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Wednesday, 20 November, 2024
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‘थ्रिलिंग टू लाइफ थ्रेटनिंग’- क्यों हथियारों की मांग कर रहे हैं तेलंगाना के वन रेंजर

आदिवासियों द्वारा श्रीनिवास राव की हत्या के बाद वो दहशत में जी रहे हैं. कुछ ने तो ड्यूटी पर आना भी बंद कर दिया है. अधिकारी संघ जंगलों में वापस जाने के लिए हथियार और सीआरपीएफ सुरक्षा की मांग कर रहे हैं.

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हैदराबाद: तेलंगाना के जिला वन अधिकारी राजा रमण रेड्डी ने कहा है कि राज्य के जंगलों की रक्षा करने का उनका रोमांचकारी काम अब जान के लिए खतरा बन गया है. उनकी टिप्पणी उनके सहयोगी श्रीनिवास राव की कथित तौर पर मंगलवार को गुथिकोया आदिवासियों द्वारा हत्या के बाद आई है.

राव की मौत के बाद वन अधिकारी जंगल में अपनी नौकरी पर वापस जाने के लिए हथियारों की मांग कर रहे हैं, खासकर उन लोगों के लिए जो ‘दूर-दराज’ के इलाकों में सर्विस कर रहे हैं. वे कहते हैं कि वे ‘बहुत हतोत्साहित’ हैं और ‘डर में जी रहे हैं.’

वन संघों, विभिन्न रैंकों के राज्य अधिकारियों के कुछ समूहों ने अपनी मांगों के साथ अपना एक प्रतिनिधित्व पेश किया है.

 रेड्डी ने दिप्रिंट को बताया, ‘अगर हम हमलों से अपनी रक्षा नहीं कर सकते तो हम जंगलों की रक्षा कैसे कर सकते हैं? हम जिस वन भूमि की रक्षा कर रहे हैं, उसकी कीमत सैकड़ों करोड़ है. लाखों एकड़ वन भूमि की सुरक्षा में महज कुछ ही अधिकारी लगे हैं. हम इस सर्विस के साथ जुड़ते हैं क्योंकि हम धरती मां की रक्षा के लिए जुनून रखते हैं. अब ये रोमांचकारी नौकरी हमारे जीवन के लिए खतरा बन गई हैं.’

हालांकि यह इस तरह का यह पहला हमला नहीं है. लेकिन हां, 2014 में राज्य के विभाजन के बाद यह पहला घातक हमला जरूर है.

तत्कालीन आंध्र प्रदेश में वन अधिकारियों के पास हथियार हुआ करते थे. लेकिन नब्बे के दशक की शुरुआत में जब राज्य में वामपंथी उग्रवाद मजबूत हुआ, तो नक्सलियों द्वारा अधिकारियों से हथियार छीन लिए जाने की घटनाएं हुईं. इसके चलते तत्कालीन आंध्र प्रदेश सरकार ने वन अधिकारियों को अपने हथियार पुलिस के पास जमा कराने को कहा था.

रेड्डी ने दावा किया, ‘वन अधिनियम में वन विभाग के अधिकारियों को हथियार ले जाने की अनुमति दी गई है. लेकिन तेलंगाना में, खासकर आत्मसमर्पण के बाद से हमें हथियार नहीं दिए गए हैं. जबकि महाराष्ट्र, कर्नाटक और यहां तक कि आंध्र प्रदेश (कमजोर इलाकों में) जैसे राज्य अपने वन अधिकारियों को हथियार ले जाने की अनुमति देते हैं.’


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पहला हमला नहीं

हालांकि वन क्षेत्र में भूमि के स्वामित्व को लेकर पहले भी वन अधिकारियों और आदिवासियों के बीच हिंसक झड़पें हुई हैं, लेकिन 2014 में राज्य के विभाजन के बाद से यह पहला ऐसा घातक हमला है.

वन भूमि के इस्तेमाल के मसले पर राज्य के खम्मम जिले में कथित गुथिकोया आदिवासियों ने बेरहमी से हमला कर श्रीनिवास राव को मौत के घाट उतार दिया था. कथित तौर पर आदिवासी वन क्षेत्र में हाल ही में लगाए गए पेड़ों को नुकसान पहुंचा रहे थे. जब राव ने उन्हें ऐसा करने से मना किया तो उनमें से एक ने उन पर हमला बोल दिया.

राव को 2021 में वन संरक्षण के लिए केवीएस बाबू राज्य स्वर्ण पदक दिया गया था.

2019 के बाद से तेलंगाना के आदिवासियों और वन अधिकारियों के बीच झड़प की कम से कम आठ बड़ी घटनाएं सामने आईं हैं.

इनमें सबसे बड़ी खतरनाक घटना एक जून 2019 में हुई थी. वन रेंज अधिकारी सी. अनीता पर कथित तौर पर सत्तारूढ़ तेलंगाना राष्ट्र समिति (TRS) के एक नेता कोनेरू कृष्ण राव के नेतृत्व वाली भीड़ ने बेरहमी से उन पर हमला बोल दिया था.

वन अधिकारियों पर मिर्च पाउडर फेंकने, पथराव करने, कुत्तों से हमला करने से लेकर इस तरह के हिंसक हमले लगातार बढ़े हैं. इस साल मार्च में एक गर्भवती वन अधिकारी को भी अपनी ड्यूटी के दौरान इसी तरह की घटना का सामना करना पड़ा था. गांव की कुछ महिलाओं ने विरोध में उन पर हमला कर दिया था.

एक वरिष्ठ वन अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर दिप्रिंट को बताया, ‘राव के मामले को सिर्फ एक घटना के रूप में देखा जा रहा है, लेकिन ऐसा नहीं है. अगर स्थिति को ऐसे ही छोड़ दिया जाता है, तो ऐसी घटनाएं फिर से दोहराई जा सकती हैं. हमारा पूरा स्टाफ, खासकर नए रंगरूट बहुत डरे हुए हैं. उनमें से कुछ ने तो तुरंत छुट्टी के लिए आवेदन भी कर दिया है और ड्यूटी पर नहीं आ रहे हैं. विभाग में काम करने वाली महिलाओं की शिकायत है कि उनके परिवार वाले उनसे नौकरी पर दोबारा विचार करने को कह रहे हैं. वे नौकरी पर वापस जाने में डर रहे हैं और गुस्से में हैं. सबसे बड़ी बात, वे सरकार द्वारा उपेक्षित महसूस कर रहे हैं.’

उन्होंने कहा कि राव के अंतिम संस्कार में शामिल होने वाले कई कैडर अपनी सुरक्षा के बारे में सोचकर ‘ज़ोन आउट’ हो गए हैं.

दूसरी ओर ऐसी घटनाएं भी हुई हैं जहां वनवासी वन अधिकारियों के पैरों में गिरकर, उनसे उनकी जमीन न लेने के लिए गिड़गिड़ा रहे हैं.

वन अधिकारियों की मांग

वन संघों, विभिन्न रैंकों के राज्य अधिकारियों के कुछ समूहों ने भी हथियारों से लैस करने सहित कई मांगे सामने रखी हैं.

संघों ने यह भी मांग की कि इन इलाकों में काम कर रहे वन अधिकारियों की सुरक्षा के लिए सीआरपीएफ कर्मियों की एक टीम प्रत्येक रेंज (वन क्षेत्र) के लिए आवंटित की जाए. अधिकारियों ने वन बल के प्रमुख को सौंपे गए अपने रिप्रजेंटेशन में यह भी कहा कि जब तक उन्हें सुरक्षा का आश्वासन नहीं दिया जाता है, तब तक वे फील्ड वर्क ड्यूटी पर नहीं लौटेंगे.

दिप्रिंट से बात करते हुए तेलंगाना के प्रधान मुख्य वन संरक्षक और वन बल के प्रमुख आरएम डोबरियाल ने कहा कि वन अधिकारी संघों की मांगों सहित एक प्रस्ताव राज्य सरकार के उच्च अधिकारियों को प्रस्तुत किया जाएगा. प्रस्ताव में पहले चरण में वन कर्मचारियों को हथियार देना और 30 वन पुलिस थाना स्थापित करना शामिल है.

उन्होंने कहा, ‘वन स्टाफ को हथियार देने के बारे में चर्चा चल रही है. हम सरकार को इसके बारे में एक प्रस्ताव भी प्रस्तुत करेंगे. आगे की कार्रवाई के बारे में इसके बाद ही फैसला लिया जाएगा.’

वन अधिकारी रेड्डी ने कहा कि वे किसी जनजाति के खिलाफ नहीं जा रहे हैं.

उन्होंने कहा, ‘दरअसल हम सरकार से जनजातियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार करने के लिए कह रहे हैं. दावों के मामले का पारदर्शी तरीके से निपटारा करें, सुनिश्चित करें कि वन अधिकारियों, राजस्व विभाग और जमीन का सौदा करने वाले अन्य लोगों के बीच अच्छा तालमेल हो. जंगल देश की संपत्ति है और यह किसी एक पार्टी का नहीं है.


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संघर्ष के केंद्र में ‘पोडु भूमि’

संघर्ष के केंद्र में ‘पोडु भूमि‘ है. इसका इस्तेमाल आदिवासी स्लेश-एंड-बर्न (झूम) खेती के लिए करते हैं. लेकिन सरकार जोर दे रही कि ये जमीन वन भूमि है. मध्य भारतीय जनजातियों में खेती करने की यह एक आम पारंपरिक तरीका है.

इन जमीनों का स्वामित्व दशकों से सवालों के घेरे में है और अविभाजित आंध्र प्रदेश में भी यह एक मुद्दा है. हालांकि तेलंगाना सरकार के प्रमुख वनीकरण कार्यक्रम ‘हरिता हरम’ ने इसने वन भूमि को जांच के दायरे में ला खड़ा किया है.

2006 में पारित अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, वनवासियों को एक निश्चित तिथि से पहले कब्जे से संबंधित नियमों और शर्तों के साथ भूमि पर कानूनी अधिकार प्रदान करता है.

12.49 लाख एकड़ से अधिक वन भूमि के लिए वनवासियों ने भूमि के स्वामित्व के लगभग 4.14 लाख दावे कर रखे हैं. मुख्यमंत्री केसीआर ने कहा था कि 11.50 लाख एकड़ के दावों का निपटारा किया जाएगा.

अनसुलझे दावों के एक पूल में पकड़े गए वन अधिकारी ने कहा कि गांव के लोगों द्वारा वन भूमि का अतिक्रमण किया जा रहा है, जबकि निवासियों का दावा है कि जमीन का टुकड़ा (जंगल में) उनका है. सरकार के पास उनके दावे लंबित है.

कागजनगर वन रेंज अधिकारी शिव कुमार ने दिप्रिंट को बताया. ‘हर कोई जो खेती कर रहा है या जंगलों को काट रहा है, उसने दावा प्रस्तुत नहीं किया है. उनमें से कई गैर-मान्यता प्राप्त आदिवासी हैं, जैसे गोथिकोया (एक जनजाति जो छत्तीसगढ़ से पलायन कर गई). राज्य में उनका कोई अधिकार नहीं है और वे अभी भी जंगलों का अतिक्रमण कर रहे है. ऐसा करने वाले गैर-आदिवासी भी हैं. वे इस धारणा के साथ यहां बने हुए हैं कि यहां कुछ और सालों तक रहने पर सीएम ने 11 लाख एकड़ के लिए समझौता करने का वादा किया है. अगर वे कुछ सालों तक उस क्षेत्र में रहना जारी रखते हैं और दावा दायर करते हैं, तो उन्हें जमीन का एक टुकड़ा मिल सकता है.’

राज्य के वन विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों के अनुसार, राज्य में लगभग 66 लाख एकड़ चिन्हित वन भूमि है और 8 लाख एकड़ से ज्यादा का अतिक्रमण किया गया है. तेलंगाना राज्य वन विभाग में लगभग 6,000 वन अधिकारी (सभी रैंक के) हैं, जो 66 लाख एकड़ क्षेत्र की देखभाल करते हैं.

(अनुवाद: संघप्रिया मौर्य )

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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