निज़ामाबाद में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण दक्षिणी राज्यों के लोगों के लिए एक बड़ी राहत के रूप में आना चाहिए. ऐसी आशंकाएं थीं कि निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन, जैसा कि अगली जनगणना के बाद किया जाना प्रस्तावित है, के परिणामस्वरूप लोकसभा में अधिक आबादी वाले उत्तरी राज्यों की तुलना में दक्षिणी राज्यों का प्रतिनिधित्व कम हो जाएगा.
प्रधानमंत्री ने निज़ामाबाद में संकेत दिया कि निर्वाचन क्षेत्रों का पुनर्निर्धारण केवल जनसंख्या के आधार पर नहीं किया जा सकता है. उन्होंने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि यह उन दक्षिणी राज्यों के साथ “घोर अन्याय” होगा जो जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करने में सफल रहे हैं.
कांग्रेस नेता राहुल गांधी के “जितनी आबादी, उतना हक (जनसंख्या के अनुपात में अधिकार)” के नारे पर चुटकी लेते हुए, मोदी ने कहा: “ऐसी सोच दक्षिण भारत के साथ घोर अन्याय है…आजकल देश में अगले परिसीमन पर चर्चा हो रही है. आप जानते हैं, 25 साल बाद संसद की सीटों की संख्या क्या होगी, यह न्यायपालिका तय करती है. इस कारण जहां आबादी कम है वहां सीटें कम हो जाती हैं और जहां ज्यादा है वहां सीटें बढ़ जाती हैं. दक्षिणी भारत के सभी राज्यों ने जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करके देश की बहुत मदद की है. कांग्रेस का नारा ऐसा है कि कांग्रेस दक्षिण भारत के सांसदों की संख्या कम करने का नाटक करने जा रही है…क्या दक्षिण भारत कांग्रेस को माफ करेगा?”
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जब प्रधानमंत्री ने कहा कि न्यायपालिका संसद की सीटों की संख्या तय करती है तो वह तथ्यात्मक नहीं थे. यह संसद (व्यावहारिक रूप से, आज के संदर्भ में मोदी सरकार) है जो इसका निर्णय करती है. इसके अलावा, कांग्रेस संसद सीटों की संख्या कैसे कम कर सकती है, जब खुद पीएम मोदी ने अपने तीसरे कार्यकाल के दौरान लोगों की सभी आकांक्षाओं को पूरा करने का वादा किया है?
लेकिन राजनीतिक भाषणों, विशेषकर चुनाव अभियानों के दौरान दिए गए भाषणों पर चर्चा करते समय तथ्यों पर टीका टिप्पणी का कोई फायदा नहीं. मोदी के निज़ामाबाद संबोधन से एक बात ये जरूर निकली कि दक्षिणी राज्य अब परिसीमन को लेकर ज्यादा आशंकित नहीं हों. राजनीतिक हलकों में साजिश देखने वालों की कमी नहीं है. उनमें से एक साजिश ये थी कि भाजपा लोकसभा में उनकी सीटों की हिस्सेदारी कम करके और उत्तरी राज्यों, जहां पार्टी का वर्चस्व है, का प्रतिनिधित्व बढ़ाकर केंद्र में सरकार गठन में दक्षिण भारतीय राज्यों को लगभग अप्रासंगिक बनाने की योजना बना रही थी. . खैर, अभी के लिए, मोदी ने जनसंख्या नियंत्रण में दक्षिणी राज्यों के योगदान को स्वीकार करके और यह बयान देकर मामला सुलझा लिया है कि उनकी संसद सीटें कम करना उनके साथ गंभीर अन्याय होगा. इससे यह भी पता चलता है कि भाजपा दक्षिण भारत में अपनी विस्तार योजनाओं को छोड़ने वाली नहीं है, भले ही 2024 के लोकसभा चुनावों में संभावनाएं इतनी उज्ज्वल नहीं दिख रही हैं.
मोदी का निज़ामाबाद भाषण दो अन्य कारणों से बेहद महत्वपूर्ण था. सबसे पहले, उन्होंने जाति जनगणना पर उन्हें और उनकी पार्टी को घेरने की विपक्ष की कोशिश का मुकाबला करने के लिए अपना खाका पेश किया. दूसरे, उनके इस भाषण और अन्य हालिया भाषणों से पता चलता है कि मिजोरम को छोड़कर राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में आने वाले चुनावों में लोकसभा से पहले अगले साल चुनाव हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण अभियानों की चुनावी प्रभावकारिता को फिर से परखने के लिए एक प्रकार का ड्राइ रन होगा. भाजपा के ध्रुवीकरण अभियानों की चुनावी प्रभावशीलता पर बड़ा सवाल आता जा रहा है- जैसे दिल्ली, पश्चिम बंगाल, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में.
रणनीतियों पर पुनर्विचार कर रही बीजेपी?
पहले बिंदु पर आते हुए, निज़ामाबाद में मोदी के भाषण ने अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के संबंध में पार्टी की रणनीति पर पुनर्विचार का संकेत दिया. जब विपक्ष ने महिला आरक्षण कानून में ओबीसी सब-कोटा प्रदान नहीं करने के लिए सरकार को घेरने की कोशिश की, तो मोदी ने अपनी ओबीसी साख दिखाकर इसे कुंद करने की कोशिश की. उन्होंने कहा कि विपक्ष उनसे नफरत करता है क्योंकि ओबीसी होने के बावजूद वह पीएम बने.
मोदी ने जाति के आधार पर समाज को विभाजित करने के उनके “पाप” के लिए विपक्ष को दोषी ठहराया.
फिर भी, विपक्ष पर ये हमले एक रक्षात्मक रणनीति प्रतीत हुए क्योंकि प्रधान मंत्री और अन्य भाजपा नेताओं ने स्पष्ट रूप से यह नहीं बताया कि क्या वे जाति जनगणना के खिलाफ थे या पक्ष में थे. ऐसा तब तक था जब तक कि मोदी ने निज़ामाबाद में एक बड़े बदलाव का संकेत नहीं दिया था. इसके पहले बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार ने जाति सर्वेक्षण जारी किया था जिसमें राज्य में 63 प्रतिशत पिछड़े वर्ग की आबादी का पता चला था. विपक्षी दलों ने राष्ट्रव्यापी जाति जनगणना की अपनी मांग को दोहराते हुए इस पर जोर दिया – उनका उत्साह इस उम्मीद से उपजा था कि पिछड़े वर्गों की लामबंदी भाजपा की हिंदुत्व राजनीति के लिए एक मारक होगी.
मंगलवार को मोदी ने जितनी आबादी, उतना हक का नारा या जनसंख्या के अनुपात में अधिकार (कोटा पढ़ें) की अवधारणा को स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया. ऐसा करके, उन्होंने अपनी पार्टी की मूल चुनावी रणनीति पर लौटने का झुकाव दिखाया है जो गैर-प्रमुख समुदायों को एक साथ लाने पर केंद्रित है – उदाहरण के लिए, बिहार और उत्तर प्रदेश में गैर-यादव ओबीसी, हरियाणा में गैर-जाट, महाराष्ट्र में गैर-मराठा या झारखंड में गैर-आदिवासी.
गैर-प्रमुख समुदाय – हालांकि अलग अलग समूह में आंकड़ों में भले ही कम हो- लेकिन सामूहिक रूप से देखने पर उनकी ताकत बहुत अधिक है. पार्टी ने गैर-प्रमुख ओबीसी के लिए भी यही रणनीति लागू की. इसके तहत ओबीसी को उप-वर्गीकृत करने और आरक्षण कोटा पुनर्वितरित करने के लिए न्यायमूर्ति रोहिणी आयोग की 2017 का गठन किया गया . इसके बाद, जैसे ही यादव और जाट जैसे प्रमुख ओबीसी ने मोदी को वोट देने के लिए झुकाव दिखाया, भाजपा ने इस रणनीति के साथ धीमी गति से काम किया, आयोग को 13 बार एक्सटेंशन दिया गया और उसने आखिरकार 1 अगस्त को अपनी रिपोर्ट सौंपी.
कहा जा रहा है कि बीजेपी इसे ठंडे बस्ते में डालने की योजना बना रही है. हालांकि, विपक्ष की जाति जनगणना की राजनीति, जो बिहार सर्वेक्षण के बाद तेज हो गई है, ने मोदी को अपनी पार्टी की मूल रणनीति का पुनर्मूल्यांकन करने के लिए प्रेरित किया होगा. जनसंख्या-आधारित अधिकारों (कोटा) पर विपक्ष का आग्रह संभावित रूप से इसे प्रमुख ओबीसी के साथ जोड़ सकता है, जो अधिकांश आरक्षण लाभ ले रहे हैं. इससे कांग्रेस को क्या फायदा होगा यह एक लाख टके का प्रश्न बना हुआ है क्योंकि ये प्रमुख ओबीसी क्षेत्रीय दलों के साथ जुड़े हुए हैं.
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मोदी भाजपा के ध्रुवीकरण अभियान का नेतृत्व करेंगे
भाजपा जाहिर तौर पर इसमें एक अवसर देखती है. निज़ामाबाद में मोदी का अघोषित संदेश यह था कि उन्हें प्रभावशाली ओबीसी के विपक्ष के साथ आने से कोई आपत्ति नहीं है, जब तक कि इससे गैर-प्रभावशाली लोग भाजपा की ओर लामबंद हो रहे हैं. इसका मतलब यह भी है कि अगर जरूरत पड़ी तो केंद्र ओबीसी कोटा के पुनर्वितरण पर रोहिणी आयोग की रिपोर्ट को लागू करने के विचार के लिए तैयार हो सकता है.
जहां तक दूसरे बिंदु या पीएम मोदी के निज़ामाबाद भाषण की तीसरी बड़ी सीख की बात है, तो उन्होंने स्पष्ट संकेत दिया है कि वह आगामी विधानसभा चुनावों में पार्टी के ध्रुवीकरण की रणनीति की कमान संभालने को तैयार हैं.
पिछले कुछ वर्षों में प्रवृत्ति यह रही है कि जहां अन्य भाजपा नेता हिंदू-खतरे में अभियान को तेज करते हैं, वहीं मोदी खुद को पूरी तरह से विकासोन्मुख नेता के रूप में पेश करते हैं जो भ्रष्टाचार और वंशवाद के खिलाफ खड़ा है. हालांकि, कभी-कभी, वह हिंदुत्व के आख्यानों को बढ़ावा देते हैं.
अब और नहीं. पिछले सप्ताह के उनके अभियान भाषणों से पता चलता है कि वे ध्रुवीकरण अभियान बनाने के लिए आगे बढ़कर नेतृत्व कर रहे हैं. वह राजस्थान में गला काटने की घटना का ग्राफिक विवरण दे रहे थे और अल्पसंख्यक समुदायों के पूजा स्थलों को “नहीं छूने” के लिए तमिलनाडु सरकार पर ताना मार रहे हैं.
निज़ामाबाद में, उन्होंने काहे कि स्टालिन के नेतृत्व वाली सरकार हिंदू मंदिरों पर नियंत्रण किये बैठे हैं लेकिन “अल्पसंख्यकों के पूजा स्थलों को छूने” के लिए तैयार नहीं. “अगर यह (जितनी आबादी, उतना हक) आपका (कांग्रेस का) मंत्र है, तो क्या आपके सहयोगी अल्पसंख्यकों के सभी पूजा स्थलों पर नियंत्रण कर लेंगे? नहीं (ये लोग) ऐसा नहीं करेंगे.”
क्या प्रधान मंत्री को दो मुस्लिम व्यक्तियों द्वारा एक दर्जी की नृशंस हत्या का मुद्दा उठाना चाहिए या मुसलमानों के पूजा स्थलों को नहीं छूने के लिए राज्य सरकार की आलोचना करनी चाहिए? जैसा कि कोई कहता है, प्यार और युद्ध में सब कुछ जायज है और भारतीय राजनीति आज युद्ध से कहीं भी कम नहीं है.
मंगलवार को छत्तीसगढ़ में एक रैली को संबोधित करते हुए मोदी ने पूर्व पीएम मनमोहन सिंह के 2006 के बयान का हवाला दिया, जहां उन्होंने कहा था कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार अल्पसंख्यकों का है. इसके बाद मोदी ने राहुल का नारा सामने लाते हुए सवाल पूछा, ”कांग्रेस का कहना है कि समुदाय की आबादी तय करेगी कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार किसका होगा… क्या वे अल्पसंख्यकों को हटाना चाहते हैं?” खैर, यह आगामी विधानसभा चुनावों में तीव्र ध्रुवीकरण अभियान की शुरुआत का संकेत है, जो 2024 के आम चुनाव के लिए पूर्वाभ्यास के रूप में काम कर सकता है.
(डीके सिंह दिप्रिंट में पॉलिटिकल एडिटर हैं और यहां व्यक्त विचार निजी हैं.)
(संपादन/ पूजा मेहरोत्रा)
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