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Friday, 10 May, 2024
होममत-विमतजब मोदी अपनी ओबीसी पहचान को आगे कर रहे थे, तब राहुल अपना जनेऊ दिखा रहे थे

जब मोदी अपनी ओबीसी पहचान को आगे कर रहे थे, तब राहुल अपना जनेऊ दिखा रहे थे

संख्या की बात करें तो बीजेपी ने अब तक 68 मुख्यमंत्री बनाए हैं, जिनमें 21 ओबीसी थे. जबकि कांग्रेस के बनाए हुए 250 मुख्यमंत्रियों में सिर्फ 43 ही ओबीसी हैं.

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मंडल कमीशन यानी दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग की 1980 में राष्ट्रपति को सौंपी गई रिपोर्ट के मुताबिक भारत में अन्य पिछड़े वर्ग यानी ओबीसी की संख्या 52 प्रतिशत है. बाद में इस लिस्ट में कई और जातियां जुड़ गईं और अब जाहिर तौर पर ये संख्या और ज्यादा है. लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में ओबीसी की दावेदारी कम रही है. खासकर मुख्यमंत्री और केंद्र में कैबिनेट मंत्री जैसे उच्च पदों पर.

ओबीसी की राजनीति में हिस्सेदारी हाल के दशकों में बढ़ी है और इसके साथ ही संबंधित आंकड़े भी आने लगे हैं. शोधकर्ता निशांत रंजन ने आजादी के बाद अब तक बने सभी मुख्यमंत्रियों का आंकड़ा इकट्ठा करने पर पाया कि ओबीसी मुख्यमंत्री बनाने के मामले में बीजेपी ज्यादा उदार साबित हुई है, जबकि कांग्रेस इस मामले में सबसे पीछे रही है.

इस लेख में मैं ये बताने की कोशिश करूंगा कि ओबीसी मुख्यमंत्रियों को लेकर इन दो प्रमुख दलों के आंकड़ों में अंतर के सामाजिक और राजनीतिक कारण क्या हो सकते हैं तथा ओबीसी को राजनीति में हिस्सेदारी देने के मामले में बीजेपी ने क्यों और कैसे कांग्रेस को पीछे छोड़ दिया है?

ओबीसी हिस्सेदारी का सवाल और आंकड़े

आंकड़े सिर्फ संख्या नहीं होते. कई बार वे कहानी भी कहते हैं. भारत जैसे सामाजिक विविधता वाले देश में चुनावी आंकड़ों से राजनीति विज्ञान के कई नई क्षेत्र खुलते हैं. निशांत रंजन द्वारा आजादी के बाद के मुख्यमंत्रियों की सामाजिक पृष्ठभूमि के संबंध में जुटाए गए आंकड़ों से पता चलता है कि बीजेपी ने अब तक जितने मुख्यमंत्री बनाए हैं, उनमें से 30.9 फीसदी ओबीसी हैं. जबकि कांग्रेस द्वारा बनाए गए मुख्यमंत्रियों में सिर्फ 17.3 फीसदी ओबीसी हैं. अन्य दलों के लिए ये आंकड़ा 28 फीसदी है.

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संख्या की बात करें तो बीजेपी ने अब तक 68 मुख्यमंत्री बनाए हैं, जिनमें 21 ओबीसी थे. जबकि कांग्रेस के बनाए हुए 250 मुख्यमंत्रियों में सिर्फ 43 ही ओबीसी हैं. इसे सिर्फ संयोग नहीं कहा जा सकता क्योंकि भारतीय राजनीति में जाति के महत्व से कोई इनकार नहीं कर सकता है. पार्टियां तो इसे खूब समझती हैं. पंचायत से लेकर विधायक के चुनाव में टिकट देने, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री बनाने और पार्टी पदाधिकारियों की नियुक्त में जाति समीकरण और संतुलन का ध्यान राजनीतिक दल रखते हैं.

बीजेपी के बारे में राजनीतिक चर्चाओं में ये कहा जाता रहा है कि बीजेपी ब्राह्मणों-बनियों की पार्टी है. ये धारणा आरएसएस के साथ उसके जुड़ाव और जनसंघ और बाद के दिनों पर पार्टी नेतृत्व में रहे लोगों के कारण और मजबूत हुई है. लेकिन मुख्यमंत्रियों के चयन के मामले में बीजेपी का राजनीतिक व्यवहार उसकी लोक छवि के उलट है. ओबीसी मुख्यमंत्री बनाने में वह काफी उदार साबित हुई है. वहीं कांग्रेस की पहचान समावेशी होने की है, पर अपने ओबीसी नेताओं को मुख्यमंत्री बनाने के मामले में वह समावेशी नहीं रही.


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कांग्रेस का ब्राह्मण-मुसलमान-दलित समीकरण बनाम हिंदुत्व की राजनीति

बीजेपी के मुख्यमंत्रियो की लिस्ट में कोई मुसलमान नहीं है. पहली नजर में ये एक धार्मिक फैसला लगता है. लेकिन अनजाने में ये बात हिंदू ओबीसी के लिए फायदेमंद साबित हुई है. हो सकता है कि बीजेपी ऐसा इसलिए कर रही है ताकि वह ज्यादा से ज्यादा हिंदू जातियों को अपने पाले में ला सके. इस वजह से उसके पास ओबीसी मुख्यमंत्री बनाने की ज्यादा क्षमता आ गई है. मुसलमानों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व न देने के पीछे बीजेपी ये तर्क दे सकती है कि तमाम ओपिनियन और एक्जिट पोल साबित कर रहे हैं कि मुसलमान बीजेपी को वोट नहीं देते या नाम मात्र के मुसलमान ही उसे वोट देते हैं. तो फिर वे मुसलमानों को टिकट या राजनीतिक पद या मुख्यमंत्री पद क्यों दें?

लेकिन तथ्य यही है कि मुसलमानों का निषेध बीजेपी की राजनीतिक विचारधारा में है और इसका स्रोत सावरकर द्वारा प्रतिपादित हिंदुत्व के विचार में है. ये और बात है कि इसकी वजह से आज बीजेपी हिंदू ओबीसी नेताओं को एडजस्ट करने के लिए बेहतर स्थिति में है. मिसाल के तौर पर कल्याण सिंह या शिवराज सिंह चौहान जैसे मुख्यमंत्री एक साथ हिंदू ओबीसी को भी लुभाते हैं और दूसरी तरफ हिंदुत्व समर्थकों को भी. ये बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए भी सही है. वे एक साथ अपनी ओबीसी और हिंदुत्व समर्थक पहचान को लेकर चलते हैं.

ओबीसी हिस्सेदारी की ऐतिहासिकता

कांग्रेस आजादी के आंदोलन तक तो तमाम सामाजिक वर्गों का नेतृत्व करने की नीति पर चल रही थी, पर आजादी के बाद सीमित संसाधनों की हिस्सेदारी का सवाल आ गया. सबको देने के लिए संसाधन और अवसर नहीं थे. इस दौर में कांग्रेस ने ब्राह्मण नेतृत्व में मुसलमानों और अनुसूचित जातियों का समीकरण बनाया क्योंकि ये दो समुदाय ज्यादा हिस्सेदारी मांगने की स्थिति में नहीं थे. इसे राजनीति विज्ञानी अतिरेक का गठबंधन या अलग अलग छोर का गठबंधन कहते हैं. इसमें दो अलग ध्रुव पर खड़े समूहों- ब्राह्मण और दलित तथा ब्राह्मण और मुसलमान- का समीकरण बनाया गया. कांग्रेस के समीकरण में ओबीसी के लिए गुंजाइश बहुत कम थी. इसलिए हम पाएंगे कि कांग्रेस इस दौर में ओबीसी मुख्यमंत्री लगभग नहीं बना रही थी. सबसे बड़े राज्य यूपी में कांग्रेस ने कभी कोई ओबसी मुख्यमंत्री नहीं बनाया. साथ में कांग्रेस को मुसलमान नेताओं को भी एडजस्ट करना था. इस तरह ओबीसी की गुंजाइश और कम हो गई.

ये समीकरण 70 के दशक के अंत तक तो चला, लेकिन इस बीच पिछड़ी जातियों की हिस्सेदारी का सवाल सामने आने लगा था. साथ ही अनुसूचित जातियों के नेतृत्व में बहुजन राजनीति भी मजबूत हो रही है. तीसरी तरफ, शाहबानो फैसले पर कांग्रेस की सांप्रदायिक राजनीति के विरोध में बीजेपी की सांप्रदायिक राजनीति को खाद-पानी मिल गया. ये सब 90 आने से पहले हो गया. इन तीन तरफा हमलों में भारतीय राजनीति का कांग्रेस सिस्टम टूट गया और देश मिली जुली सरकार के युग में प्रवेश कर गया. इस बारे में राजनीति विज्ञान के विद्वान और अब राजनेता योगेंद्र यादव की थीसिस पढ़नी चाहिए.

इस संदर्भ में अगर हम ओबीसी मुख्यमंत्रियों के आंकड़े को देखें तो स्थिति और स्पष्ट हो जाएगी. कांग्रेस सिस्टम के दौर में ओबीसी के मुख्यमंत्री बेहद कम बने. इसलिए कांग्रेस का कुल आंकड़ा इस मायने में बहुत खराब रहा. जब बीजेपी का उभार होता है, तब तक ओबीसी राजनीति में मजबूत होने लगे थे. बीजेपी चूंकि ब्राह्मण-बनिया पार्टी की छवि से मुक्त भी होना चाहती थी, इसलिए 90 के दौर में उसने कल्याण सिंह, शिवराज सिंह चौहान, उमा भारती, बाबू लाल गौर, विनय कटियार आदि को आगे कर दिया. ओबीसी को मुख्यमंत्री बनाने में भी बीजेपी ने बाजी मार ली.

लेकिन इस बदलती राजनीति और ओबीसी उभार को देखकर भी कांग्रेस बदल नहीं पाई. इसकी वजह शायद ये रही कि कांग्रेस के जो नेता चुनकर आ रहे थे, उसमें तो ओबीसी की अच्छी हिस्सेदारी थी, पर पार्टी का संगठन सवर्ण हिंदुओं और कुछ हद तक मुसलमानों के हाथ में रहा. इस वजह से कांग्रेस अपने संरचनात्मक स्वरूप में सवर्ण पार्टी बनी रह गई. वह बीजेपी जितना ओबीसी भी नहीं बन पाई.

आखिरी दांव बीजेपी ने 2013 में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के ओबीसी उम्मीदवार के तौर पर पेश करके चल दिया. मोदी अपने हर भाषण में अपनी जातीय पहचान के संकेत दे रहे थे. खुद को पिछड़ी मां का बेटा बता रहे थे. कांग्रेस के नेता राहुल गांधी उस समय अपना जनेऊ दिखाकर घूम रहे थे और अपनी सारस्वत कश्मीरी ब्राह्मण की पहचान को आगे कर रहे थे.

(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व मैनेजिंग एडिटर हैं, और उन्होंने मीडिया और समाजशास्त्र पर किताबें लिखी हैं. उनका एक्स हैंडल @Profdilipmandal है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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