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Monday, 4 November, 2024
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‘ये दो पहचानों की लड़ाई’, जातीय संघर्ष में सबसे ज्यादा प्रभावित क्यों होती हैं महिलाएं

अक्सर देखा गया है कि जातीय संघर्ष, दंगों और सामाजिक तनाव की स्थिति में सबसे ज्यादा प्रभावित महिलाएं ही होती हैं. आखिर ऐसा क्यों होता है, इसके कारण को जानने के लिए दिप्रिंट ने महिलाओं और सामाजिक मुद्दों पर काम करने वाले विशेषज्ञों से बातचीत की है.

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नई दिल्ली: देश शर्मिंदा है…‘‘जिन्हें नाज़ है हिंद पर…वो कहां हैं…?’’ मशहूर शायर साहिर लुधियानवी का ये गीत मणिपुर के मौजूदा हालातों पर सटीक बैठता है.

मणिपुर पिछले दो महीने से सुलग रहा है. सैंकड़ों लोग मारे गए हैं और हज़ारों की संख्या में विस्थापित हुए हैं…लेकिन इस बीच जो मानवता को शर्मसार करने वाली घटनाएं सामने आ रही हैं उससे पूरा देश शर्मिंदा है. बुधवार 19 जुलाई की शाम मणिपुर से एक ऐसा वीडियो सामने आया जिसने मानवता को झकझोर कर रख दिया. देश आज उस वीडियो के सामने आने से शर्मसार है…हम उस मां के सामने नतमस्तक हैं जिन्हें एक बदले की वजह से पूरी तरह से नग्न कर गांव में परेड कराई गई…हम उस बेटी से नज़र नहीं मिला पा रहे हैं जिसका बदले की आग में बलात्कार किया गया.

बीती चार मई को मणिपुर में घटी इस घटना का एक वीडियो 19 जुलाई की शाम वायरल हुआ और पूरे देश को गहरी पीड़ा दे गया, जिसमें मैतई पक्ष के कुछ व्यक्ति कुकी समुदाय की दो महिलाओं को निर्वस्त्र कर परेड कराते हुए नज़र आ रहे हैं. दो महीने पुरानी इस घटना पर देश में बवाल मचने के बाद राज्य के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह ने दावा किया है कि सभी चार आरोपियों को पुलिस ने पकड़ लिया है.

वीडियो में दिख रहा है कि पुरुष असहाय महिलाओं के गुप्तांगों पर लगातार छेड़छाड़ कर रहे हैं और वे रोते बिलखते हुए उनसे मिन्नतें कर रही हैं. एक महिला गिड़गिड़ा रही है मुझे छोड़ दो मैं किसी की मां हूं…उक्त मामले पर दिल्ली और राष्ट्रीय महिला आयोग ने खुद संज्ञान लिया है और सुप्रीम कोर्ट ने भी राज्य और केंद्र सरकार से जल्द से जल्द इस मामले पर कार्रवाई करने को कहा है. सरकार ने ट्विटर से इस प्रचारित वीडियो को हटाने को भी कहा है.

हालांकि, पूर्वोत्तर कोई पहला राज्य नहीं है, जहां किसी जातीय दंगे के बाद इस तरह की वीभत्स घटना सामने आई है. इससे पहले भी जब-जब देश में दंगे हुए हैं महिलाओं को सबसे पहले निशाना बनाया गया है. चाहे वो हरियाणा में जाटों का ओबीसी आंदोलन हो, मुजफ्फरनगर के दंगे हों या गुजरात का दंगा हो. इसके अलावा, हाल ही में जोधपुर में हुई रेप की घटना, बस्तर की सोनी सोरी का मामला, महाराष्ट्र के औरंगाबाद का मामला (1991), या फिर दक्षिण भारत में 18 से अधिक महिलाओं का रेप करने वाला बीए उमेश रेड्डी, महिलाएं हमेशा पुरुषों के क्रोध और हवस की सूली चढ़ीं हैं. यहां तक की पारिवारिक और मुहल्लों के झगड़ों में भी पहला टार्गेट महिलाएं ही होती हैं.

ऐसे हालातों पर महिला और सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि देश ने हमें इस मुहाने पर लाकर छोड़ दिया है, जहां महिलाओं को अपनी सुरक्षा के लिए खुद ही शस्त्र उठाने पड़ेंगे. अक्सर देखा गया है कि जातीय संघर्ष, दंगों और सामाजिक तनाव की स्थिति में सबसे ज्यादा प्रभावित महिलाएं ही होती हैं. आखिर ऐसा क्यों होता है, इसके कारण को जानने के लिए दिप्रिंट ने महिलाओं और सामाजिक मुद्दों पर काम करने वाले विशेषज्ञों से बातचीत की है.

दो महीने से प्रधानमंत्री ने मणिपुर के मुद्दे पर कहीं भी एक शब्द नहीं कहा था, लेकिन आज राज्यसभा की कार्यवाही से पहले उन्होंने कहा, ‘‘यह घटना किसी भी सभ्य समाज को शर्मसार करने वाली है और इससे पूरे देश की बेइज्जती हुई है. 140 करोड़ देशवासियों को शर्मसार होना पड़ रहा है.’’

इस बारे में फेमिनिस्ट एक्टिविस्ट कविता कृष्णन कहती हैं, ‘‘हर घटना के वीडियो वायरल नहीं होते, इसलिए सत्ताधारी दूरी बनाए रखते हैं, लेकिन जब ये वीडियो वायरल हो गया तो उन्हें जनता के सामने बोलने के लिए हाज़िर होना पड़ा.’’

मणिपुर में अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा देने की मैतेई समुदाय की मांग पर हाई कोर्ट के 29 अप्रैल के एक फैसले के विरोध में तीन मई को पर्वतीय जिलों में छात्रों के एक संगठन द्वारा ‘आदिवासी एकजुटता मार्च’ के आयोजन के बाद दोनों गुटों मैतेइ और कुकी समुदाय के बीच झड़पें शुरू हो गई थीं.

दरअसल, मणिपुर की 53 प्रतिशत आबादी मैतेइ समुदाय की है और यह मुख्य रूप से इंफाल घाटी में रहती है. वहीं, नगा और कुकी जैसे आदिवासी समुदायों की आबादी 40 प्रतिशत है और यह मुख्यत: पर्वतीय जिलों में रहती है.आरक्षित वन भूमि से कूकी ग्रामीणों को बेदखल करने को लेकर तनाव के चलते, पहले भी हिंसा हुई थी, जिसके कारण कई छोटे-छोटे आंदोलन हुए थे.

हिंसा के दौरान कई नेताओं के घर आगज़नी की घटनाएं सामने आई हैं. पुलिस शस्त्रागारों से हथियार लूटे गए और शांति बहाल करने के मकसद से गृह मंत्री अमित शाह ने भी राज्य का दौरा किया था. इस दौरान उन्होंने मणिपुर कोर्ट के ‘‘जल्दबाज़ी’’ में दिए गए फैसले को ज़िम्मेदार ठहराया था.

बता दें कि इस साल राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और तेलंगाना में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. पीएम ने केवल विपक्षी पार्टी के शासन वाले राज्यों का नाम लेकर राजनीति गरमा दी है.

पीएम ने कहा, ‘‘घटना चाहे राजस्थान की ही, घटना चाहे छत्तीसगढ़ की हो, चाहे मणिपुर की हो…इस देश में हिंदुस्तान के किसी भी कोने में किसी भी राज्य सरकार को राजनीतिक वाद-विवाद से ऊपर उठकर कानून व्यवस्था को महत्व देना चाहिए और नारी के सम्मान की रक्षा करनी चाहिए.’’

पुलिस ने भी की बर्बरता

छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले की सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी ने का मानना है कि सिस्टम जब आरोपियों के साथ रहेगा तो ऐसी घटनाएं होती रहेंगी.

उन्होंने दिप्रिंट से खास बातचीत में कहा, ‘‘बस्तर की घटनाओं का मैं जीता जागता सबूत हूं, मेरे गुप्तांगों में पत्थर डाले गए और अपराधियों को सुप्रीम कोर्ट ने बरी कर दिया और राष्ट्रपति ने उसे पुरस्कार भी दिया.’’

बता दें कि गुजरात सरकार ने 2002 के गुजरात दंगों के बिलकिस बानो सामूहिक बलात्कार और हत्या मामले में 11 दोषियों को रिहा कर दिया.

हालांकि देश के प्रधानमंत्री मोदी ने अपने बयान में पुलिस महकमे पर भरोसा करने, सभी मुख्यमंत्रियों से अपने-अपने राज्यों में कानून-व्यवस्था को और मजबूत करने और खासकर महिलाओं की सुरक्षा के लिए कठोर से कठोर कदम उठाने का आग्रह किया था. हिंसा के शुरुआती दिनों में केंद्र ने शूट-एट साइट के ऑर्डर भी जारी किए थे.

जिस पर कृष्णन ने सवाल किया, ‘‘प्रधानमंत्री ने इसे कानून व्यवस्था का मामला बताया है और राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी बलात्कारों का ज़िक्र किया, तो गुजरात का नाम क्यों नहीं लिया.’’

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की ‘‘क्राइम इन इंडिया-2021’’ शीर्षक से आई रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में बीते साल कुल 31,878 महिलाओं के साथ बलात्कार हुए, जिसमें मध्य प्रदेश में 2506, राजस्थान में 6,342, छत्तीसगढ़ में 1,093, तेलंगाना में 823, गुजरात में 589 और मणिपुर में 26 महिलाओं से बलात्कार की घटनाएं हुईं.

सोनी सोरी ने मणिपुर के प्रकरण के लिए केंद्र और राज्य सरकार और खासतौर से प्रधानमंत्री को ज़िम्मेदार ठहराया और सवाल किया कि ऐसे अपराधियों को कोर्ट कभी सज़ा क्यों नहीं देती है.

सोरी ने कहा, ‘‘निर्भया जैसे मामलों में पूरा देश जाग जाता है, तो क्या मणिपुर और बस्तर की बेटियां भारत की बेटियां नहीं हैं, उनके अपराधियों को अदालत सज़ा क्यों नहीं देती’’


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‘ये दो पहचानों की लड़ाई है’

मणिपुर की उस कथित वीडियो में जिन दो महिलाओं के साथ वीभत्स घटना हुई है उनमें एक की उम्र 20 और दूसरी की 40 के आसपास बताई जा रही है.

एक महिला ने आरोप लगाया था कि उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया और उन्होंने जंगलों में शरण ली क्योंकि उनके गांव पर मैतेईयों ने हमला कर दिया था. महिला ने ये भी आरोप लगाए कि जिस समय पुलिस उन्हें रेस्क्यू करके ले जा रही थी दंगाईयों ने पुलिस को रोक कर महिला को किडनैप कर लिया और उनके भाई और पिता की हत्या कर दी.

मणिपुर में जातीय हिंसा में अब तक 150 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है और राज्य में ज़रूरी सामानों की कमी और जान बचाने के मकसद से हज़ारों की संख्या में लोग कभी न लौटने के डर के साथ विस्थापित हो गए हैं.

गोविंद वल्लभ पंत सोशल साइंस इंस्टीट्यूट, इलाहाबाद के डायरेक्टर और समाजशास्त्री बद्री नारायण इस मामले को सामाजिक अस्मिता के चश्मे से देखते हैं.

उनका मानना है कि जब एक समुदाय खुद को प्रबल दर्शाने की कोशिश करता है, तब इस तरह की घटनाएं समाज में उभरती हैं.

नारायण ने दिप्रिंट से कहा, ‘‘ये बर्बर प्रवृत्ति कहीं भी हो सकती है, इसके लिए जाति विशेष इलाकों की ज़रूरत नहीं है. जब ये आइडेंटिटी से जुड़ती है, तो सामूहिक हो जाती है. मणिपुर की घटना दुखद है और इसकी आलोचना की जानी चाहिए.’’

उन्होंने कहा, ‘‘ये दो पहचानों की लड़ाई है, जो कि अस्मिताओं के भीतर खतरनाक अस्मितावाद को दर्शाता है.’’

उन्होंने इस तरह की घटनाओं के कारण पर कहा, ‘‘एक समुदाय खुद को इतना प्रबल दिखाना चाहता है, कि वो दूसरे पर राज कर सकता है क्योंकि वो उसे जीने नहीं देना चाहता. ’’

90 के दशक की सशक्त अस्मिता का ज़िक्र करते हुए नारायण ने कहा, ‘‘जिस सशक्त अस्मितावाद की समस्या यहां दर्शायी जा रही है, जिस आईडेंटिटी को हम बचा रहे होते हैं, वो जब बर्बर हो जाती है, तो ऐसा रूप ले लेती है.’’

वहीं, कृष्णन इन घटनाओं को नेटफ्लिक्स की सीरीज़ गेम ऑफ थ्रोन्स से जोड़ कर देखती हैं, जहां राजा की बात नहीं माने जाने पर मुख्य किरदार को साम्राज्य में इस तरह निर्वस्त्र घुमाया जाता है.

कृष्णन ने कहा, ‘‘पीड़िताएं पहले दिन से आवाज़ उठा रही हैं…लगातार बोल रही हैं, मगर हम सुन नहीं रहे हैं.’’

उन्होंने सीएम बीरेन सिंह के एक इंटरव्यू के हवाले से जहां, वे कह रहे हैं कि इस तरह की 100 घटनाएं हुई हैं, कृष्णन ने पूछा, ‘‘सीएम इनमें से कितनी महिलाओं से मिले और कितनी एफआईआर दर्ज की गईं और कितने मामलों की जांच हो पाईं?’’

कृष्णन ने मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह के उन ट्वीट्स का हवाला दिया, जिनमें वे कुकी समुदाय के लोगों को राज्य में कथित गतिविधियों के लिए ज़िम्मेदार बता रहे थे.

उन्होंने कहा, ‘‘इन मामलों में अगर दो-चार को फांसी दे भी दी गई तो भी क्या फर्क पड़ेगा.वायरल वीडियो के आक्रोश को शांत करवाने के लिए गेम ऑफ थ्रोन्स की तर्ज पर राज्य चलाया जा रहा है.’’

सामाजिक कार्यकर्ता योगिता भयाना प्रधानमंत्री के बयान की नहीं बल्कि ज़मीनी स्तर पर होने वाली कार्रवाई को असली जीत मानती हैं.

उन्होंने कहा, ‘‘ये पहली घटना नहीं है जो बाहर आई, लेकिन ये इतिहास की सबसे शर्मनाक घटनाओं में से एक हैं. आज तक हमने मामले सुने थे, आज हमने इसे देखा है. दो महीने तक सत्ताधारी चुप्पी क्यों साधे बैठे थे.’’

निर्भया बलात्कार मामले में न्याय दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुकी भयाना का मानना है कि पूरा देश, मुख्यमंत्री और खासतौर से प्रधानमंत्री बेटियों को बचाने में विफल रहे हैं और उक्त मामले पर न्यायिक कमेटी बनाने की मांग का समर्थन किया.


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‘कैसे रुक सकती हैं ऐसी घटनाएं’

लोकतंत्र का बखान करने, न्याय परस्त देश की गाथा गाने वाले राष्ट्र में आत्मरक्षा के लिए सामाजिक कार्यकर्ताओं को न्याय अपने हाथ में लेना ज्यादा सटीक उपाय लगता है.

इस बीच मणिपुर में वीभत्स घटना को अंजाम देने वाले आरोपियों के घरों को महिलाओं ने आग लगा दी है.

सोरी कहती हैं, ‘‘महिला, आदिवासी, दलित हर मानव जाति के लिए कानून बना है यहां तक कि एक जानवर तक के लिए कानून बना है, लेकिन उसका पालन नहीं किया जाता. अगर सरकार न्याय का अधिकार महिलाओं के हाथ में दे दे तो शायद इस देश की बेटियों को जल्दी न्याय मिलने लग जाए. इज़्ज़त भी हम लुटवाएं और जेल भी हम हीं जाएं.’’

ऐसा एक उदाहरण महाराष्ट्र में कुछ साल पहले देखा गया था, जहां महिलाओं ने बलात्कार के आरोपी अक्कू यादव को कोर्ट के अंदर चाकुओं से भून दिया था.

सोरी ने कहा, ‘‘जिस दिन महिलाएं अपने लिए एकजुट हो कर अपने लिए आवाज़ उठाने लगेंगी न्याय तभी से मिलने लग जाएगा. हम सभी को एक होकर मणिपुर जाना चाहिए और अपनी सुरक्षा खुद करनी चाहिए. 12 साल से मैंने लड़ाई लड़ कर देख लिया, कानून से कभी किसी को न्याय नहीं मिला.’’

एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, भारत में पिछले साल तक महिलाओं के खिलाफ अपराध के 17,1730 मामले जांच के लिए लंबित हैं. इनमें 14,391 मामले बलात्कार के और शील भंग करने के 34, 994 मामलों में अभी तक जांच लंबित है.

सेंटर फॉर सोशल रिसर्च की निदेशक रंजना कुमारी भी इस मामले पर यही रुख अख्तियार करती हैं.

उनका कहना है, ‘‘महिलाओं के पास शक्ति नहीं है. उनके लिए कानून बनाए गए हैं, लेकिन इतिहास गवाह कि किसी को भी अधिकार नहीं मिला.’’

उन्होंने सवाल किया, ‘‘क्यों महिलाएं एक साथ आवाज़ उठाने जंतर-मंतर पर खड़ी नहीं हो जातीं. क्यों परिवार को एक साइड रख कर जवाब मांगने नहीं आतीं. महिलाओं के पास जब सत्ता, संपत्ति का अधिकार होगा, तभी वो अपने लिए आवाज़ उठा पाएंगी.’’

विशेषज्ञों का कहना है कि संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत कम है, इसलिए उनके मुद्दे भी सही ढंग से सामने नहीं आ पाते हैं.

कुमारी ने कहा, ‘‘सदन में केवल 14 प्रतिशत महिलाएं हैं, जो पुरुष नेताओं की तर्ज पर बातें करती हैं. ऐसी घटनाओं पर सबसे आसान है ट्वीट कर देना.’’

उन्होंने महिलाओं को एकजुट करने करने का भी आह्वान किया. वहीं, कृष्णन ने दिप्रिंट से कहा, ‘‘अब क्या न्याय मांगने के लिए महिलाओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को खुद अपने कपड़े उतारने पड़ेंगे. आम समाज की आंखे खुलने पर सरकारों को लगता है कि अब बोलना पड़ेगा.’’


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