सेना मानवाधिकारों का उल्लंघन करे यह तो बुरी बात है ही, ऐसा कुकृत्य करने वालों को कानूनी रूप से सजा नहीं दिया जाना इससे भी बुरी बात है. बदकिस्मती से, ऐसा जम्मू-कश्मीर के शोपियां में हुए अमशीपोरा ‘मुठभेड़’ के मामले में होने की संभावना दिखाई दे रही है.
18 जुलाई 2020 की रात हुई इस बहुचर्चित ‘मुठभेड़’ में तीन ‘आतंकवादियों’ को मार गिराने की बड़ी प्रशंसा की जा रही थी लेकिन बीस दिन बादयह मामला राजौरी जिले के तीन मजदूरों की फर्जी मुठभेड़ में की गई हत्या में तब्दील हो गया. ‘समरी जनरल कोर्ट मार्शल’ (एसजीसीएम) ने इस साल के शुरू में, कैप्टन भूपेंद्र सिंह को इस मामले में दोषी पाया और उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई. लेकिन ‘आर्म्ड फोर्सेज़ ट्रिबुनल’ (एएफटी) ने 9 नवंबर को उनकी उम्रक़ैद की सज़ा को स्थगित करते हुए सशर्त जमानत भी दे दी.
एएफटी की बेंच का मानना था कि इस मामले में SGCM ने जिन सबूतो को कबूल किया वह “इतने पक्के नहीं थे कि उनके खिलाफ लगाए गए आरोपों का उन्हें दोषी ठहराया जा सके”. उसने यह भी कहा कि उपलब्ध रेकॉर्ड के आधार पर “हमें यकीन है कि आवेदक की अपील की सुनवाई के बाद उसे बारी किए जाने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है”.
फर्जी मुठभेड़ जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को रद्द किए जाने के एक साल बाद हुई, जब सरकार दावा कर रही थी कि उसने कानून-व्यवस्था बहाल कर दी है. यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस मामले का संज्ञान लिया और आश्वासन दिया कि “न्याय होगा और उनकी मदद की जाएगी”. यह आश्वासन उप-राज्यपाल मनोज सिन्हा ने पीड़ितों के परिजनों तक पहुंचाई.
इतना सब होने के बावजूद यह मामला अपने तार्किक अंत तक पहुंचता क्यों नहीं दिख रहा? क्या इसलिए कि सैन्य न्याय व्यवस्था में कमियां हैं? या आरोपी को बचाने की कुटिल साजिश के तहत कानूनी प्रक्रिया में जानबूझकर घालमेल किया जा रहा है ताकि अपील के चरण में मामला टिक ही न पाए?
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कोर्ट मार्शल सज़ा पर संदेह
उम्रक़ैद की सज़ा को स्थगित करते हुए कैप्टन सिंह को जमानत देने वाले एएफटी ने कई कानूनी कमजोरियों का जिक्र किया जो अपराध को निःसंदेह साबित करने के सिद्धांत पर चोट करती थीं. AFT का निष्कर्ष था कि SGCM की जांच के निष्कर्ष ‘अमान्य’ और ‘अनुचित’ हैं क्योंकि उसने सबूत पर पूरी समग्रता में विचार नहीं किया और आरोपी को दोषी बताने में भेदभावपूर्ण रवैया अपनाया. दर्ज सबूत तीनों नागरिकों के मारे जाने के पीछे किसी मकसद को साबित नहीं करते और न यह सिद्ध करते हैं कि वह ऑपरेशन उनके वरिष्ठ अधिकारी की जानकारी के बिना किया गया.
भारतीय साक्ष्य अधिनियम कहता है कि अदालत में सुनवाई के दौरान आरोपी के बयान को, जो उसे सख्त कैद में रखते हुए लिया गया, उसे दोषी सिद्ध करने के लिए सबूत के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. इस अधिनियम की धारा 27 में एक अपवाद की व्यवस्था की गई है कि इस बयान की पुष्टि दूसरे साक्ष्य के द्वारा की जा सकती है. इसी तरह, आरोपी को सज़ा देने के लिए सह-आरोपी बिलाल अहमद के बयान का सहारा नहीं लिया जा सकता जिससे बाद में वह सरकारी गवाह बन गया और उसे बरी कर दिया गया.
कमांडिंग अफसर का यह बयान भी पूरी तरह अविश्वसनीय है कि उसे ऑपरेशन की जानकारी नहीं थी. यह दूसरे साक्ष्य के आधार पर भी साबित होता है. मेरे विचार से इसने अभियोग पक्ष के दावे को कमजोर किया, जो अकेले दुष्ट आरोपी की करतूत के इर्दगिर्द केंद्रित है. सार यह कि इस चरण पर एएफटी के दावों से संकेत उभरता है कि मामला अपील में सुनवाई के दौरान नहीं टिक पाएगा और पूरी संभावना है कि आरोपी को बरी कर दिया जाएगा.
जिन चूकों से बचा जा सकता था
जांच और अभियोग की प्रक्रियाओं में जो कमजोरियां रहीं उनसे बचा जा सकता था.
इस घटना पर 15 अक्तूबर 2020 को लिखे अपने लेख में मैंने चेतावनी दी थी कि “कोर्ट मार्शल की प्रक्रिया व्यवस्थित तरीके से चलाई जाए ताकि वह एएफटी और सुप्रीम कोर्ट की वैधानिक जांच में टिक सके”.
21 जनवरी 2021 को मैंने स्पष्ट किया था कि सेना का अधिकारी वर्ग जानबूझकर या अपनी अयोग्यता के कारण मिलीभगत में शामिल है. मैंने लिखा था : “फिर भी, केवल कैप्टन भूपेंद्र सिंह और दो असैनिक व्यक्तियों को आरोपी बनाया गया है. मेरे विचार से, कमांडिंग अफसर 62 आरआर, कमांडर 12 सेक्टर आरआर, और जनरल अफसर कमांडिंग विक्टर फोर्स के खिलाफ अनुशासनात्मक/प्रशासनिक कार्रवाई जरूरी है”.
यह समझ से परे है कि पूरी जांच के दौरान इन सबकी साठगांठ या अयोग्यता की अनदेखी कैसे कर दी गई. भारतीय साक्ष्य अधिनियम के मूलभूत सिद्धांत की उपेक्षा जज एडवोकेट जनरल (‘JAG’ शाखा का अधिकारी या कानूनी योग्यता वाला कोई दूसरा अधिकारी) की अक्षमता को ही उजागर करती है, जो न केवल अभियोग कर्ता की भूमिका निभाता है बल्कि कोर्ट मार्शल की कार्रवाई के दौरान कोर्ट को परामर्श भी देता है. यह इस जरूरत को रेखांकित करता है कि कोर्ट मार्शल के अध्यक्ष के पद पर कानूनी विद्वता रखने वाले जजों को बिताया जाए, न कि केवल सैन्य अनुभव रखने वाले अयोग्य अधिकारी को.
ऐसे कई बहुचर्चित मामले हो चुके हैं जो कानूनी कसौटी पर खरे नहीं उतार पाए. माचिल फर्जी मुठभेड़ मामले में एएफटी ने एक कमांडिंग अफसर तथा चार अन्य सैनिकों को सुनाई गई उम्रक़ैद की सजा स्थगित करके जमानत दे दी थी. पूरी संभावना है कि अपील की सुनवाई शुरू होते ही आरोपी को बरी कर दिया जाएगा.
डंगरी फर्जी मुठभेड़ मामले में सरकार/ रक्षा मंत्रालय/सेना ने सुप्रीम कोर्ट को गुमराह करके मामले को 18 साल बाद कोर्ट मार्शल में भेज दिया. उन्हें पता था कि आर्मी एक्ट की धारा 122 के तहत कोर्ट मार्शल की तीन साल की समय सीमा होती है. इसके साथ ही कोर्ट मार्शल किया गया और एक मेजर जनरल सहित सेवानिवृत्त सात सैनिकों को उम्रक़ैद की सज़ा दी गई थी. अधिकारियों को पता था कि कोर्ट मार्शल अवैध था और आरोपियों को अपील के चरण में एएफटी/सुप्रीम कोर्ट बरी कर देगा.
जाहिर है कि सैन्य न्याय व्यवस्था में शीघ्र सुधार जरूरी हैं.
भारतीय सैन्य न्याय व्यवस्था ब्रिटिश भारतीय सेना की विरासत है, जो औपनिवेशिक काल के लिए उपयुक्त रही होगी, जब सिविल न्यायिक निगरानी की कम या शून्य जरूरत थी. आज़ादी के बाद, सेना की जरूरतों के मद्देनजर केवल मामूली फेरबदल करके 1911 की आर्मी एक्ट लागू की गई. यह समतावादी लोकतंत्र के लिए अनुपयुक्त है, जिसमें एएफटी/हाईकोर्ट/सुप्रीम कोर्ट द्वार न्यायिक निगरानी ही मानदंड है.
सेना के पास जांच और अभियोग की कोई स्वतंत्र एजेंसी नहीं है. ये सारे काम आरोपी के वरिष्ठ सहकर्मी करते हैं, जो अभियोग के नतीजे में अपना निहित स्वार्थ रखने वाले कमांडरों के मातहत काम करते हैं.
कोई स्थायी या स्वतंत्र कोर्ट नहीं हैं. अदालत के तौर पर काम करने वाले कोर्ट मार्शल के सदस्य वरिष्ठ सहकर्मी होते हैं जो कानूनी योग्यता नहीं रखते और इतने मजबूत नहीं होते कि अपना दबदबा रख सकें.
करीब एक सदी पुराने सैन्य कानून और प्रक्रियाएं सैद्धांतिक रूप से भले निष्पक्ष और उचित हों, वे समय के साथ बदले नहीं हैं और अधिकतर सेना ने उन्हें कुल मिलाकर उपेक्षित किया है. भारत में, परिवर्तन के प्रति प्रायः नकारात्मक भाव रहा है और सारे सुधार हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट ने थोपे हैं.
सेना में बड़े अपराधों से निबटने के लिए स्वतंत्र जांच एजेंसी बनाने की तुरंत जरूरत है. मिलिटरी पुलिस कोर और बाकी दोनों सेनाओं में ऐसे दूसरे संगठनों को कानूनी ताकत देते हुए इस मकसद के लिए पुनर्गठित किया जा सकता है. स्वतंत्र अभियोग एजेंसी, और योग्य जजों वाले स्थायी कोर्टों की भी जरूरत है. पूरी भारतीय सैन्य न्याय व्यवस्था को कमांड के दबदबे से मुक्त करके देश की अपराध न्याय व्यवस्था से जोड़ना होगा. तीनों सेनाओं के लिए आज की तरह अलग-अलग कानून न रखते हुए तमाम कानूनों, नियमों को संहिताबद्ध करके समान एक्ट बनाने का समय भी आ गया है.
सेना के निचले स्तर के कर्मियों को न्यायिक कामकाज की आज़ादी और अधिकारों के विभाजन की अवधारणा अपनाने के लिए शिक्षित करना जरूरी है. इससे भी ज्यादा, सेना के अधिकारियों और निचले कर्मियों को समझना होगा कि सैन्य न्याय व्यवस्था का लक्ष्य केवल सज़ा देना नहीं है बल्कि यह देखना है कि न्याय होना चाहिए.
(लेफ्टिनेंट जनरल एच एस पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (आर) ने 40 वर्षों तक भारतीय सेना में सेवा की. वह सी उत्तरी कमान और मध्य कमान में जीओसी थे. सेवानिवृत्ति के बाद, वह सशस्त्र बल न्यायाधिकरण के सदस्य थे. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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