नई दिल्ली: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले महीने निचली कक्षा में एक उपग्रह को मार गिराते हुए भारत के अमेरिका, रूस और चीन के समकक्ष ‘अंतरिक्ष शक्ति’ बनने की शेखी बघारने के लिए लाइव टेलीविजन पर राष्ट्र को संबोधित करने का असाधारण कदम उठाया था.
अपने पूर्ववर्ती को पुराने भू-राजनैतिक शत्रु चीन का मुकाबला करने में नाकाम रहने के लिए लताड़ लगाने वाले इस नेता के लिए मिसाइल टेस्ट ‘अत्यंत गर्व’ का क्षण था. पर चीन इसी तरह का परीक्षण दशक भर पहले 2007 में ही कर चुका है, इसलिए आलोचकों ने भारत के इस शक्ति प्रदर्शन का इस्तेमाल इस तथ्य को उजागर करने में किया कि सामरिक क्षमता की दृष्टि से दुनिया की दो सबसे बड़ी आबादी वाले देशों के बीच एक बड़ा फासला है.
मोदी की सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा ने राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में उनके रिकॉर्ड को अपने चुनाव अभियान का एक अहम हिस्सा बनाया है. पार्टी पाकिस्तान पर हवाई हमले और उभरती आर्थिक ताकत के रूप में भारत की प्रतिष्ठा को स्थापित करने के लिए की गई मोदी की 80 से अधिक विदेश यात्राओं को लेकर भी शेखी बघार रही है. मोदी सरकार ने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की महत्वाकांक्षी आधारभूत ढांचा निर्माण योजना बेल्ट एंड रोड पर शुक्रवार को आरंभ सम्मेलन में भाग लेने से इनकार कर दिया.
पर इन सबके बावजूद, भारत पिछले पांच वर्षों में चीन से और पीछे ही हुआ है. चीन रक्षा खर्च में बढ़त बनाए हुए है, उसने व्यापक सैन्य और राजनयिक सुधारों को लागू किया है, और भारत के पड़ोस में उसने सामरिक महत्व के आधारभूत ढांचे निर्मित किए हैं – और साथ ही वह भारत के चिर प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान को रक्षा प्रौद्योगिकी उपलब्ध करा रहा है.
दक्षिण कोरिया में भारत के पूर्व राजदूत और शंघाई में महावाणिज्य दूत रहे विष्णु प्रकाश कहते हैं कि भारत के लिए ‘चीन के साथ कदम मिलाकर चलना असंभव है. हम चीन की तरह चेकबुक कूटनीति नहीं चला सकते हैं. हमारी वैसी आर्थिक हैसियत नहीं है.’
मोदी की दोबारा सत्ता में वापसी होती हो या नहीं, भारत की अगली सरकार को भी सोवियत काल के मिग लड़ाकू विमानों जैसे पुराने रक्षा साजो-सामान, सैन्य आधुनिकीकरण में बाधक नौकरशाही और ज़रूरत से छोटे कूटनीतिक तंत्र जैसी कमियों से जूझना होगा. चीन को रोकने के लिए और अपने इर्द-गिर्द के इलाकों को सुरक्षित रखने की खातिर, भारत का अमेरिका तथा समान विचारधारा वाले एशियाई देशों की तरफ झुकाव जारी रहने की संभावना है.
ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी में नेशनल सिक्योरिटी कॉलेज के प्रमुख रोरी मेडकॉफ कहते हैं, ‘दीर्घावधि में भारत के लिए एक प्रमुख चुनौती यह सुनिश्चित करने की होगी कि हिंद महासागर में सैनिक अड्डों की एक श्रृंखला तैयार कर चीन भारत के खुद के भूगोल को उसके खिलाफ न बना दे.’ उन्होंने कहा, ‘भारत दीर्घावधि की योजना पर चलेगा. अपनी अर्थव्यवस्था के बढ़ते रहने के कारण भारत का रक्षा बजट अंतत: दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा रक्षा बजट बन जाएगा.’
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‘और गिरावट’
भारत की अर्थव्यवस्था फ्रांस को पीछे छोड़ते हुए 2.6 ट्रिलियन डॉलर के स्तर को छू चुकी है, और चीन इसका सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है.
भाजपा सांसद और पार्टी प्रवक्ता जीवीएल नरसिम्हा राव के अनुसार मोदी के शासनकाल में, भारत ने चीन के साथ अपने संबंधों को कुशलतापूर्वक संभाला है, अपने रक्षा खर्च को बढ़ाया है तथा सशस्त्र सेनाओं को अधिक स्वायत्तता दी है. राव कहते हैं, ‘जाहिर है, चीन की अर्थव्यवस्था कहीं बड़ी है और उसका रक्षा बजट उसकी अपनी ज़रूरतों और योजनाओं के अनुरूप है.’
उन्होंने कहा, ‘भारत किसी भी देश के साथ हथियारों की होड़ में नहीं है और उसका रक्षा बजट उसकी ज़रूरतों के अनुरूप पर्याप्त है. सशस्त्र सेनाओं को युक्तिसंगत बनाना और उनमें सुधार एक सतत प्रक्रिया है.’ फिर भी, लोवी इंस्टीट्यूट के एशिया पावर इंडेक्स के अनुसार, भारत हर भू-सामरिक पैमाने पर चीन से लगातार पिछड़ रहा है. इस इंडेक्स में आर्थिक संसाधनों, सैन्य क्षमताओं और कूटनीतिक प्रभाव के आधार पर दुनिया के देशों की रैंकिंग की जाती है.
नई दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन केंद्र में एसोसिएट प्रोफेसर हैप्पीमोन जैकब के अनुसार भारतीय विदेश नीति में मोदी की व्यक्तिगत दिलचस्पी के बावजूद कार्मिकों की कमी से जूझ रहे विदेश मंत्रालय के लिए संसाधनों का आवंटन नहीं बढ़ा है. चीन के अनुमानित 7,500 के मुकाबले भारत के पास करीब 940 राजनयिक ही हैं.
यही एकतरफा स्थिति सशस्त्र सेनाओं को लेकर भी है. शी की अगुआई में चीनी सशस्त्र सेनाओं में 1950 के दशक के बाद के सबसे बड़े सुधार कार्यक्रम को लागू किया गया है. इसके तहत गैर-लड़ाकू कार्मिकों की संख्या कम की गई है, जबकि अंतरिक्ष और साइबर क्षमताओं में विस्तार के साथ सैन्य प्रौद्योगिकी का आधुनिकीकरण किया गया है. दूसरी ओर भारत के पास 14 लाख कार्मिकों वाली विशाल सेना है और इसके रक्षा बजट का ज़्यादातर भाग नए साजो-सामान के बजाय वेतन-भत्तों और पेंशन पर खर्च होता है.
जैकब कहते हैं, ‘भारतीय सशस्त्र सेना के तीनों अंग अब भी यही मानकर चल रहे हैं कि युद्ध में वे अलग-अलग लड़ेंगे.’ एमआईटी में राजनीति विज्ञान के एसोसिएट प्रोफेसर विपिन नारंग के अनुसार जिस उपग्रह-मारक मिसाइल के बारे में मोदी ने घोषणा की थी, वो भी चीन के खिलाफ लगभग अप्रभावी साबित होगा.
नारंग कहते हैं, ‘ना सिर्फ चीन के पास भारत की मारक क्षमता से अधिक संख्या में उपग्रह हैं, बल्कि चीन शायद भारत के उपग्रहों को मार गिराने के मामले में भी बीस साबित होगा.’
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‘राजनयिक प्रभाव’
मोदी द्वारा लाया गया एक बड़ा बदलाव चीन के उभार के संतुलन के इच्छुक देशों के साथ भारत के तालमेल को बढ़ाने को लेकर रहा है, साथ ही भारत फ्रांस, इजरायल और रूस जैसे देशों के साथ भी संबंध बढ़ा रहा है जो कि उसे अपने हथियार बेचना चाहते हैं.
खास कर अमेरिका ने भारत को अपने साथ करने की कोशिश की है. उसने पिछले साल अपने एशिया-केंद्रित सैन्य कमान को हिंद-प्रशांत कमान का नया नाम देते हुए भारत को जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ अपने ‘क्वाड’ नामक समूह में शामिल करने का प्रयास किया.
ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी के मेडकाफ के अनुसार, ‘भारत के अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान, ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया, फ्रांस और वियतनाम जैस हिंद-प्रशांत क्षेत्र के प्रभावी ताकतों के साथ मज़बूत होते सुरक्षा संबंधों को चीन एक वास्तविक खतरे के रूप में देखता है.’ उन्होंने कहा, ‘अमेरिका और अन्य देशों को औपचारिक सहयोगी राष्ट्र या चीन के पूर्ण प्रतिद्वंद्वी के रूप में भारत का साथ नहीं चाहिए. वे भारत को बस उसकी असल हैसियत में देखना चाहते हैं – हिंद महासागर की एक सक्षम और बढ़ती ताकत, जिसकी नौसेना चीन के लिए परिस्थितियों को जटिल बना सके और जिसकी कूटनीति रोज़ इस बात को साबित करे कि चीन पूरे एशिया का प्रतिनिधित्व नहीं करता.’
चीन और भारत आपसी तनाव को काबू में रखने में सफल रहे हैं. भूटान से लगी सीमा पर चीन और भारत के सैनिकों के बीच तनाव की स्थिति बनी थी, पर मोदी और शी के बीच आमने-सामने की बातचीत के बाद मामला ठंढा हो गया.
चीन के रेनमिन विश्वविद्यालय में चोंग्यांग वित्तीय अध्ययन संस्थान के अध्येता वांग पेंग कहते हैं, ‘प्रतिस्पर्द्धा हर जगह है, भारत और चीन बीच भी, पर मुख्य मुद्दा प्रतिस्पर्द्धा के मूल तत्व को लेकर है.’ पेंग के अनुसार, ‘भारत और चीन में अहानिकर प्रतिस्पर्द्धा की संभावनाएं हैं.’
फिर भी, आधारभूत ढांचे में चीन का निवेश दीर्घकालीन सामरिक तस्वीर को बदल रहा है. वह चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा परियोजना तथा म्यांमार से श्रीलंका तक के बंदरगाहों में 60 अरब डॉलर से अधिक की राशि उड़ेल चुका है. इसके विपरीत हिंद-प्रशांत क्षेत्र में आधारभूत ढांचे पर हेनरी जैक्सन सोसायटी की एक रिपोर्ट के अनुसार इस मद में भारत का निवेश ‘अप्रभावी’ है.
चीन ने भारत को नाभिकीय पदार्थों के निर्यात पर नियंत्रण रखने वाले परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह से भी बाहर रखा है, और हाल ही में उसने संयुक्तराष्ट्र में भारत में 40 सुरक्षाकर्मियों की मौत की वजह बने आत्मघाती हमले की जिम्मेदारी लेने वाले संगठन के नेता को आतंकवादी घोषित कराने के भारत और पश्चिमी देशों के प्रयासों को विफल कर दिया.
अमेरिका की पूर्व राजनयिक और न्यूयॉर्क स्थित काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस में दक्षिण एशिया मामलों की वरिष्ठ अध्येता एलिसा एयर्स के अनुसार, ‘कुछ मामलों में, भारत पांच वर्ष पहले के मुकाबले सामरिक रूप से बेहतर स्थिति में है, पर इसी के साथ आप ये भी कह सकते हैं कि चीन से अपने फासले को धीरे-धीरे पाटने के बजाय भारत उससे और पीछे छूटता जा रहा है.’
ब्लूमबर्ग में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार.
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