानी बरती. मानो वे उनके लिए कोई खतरा या चुनौती नहीं थे. केजरीवाल ने यह परहेज तब भी किया जब वे बाद में दिल्ली विधानसभा के चुनाव में प्रचार कर रहे थे और उसमें फिर से भारी जीत हासिल की थी.

यह एक चतुर चाल थी. अगर पूरे देश पर भाजपा की पकड़ सिर्फ एक व्यक्ति की बदौलत ही है तो उससे सीधी टक्कर लेना भारी मूर्खता ही होती. अच्छे राजनीतिक नेता चांदमारी करने वाले पाइलट नहीं होते. तब तो नहीं ही जब वे पिछड़े हों और उभार पर हों. वे छापामार लड़ाई शुरू कर सकते हैं. यही वजह है कि मोदी पर हमले प्रायः ‘आप’ के ‘ट्विटर वीरों’ की ओर से हो रहे थे. लेकिन पिछले कुछ सप्ताह से मोदी को लेकर केजरीवाल ने अपना ‘मौन व्रत’ तोड़ दिया है. राजनीति में यह मोड़ बिहार में आए नाटकीय मोड़ जितना ही महत्वपूर्ण है.

यह हम इसलिए कह रहे हैं कि बिहार ने सामाजिक न्याय की पुरानी राजनीति करने वाले ‘मंडलवादियों’ को नयी ऊर्जा प्रदान की है, और उन पुराने दिनों की वापसी की उनकी उम्मीद जगा दी है जब धर्म के नाम पर एकजुट हुए वोट को जाति के नाम पर तोड़ा जा सकता है. लेकिन बड़ी तस्वीर कुछ और ही कह रही है. फिलहाल इस बात का कोई प्रमाण नहीं दिख रहा कि बिहार राष्ट्रीय राजनीति पर वैसा ही असर डालेगा जैसा 1989-91 में (मंडल-कमंडल वाले मोड़ पर) या इससे पहले 1974-77 में जेपी आंदोलन के दौर में उसने डाला था. राष्ट्रीय सत्ता के लिए लड़ाई अभी भी धर्म (हिंदू वोट) और राष्ट्रवाद के नाम पर लड़ी जाएगी.

ऐसे में दो बातें उभरती हैं. यह कि कांग्रेस अभी इस मैदान पर लड़ने के लिए तैयार नहीं दिखती है. इसी के साथ, हिमाचल प्रदेश और गुजरात के आगामी चुनावों में ‘आप’ की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा की बड़ी परीक्षा हो जाएगी. वह इतनी कोशिश तो करेगी ही कि भाजपा के विकल्प के तौर पर वह कांग्रेस की जगह खुद को स्थापित कर दे. यह लक्ष्य वह केवल कांग्रेस पर हमला करके नहीं हासिल कर सकती, उसे भाजपा से लोहा लेना होगा.

वह इतनी दक्ष तो थी ही कि उसने दिल्ली विधानसभा चुनाव मोदी पर हमला किए बिना लड़ लिया. या पंजाब का चुनाव भी लड़ लिया, जहां भाजपा किसी गिनती में नहीं है. इन दोनों राज्यों में उसकी रणनीति को 2018 के राजस्थान विधानसभा चुनाव में चले इस मशहूर नारे को थोड़ा बदलकर स्पष्ट किया जा सकता है कि ‘मोदी तुझसे बैर नहीं, रानी (वसुंधरा) तेरी खैर नहीं’. दिल्ली और पंजाब में केजरीवाल के लिए अपने चुनाव अभियान को ‘मोदी-मुक्त’ करना आसान था.

लेकिन अब उनकी महत्वाकांक्षाएं जिस तरह पंख फैला रही हैं, यह रणनीति बदलनी पड़ेगी. इसलिए, अगर बॉक्सिंग वाली उपमा का प्रयोग करें तो, ग्लव्स उतारने पड़ेंगे. भारत की सबसे साहसी नयी पार्टी ने ‘मुफ्त रेवड़ियों’ और राष्ट्रवाद के सवालों पर मोदी से टक्कर ले ली है. राष्ट्रवाद ज्यादा मुखर है. इसलिए उन्हें तिरंगा-दर-तिरंगा, नारा-दर-नारा, ट्वीट-दर-ट्वीट टक्कर लेनी पड़ेगी. सो, राजनीति का आगे जो एक साल बचा है उसके कुछ महीने दिलचस्प, और महत्वपूर्ण साबित होने वाले हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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