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Thursday, 9 May, 2024
होममत-विमतभारतीय सेना को 'मेल वॉरियर' की संस्कृति को छोड़ना होगा, महिलाओं की सिर्फ भर्ती करना काफी नहीं है

भारतीय सेना को ‘मेल वॉरियर’ की संस्कृति को छोड़ना होगा, महिलाओं की सिर्फ भर्ती करना काफी नहीं है

अब जबकि बड़ी संख्या में महिलाओं को सेना में अधिकारी रैंक से नीचे के कर्मियों के रूप में भर्ती किया जाना है, तो सशस्त्र बलों को लिंग आधारित अपराधों से निपटने के लिए कानून बनाना होगा.

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महिला अधिकारियों को उनके पुरुष समकक्षों के बराबर समान अवसर देने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पालन करते हुए, सरकार और सशस्त्र बल अधिकारी रैंक से नीचे के कार्मिक के रूप में महिलाओं की भर्ती को विस्तार दे रहे हैं. यह प्रक्रिया सैन्य पुलिस कोर (सीएमपी) में अन्य रैंक (ओआर) के रूप में महिलाओं के नामांकन के साथ शुरू हुई और 2021 में 83 महिला सैनिकों को शामिल किया गया. योजना सीएमपी में प्रतिवर्ष 100 सैनिकों की भर्ती करके इसकी संख्या धीरे-धीरे 1,700 से बढ़ाकर 2,036 करने की थी.

14 जून 2022 को अग्निपथ योजना की शुरूआत – जिसके तहत महिला और पुरुष सैनिकों की चार साल के लिए भर्ती की जानी थी और बाद में उनमें से 25 फीसदी को स्थायी रूप से सेना में नौकरी दी जानी थी – ने पीबीओआर के रूप में महिलाओं के नामांकन को प्रोत्साहन दिया. भारतीय नौसेना (आईएन) और भारतीय वायु सेना (आईएएफ) ने महिला नाविकों और एयर वॉरियर्स के लिए सभी शाखाएं खोलकर बाज़ी मार ली. 4 अगस्त 2023 तक, क्रमशः 726 और 155 महिलाएं इंडियन नेवी और इंडियन एयर फोर्स में अपनी सेवाएं दे रही हैं.

हैरानी की बात यह है कि सेना ने अपनी प्रतिबंधात्मक नीति जारी रखी जिसके तहत केवल 83 महिलाएं सीएमपी में सेवारत थीं. अब यह करीबी कॉम्बैट आर्म्स-इन्फैंट्री और मैकेनाइज़्ड फोर्स को छोड़कर सभी आर्म्स और सर्विसेज़ में पीबीओआर के रूप में महिलाओं की भर्ती के लिए किसी जेंडर विशेष को प्राथमिकता न देने की नीति को अंतिम रूप दे रहा है. सेना को अभी भी इस बदलाव को पूरी तरह से और इसकी आंतरिक भावना के साथ स्वीकार करना बाकी है.

सांस्कृतिक चुनौती

सशस्त्र बलों में पुरुषों और महिलाओं के लिए समान अवसर अब देश का कानून है जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 में निहित है, जिसे सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों और सरकारी नीति द्वारा लागू किया गया है. सशस्त्र बलों ने इस दूरगामी सुधार का डटकर विरोध किया था. जो कि हायरार्की को लेकर छोटी मानसिकता को दिखाता है.

एक सांस्कृतिक चुनौती सभी कार्मिकों को दिमागी रूप से ‘पुरुष वॉरियर’ की मानसिकता से बाहर निकालना है जिसके तहत वॉरियर के रूप में महिलाओं का कोई स्थान नहीं है. इसका एक उदाहरण अग्निपथ योजना के तहत नामांकित महिलाओं को ‘अग्निवीर’ के रूप में नामित करना है, जो ‘पुरुष योद्धा यानि मेल वॉरियर’ का प्रतीक है. अग्निवीरांगना जैसा उचित नया नाम पेश किया जाना चाहिए.

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जेंडर कोटा तय करें

पहली नज़र में, महिला आबादी के आकार और बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी को देखते हुए, स्वयंसेवकों की कोई कमी नहीं होनी चाहिए. 2022 में, भारतीय नौसेना में अग्निवीर नामांकन के लिए आवेदन करने वाले 10 लाख अभ्यर्थियों में से 82,000 महिलाएं (8.2 प्रतिशत) थीं. 2019 और 2020 में सीएमपी में 100 रिक्तियों के लिए 1.6 लाख महिलाओं ने आवेदन किया था. हालांकि, यह (सीएमपी में नामांकन) अग्निपथ योजना लागू होने से पहले था. केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल (सीआरपीएफ) स्थायी नामांकन, अंशदायी पेंशन, 60 वर्ष की आयु तक सेवा और 2016 से महिलाओं के लिए 15 से 33 प्रतिशत आरक्षण के बावजूद केवल 3.69 प्रतिशत महिलाओं का नामांकन कर सका है. एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण अधिक सटीक डेटा देगा.

दुनिया भर की सेनाओं में महिलाओं का औसत प्रतिशत चार से 16 प्रतिशत तक है. इस मामले में इज़रायल एक अपवाद है क्योंकि वहां सेना में अनिवार्य भर्ती की जाती है जिससे सशस्त्र बलों में महिलाओं का प्रतिशत 34 है. किसी भी सेना में भर्ती के लिए जेंडल-न्यूट्रल और योग्यता-आधारित सिस्टम को अपनाना चाहिए. हालांकि, इसमें फिटनेस टेस्ट के लिए महिलाओं की फिजियॉलजी या शारीरिक बनावट को ध्यान में रखना चाहिए.

हालांकि, प्रारंभ में, आवश्यक बुनियादी ढांचे का निर्माण, वांछित मनोवैज्ञानिक वातावरण की स्थापना और महिलाओं को प्रोत्साहित करने जैसे प्रशासनिक कारणों से, जेंडर कोटा तय करना पड़ सकता है. अमेरिकी सेना – जो लड़ाकू हथियारों और सेवाओं सहित सभी हथियारों में योग्यता-आधारित एंट्री सर्विस का पालन करती है – में सभी रैंकों में 16 प्रतिशत महिलाएं कार्यरत हैं. भारत को इस दशक में महिला कर्मियों के लिए आरक्षण को क्रमिक रूप से पांच प्रतिशत से बढ़ाकर 15 प्रतिशत करना चाहिए.


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फिजिकल फिटनेस मानक

महिलाओं को सेना में शामिल करने के खिलाफ प्राथमिक तर्क उनकी शारीरिक फिटनेस मानकों और सेवा की कठोरता का सामना करने की क्षमता के बारे में रहा है. यह सच है कि महिलाओं की कुछ शारीरिक सीमाएं होती हैं लेकिन, आदर्श रूप से, सेना में जेंडर-न्यूट्रल मानक होने चाहिए.

1992 में क्लोज़ कॉम्बैट यूनिट में महिलाओं को शामिल करने पर संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रेसिडेंशियल कमीशन द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, महिला सैनिक, औसतन, पुरुषों की तुलना में छोटी होती हैं. उनके शरीर के ऊपरी हिस्से की ताकत 45-50 फीसदी कम है और एरोबिक क्षमता 25-30 फीसदी कम है, जो क्लोज़ कॉम्बैट के लिए जरूरी है.

ऑपरेशनल दक्षता को प्रभावित करने वाली महिलाओं के निचले प्रदर्शन के कारण, अमेरिकी सेना ने फिटनेस मानकों को जेंडर और उम्र से तटस्थ बना दिया. पिछले साल से आर्मी कॉम्बैट फिटनेस टेस्ट को फिर से जेंडर-स्पेसिफिक बना दिया गया है. हालांकि, क्लोज़ कॉम्बैट आर्म्स के लिए आवश्यक फिटनेस मानकों पर कोई समझौता नहीं किया गया.

मेरे विचार में, महिलाओं के लिए शारीरिक फिटनेस मानक सपोर्टिंग आर्म्स/सर्विसेज़ के मामले में पुरुषों के लिए न्यूनतम/संतोषजनक मानकों के बराबर होने चाहिए. लेकिन हथियारों और विशेष बलों से लड़ने के लिए, उन्हें युद्ध की कठोरता का सामना करने के लिए पुरुषों के बराबर होना चाहिए. इस प्रकार, केवल शारीरिक मानकों के आधार पर, सशस्त्र बलों में महिलाओं का रोजगार विशिष्ट भूमिकाओं तक ही सीमित रहेगा. लेकिन जो लोग मानकों को पूरा करते हैं उन्हें अवसर से वंचित नहीं किया जाना चाहिए, जैसा कि कई देशों ने किया है. लंबी हिट-एंड-ट्रायल प्रक्रिया से गुजरने के बजाय, भारतीय सशस्त्र बलों के लिए पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए शारीरिक फिटनेस मानकों की समीक्षा के लिए एक वैज्ञानिक अध्ययन करना समझदारी होगी.

यौन उत्पीड़न और हमला

बड़ी संख्या में महिलाओं को पीबीओआर के रूप में शामिल किए जाने से, उत्पन्न होने वाली सबसे गंभीर समस्याओं में से एक वरिष्ठों, सहकर्मियों और अधीनस्थों द्वारा यौन उत्पीड़न और हमला है. यह सामाजिक समस्या रूढ़िवादी ‘पुरुष वॉरियर’ के कारण सशस्त्र बलों में अधिक तीव्रता से प्रकट होती है, जो महिलाओं को अपने बराबर के रूप में स्वीकार नहीं करता है.

20-40 आयु वर्ग के पुरुषों और महिलाओं का पास-पास रहना, प्रशिक्षण और लड़ाई केवल समस्या को बढ़ाती है. ड्यूटी पर दूसरों के साथ सहमति से यौन संबंध – जो सैन्य नियमों और विनियमों का उल्लंघन करता है – भी एक बड़ी समस्या बन जाता है.

2021 में, अमेरिकी सेना में ड्यूटी पर 8.4 प्रतिशत महिलाओं और 1.5 प्रतिशत पुरुषों का यौन उत्पीड़न किया गया. सेना में सभी अपराधों के प्रतिशत के रूप में महिलाओं के विरुद्ध यौन अपराध सबसे अधिक हैं. इतना कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन की पहली कार्रवाइयों में से एक सेना में यौन उत्पीड़न पर 90-दिवसीय स्वतंत्र समीक्षा आयोग का आदेश देना था.

लिंग-आधारित यूनिट्स और सब-यूनिट्स को बढ़ाना और बनाए रखना व्यावहारिक नहीं है. ऑपरेशनल दक्षता के लिए आवश्यक है कि उन्हें एक दूसरे के साथ मिलाया जाए. सशस्त्र बलों को मिक्स्ड यूनिट्स, विशेष रूप से मैदानी क्षेत्रों में आवश्यक जेंडर के आधार पर अलग अलग रखने के बुनियादी ढांचे का निर्माण करना होगा.

अब तक, भारतीय सेना का अनुभव अपेक्षाकृत कम संख्या में महिला अधिकारियों तक ही सीमित है. उनके ख़िलाफ़ रिपोर्ट किए गए अधिकांश लिंग-संबंधी अपराध पुरुष वरिष्ठों या साथी अधिकारियों द्वारा किए गए हैं. महिला अधिकारियों की अधिकारपूर्ण स्थिति उन्हें सैनिकों से सुरक्षित रखती थी. अब जबकि बड़ी संख्या में महिलाओं को पीबीओआर में शामिल किए जाने की संभावना है, सशस्त्र बलों को जेंडर आधारित अपराध से निपटने के लिए नीति नियम, विनियम और कानून बनाने के लिए भारतीय सेना और अन्य देशों की पिछली घटनाओं के आधार पर एक विस्तृत अध्ययन करना चाहिए.

सेवा के नियम एवं शर्तें

महिलाओं के लिए समान अवसर और लैंगिक समानता सेवा के नियमों और शर्तों के संबंध में रियायतों के परिणामस्वरूप पुरुष सैनिकों पर अतिरिक्त कार्यभार की कीमत पर नहीं आनी चाहिए. कहने की जरूरत नहीं है कि महिलाओं को मातृत्व और शिशु देखभाल अवकाश जैसे शारीरिक और लिंग-विशिष्ट अधिकार देने होंगे. सशस्त्र बलों को संगठनात्मक हितों और ऑपरेशनल दक्षता को ध्यान में रखते हुए सेवा के नियम और शर्तें निर्धारित करने में बहुत सावधानी बरतनी होगी.

मैंने शादी और बच्चे पैदा करने के बाद महिलाओं के प्रदर्शन में उल्लेखनीय गिरावट देखी है. उनमें बच्चों की देखभाल के लिए शांति से काम करने पाने वाले कार्यकाल और जीवनसाथी के साथ अधिकृत पोस्टिंग की अधिक मांग करने में भी एक उल्लेखनीय प्रवृत्ति है. महिला अधिकारियों की अपेक्षाकृत कम संख्या के कारण इसे मैनेज करना अभी भी आसान है. लेकिन अब, महिला सैनिकों को फील्ड पोस्टिंग की 50 प्रतिशत सेवा के दौरान परिवार से दूर और पुरुषों के समान ही अभावों से जूझना होगा.

दूरदर्शी नीति की आवश्यकता

इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि यह सर्वोच्च न्यायालय था जिसने जेंडर-न्यूट्रल अवसरों को लागू किया और एक ढुलमुल सरकार और अनिच्छुक सशस्त्र बलों को सुधार शुरू करने के लिए कतार में आना पड़ा. सार्वजनिक बहस और कानूनी लड़ाइयां लैंगिक समानता और समानता के संवैधानिक अधिकार से प्रेरित रही हैं. सेना में महिलाओं के नैतिक रूप से मूल्यांकन किए गए प्रदर्शन को कभी मुद्दा नहीं बनाया गया.

एक दशक में 15 प्रतिशत या लगभग 2,00,000 महिलाओं को सशस्त्र बलों में शामिल करना उनके सामने सबसे जटिल संगठनात्मक चुनौतियों में से एक होगी. अनुभव सीमित है और उन महिला अधिकारियों तक ही सीमित है जिनकी भूमिका और सेवा के नियमों और शर्तों को सुप्रीम कोर्ट के दबाव और परीक्षण के माध्यम से अंतिम रूप देने में तीन दशक लग गए. पीबीओआर के रूप में नामांकित महिलाओं के साथ इसे दोहराया नहीं जाना चाहिए.

सेना को सभी आधुनिक सेनाओं के अनुभव और सर्वोत्तम प्रथाओं को शामिल करते हुए सशस्त्र बलों में महिलाओं के प्रवेश, प्रशिक्षण, फिटनेस मानकों, नियम/शर्तों और प्रबंधन के लिए एक नीति तैयार करने के लिए एक सर्वव्यापी अध्ययन करना चाहिए. ऑपरेशनल दक्षता से समझौता किए बिना क्रमिक और सुव्यवस्थित कार्यान्वयन सुनिश्चित करने के लिए नीति को दूरदर्शिता के साथ तैयार किया जाना चाहिए.

(लेफ्टिनेंट जनरल एच एस पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (आर) ने 40 वर्षों तक भारतीय सेना में सेवा की. वह सी उत्तरी कमान और मध्य कमान में जीओसी थे. सेवानिवृत्ति के बाद, वह सशस्त्र बल न्यायाधिकरण के सदस्य थे. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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