कांग्रेस के सांसद राहुल गांधी ने महिला आरक्षण विधेयक पर लोकसभा में बोलते हुए एक ऐसी समस्या के तार छेड़ दिए, जिसे जानते तो सभी हैं, पर जिसके बारे में बड़े मंचों पर चर्चा नहीं होती. महिला आरक्षण के अंदर अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग करते हुए राहुल गंधी ने कहा कि वर्तमान सरकार में नौकरशाही के शिखर पदों यानी सेक्रेटरी पोस्ट पर सिर्फ तीन ओबीसी अफसर हैं. यानी देश की आधी से ज्यादा आबादी होने के बावजूद, ओबीसी के अफसर केंद्र सरकार के सिर्फ 5 प्रतिशत बजट के निर्धारण में भूमिका निभाते हैं.
इस मुद्दे को उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस और रैलियों में भी उठाया और नरेंद्र मोदी सरकार को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराया.
इसके जवाब में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और केंद्र सरकार ने ये तो नहीं कहा कि ओबीसी अफसरों का राहुल गंधी का बताया हुआ आंकड़ा गलत है, पर जवाबी हमला करते हुए कहा कि जब कांग्रेस केंद्र में सत्ता में थी, तो उसने ओबीसी अफसरों की संख्या बढ़ाने के लिए क्या किया. कैबिनेट मंत्री किरेन रिजीजू ने इस बारे में एक्स पर पोस्ट किया कि इस समय वही अफसर सेक्रेटरी बन रहे हैं जो 1992 के आसपास सर्विस में आए थे, इसलिए कांग्रेस को बताना चाहिए कि ओबीसी अफसरों को आगे लाने में कांग्रेस की सरकारों ने कैसी भूमिका निभाई थी.
This is for Shri Rahul Gandhi & I hope he can read & understand it.
संसद में राहुल गांधी और कांग्रेस ने ओबीसी प्रतिनिधित्व को लेकर सवाल उठाए हैं। जबकि इतिहास एक अलग कहानी पेश करता है।
इस पर विचार करें: 1992 में, वर्तमान में भारत सरकार में कार्यरत सचिवों के बैच ने अपनी यात्रा शुरू…— Kiren Rijiju (@KirenRijiju) September 21, 2023
आगामी विधानसभा और फिर लोकसभा चुनावों तक ऐसा लगता है कि ओबीसी के मुद्दे पर काफी चर्चा होगी और इन सबके बीच नौकरशाही के टॉप पर ओबीसी अफसरों के न होने या कम होने पर काफी बातचीत होगी.
राहुल गांधी ने बिल्कुल सही मुद्दा उठाया है. पर उनका ये कहना पूरी तरह सही नहीं है कि इसकी सारी जिम्मेदारी नरेंद्र मोदी सरकार की है. ये नौकरशाही की संरचना, उसके काम करने के तरीके और उसके जातिवादी चरित्र से जुड़ा मामला है और इस या उस पार्टी की सरकार के आने या जाने से इसमें फर्क नहीं पड़ेगा. अगर इस समस्या का समाधान करना है तो वह संरचना और प्रक्रिया के स्तर पर ही होगा.
मैं इसके लिए तीन समाधान प्रस्तावित कर रहा हूं.
- अफसरों के सर्विस में आने की अधिकतम उम्र 29 साल हो और इसी दायरे के अंदर विभिन्न कैटेगरी को उम्र में जो भी छूट देनी हो, दी जाए, या फिर सभी अफसरों के सर्विस के साल यानी कार्यकाल बराबर किए जाएं, ताकि सभी कैटेगरी के अफसरों को सेवा के इतने वर्ष मिलें कि टॉप तक पहुंच पाएं.
- सर्विस के अलग अलग स्तरों पर जब अफसरों को चुनने के लिए पैनल बनाया जाए तो ये प्रकिया पारदर्शी हो और इसमें मनमाने तरीके से किसी को चुन लेने और किसी को खारिज कर देने का वर्तमान चलन बंद हो.
- अफसरों की सालाना गोपनीय रिपोर्ट बनाने के मामले में जातिवाद पर अंकुश लगे और भेदभाव को प्रक्रियागत तरीके से सीमित किया जाए.
इन उपायों पर चर्चा करने से पहले ज़रूरी है कि इस विवाद के तीन पहलुओं पर आम सहमति बनाई जाए. सबसे पहले तो सरकार और नीति निर्माताओं को सहमत होना होगा कि भारतीय नौकरशाही के उच्च पदों पर सामाजिक विविधता का अभाव है और एससी, एसटी और ओबीसी के अफसर उच्च पदों पर बेहद कम हैं. राज्यसभा में इस बारे में 15 दिसंबर 2022 को पूछे गए सवाल के जवाब में केंद्रीय कार्मिक मंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह ने सरकारी की तरफ से जानकारी दी कि ज्वायंट सेक्रेटरी और सेक्रेटरी स्तर पर केंद्र सरकार में 322 पद हैं, जिनमें से एससी, एसटी, ओबीसी और जनरल (अनरिजर्व) कटेगरी के क्रमश: 16, 13, 39 और 254 अफसर हैं.
2022 में ही 31 मार्च को राज्यसभा में ही पूछे गए सवाल के जवाब में डॉ. सिंह ने सदन को जानकारी दी कि भारत सरकार के 91 एडिशनल सेक्रेटरी में से एससी/एसटी के 10 और ओबीसी के 4 अफसर ही हैं. वहीं 245 ज्वाइंट सेक्रेटरी में से एससी/एसटी के 26 और ओबीसी के 29 अफसर ही हैं.
यानी समस्या तो है.
हमें दूसरी सहमति इस बात पर कायम करनी चाहिए कि ये समस्या 2014 में पैदा नहीं हुई है जब नरेंद्र मोदी सरकार में आए हैं. बेशक उन्होंने इसे ठीक करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया है, पर समस्या पहले से ही चली आ रही है. मिसाल के तौर पर, यूपीए शासन के तुरंत बाद 2015 के आंकड़ों के मुताबिक, केंद्र सरकार के 70 सेक्रेटरी में कोई ओबीसी नहीं था और एससी और एसटी 3-3 ही थे. 278 ज्वाइंट सेक्रेटरी में सिर्फ 24 ओबीसी थे जबकि 10 एससी और 10 एसटी थे.
तीसरी सहमति इस बारे में कायम करनी चाहिए कि राजकाज और खासकर नौकरशाही में तमाम सामाजिक समूहों, खासकर वंचित समूहों, की हिस्सेदारी न सिर्फ अच्छी बात है, बल्कि लोकतंत्र के लिए ये ज़रूरी भी है. किसी भी संस्था का सार्वजनिक या सबके हित में होना इस बात से भी तय होता है कि इसमें विभिन्न समुदायों और वर्गों की व्यापक हिस्सेदारी है या नहीं. महात्मा ज्योतिबा फुले ने इस सवाल को बेहतरीन तरीके से उठाया था. जब उन्होंने पाया कि पुणे सार्वजनिक सभा में पिछड़ी जातियों का प्रतिनिधित्व नहीं है तो उन्होंने पूछा कि फिर ये सार्वजनिक सभा कैसे हुई.
इस विचार को भारतीय संविधान ने मान्यता दी और अनुच्छेद 16(4) के तहत व्यवस्था की गई है कि अगर राज्य की नज़र में किसी पिछड़े वर्ग का सरकारी नौकरियों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो सरकार उस वर्ग या वर्गों को नौकरियों में आरक्षण देने के उपाय कर सकती है.
इन तीन स्थापनाओं पर सहमति के बाद हम उन कारणों पर विचार कर सकते हैं, जिनकी वजह से एससी, एसटी, ओबीसी के लोगों की नौकरशाही के उच्च तथा महत्वपूर्ण पदों पर हिस्सेदारी नहीं है.
नौकरी में अलग-अलग उम्र में आना और कार्यकाल में अंतर: सिविल सर्विस परीक्षा के लिए यूपीएससी के मापदंडों के हिसाब से अनरिजर्व और ईडब्ल्यूएस कैटेगरी के कैंडिडेट की अधिकतम उम्र 32 साल हो सकती है. ओबीसी के कैंडिडेट को उम्र में तीन साल और एससी और एसटी कैंडिडेट को पांच साल की छूट है. यानी ओबीसी कैंडिडेट 35 साल तक और एससी-एसटी कैंडिडेट 37 साल की उम्र तक केंद्रीय सिविल सर्विस में आ सकते हैं, लेकिन इसका ये भी मतलब है कि एससी, एसटी और ओबीसी के कई कैंडिडेट, अनरिजर्व और ईडब्ल्यूएस कैंडिडेट के मुकाबले, कम समय नौकरी कर पाएंगे. ये बात बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि सबसे ज्यादा समय तक नौकरी कर रहे कैंडिडेट के बीच से ही टॉप की पोजीशन के लिए अफसर चुने जाते हैं. सैद्धांतिक रूप से देखें तो सिविल सेवा के दो अफसरों के कार्यकाल में 16 साल तक का अंतर हो सकता है क्योंकि एक अफसर 21 साल की उम्र में और दूसरा अफसर 37 साल की उम्र में सर्विस में आ सकता है.
- दूसरी समस्या उच्च पदों के लिए एंपैनलमेंट में है. अभी व्यवस्था है कि भारत सरकार का कार्मिक विभाग नियत समय की सर्विस में पूरी कर चुके अफसरों से पूछता है कि क्या वे विभिन्न उच्च पदों के लिए एंपैनल होना चाहते हैं. जो अफसर सहमति जताते हैं उनमें से सरकार कुछ अफसरों को उन पदों के पैनल में चुन लेती है. इसी पैनल से अफसरों को निर्धारित प्रमोशन के लिए सिलेक्ट किया जाता है. अभी पैनल में अफसरों को लेने की प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है और इसमें विभाग के उच्चाधिकारियों का मंतव्य यानी उनकी राय महत्वपूर्ण होती है. चूंकि उच्च पदों पर एससी, एसटी, ओबीसी के अफसर कम हैं तो अनरिजर्व कैटेगरी के अफसरों के प्रति एक स्वाभाविक पक्षपात हो सकता है. कम-से-कम इससे इनकार तो नहीं किया जा सकता. इसलिए ज़रूरी है कि इस प्रक्रिया में पक्षपात की आशंका को न्यूनतम किया जाए और विभिन्न मापदंडों को स्कोर के आधार पर निर्धारित किया जाए. अगर ऐसा कोई निष्पक्ष सिस्टम बना पाना संभव न हो तो फिर जिन अफसरों ने निर्धारित कार्यकाल पूरा कर लिया है, उनमें सभी को पैनल में ले लिया जाए.दूसरे प्रशासनिक सुधार ट्रिब्यूनल की रिपोर्ट ने कैबिनेट सेक्रेटेरिएट के आंकड़ों के हवाले से बताया है कि अनरिजर्व कैटेगरी का कैंडिडेट औसतन 24.7 साल की उम्र में सेवा में आता है, जबकि एससी, एसटी और ओबीसी के अफसर क्रमश: 27.6, 26.9 और 27.1 साल की उम्र में सेवा में आते हैं. यानी रिजर्व कैटेगरी के कैंडिडेट औसतन अनरिजर्व कैटेगरी के कैंडिडेट से तीन साल कम नौकरी करते हैं. प्रशासनिक सुधार ट्रिब्यूनल के मुताबिक, रिजर्व कटेगरी के कई अफसर इस वजह से नीति निर्माता के स्तर पर नहीं पहुंच पाते. रिपोर्ट में ये भी लिखा गया है कि “इन वर्गों के बेहद कम अफसर ही सेक्रेटरी पद के लिए उपलब्ध होते हैं.”लोक प्रशासन पर बनी कोठारी कमेटी ने तो जनरल ही नहीं, एससी और एसटी कैंडिडेट के लिए भी सिर्फ दो बार परीक्षा में बैठने की व्यवस्था बनाने की सिफारिश की थी. कई आयोग और समितियां इस बात पर एकमत हैं कि अफसर ज्यादा उम्र में सेवा में नहीं लिए जाने चाहिए. ये बेहद उपयोगी सुझाव है.दूसरे प्रशासनिक सुधार ट्रिब्यूनल ने सिफारिश की है कि सिविल सर्विस परीक्षा में बैठने के लिए अनरिजर्व कैंडिडेट की उम्र 21 से 25 साल होनी चाहिए. ओबीसी के लिए इसमें तीन साल और एससी-एसटी के लिए अधिकतम उम्र में चार साल छूट देने की बात ट्रिब्यूनल ने की है. इस उम्र तक अगर अफसर नौकरी में आ जाते हैं तो इस बात की पूरी संभावना होगी कि हर अफसर सेक्रेटरी के लिए एंपैनल होने के काबिल बन पाएगा.
दूसरा सुझाव पहली नज़र में अटपटा लग सकता है, लेकिन अगर ज़िद्द है कि अफसर 32, 35 और 37 साल तक के हो सकते हैं तो ऐसा नियम बनाया जा सकता है कि अफसर चाहे जिस भी उम्र में आए, सबको समान कार्यकाल मिलेगा.
- एक और महत्वपूर्ण पहलू, किसी अफसर को काबिल और ईमानदार मानने या न मानने को लेकर है. हालांकि, प्रशासनिक सेवाओं में जाति आधारित पक्षपात को साबित करना हमेशा संभव नहीं है, लेकिन उच्च पदों पर उनकी लगभग अनुपस्थिति को देखते हुए इसकी आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता. जब 22.5 फीसदी एससी-एसटी तथा 27 फीसदी ओबीसी अफसर सर्विस में आ रहे हैं तो वे बीच में कहां अटक जा रहे हैं. दूसरे प्रशासनिक सुधार ट्रिब्यूनल ने सालाना रिपोर्ट लिखने के मामले में पक्षपात कम करने के लिए ये सिफारिश की थी कि आउट ऑफ टर्न प्रमोशन ग्रेड किसी भी स्तर पर सिर्फ 5 से 10 फीसदी अफसरों को ही दिया जाए. साथ ही ये सिफारिश भी की गई थी कि सालाना गोपनीय रिपोर्ट की जगह एक नया सिस्टम लाया जाए, जिसमें कार्यभार पूरा करने जैसे स्पष्ट रूप से पहचाने जाने वाले मानकों के आधार पर किसी अफसर का मूल्यांकन हो.
सरकार अगर सचमुच नौकरशाही के उच्च पदों पर सामाजिक विविधता लाना चाहती है, तो उसे इन उपायों पर विचार करना चाहिए.
(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व मैनेजिंग एडिटर हैं और उन्होंने मीडिया और समाजशास्त्र पर किताबें लिखी हैं. उनका एक्स हैंडल @Profdilipmandal है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)
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