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Tuesday, 7 May, 2024
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मुसलमानों और ईसाइयों को अनुसूचित जाति में शामिल करने पर क्यों बदल गई मेरी राय

धर्म और धर्म को मानने वाले लोगों के लोक व्यवहार के संबंध को देखा जाए तो ये तो स्पष्ट है कि हिंदू जिन धर्म ग्रंथों को मानते हैं उनमें जाति, जातिगत भेदभाव और छुआछूत है.

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मुसलमानों और ईसाइयों की कुछ जातियों को अनुसूचित जाति (एससी) में शामिल करने का मामला हाल के दिनों में फिर से सतह पर है. सुप्रीम कोर्ट इस संबंध में दायर एक याचिका की सुनवाई कर रहा है जिसमें एससी की लिस्ट को व्यापक बनाने का अनुरोध किया गया है. यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर छिड़ी बहस में ये तर्क भी दिया जा रहा है कि एकरूपता लानी है तो मुसलमानों और ईसाइयों की तथाकथित “अछूत” या “दलित” जातियों को अनुसूचित जाति का दर्जा और उससे जुड़ी सुविधाएं क्यों नहीं दी जा रही हैं या जब कोई हिंदू (सिख और नवबौद्ध) दलित मुसलमान या ईसाई बनता है तो उसका एससी दर्जा खत्म क्यों हो जाता है?

एआईएमआईएम के सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने ट्वीट करके ये सवाल उठाया है. उनके तर्क का आधार ये है कि “दलित मुसलमान” होते हैं और सरकार और बीजेपी उन्हें एससी का दर्जा देने का विरोध कर रही है.

इस आलेख में मैं ये पक्ष रखूंगा कि सांसद ओवैसी क्यों गलत हैं और एससी लिस्ट को इस तरह बड़ा बनाना क्यों सही नहीं है. इस संदर्भ में ये स्पष्टीकरण देना आवश्यक है कि मैं पहले इस पक्ष में हुआ करता था कि एससी की लिस्ट में मुसलमानों और ईसाइयों को भी शामिल किया जाना चाहिए. इस बारे में मैंने द प्रिंट पर एक विस्तृत आलेख भी लिखा था.

वह लेख नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के मुंबई जोन के एक अफसर समीर वानखेड़े के कास्ट सर्टिफिकेट को लेकर हुए विवाद के बाद लिखा गया था. समीर के पिता पुलिस में थे और उनका निकाह एक मुस्लिम महिला से हुआ था. समीर के अपने निकाहनामे में, जिसे महाराष्ट्र के पूर्व मंत्री नवाब मलिक ने सबके सामने रखा, भी उसका नाम समीर दाऊद वानखेड़े है. इस आधार पर नवाब मलिक ने ये तर्क रखा कि समीर वानखेड़े ने मुसलमान होते हुए भी अनुसूचित जाति का सर्टिफिकेट बनवाया और उसके आधार पर नौकरी ली, जो गैरकानूनी है. उन्होंने ये भी कहा कि इस तरह से समीर ने एक वाजिब अनुसूचित जाति के कैंडिडेट को नौकरी से वंचित भी किया. महाराष्ट्र के सामाजिक न्याय विभाग ने नवाब मलिक के आरोपों को सही नहीं माना क्योंकि समीर और उनके पिता का धर्मांतरण साबित नहीं हुआ.

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अनुसूचित जाति की लिस्ट पर मैं अपनी पोजीशन बदल रहा हूं क्योंकि मेरे तर्क जिन तथ्यों पर आधारित थे उनमें से कई गलत थे और इस बीच इस बारे में नया रिसर्च भी सामने आया है. वे गलत तथ्य सरकारी स्रोतों से आए और इतनी बार दोहराए गए कि मेरे लिए तब सच को समझ पाना संभव नहीं हो पाया.

मेरा वह आलेख पांच तर्कों पर आधारित था, जिनके कारण मैं मुसलमानों और ईसाइयों को एससी में शामिल करने को न्यायोचित मान रहा था.

  • धर्म बदलने से जाति नहीं बदलती. दक्षिण एशिया में धर्म से ज्यादा स्थायी जाति है और इसलिए अगर कोई हिंदू दलित मुसलमान या ईसाई बन जाता है तो इससे उसका दलित होना नहीं बदलता. मेरी राय थी कि एससी लिस्ट को धर्म से निरपेक्ष या धर्म की पाबंदी से मुक्त होना चाहिए.
  • संवैधानिक अंतर्विरोध. संवैधानिक आदेश 1950 के तहत चूंकि खास धर्म (धर्मों) के लोगों को ही अनुसूचित जाति में शामिल करने की व्यवस्था है, इसलिए यह धर्म के पालन की (जिसमें जाहिर है धर्म बदलने की स्वतंत्रता शामिल है) का निषेध करता है. इस नाते ये समानता के सिद्धांत के भी खिलाफ है. मैंने लेख में ये लिखा था कि सिखों को तो बाद में इस लिस्ट में शामिल किया गया. और जब सिखों को शामिल किया गया तो औरों को क्यों नहीं?
  • सिख और बौद्ध धर्म को विशेष स्थान. हिंदू धर्म में छुआछूत है, इस कारण उनमें अनुसूचित जाति होने का तर्क स्पष्ट है. लेकिन सिख और बौद्ध धर्म में तो जाति नहीं है. फिर सिखों और बौद्धों को एससी का दर्जा क्यों? मुसलमानों और ईसाइयों को क्यों नहीं? मैंने माना था कि ये पूरी व्यवस्था धर्म के आधार पर भेदभाव करती हैं.
  •  मुसलमान और ईसाई ओबीसी हो सकते हैं, जिसका आधार सामाजिक पिछड़ापन है. मंडल कमीशन से सामाजिक पिछड़ापन का मुख्य आधार जाति को माना है. तो अगर मुसलमान और ईसाई जाति के आधार पर ओबीसी हो सकते हैं तो एससी क्यों नहीं?
  • मेरा आखिरी तर्क था कि चूंकि एससी का रिजर्वेशन जनसंख्या के अनुपात में है, इसलिए नई जातियों या वर्गों के इस लिस्ट में आने से कुल एससी रिजर्वेशन बढ़ जाएगा और जो पहले से एससी हैं, उनको कोई नुकसान नहीं होगा.

अब मैं जब अनुसूचित जाति की लिस्ट के इतिहास को देख रहा हूं, संविधान सभा की बहस पढ़ रहा हूं और संबंधित दस्तावेज और बाद के दिनों पर आए रंगनाथ मिश्रा कमीशन की रिपोर्ट की पड़ताल कर रहा हूं तो ऐसा लगता है कि तब मैं गलत था. इसलिए आवश्यक हो गया है कि मैं अपनी पोजीशन में सुधार करूं. विचारों में आए इस बदलाव के प्रमुख कारण इस प्रकार हैं.


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धर्म और धर्म को मानने वाले लोगों के लोक व्यवहार के संबंध को देखा जाए तो ये तो स्पष्ट है कि हिंदू जिन धर्म ग्रंथों को मानते हैं उनमें जाति, जातिगत भेदभाव और छुआछूत है. जैसा कि बाबा साहब ने एनिहिलेशन ऑफ कास्ट में लिखा है कि हिंदू जातिवाद नहीं करता. वह दरअसल अपने धर्म का पालन करता है. लेकिन यही बात मुसलमानों और ईसाई धर्म के लोगों के लिए सच नहीं है. ईसाई या मुसलमान जब जातिवाद करता है तो वह अपने धर्म के खिलाफ काम करता है. इसलिए जैसा कि रंगनाथ मिश्रा कमीशन की सदस्य सचिव आईएएस अफसर आशा दास ने अपनी टिप्पणी में लिखा है- अगर मुसलमानों या ईसाइयों को अनुसूचित जाति में शामिल किया जाता है तो यह उन धर्मों में जातिवाद को शामिल करना होगा. ये नहीं करना चाहिए. सांसद ओवैसी जब “दलित मुसलमान” लिख रहे हैं तो दरअसल वे दो बातें स्वीकार कर रहे हैं. एक, मुसलमान आपस में छुआछूत करते हैं और उनमें आपस में शादियां नहीं होती और हैदराबाद जैसी जगह में, जहां सदियों तक मुसलमान शासन रहा, जो लोग दलित से मुसलमान बने, वे दलित ही रह गए. ये धर्मांतरण के प्रमुख वादे के भी खिलाफ है. अनुसूचित जाति पर हिंदुओं (संविधान के अनुच्छेद 25 की परिभाषा के मुताबिक इनमें सिख और बौद्ध शामिल हैं) का ही दावा नैतिक है क्योंकि उनके धर्म में ही जाति और छुआछूत है या छुआछूत तथा भेदभाव की चर्चा है.

इस संदर्भ में साउथ एशिया रिसर्च नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित अरविंद कुमार के एक रिसर्च आर्टिकल से मसले की वैधानिकता और संवैधानिकता को देखने नई दृष्टि मिलती है. उन्होंने इस मामले के पूरे इतिहास को खंगाला है. मिसाल के तौर पर, वे बताते हैं कि अनुसूचित जातियों की सूची गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 से निकली है और इसे और ठोस रूप गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऑर्डर (शिड्यूल्ड कास्ट) 1936 में मिला. ये कहना सरासर गलत है कि इसमें धर्म की कोई शर्त नहीं है. इस आदेश में स्पष्ट लिखा है कि ईसाई धर्म मानने वाले और बंगाल के बौद्ध अनुसूचित जाति में नहीं हो सकते.

कुमार आगे लिखते हैं कि संविधान सभा की बहस में इस बात पर काफी चर्चा हुई है कि जो हिंदू अपना धर्म बदलकर मुसलमान या ईसाई बन जाते हैं क्या वे अनुसूचित जाति में बने रहे सकते हैं. संविधान सभा ने इस विचार को खारिज कर दिया. इस बारे में मुनीसामी पिल्लई के भाषण से संविधान सभा को दिशा मिली.

जाहिर है कि इसी आलोक में जब संविधान का पहला ड्राफ्ट बना तो उसमें अनुसूचित जातियों की लिस्ट शामिल थी, और उसमें मुसलमान और ईसाइयों को जगह नहीं दी गई. संविधान के दूसरे ड्राफ्ट में इस लिस्ट को अलग से प्रकाशित करने का निर्णय हुआ और यही लिस्ट संविधान आदेश 1950 में प्रकाशित हुई. इसे नोटिफाई कानून मंत्रालय ने किया. उस समय कानून मंत्री डॉ. बीआर आंबेडकर थे और चूंकि पहला आम चुनाव नहीं हुआ था, इसलिए संविधान सभा ही संसद की जगह काम कर रही थी.

मेरा ये मानना गलत था कि इस लिस्ट में सिख नहीं थे और उनको बाद में, यानी 1956 में अनुसूचित जाति में शामिल किया गया. ये गलती इस वजह से हुई क्योंकि जस्टिस रंगनाथ मिश्रा कमीशन ने ये झूठ अपनी रिपोर्ट में प्रकाशित किया. रंगनाथ मिश्रा मुसलमानों को अनुसूचित जाति में शामिल करना चाहते थे (ये बात उनकी सिफारिश में है), इसलिए वे बार-बार लिख रहे थे कि अनुसूचित जाति में होने के लिए धर्म की कोई शर्त नहीं थी और ये शर्त तो 1950 में जोड़ी गई और सिखों को तो 1956 में इस लिस्ट में शामिल किया गया!

1950 के आदेश को मैंने देखा तो उसमें स्पष्ट लिखा है कि अनुसूचित जाति में हिंदू के अलावा सिखों की रामदासी, कबीरपंथी, मजहबी और सिकलगर जातियों को भी अनुसूचित जाति में शामिल किया जाएगा.

ये झूठ चूंकि केंद्र सरकार की एक कमेटी ने लिखा और वो भी ऐसी कमेटी ने, जिसके अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश थे, तो फिर इसे सच मानकर लेख लिखे जाने लगे और बात चल पड़ी. मैं भी इसका शिकार हो गया था.

अब मेरे लिए ये संभव नहीं है कि मैं मुसलमानों और ईसाइयों को अनुसूचित जाति की लिस्ट में शामिल करने का समर्थन करूं. मुसलमानों और ईसाइयों में जो वंचित हैं और जिनका दूसरे मुसलमान और ईसाई शोषण या दमन करते हैं, उसका मैं विरोध करता हूं और चाहता हूं कि वे अपने धर्म में रहते हुए इन समस्याओं का समाधान करें. सामाजिक और शैक्षणिक आधार पर इन लोगों को ओबीसी के अंदर आरक्षण मिलता है, जो वाजिब और संविधान के अनुरूप है. शासन को उनके साथ न्याय करना चाहिए लेकिन अनुसूचित जाति में उनको शामिल करना गलत होगा.

इस संदर्भ में मैं अरविंद कुमार के इन निष्कर्षों से सहमत हूं.

  1. 1935/36 में बनी अनुसूचित जातियों की लिस्ट और संविधान सभा की बहस का निष्कर्ष है कि अनुसूचित जाति की लिस्ट में सभी धर्मों के लोगों को शामिल करने का विचार कभी नहीं रहा.
  2. इस लिस्ट में सिखों को शामिल करना इसलिए हो पाया क्योंकि संविधान निर्माण और विभाजन के दौरान सिख नेताओं ने इसके पक्ष में तर्क रखे, जिसे संविधान सभा ने स्वीकार किया
  3. इन बहसों के दौरान मुसलमान और ईसाई नेताओं ने ऐसी कोई मांग नहीं की. उन्होंने अपने पर्सनल लॉ और माइनॉरिटी संस्थान चलाने की आजादी जैसी धार्मिक और सांस्कृतिक मांगें रखीं.
  4. मुसलमान और ईसाई के तौर पर एकजुट होकर अपनी मांग रखने के लिए उन्होंने अपने जातीय विभाजन और छुआछूत आदि के प्रश्न को पीछे रखा.

(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व मैनेजिंग एडिटर हैं, और उन्होंने मीडिया और समाजशास्त्र पर किताबें लिखी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Profdilipmandal है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः ऋषभ राज)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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