पाकिस्तान के खिलाफ़ भारत के 1965 और 1971 के युद्धों में एक कमांडर ने अपने असाधारण प्रदर्शन से इतिहास के रुख़ को बदल दिया था. मेजर जनरल एचएस कलेर, एमवीसी, एवीएसएम, दोनों ही युद्धों के लिए ‘चुनिंदा’ नहीं थे पर यह बात उन्हें नायक बनकर उभरने से रोक नहीं पाई. वह भारत के श्रेष्ठ फ़ील्ड कमांडरों में से एक थे, और जीते जी किंवदंती बन गए थे.
जनरल कलेर मेरे चाचा भी थे. वह 10 अक्टूबर 1943 को सिग्नल कोर में कमीशन अधिकारी बने. उन्होंने बर्मा (अब म्यांमार) में लड़ाई में भाग लिया और मेंशन-इन-डिस्पैचेज़ से पुरस्कृत हुए. देश आज़ाद होने के बाद उन्होंने बहुत जल्दी एक प्रतिभाशाली सैनिक अधिकारी के रूप में ख्याति अर्जित कर ली जो बला की हद तक स्पष्टवादी था. उनके कई वरिष्ठ अधिकारियों ने इसे उनके अहंकार के रूप में देखा.
जुलाई 1965 में वह 19वीं इन्फैंट्री डिविज़न के जनरल स्टाफ ऑफिसर 1 (जीएसओ 1) थे. इस हैसियत में वह करीब दो वर्षों से घाटी में चलाए जाने वाले अभियानों की ज़िम्मेदारी संभाल रहे थे. नए जनरल ऑफिसर कमांडिंग (जीओसी) ने उनके आत्मविश्वास और स्पष्टवादिता को उनके अहंकार के रूप में देखा. वह उनको ‘ठीक’ करने और उनकी जगह दूसरे अधिकारी को लाने की प्रतीक्षा कर रहे थे. पर नियति को कुछ और ही मंज़ूर था. जुलाई के आखिर में सेना मुख्यालय ने लेफ्टिनेंट कर्नल कलेर की वेलिंगटन स्थित डिफेंस सर्विसेज स्टाफ कॉलेज के डायरेक्टिंग स्टाफ के रूप में नियुक्ति का आदेश जारी किया, जो कि उनके सेवा वर्षों के मद्देनज़र बड़ी प्रतिष्ठा की बात थी.
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पाकिस्तान ने जम्मू कश्मीर में बग़ावत फैलाने के लिए 1 अगस्त, 1965 को ऑपरेशन जिब्राल्टर शुरू किया. इसके लिए घाटी में पांच टास्कफोर्सों – तारिक़, क़ासिम, खालिद, सलाहुद्दीन और आलमगीर – को इसकी ज़िम्मेदारी दी गई थी. सौंपे गए इलाक़ों के अनुरूप घुसपैठियों को पुल ध्वस्त करने, टेलिफ़ोन लाइनों को काटने, बारूदी सुरंग बिछाने, सैनिक काफिलों पर हमले करने, सेना के प्रमुख कार्यालयों पर हमले करने, गोला-बारूद के भंडारों को नष्ट करने, सुदूरवर्ती सैनिक चौकियों पर कब्ज़ा करने और आम आबादी में अशांति फैलाने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी. हमारे सुरक्षा बलों को भारी पैमाने पर जारी घुसपैठ की कोई जानकारी नहीं थी. इस बीच ले. कर्नल कलेर अपनी जगह नियुक्त अधिकारी को कार्यभार सौंपने की प्रक्रिया में थे.
लेकिन पुरुषार्थियों के लिए नियति अलग तरीके से काम करती है – 1 सिख बटालियन को, संयोग से, एक संदिग्ध हाथ लगता है, जो घाटी पर नियंत्रण के लिए बनाए गए पांच पाकिस्तानी टास्कफोर्सों में से एक का खुफिया हवलदार निकलता है. उसे पाकिस्तान की 12वीं इन्फैंट्री डिविज़न के मूल नक्शे पर अपने टास्कफोर्स के लिए संपूर्ण ऑपरेशन जिब्राल्टर की योजना अंकित करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी. वह घुसपैठियों के अपने दस्ते से दूर अपने रिश्तेदारों से मिलने के लिए निकला था. मरने के डर से उसने एक ‘बड़ी योजना’ का सुराग देना शुरू कर दिया. उसने बताया कि कई टास्कफोर्स पहले ही घाटी में घुसपैठ कर चुके थे और श्रीनगर समेत पूरी तरह सुरक्षित नहीं बनाए जा सके इलाक़ों पर हमले के लिए तैयार थे.
दुश्मन के दिमाग को पढ़ने की अद्भुत क्षमता वाले 19वीं इन्फैंट्री डिविज़न के जीएसओ 1 के अलावा किसी को उसकी बातों पर यकीन नहीं हुआ. ले. कर्नल कलेर ने तत्काल ऐहतियाती उपायों के आदेश दिए और पाकिस्तानी टास्कफोर्स के लोगों को ढूंढ कर ख़त्म करने के लिए दस्तों का गठन कर दिया.
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अगले 48 घंटों में आफत टूट पड़ी. दुश्मन घुसपैठिये पूरी घाटी में फैल चुके थे. ले. कर्नल कलेर के ऐहतियाती कदमों के कारण कोई भारी नुकसान तो नहीं हुआ, पर स्थिति गंभीर बनी रही. नए जीएसओ 1 को कार्यभार सौंपने की प्रक्रिया पूरी हो चुकी थी, पर ले. कर्नल कलेर की ऐसी स्थिति के रहते नई पोस्टिंग पर जाने की कोई मंशा नहीं थी. चिंतित जीओसी से उन्होंने कहा, ‘चिंता नहीं करें श्रीमान, मैं इस हालात से निबटूंगा.’
अगले तीन महीनों तक उन्होंने बिल्कुल ऐसा ही किया. दो सप्ताह तक उन्होंने पाकिस्तानी टास्कफोर्सों के ख़ात्मे की कार्रवाइयों का समन्वय किया, और उसके बाद हाजी पीर दर्रे पर कब्ज़े के लिए जवाबी हमले तथा पीर पंजाल पहाड़ों के उस पार पुंछ स्थित 93वीं इन्फैंट्री ब्रिगेड से जोड़ने का ऐतिहासिक काम किया.
25 अगस्त को 68वीं इन्फैंट्री ब्रिगेड ने हाजी पीर दर्रे पर कब्ज़े के लिए पश्चिम और पूरब दोनों तरफ से एक साथ धावा बोला. पर 26 अगस्त तक दोनों छोरों से ही भारतीय सैनिकों की बढ़त रुक चुकी थी. परेशान कोर कमांडर ने 19वीं इन्फैंट्री डिवीज़न के जीओसी से अपनी नाखुशी व्यक्त की.
यह पता चलते ही कि किसके हाथों में ज़िम्मेदारी है, कोर कमांडर ने स्थिति के आकलन के लिए सीधे जीएसओ 1 को फोन किया. ले. कर्नल कलेर ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कोर कमांडर को भरोसा दिलाया कि तमाम मुश्किलों के बावजूद हाजी पीर पर 29 अगस्त को कब्ज़ा हो जाएगा. वह इतने आश्वस्त थे कि इस बात पर कोर कमांडर के साथ ब्लैक डॉग स्कॉच की बोतल की शर्त भी लगा ली.
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उन्होंने कोर कमांडर की नाखुशी की जानकारी 68वीं इन्फैंट्री ब्रिगेड के कमांडर ब्रिगेडियर (बाद में ले. जनरल) ज़ेडसी बख़्शी, और अपने वरिष्ठ अधिकारियों को नहीं दी. इसके विपरीत, उन्होंने यह संदेश आगे भेजा कि उनकी डिवीज़न और कोर कमांडरों को सफलता का पूरा भरोसा है. इसके बाद की बातें इतिहास की किताबों का हिस्सा बन चुकी हैं.
हाजी पीर पर 28 अगस्त को कब्ज़ा हो गया और पुंछ स्थित 93वीं इन्फैंट्री ब्रिगेड से 10 सितंबर को लिंकअप हो गया. ले. कर्नल कलेर को ब्लैक डॉग की अपनी बोतल हेलिकॉप्टर से भेजे गए विशेष कूरियर से मिली. उन्होंने साबित कर दिया कि हर सफल कमांडर के पीछे बेहतरीन स्टाफ ऑफिसर खड़े होते हैं. उन्हें सराहनीय सेवा के लिए प्रतिष्ठित अति विशिष्ट सेवा मेडल (एवीएसएम) दिया गया, जो कि एक ले. कर्नल के लिए विरला सम्मान होता है.
डिफेंस सर्विस स्टाफ कॉलेज में डायरेक्टिंग स्टाफ और वरिष्ठ इंस्ट्रक्टर के रूप में कुछ वक़्त बिताने के बाद उन्होंने 1968 में नागालैंड स्थित 95वीं माउंटेन ब्रिगेड की कमान संभाली. तब नगा विद्रोह चरम पर था और उग्रवादियों के दस्ते प्रशिक्षण और हथियारों के लिए म्यांमार होकर चीन जाया करते थे.
मात्र पुरस्कार पाकर संतुष्ट नहीं हो जाने वाले, ब्रिगेडियर कलेर ने अंगामी ज़ापू फिज़ो के भतीजे भूमिगत नगा जनरल मोवू अंगामी की तलाश शुरू की. वह 300 उग्रवादियों के दल के साथ नए हथियारों के साथ चीन से वापस लौटा था. ब्रिगेडियर कलेर ने 15/16 मार्च 1969 को मोवू अंगामी समेत 165 उग्रवादियों को आत्मसमर्पण करने पर बाध्य किया.
उनके जीवन का सर्वश्रेष्ट अवसर 1971 में आया जब उन्होंने ‘12 दिनों में ढाका’ पर कब्ज़ा कर इतिहास बनाया.
(ले.जन. एच.एस. पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (से.नि.) ने भारतीय सेना को 40 साल तक अपनी सेवाएं दी हैं. वे उत्तरी तथा सेंट्रल कमान के प्रमुख रहे. सेवानिवृत्त होने के बाद वे आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य भी रहे.)
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