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Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतकोवैक्सीन को DCGI की ‘मंज़ूरी’ एक राजनीतिक जुमला है, जो मोदी के आत्मनिर्भर भारत के विचार को आगे बढ़ाता है

कोवैक्सीन को DCGI की ‘मंज़ूरी’ एक राजनीतिक जुमला है, जो मोदी के आत्मनिर्भर भारत के विचार को आगे बढ़ाता है

मोदी सरकार को ऐसे बेतुके मानदंड तय कर टीकों और दवाओं के क्षेत्र में भारत की प्रतिस्पर्धात्मक बढ़त की स्थिति को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहिए, जिन पर कि अन्य देश भरोसा नहीं कर पाएं.

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आंखें मूंदकर विश्वास करने वालों के अलावा, बाकियों के लिए ये बिल्कुल स्पष्ट है कि भारत बायोटेक के स्वदेशी टीके कोवैक्सीन को भारत के औषधि महानियंत्रक की ’मंजूरी’ के पीछे वैज्ञानिक कारणों से इतर कई कारण हैं. इस टीके का न तो तीसरे चरण का क्लिनिकल परीक्षण पूरा हुआ है, न ही इसके सुरक्षा और प्रभावकारिता संबंधी आंकड़े ही प्रकाशित किए गए हैं.

वास्तव में, औषधि नियामक ने सामान्य सार्वजनिक उपयोग के लिए इस टीके को ज़्यादा अनुमोदित किया भी नहीं है, बल्कि इसके ‘जनहित के मद्देनज़र आपातकालीन स्थिति में अत्यधिक सतर्कता के तौर पर, क्लिनिकल ट्रायल मोड में सीमित उपयोग…’ की अनुमति दी है.

एक बार फिर, सहज-विश्वासियों के अलावा, बाकियों के लिए ये बेहद स्पष्ट है कि सीरम इंस्टीट्यूट के कोविशील्ड के समानांतर इस तरह की ‘मंज़ूरी’ की घोषणा राजनीतिक कारणों से की गई है.

नरेंद्र मोदी सरकार राजनीतिक दावे का अवसर नहीं खोना चाहती थी कि भारत ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एक स्वदेशी टीका बना लिया है.

दूसरे शब्दों में, यह एक जुमला है. और एक प्रभावी जुमला. यह आत्मनिर्भर भारत के सरकार के कथानक को आगे बढ़ाता है. साथ ही, इस निर्णय पर सवाल उठाने वालों पर देशभक्त या राष्ट्रवादी नहीं होने या अपने वैज्ञानिकों पर पर्याप्त गौरवान्वित नहीं होने का आरोप लगाया जा सकता है.

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राजनीति या विज्ञान

मजे की बात ये है कि राजा के नए कपड़े की कहानी की तरह, बहुत से लोग— जिनमें विशेषज्ञ भी शामिल हैं— वैज्ञानिक या सार्वजनिक स्वास्थ्य के आधार पर इस निर्णय को सही ठहराने के लिए हदें पार कर रहे हैं. नेता और राजनीतिक टिप्पणीकार ऐसा करें तो बात समझ में आती है लेकिन वैज्ञानिक विशेषज्ञों और सरकारी अधिकारियों का अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और संस्थागत विश्वसनीयता को दांव पर लगाते हुए निर्णय को तकनीकी रूप से सही ठहराने के लिए असंभव दलीलें देना बिल्कुल असामान्य बात है. यह स्वीकार करना कहीं अधिक ईमानदारी मानी जाती कि स्वदेशी वैक्सीन को फास्ट-ट्रैक करना एक राजनीतिक अनिवार्यता है और नियामकों ने इसे समायोजित करते हुए जनता पर जोखिम कम करने की कोशिश की है.

ऐसे दौर में जबकि भारत की शीर्ष न्यायपालिका भी दबाव का मुकाबला करने में असमर्थ है, औषधि नियामकों ने मंज़ूरी के निर्णय के साथ भाषा का बड़ी कुशलता से उपयोग किया है ताकि परीक्षण पूरा होने और परिणाम प्रकाशित किए जाने से पहले इस टीके के उपयोग को रोका जा सके. इस बात की पूरी संभावना है कि भारत बायोटेक के कोवैक्सीन का वास्तव में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल परीक्षण पूरा होने के बाद ही किया जाएगा.

मोदी सरकार का शायद ये आकलन रहा हो कि इस कदम के बहुत कम राजनीतिक जोखिम हैं जिन्हें संभाला जा सकता है. टीका संभवत: काफी सुरक्षित और प्रभावी है. यदि तीसरे चरण के इस समय जारी परीक्षणों में समस्याएं दिखीं, तो सार्वजनिक टीकाकरण कार्यक्रम में इसका उपयोग चुपके से बंद किया जा सकता है. यदि समस्याओं का पता बाद में चलता है, तो जनता की कमज़ोर याददाश्त और सार्वजनिक विमर्श पर सरकार के प्रभुत्व के सहारे लोगों का ध्यान अन्य विषयों पर स्थानांतरित किया जा सकता है.

सरकार को इस बात का श्रेय तो दिया ही जा सकता है कि कोविड पर राष्ट्रीय टीकाकरण अभियान की तैयारियां हो चुकी हैं और कुछ ही दिनों में उस पर अमल शुरू कर दिया जाएगा.

सार्वजनिक स्वास्थ्य और मोदी सरकार के राजनीतिक स्वास्थ्य पर जोखिम भले ही कुछ हद तक सीमित हों, चिकित्सा और दवा सेक्टर के एक अहम किरदार के रूप में भारत की अंतरराष्ट्रीय विश्वसनीयता पर खतरे के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता.

भले ही भारत बायोटेक का कोवैक्सीन सुरक्षित और प्रभावी हो लेकिन विशेषज्ञों के समूह, अभी तक अनाम, द्वारा पेश एक अप्रकाशित आंतरिक रिपोर्ट के आधार पर ‘110% सुरक्षित’ होने के नियामकों के दावे से राष्ट्रीय हित नहीं सधता है. ‘हम पर विश्वास करें, हम विशेषज्ञ हैं’ या ‘भारतीय वैज्ञानिकों पर भरोसा करें’ के दावे भले ही घरेलू आलोचकों को चुप करा दे, लेकिन विदेशों में ये कारगर नहीं होंगे. रूसी और चीनी टीके पश्चिमी देशों के टीकों की तुलना में इसलिए कम लोकप्रिय हैं क्योंकि पश्चिमी देशों की कंपनियों ने कहीं अधिक पारदर्शिता और वैज्ञानिक ईमानदारी का प्रदर्शन किया है.


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भारतीय स्वास्थ्य व्यवस्था को बेहतर करने का मौका

निश्चय ही ये गर्व की बात है कि भारत दुनिया के अग्रणी टीका और दवा निर्माताओं में से एक है और नरेंद्र मोदी सरकार को स्वदेशी उद्योग को बढ़ावा देने के लिए हरसंभव प्रयास करने चाहिए. लेकिन उसे ये बात नहीं भूलनी चाहिए कि सबसे बुनियादी धर्म ‘अहिंसा’ है और चिकित्सा पेशे में ‘प्रिमम नॉन नोकेरे’ का सिद्धांत. दोनों का एक ही मतलब है: ‘किसी को नुकसान नहीं पहुंचाओ’.

जैसा कि मैंने पिछले अगस्त में, परीक्षणों से पहले टीके की घोषणा की भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) की मांग संबंधीं खबरों के बीच कहा था, ‘मोदी सरकार को ऐसे बेतुके मानदंड तय कर टीकों और दवाओं के क्षेत्र में भारत की प्रतिस्पर्धात्मक बढ़त की स्थिति को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहिए, जिन पर कि दूसरे देश भरोसा नहीं करें… आधिकारिक पारदर्शिता जितनी अधिक होगी, भारत में विकसित होने वाले टीकों और उपचारों की विश्वसनीयता उतनी ही अधिक होगी. वास्तव में, भारत के चिकित्सा और दवा नियामक प्राधिकरणों की विश्वसनीयता का सामरिक महत्व है. भारतीयों के स्वास्थ्य की रक्षा से परे, स्वदेश में विकसित टीकों और उपचारों की वैश्विक संभावनाएं है.’

भारत या विदेशों में बहुत कम लोग ऐसे होंगे जिन्हें कि हमारे वैज्ञानिकों या उद्यमियों की क्षमता पर संदेह हो. जब स्वास्थ्य की बात आती है, तो किसी भी अन्य विषय से अधिक, लोगों को सर्वाधिक चिंता ‘सिस्टम’ या व्यवस्था को लेकर होती है. महामारी बाद की चीन पर कम आश्रित दुनिया में भारत के स्वास्थ्य सेवा और दवा उद्योग के लिए काफी अवसर उपलब्ध हो सकेंगे. इन अवसरों का फायदा उठाने के लिए, ये और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि स्वास्थ्य सेवा नियामक तंत्र पेशेवर, ईमानदार और पारदर्शी हो— और ऐसा नज़र भी आए.

(लेखक तक्षशिला संस्थान के निदेशक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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