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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतअखिलेश, योगी जिन्ना का सहारा लेकर गलती कर रहे, शाहरूख खान मॉडर्न भारतीय मुसलमानों की ज्यादा बेहतर पहचान हैं

अखिलेश, योगी जिन्ना का सहारा लेकर गलती कर रहे, शाहरूख खान मॉडर्न भारतीय मुसलमानों की ज्यादा बेहतर पहचान हैं

जिन्ना की छवि में फंस कर, भारतीय नेता मुसलमानों के हितों और वास्तविकताओं को गलत तरीके से प्रस्तुत कर रहे है. चाहे वह असदुद्दीन ओवैसी हों या अखिलेश यादव.

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पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद जिन्ना अगर आज भी राजनीतिक विवादों और खबरों में उभरते रहते हैं तो इसका मतलब यह लगाया जा सकता है कि भारत में कोई अहम चुनाव होने वाला है. उनको गुजरे 70 साल से ज्यादा हो चुके हैं, इसके बावजूद उनका नाम भारतीय राजनीति में उभरता रहता है. लेकिन कोई सार्वजनिक ओहदा हासिल करने की कोशिश में लगे शख्स के लिए उनका नाम लेना राजनीतिक रूप अक्सर महंगा ही पड़ा है. भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने ठेठ बंबइया माने गए जिन्ना की, जिन्होंने दक्षिण एशिया की मुस्लिम सियासत को निर्णायक दिशा दी, सार्वजनिक प्रशंसा की तो उन्हें भाजपा का ताज गंवाना पड़ा था. भाजपा के ही एक और दिग्गज जसवंत सिंह ने पाकिस्तान पर लिखी अपनी किताब में जिन्ना को केंद्रीय पात्र बनाया तो उन्हें अपना केरियर लगभग गंवाना पड़ा.

इसलिए, सपा के नेता अखिलेश यादव, जो आज भारत के सबसे शक्तिशाली मुख्यमंत्री पद पर दावा जता रहे हैं, जिन्ना का नाम ले रहे हैं तो यह यही संकेत देता है कि उत्तर प्रदेश के आसन्न चुनाव में दांव बहुत ऊंचे लगे हैं और इसने विपक्षी नेता को बड़ा जोखिम लेने को मजबूर किया है. आडवाणी और जसवंत सिंह ने जिन्ना की जो प्रशंसा की उसकी हम अनदेखी भी कर सकते हैं क्योंकि हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद से इसका तालमेल नहीं बैठता. जिन्ना का नाम भारत के संस्थापकों के नाम के साथ लेने वाले अखिलेश के बयान की मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जो आलोचना की है वह हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद के खेमे में जिन्ना के प्रति व्यापक नापसंदगी और उपेक्षा को ही प्रतिध्वनित करती है. इसमें नया कुछ भी नहीं है क्योंकि योगी के लिए मुसलमानो से जुड़े सभी मामले अपना पलड़ा भारी बताने और अपना वर्चस्व जताने के मौके होते हैं.

वैसे, अखिलेश का बयान काबिले-गौर है. क्या जिन्ना अभी भी भारतीय मुसलमानों के नेता हैं? इसमें शक नहीं कि भारतीय उपमहादेश के मुसलमानों के अंतिम महान नेता को याद करके अखिलेश यादव भारत के सबसे बड़े राज्य के 20 फीसदी मुस्लिम मतदाताओं से संपर्क कायम करने की कोशिश कर रहे थे. लेकिन इसमें संदेह नहीं है कि उनका वह बयान स्वार्थ-प्रेरित था. इसके साथ ही यह एक अहम मसले को नजर से ओझल भी करता है, वह यह कि आज भारतीय मुसलमान नेतृत्व विहीन हो गया है. इस हद तक कि जिस शख्स जिन्ना ने आजाद भारत के मुसलमानों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया उसका नाम वे भी ले रहे हैं जो भारत के मुसलमानों का समर्थन बटोरना चाहते हैं, और वे भी ले रहे हैं जो भारत के मुसलमानों के प्रति गहरा विद्वेष रखते हैं. योगी और अखिलेश, दोनों भारत के मुसलमानों का पाकिस्तान के साथ घालमेल करने की गलती करते हैं. आखिर, जिन्ना पाकिस्तान के पर्याय ही तो हैं. लेकिन पाकिस्तान ने इस उपमहादेश में इस्लाम पर अपना दावा कतई नहीं छोड़ा है.


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जिन्ना से अलगाव

वैसे, इस घालमेल की शुरुआत उत्तर प्रदेश में ही हुई थी. 1937 में भारत के पहले सीमित चुनाव में संयुक्त प्रांत (यूपी का तब यही नाम था) के प्रादेशिक चुनाव ने भारतीय इतिहास की दिशा बदल दी. पृथक निर्वाचन मंडल के बावजूद मुस्लिम लीग का सफाया हो गया, कॉंग्रेस ने शानदार जीत दर्ज की. उस समय भी आज जैसा ही प्रतियोगी माहौल था और अल्पसंख्यकता सिर्फ संख्या के आधार पर तय की जाती थी.

1937 के चुनाव में जीत ने जवाहरलाल नेहरू को भारत की विविधता में एकता को लेकर अपने दावे को मजबूती से पेश करने का आधार जुटा दिया. इस मौके ने जिन्ना को जन नेता बना दिया क्योंकि वे इस विचार का प्रचार करने लगे कि ऐसे लोकतांत्रिक संघ में मुसलमान की राजनीतिक हैसियत सिकुड़कर रह जाएगी. इस चुनाव के मात्र तीन साल के अंदर जिन्ना पाकिस्तान के गठन की बातें करने लगे, कि एक नया भौगोलिक क्षेत्र या पाकिस्तान बनाए जाने पर ही मुसलमान राजनीतिक बहुसंख्यक बन पाएंगे. जो अंतिम समाधान निकाला गया उसमें एक केंद्रीय सत्ता के साथ विविधता में एकता वाले नेहरू के नजरिए को भी मान्यता मिली, और इस उपमहादेश में मुसलमानों की राजनीतिक ताकत स्थापित करने की जिन्ना की ख़्वाहिश को भी पूरा किया गया. इस तरह का समाधान शांतिपूर्ण तो हो नहीं सकता था क्योंकि यह बिलकुल विपरीत दो राजनीतिक दृष्टियों को लागू करने की कोशिश थी.

जिन्ना ने समझ लिया था कि भारत के बहुसंख्य मुसलमानों ने नयी सीमाओं को पार न करके उनके और उनके विचार के खिलाफ अपना फैसला सुना दिया है. आज़ादी और बंटवारे के चंद महीने बाद दिसंबर 1947 में जिन्ना ने अपनी चिढ़ और श्रेष्ठता के गुरूर में घोषणा की कि भारत के मुसलमान ‘बदकिस्मती से बुरे दिन का सामना कर रहे हैं’. इसके बाद जिन्ना ने इस एहसास के साथ मुस्लिम लीग को विभाजित करने का फैसला किया कि भारत और पाकिस्तान के मुसलमानों की नियति अलग-अलग है. अपनी मर्जी और मंजूरी से भी पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना आज़ाद भारत के मुसलमानों के नेता तो दूर, उनके रहनुमा भी नहीं रह गए थे.


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भारत का नया नेतृत्व

अब जिन्ना का नाम लेना अखिलेश यादव जैसे नेताओं को शोभा नहीं देता. उनके बयान से जाहिर होता है कि 70 वर्षों बाद भी भारत के नेता मुसलमानों को लोकतांत्रिक नागरिक नहीं मानते, जिनकी अपनी अकांक्षाएं हो सकती हैं और जो बड़ी चुनौतियों का सामना कर सकते हैं. योगी से लेकर अखिलेश तक तमाम रंग के नेता इस तथ्य की अनदेखी करते रहे हैं कि भारतीय मुसलमानों के लिए जिन्ना सबसे बड़े रोड़े के रूप में रहे हैं क्योंकि देश के बंटवारे से जुड़े हर काम के लिए आज के भारतीय मुसलमानों को भी जिम्मेदार ठहराया जाता है जबकि उनलोगों ने वे काम नहीं किए.

जिन्ना की छाया में उलझे नेता मुसलमानों के हितों और उनकी हकीकतों को गलत रूप से पेश करते रहे हैं, चाहे वे असदुद्दीन ओवैसी हों, जिनके तीखे तर्क आज़ादी के पहले के भारत की भाषा को प्रतिध्वनित करते हैं या अखिलेश यादव हों जो अपने मतदाताओं के इतिहास की ही नहीं खुद उनके बारे में अधकचरी समझ रखते हैं. जहां आक्रामक, अज्ञानी, और स्वार्थी राजनीतिक शख्स गलती करता है, वहां संस्कृति के संसार ने देर से ही सही मगर बेहद जरूरी सुधार प्रस्तुत किया है.

हाशिये पर धकेले जाने की चरम स्थिति में भारत को वास्तव में शाहरुख खान के रूप में एक नया मगर अघोषित नेता मिल गया है, जो आज के अधिकतर भारतीय मुसलमानों की तरह इसकी विविधता का पक्षधर है और जिसने अपने ऊपर तमाम हमलों और अपनी तमाम निंदाओं के बावजूद मार्के का संयम बनाए रखा. वे अनिच्छुक मगर प्रतिष्ठित नेतृत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं. शाहरुख को प्रतिष्ठित शक्ति की स्थिति में उनके उत्पीड़कों ने पहुंचाया है. उनके समर्थक उन्हें स्टार और सेलिब्रिटी बनाकर ही संतुष्ट रहे.

तब के जिन्ना या आज के ओवैसी के विपरीत शाहरुख केवल मुसलमानों का ही प्रतिनिधित्व नहीं करते. भारत के आधुनिक इतिहास में हिंदुओं और मुसलमानों, पुरुषों और महिलाओं को समान रूप से प्रभावित करने वाली ऐसी दूसरी शख्सियत एक ही हुई है. बॉलीवुड के बादशाह कोई महात्मा तो नहीं हैं मगर उन्होंने यह जरूर किया है कि भारत में उग्र फिरकापरस्तों का बोलबाला न हो. केवल इसी बात ने उन्हें न केवल नायक बनाया है बल्कि आज के भारत के लिए एक ऐतिहासिक जरूरत बना दिया है.

( लेखिका की नयी किताब ‘वायलेंट फ्रैटरनिटी : इंडियन पॉलिटिकल थाट इन ग्लोबल ऐज़’ अगले सप्ताह पेंगुइन इंडिया की ओर से प्रकाशित हो रही है. वे कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में आधुनिक भारतीय इतिहास और वैश्विक राजनीतिक सोच विषय पढ़ाती हैं. उनका ट्वीटर है@shrutikapila. ये उनके निजी विचार हैं )

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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