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Friday, 19 April, 2024
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तिब्बत की दुविधा 70 वर्षों से बरकरार है, इन 4 उपायों से मोदी वो कर सकते हैं जो नेहरू नहीं कर सके

शी जिनपिंग का चीन अपनी ‘दाहिनी हथेली’– तिब्बत को माओत्से तुंग का दिया नाम की ‘पांच अंगुलियों’ लद्दाख, सिक्किम, भूटान, नेपाल और अरुणाचल प्रदेश को हासिल करना चाहता है.

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कोविड-19 संकट भारत को सामरिक दिशा परिवर्तन करने और चीन के साथ अपने संबंधों को पुनर्निधारित करने के अवसर उपलब्ध करा रहा है. कोविड बाद की दुनिया में चीन सैन्य क्षमता के अलावा आर्थिक ताक़त के सहारे ‘दोस्त बनाने और दुश्मनों को दूर रखने’ की अपनी क्षमता पर भी दबाव महसूस कर सकता है. चीन विरोधी अंतरराष्ट्रीय मंच के उभरने के भी संकेत मिल रहे हैं, लेकिन भारत के लिए उचित ये होगा कि वह इसका हिस्सा बनने की प्रतिबद्धता जताने से पहले ये देखने के लिए इंतजार करे कि यह मंच किस रूप में विकसित होता है, और तिब्बत कार्ड उपलब्ध विकल्पों में शामिल है.

विवाद का स्वरूप

अब जबकि लद्दाख में सीमा पर बने गतिरोध में नरमी आने की ख़बरें आने लगी हैं, ऐसा लगता है कि भारत ने बीजिंग को बता दिया है कि सामान्य स्थिति बहाल करने का दायित्व चीन का है.

लद्दाख गतिरोध भारत द्वारा दो सड़कों के निर्माण का नतीजा हो सकता है जिन पर कि चीन को कड़ा ऐतराज है. इनमें से एक महत्वपूर्ण सड़क पैंगोंग त्सो के पास की है, जबकि दूसरी गलवान घाटी में 255 किलोमीटर लंबे दर्बुक-श्योक-दौलतबेग-ओल्डी मार्ग से मिलती है, जोकि भारतीय सेना के लिए काराकोरम दर्रे की अपनी चौकियों तक पहुंच को सुगम बना सकेगी. जहां से चिप चाप नदी, ट्रिग पहाड़ियों और डेपसांग के मैदान पर निगरानी संभव है.


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चीन की सोच ये है कि एक बार इस इलाक़े से भारतीय सेना दूर हट जाए, तो वह तिब्बत को पाकिस्तान के गिलगित-बाल्टिस्तान से जोड़ने वाली अपनी प्रस्तावित सड़क का निर्माण कर सकेगा, जिससे सिचायिन ग्लेशियर में भारत की स्थिति कमज़ोर होगी. भारत और पाकिस्तान के बीच सैन्य असंतुलन को देखते हुए चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी), जो ग्वादर बंदरगाह के रूप में उसे हिंद महासागर में एक सैन्य आधार देता है, के अपने प्रवेश मार्ग की रक्षा के लिए किसी भी हद तक जा सकता है.

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वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर चीन का आक्रामक रवैया ताक़त के सहारे क्षेत्रीय भौगोलिक विस्तार तथा क्षेत्र में आधिपात्यवादी कार्रवाइयों के ज़रिए वैश्विक महत्व हासिल करने के उसके व्यापक भूसामरिक लक्ष्यों के अनुरूप है. इस उद्देश्य के लिए चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग, माओत्से तुंग के समान ही, एक साधन के रूप में बेहद संगठित और ताक़तवर पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) का भी इस्तेमाल कर रहे हैं. वर्तमान में, पीएलए पूरी तरह शी जिनपिंग के चंगुल में है, जिन्हें चेयरमैन माओ से भी अधिक शक्तिशाली माना जा सकता है.

तिब्बत का सवाल

विडंबना यह है कि 1644 में चिंग राजवंश द्वारा स्थापित मूल चीन 1911 के विद्रोह में ध्वस्त हो गया, जिससे एक नए गणराज्य का मार्ग प्रशस्त हुआ. शाही चीन के विघटन और आधुनिक चीन के एकीकरण का काम लगभग 50 वर्षों के कालखंड में हुआ. उस दौर की शुरुआत विदेशी शक्तियों, ईसाई मिशनरियों, स्थानीय धर्मांतरित लोगों (बीमारी और ग़रीबी के लिए उन्हें दोषी ठहराया गया) के खिलाफ़ इहक़्वान अशांति (बॉक्सर विद्रोह) से हुई थी और उसकी पूर्णता लॉन्ग मार्च के साथ अंतत: अक्टूबर 1949 में माओ द्वारा, महज 15 साल के संघर्ष और हिंसक लड़ाई के बाद, पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) की स्थापना के साथ हुई.

चेयरमैन माओत्से तुंग के एजेंडे में तिब्बत को हड़पना (और दंडित करना) शामिल था, जिसे उन्होंने ’चीन की दाहिनी हथेली’ कहा था, जबकि लद्दाख, सिक्किम, भूटान, नेपाल और अरुणाचल प्रदेश हथेली की ‘पांच अंगुलियां’ हैं. चीन ने 7 अक्टूबर 1950 को तिब्बत पर अपने आक्रमण के साथ भारत का सामना किया और न केवल तिब्बत और भारत की बल्कि पूरे एशिया की स्थिरता को खतरे में डाल दिया. तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को अंग्रेजों से परामर्श की सलाह दी गई, जिन्होंने सुझाव दिया कि ‘तिब्बत के लिए भारत से जो हो सकता है वो करना चाहिए… सैन्य सहायता दिए बिना,’ और ‘तिब्बती स्वतंत्रता को मान्यता देने से इनकार करना चाहिए’.

यह महसूस करते हुए कि तिब्बत नाममात्र के प्रतिरोध से अधिक कुछ भी करने में असमर्थ है. नेहरू ने ब्रिटिश सरकार की सलाह को मान लिया जैसा कि 18 नवंबर 1950 के एक नोट में खुलासा किया गया है कि ‘न तो भारत और न ही कोई बाहरी शक्ति तिब्बत के चीनी अधिग्रहण को रोक सकती है.’ इस रुख को अपनाने और सैन्य विषमता पर विचार करते हुए, नेहरू ने भारत की चिंताओं को देश की सुरक्षा और सलामती सुनिश्चित करने, तिब्बत पर चीनी दावे को स्वीकार करने और चीन के साथ दोस्ती को आगे बढ़ाने तक सीमित कर दिया.

मोदी ये 4 काम कर सकते हैं

सत्तर साल बाद भी, तिब्बत को चीन का हिस्सा मानने से सुरक्षा और सलामती सुनिश्चित नहीं हुई. भारत का रक्षा खर्च कम नहीं हुआ, सीमाओं पर अमन चैन नहीं है. चीन केवल तिब्बत पाकर ही शांत नहीं है और ‘अपनी दाहिनी हथेली की पांच अंगुलियों को हड़पना’ चाहता है और दोनों देशों में कोई स्थाई मित्रता नहीं है. यहां तक कि वुहान की भावना भी गायब हो रही है.


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इसलिए स्थिति को भारत के पक्ष में करने और ‘तिब्बत के सवाल’ से निपटने के लिए प्रधानमंत्री मोदी की सरकार ये काम कर सकती है.

दुनिया भर में तिब्बतियों को अपने पुरखों की भूमि पर लौटने तथा अपनी संस्कृति और परंपरा को अपनाने का वैध अधिकार है. दलाई लामा ने 70 वर्षों से तिब्बतियों का मार्गदर्शन किया है, तिब्बत की लौ को जीवित रखा है और सबसे बढ़कर उन्होंने सच्चे गांधीवादी तरीके से सत्याग्रह, अहिंसा और शांतिपूर्ण प्रतिरोध की राह को अपनाया है. वह हर तरह से भारत रत्न सम्मान के हकदार हैं.

देश के भीतर चीन विरोधी भावना और चीनी वस्तुओं के बहिष्कार का अल्पावधि में तात्कालिक प्रभाव दिख सकता है, पर इसे लंबे समय तक जारी रखना आसान नहीं होगा. लेकिन निश्चय ही भारत अपने आर्थिक दबदबे के प्रदर्शन और साथ ही नए उपायों को अपनाने के लिए भी अनुकूल स्थिति में है.

पाकिस्तान जहां अपने कब्ज़े वाले कश्मीर (पीओके) का भारत के खिलाफ़ आतंकवाद के लॉन्च पैड के रूप में इस्तेमाल कर रहा है, वहीं चीन ने सीपीईसी के तहत तिब्बत को प्रवेश द्वार मानते हुए वहां आधारभूत सुविधाएं खड़ी की हैं. भारत को चीन को बताना चाहिए कि उसकी ये परियोजनाएं अवैध हैं और भारत को उपयुक्त समय पर उचित कार्रवाई करने का अधिकार है.

चीन की कमज़ोरियां बढ़ी हैं. तिब्बत में बांधों के निर्माण और जलधारा को मोड़े जाने से जल संसाधन संबंधी भारी पर्यावरणीय नुकसान से निचले प्रवाह के देशों- भारत से लेकर हिंद-प्रशांत के विभिन्न तटीय देशों तक- को गंभीर चिंता हो रही है. एक नई हिंद-प्रशांत संरचना में इन देशों तथा हांगकांग और ताइवान जैसे वित्तीय केंद्रों के साथ शामिल किया जा सकता है, जो अनिवार्यत: ‘एक चीन’ नीति की समीक्षा पर ज़ोर दे.

(लेखक भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारी कमेटी के सदस्य और ऑर्गनाइज़र के पूर्व संपादक हैं. ये उनके अपने विचार हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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