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Monday, 23 December, 2024
होमदेशSC में नोटबंदी के खिलाफ लंबित मामलों में अब तक नहीं बनी संविधान पीठ, सरकार का कदम महज 'अकादमिक सवाल' बनकर रह गया है

SC में नोटबंदी के खिलाफ लंबित मामलों में अब तक नहीं बनी संविधान पीठ, सरकार का कदम महज ‘अकादमिक सवाल’ बनकर रह गया है

नोटबंदी को चुनौती देने वाली तमाम याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट के समक्ष लंबित हैं. सभी याचिकाओं को अदालत की पांच सदस्यीय संविधान पीठ के पास भेजा गया है जो अब तक गठित नहीं हुई है.

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नई दिल्ली: ‘भाईयों और बहनों…भ्रष्टाचार और काले धन की पकड़ को कमजोर करने के लिए, हमने निर्णय किया है कि पांच सौ रुपए और एक हज़ार रुपए के नोट, जो अभी चलन में हैं, आज आधी रात के बाद से वैध मुद्रा नहीं रह जाएंगे’.

ये थे वो शब्द, जिनके साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 8 नवंबर 2016 की रात 8 बजे, टेलीवीज़न पर प्रसारित किए गए राष्ट्र के नाम संबोधन में नोटबंदी का ऐलान किया.

लोग हैरान रह गए, ये कहना शायद एक हल्का बयान होगा, अगर आप देखें कि सरकार ने किस गोपनीय तरीके से ये फैसला लिया था और ये तथ्य भी कि चलन में कुल करेंसी का 86 प्रतिशत, मोदी के ऐलान के चार घंटों के भीतर अवैध करार दे दिया जाएगा. फिर पीएम ने कहा कि जिन लोगों के पास ऐसी मुद्रा है, वो उसे 10 नवंबर से 30 दिसंबर के बीच, अपने बैंक या पोस्ट ऑफिस खातों में जमा करा सकते हैं.

ये कदम रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया अधिनियम 1934 के अंतर्गत जारी, एक नोटिफिकेशन के ज़रिए उठाया गया लेकिन दिसंबर 2016 में सरकार ने स्पेसिफाइड बैंक नोट्स सिसेशन ऑफ लायबिलिटीज़ ऑर्डिनेंस पारित कर दिया, जिसके तहत 31 मार्च 2017 के बाद बंद किए गए 500 और 1,000 रुपए रखना एक कानूनी अपराध करार दे दिया गया.

पीएम की घोषणा के बाद जल्दी ही बहुत सी याचिकाएं दायर की गईं जिनमें इस कदम की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई. दिसंबर 2016 में इन याचिकाओं को सुप्रीम कोर्ट की एक संवैधानिक पीठ को सौंप दिया गया. जो निजी याचिकाकर्ता निर्धारित समय सीमा के भीतर पैसा नहीं जमा कराए पाए थे, उन्हें भी इस संविधान पीठ के समक्ष, अपने आवेदन दाखिल करने को कहा गया.

तब से, चार साल से अधिक हो गए हैं लेकिन अभी तक संविधान पीठ का गठन भी नहीं हुआ है.


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‘आर्थिक आतंकवाद’

एक याचिकाकर्ता विवेक नारायण शर्मा ने अपनी याचिका में कहा था कि विमुद्रीकरण ने ‘पूरे भारत के मेट्रोपॉलिटंस, शहरों, कस्बों और गांव तक में एक घबराहट और आपात स्थिति जैसे हालात पैदा कर दिए थे’.

याचिका में कहा गया, ‘प्रतिवादी (सरकार) द्वारा उक्त स्कीम के कार्यान्वयन के अनुचित, अव्यवस्थित और तानाशाही तरीके से भारत के सभी नागरिकों के संवैधानिक ‘जीने के अधिकार’ और ‘व्यापार के अधिकार’ का उल्लंघन किया जा रहा है’.

शर्मा की याचिका में कहा गया कि ‘भारत के 125 करोड़ नागरिकों की ज़िंदगी की कीमत पर पैदा किए गए इस संकट को आम आदमी के जीवन में किसी ‘आर्थिक आतंकवाद’ से कम नहीं कहा जा सकता.

शर्मा अब कहते हैं, ‘इस मामले में समय बहुत महत्वपूर्ण था’.

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘अगर कोर्ट ने शुरू में ही रोक लगा दी होती, तभी उसका कुछ फायदा पहुंच सकता था’. उन्होंने कहा, ‘अब ये सिर्फ एक अकादमिक सवाल है कि सरकार को ऐसी नीति किस तरह लानी चाहिए, उसे कैसे लागू करना चाहिए ताकि लोगों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी बाधित न हो’.

शर्मा ने आगे कहा, ‘अब तो सवाल उस प्रक्रिया की वैधता का रह गया है, जो विमुद्रीकरण के लिए अपनाई गई थी- वो प्रक्रिया वैध थी या अवैध. फैसला अब उस पहलू पर होगा ताकि अगर सरकार फिर ऐसी कोई नीति लाना चाहती है, तो वो कोर्ट द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन कर सके’.


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‘गोपनीयता बहुत ज़रूरी थी’

याचिकाओं में ये भी कहा गया था कि इस स्तर की नोटबंदी केवल संसद के कानून द्वारा की जा सकती है, किसी नोटिफिकेशन के ज़रिए नहीं.

अपने जवाब में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि 7 नवंबर 2016 को नोटबंदी की घोषणा से एक दिन पहले, उसने रिज़र्व बैंक को करेंसी नोट्स वापस लेने की सलाह दी थी, ताकि ‘नकली नोटों, आतंकी फंडिंग और काले धन की तिहरी समस्या को कम किया जा सके’.

2018 के अंत में कोर्ट में दाखिल एक हलफनामे में सरकार ने कहा, ‘उस पत्र में सलाह दी गई थी कि नकदी से काले धन में सुविधा रही है, चूंकि नकद में किए गए सौदों का कोई ऑडिट रिकॉर्ड नहीं रहता. काला धन खत्म होने से घोस्ट इकॉनमी का लंबा साया भी कम होगा और ये भारत के विकास के लिए भी सकारात्मक साबित होगा’.

उसमें ये भी दावा किया गया कि घोषणा से पहले के पांच वर्षों में 500 और 1,000 रुपए के नोटों के चलन में वृद्धि हुई है. उसमें आगे कहा गया, ‘भारतीय करेंसी के नकली नोटों की जड़ एक पड़ोसी मुल्क में है, जो देश की सुरक्षा और अखंडता के लिए एक गंभीर खतरा पैदा करता है’.

उसमें कहा गया कि नकली नोटों का इस्तेमाल ‘नशीले पदार्थों की तस्करी और आतंकवाद जैसी विध्वंसक गतिविधियों के लिए किया जा रहा था जिससे अर्थव्यवस्था और देश की सुरक्षा को भारी नुकसान पहुंच रहा था’.

उसमें इस बात को भी स्वीकार किया गया कि घोषणा किए जाने के समय, सरकार करेंसी नोटों के साथ पूरी तरह तैयार नहीं थी लेकिन उसने कहा कि ऐसा इसलिए था कि इस पूरी प्रक्रिया में गोपनीयता बहुत ‘आवश्यक’ थी.

सरकार ने कहा, ‘चूंकि निर्णय लेने की इस प्रक्रिया में गोपनीयता बरतना बहुत ज़रूरी था, इसलिए नए सीरीज़ के बैंक नोटों का पूरी तरह बंदोबस्त करना मुमकिन नहीं था. इसलिए, जब स्कीम शुरू हुई तो विमुद्रीकृत बैंक नोट्स, नए उपलब्ध कराए गए नोटों से बदले जा सकते थे, जिसके साथ-साथ बैंक नोट छापने वाली प्रेस से, निरंतर सप्लाई की जा रही थी’.


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9 सवाल संविधान पीठ को भेजे गए

16 दिसंबर 2016 को सुप्रीम कोर्ट की एक तीन सदस्यीय बेंच ने- जिसमें तब के मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर और न्यायमूर्ति एएम खानविल्कर तथा डीवाई चंद्रचूड़ शामिल थे- 9 अहम सवाल तैयार किए थे जिन्हें उन्होंने कहा कि कोर्ट को देखना होगा.

इन सवालों में था कि क्या 8 नवंबर को जारी किया गया नोटिफिकेशन, रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया एक्ट के खिलाफ था, क्या उसने संविधान की धारा 300-ए (संपत्ति का अधिकार), धारा 14 (कानून के समक्ष समानता) और धारा 19 (कोई भी व्यवसाय/पेशा करने की आज़ादी) का उल्लंघन किया और क्या वो अनुचित था. एक और मुद्दा ये था कि ‘क्या कोई राजनीतिक पार्टी संविधान की धारा 32 के तहत ऐसे मामले उठा सकती है और क्या जमा करने और विमुद्रीकृत नोटों को बदलने की प्रक्रिया से बाहर रखकर, ज़िला सहकारी बैंकों के साथ कोई भेदभाव किया गया है’.

‘सार्वजनिक महत्व और दूरगामी नतीजों को देखते हुए, जो इन सवालों के जवाब से सामने आ सकते हैं’, बेंच ने फिर वो मामला एक पांच-सदस्यीय संविधान पीठ के हवाले कर दिया.

याचिकाकर्ताओं ने ये भी मांग की थी कि इस बीच विमुद्रीकृत करेंसी नोटों के इस्तेमाल की समय सीमा को बढ़ाया जाना चाहिए’. लेकिन कोर्ट ने ऐसा कोई निर्देश जारी करने से इनकार कर दिया और कहा कि ‘अच्छा है कि इसे मौजूदा सरकार के विवेक पर छोड़ दिया जाए और उम्मीद की जाए कि सरकार, आम आदमी को पेश आ रही मुश्किलों के प्रति उत्तरदाई और संवेदनशील होगी.


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याचिकाकर्ताओं में 74 वर्षीय एनआरआई, 71 वर्षीय विधवा शामिल

नोटिफिकेशन की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं के साथ-साथ, निजी व्यक्तियों की ओर से भी बहुत सी याचिकाएं और आवेदन दाखिल किए गए थे, जिनमें उन्होंने नोटबंदी को लेकर अपनी शिकायतों पर रोशनी डाली थी, चूंकि वो तय समय सीमा के अंदर अपने पुराने बैंक नोट जमा नहीं कर पाए थे.

मसलन, 74 वर्षीय एनआरआई मालविंदर सिंह ने, सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटा कर मांग की थी कि उन्हें 1.6 लाख रुपए जमा करने की अनुमति दी जानी चाहिए, चूंकि अप्रैल 2016 से फरवरी 2017 के बीच वो अमेरिका में थे और इसलिए पुराने करेंसी नोट जमा नहीं करा पाए थे, जो उनके बंद घर में रखे थे.

आरबीआई ने उन भारतीय नागरिकों के लिए, जो नवंबर-दिसंबर 2016 के बीच बाहर रह रहे थे, बंद किए गए नोटों को 31 मार्च 2017 तक बदलने की अनुमति दी थी. एनआरआई लोगों के लिए ये अनुमति 30 जून 2017 तक थी. ये सुविधा केवल आरबीआई के मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई और नागपुर ऑफिसों में थी.

भारत लौटने के बाद, सिंह ने अपना पैसा जमा करने की कोशिश की लेकिन आरबीआई ने उसे लेने से मना कर दिया. सिंह ने अपनी याचिका में कहा कि बैंक ने उनसे मौखिक रूप से कहा था कि जिन लोगों ने एयरपोर्ट पर कस्टम अधिकारियों के सामने अपनी करेंसी घोषित की थी, केवल उन्हीं को उसे आरबीआई में जमा करने की अनुमति होगी. इसलिए सिंह सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए.

ऐसी ही एक और याचिका, एक 71 वर्षीय बुज़ुर्ग महिला सरला श्रीवास्तव ने दायर की. उन्होंने 1.7 लाख रुपए के अपने पुराने करेंसी नोट जमा करने की अनुमति के लिए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया. उन्होंने कहा कि वो पैसा उनके स्वर्गवासी पति का था. उन्होंने कहा कि उन्हें इस पैसे के बारे में पता नहीं था और उन्हें ये जनवरी 2017 में अपने घर की ‘लोहे की एक टंकी’ में मिला.

कई व्यक्तिगत मामले सुनने के बाद, 3 नवंबर 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसे फरियादियों को मुख्स केस में हस्तक्षेप आवेदन दाखिल करने चाहिए, जिसे वो संविधान पीठ को सौंप चुकी है. कोर्ट ने कहा कि वही संविधान पीठ, उनकी निजी शिकायतों पर भी फैसला करेगी.

उसी दिन सरकार ने सुप्रीम को ये आश्वासन भी दिया था कि उन लोगों के खिलाफ विमुद्रीकृत रखने के सिलसिले में कोई आपराधिक कार्रवाई नहीं की जाएगी, जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया है.

लेकिन अभी तक संविधान पीठ का गठन भी नहीं हुआ है, इसलिए ये व्यक्तिगत मामले भी लंबित ही रहे हैं.


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स्थानांतरण याचिकाओं पर पिछली सुनवाई 1.5 साल पहले

16 दिसंबर 2016 के अपने आदेश में सरकार की ओर से स्थानांतरण याचिकाएं दायर किए जाने के बाद कोर्ट ने देश के सभी उच्च न्यायालयों में लंबित याचिकाओं और कार्यवाहियों पर रोक लगा दी थी.

कोर्ट ने इन स्थानांतरण याचिकाओं पर नोटिस जारी किए थे, लेकिन इस बीच उच्च न्यायालयों में इस तरह की कार्यवाहियों पर रोक लगा दी.

उसने आगे कहा, ‘हम आगे निर्देश देते हैं कि कोई दूसरी अदालत इस मामले में किसी रिट याचिका या भारत सरकार के 500 रुपए और 1,000 रुपए के नोट बंद करने के फैसले से संबंधित किसी मामले पर कोई विचार, सुनवाई, अथवा निर्णय नहीं करेगी, चूंकि ये पूरा मुद्दा मौजूदा कार्यवाही में, इस कोर्ट के विचार के लिए लंबित है’.

जनवरी 2017 तक, ऐसी 20 से अधिक याचिकाएं अलग-अलग उच्च न्यायालयों में डाली जा चुकीं थीं, जिनमें तेलंगाना, केरल, मद्रास, बॉम्बे और दिल्ली शामिल हैं. स्थानांतरण याचिकाएं भी चार वर्षों से लंबित पड़ी हैं- सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट के मुताबिक, आखिरी बार वो 31 जुलाई 2017 के लिए सूचीबद्ध की गईं थीं.

एडवोकेट प्रणव सचदेव ने, जो कई ऐसे लोगों की नुमाइंदगी कर रहे हैं, जो समय रहते पुराने करेंसी नोट जमा नहीं करा पाए थे, दिप्रिंट से कहा, ‘अब, चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया कि नोटबंदी को लेकर लोग हाईकोर्ट नहीं जा सकते, इसलिए कोई हाईकोर्ट नहीं जा सका. अब अगर कोई पैसा नहीं जमा करा सका, तो उसके पास सुप्रीम कोर्ट जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं है’.

उन्होंने कहा, ‘और भी बहुत से लोग थे, जो समय रहते अपना पैसा जमा नहीं करा पाए थे लेकिन ज़ाहिर है कि हर कोई सुप्रीम कोर्ट नहीं आ सकता’.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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