पन्ना/झांसी: सुधीर सिंह को तो अब भगवान से उम्मीद करना भी बेमानी लगता है, भले ही कभी-कभी उनकी कृपा से होने वाली बारिश उनके खेतों को थोड़ा-बहुत भिगो जाती है.
उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के मथौंद गांव में छह एकड़ जमीन के मालिक इस किसान का कहना है कि सिंचाई के लिए आम तौर पर वह बारिश के पानी पर ही निर्भर है, ‘जो भगवान के हाथ में है.’ पिछले साल, भगवान मेहरबान हुए और उसकी फसल बच गई लेकिन अगली बार को लेकर वह निश्चिंत नहीं हो सकते.
हालांकि, जो निश्चित नजर आ रहा है, वो यह है कि भारत सरकार अंततः केन-बेतवा लिंक परियोजना (केबीएलपी) पर आगे बढ़ रही है, जो पिछले एक दशक से अधिक समय से पाइपलाइन में है लेकिन उसके आगे बढ़ने की गति बहुत धीमी रही है.
44,605 करोड़ रुपये की इस परियोजना के तहत सूखे, बंजर बुंदेलखंड क्षेत्र में केन और बेतवा नदियों को जोड़ा जाएगा और इससे दोनों राज्यों के 10 जिलों के लोगों को लाभ मिलने की उम्मीद है, उत्तर प्रदेश (यूपी) में बांदा, महोबा, झांसी और ललितपुर और मध्य प्रदेश (एमपी) में टीकमगढ़, पन्ना, छतरपुर, सागर, दमोह और दतिया. एक बार काम शुरू होने पर नदियों को जोड़ने में लगभग आठ साल का समय लगने की उम्मीद है.
सुधीर सिंह को इस बारे में तो ज्यादा कुछ नहीं पता कि यह सब कैसे होगा, लेकिन उसे जल संकट से निजात मिलने की उम्मीद जरूर है—वह तो बस इसके हकीकत में बदलने का इंतजार करेंगे और इसकी उन्हें आदत भी है.
हालांकि, कार्रवाई शुरू हो गई है. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के अपने बजट भाषण में यह घोषणा करने के एक महीने बाद कि इस परियोजना में तेजी लाई जाएगी, दिल्ली, यूपी और एमपी के अधिकारी सक्रिय हो गए हैं और इस परियोजना को आगे बढ़ाने के उपायों में जुट गए हैं.
हालांकि, योजना को लेकर प्रतिबद्धता के बावजूद विस्थापित ग्रामीणों के पुनर्वास, पर्यावरणीय क्षति, जलवायु प्रभाव, वन्यजीव संरक्षण, खासकर पन्ना टाइगर रिजर्व, जहां 10 फीसदी मुख्य वन्यजीव क्षेत्र जलमग्न हो जाएगा, को लेकर सवाल और चिंताएं जस की तस हैं और सवाल यह भी है कि क्या ये इस क्षेत्र के लिए एक प्रभावी सिंचाई योजना साबित होगी, जैसा कि सरकार कह रही है.
दिप्रिंट ने बुंदेलखंड क्षेत्र के विशाल, ऊबड़-खाबड़ और अक्सर सूखे से प्रभावित रहने वाले ग्रामीण इलाकों का दौरा करके यह पता लगाने की कोशिश की ‘लाभार्थी’ या ‘प्रभावित’ (यह इस पर निर्भर है कि आप बात किससे कर रहे हैं) इस खबर को किस तरह ले रहे हैं, और सरकारी अधिकारियों व विशेषज्ञों से इस परियोजना के लाभों के साथ-साथ संभावित कमियों के बारे में भी जाना.
आखिरकार इस परियोजना का उद्देश्य क्या है
केन-बेतवा लिंक परियोजना के पीछे एक बेहद व्यापक दृष्टिकोण रहा है जब 1980 में इसने पहली बार राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना (एनपीपी) के रूप में आकार लिया था. केबीएलपी इस योजना का पहला हिस्सा ही होगा जिसके निकट भविष्य में साकार होने की उम्मीद है.
एनपीपी के तहत भारत की 30 नदियों—14 हिमालयी और 16 प्रायद्वीपीय—को जोड़ने की परिकल्पना की गई थी और इसके पीछे उद्देश्य था कि पूरे देश में समान रूप से पानी वितरित किया जा सके. योजना पर अमल के उद्देश्य से 1982 में राष्ट्रीय जल विकास प्राधिकरण (एनडब्ल्यूडीए) का गठन किया गया और इसे परियोजना की व्यवहार्यता के आकलन का काम सौंपा गया.
2002 में बनी एक नई राष्ट्रीय जल नीति में ‘सरप्लस’ पानी को ‘कमी’ वाले बेसिन में ट्रांसफर किया जाना आर्थिक, कृषि, औद्योगिक और शहरी विकास के लिहाज से एक व्यावहारिक विकल्प माना गया.
केन और बेतवा नदियों—जो दोनों ही यमुना की सहायक नदियां हैं—को जोड़ने की परियोजना को थोड़ी गति तब मिली जब 2010 में एनडब्ल्यूडीए ने परियोजना के लिए अपनी पहली विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) का मसौदा तैयार किया.
दस्तावेज का सारांश बताता है कि केबीएलपी के तहत केन बेसिन के ‘अतिरिक्त पानी’ को ऊपरी बेतवा बेसिन के पानी की कमी वाले क्षेत्रों’ में पहुंचाया जाना है. जैसा कि प्रस्तावित है, इसके लिए केन पर एक जलाशय और बांध बनाकर और अतिरिक्त पानी को एक लिंक नहर के माध्यम से बेतवा तक पहुंचाया जाएगा.
यह परियोजना सूखा प्रभावित बुंदेलखंड में 10.62 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई और 62 लाख लोगों को पेयजल उपलब्ध कराने में मददगार साबित हो सकती है, जहां साल में औसतन 80 से 90 सेंटीमीटर बारिश ही होती हैं और गरीबी, औद्योगीकरण की कमी और पलायन के कारण मानव विकास सूचकांकों पर इसका प्रदर्शन खराब ही रहता है.
एनडब्ल्यूडीए के महानिदेशक भोपाल सिंह ने ईमेल पर दिप्रिंट को बताया, ‘बार-बार सूखा, फसलें खराब होना और मानसून की बढ़ती अनिश्चितता असमान भौगोलिक स्थिति वाले बुंदेलखंड की नियति बन चुका है.’
उन्होंने कहा, ‘एक ऐसी व्यापक परियोजना की आवश्यकता है जो मानसून की अवधि के दौरान बाढ़ के पानी के दोहन में मदद करे और पानी की कमी के समय, खासकर सूखे की स्थिति में क्षेत्र को पानी की उपलब्धता सुनिश्चित कराए.’
उम्मीद है कि पानी की लगातार आपूर्ति से फसल की बर्बादी और भोजन का अभाव खत्म होगा, आजीविका में सुधार होगा और क्षेत्र को गरीबी से उबारा जा सकेगा.
सरकार इस योजना पर अमल की जिम्मेदारी संभालने के लिए केन-बेतवा लिंक परियोजना प्राधिकरण का गठन पहले ही कर चुकी है और बांध के लिए भूमि अधिग्रहण की दिशा में भी कदम आगे बढ़ाया जा चुका है, जो कि योजना का एक प्रमुख आधार होगा.
केबीएलपी को दो चरणों में पूरा किया जाएगा. योजना के पहले चरण में मध्य प्रदेश का दौधन बांध और लिंक नहर शामिल है, जबकि दूसरे चरण में लोअर उर बांध, बीना कॉम्प्लेक्स सिंचाई परियोजना और बेतवा नदी से जुड़ा कोठा बैराज शामिल हैं.
झांसी में एनडब्ल्यूडीए के कार्यकारी अभियंता राघवेंद्र कुमार गुप्ता ने दिप्रिंट को बताया कि परियोजना के दूसरे चरण के कुछ हिस्सों का निर्माण शुरू हो चुका है.
एक बार पहले चरण पर काम शुरू होने पर इसमें आठ साल लगने की उम्मीद है, जिसका मतलब है कि परियोजना अगर बहुत जल्दी पूरी हुई तो 2030 तक काम करना शुरू कर देगी.
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जमीन सूखी, लेकिन सभी की ‘प्यास’ एक जैसी नहीं
मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ स्थित लखेरी गांव की गीता यादव का कहना है कि उन्हें उम्मीद है कि नदी लिंक परियोजना से क्षेत्र को फायदा होगा. इस क्षेत्र में बारिश बहुत कम होती है और सतह के नीचे चट्टानों के कारण भूजल निकालना भी आसान काम नहीं है.
बांदा के मथौंड में रहने वाले किसान सुधीर सिंह की तरह वह भी कुछ संशय के साथ ही आशावादी हैं. वह कहती हैं, ‘हमारे आस-पास बहुत-सी सिंचाई योजनाएं चल रही हैं, नहरों में कई बांध बने हुए हैं लेकिन इतने सालों में हमारे गांव तक नहीं पानी नहीं पहुंचा है. इसलिए, हमारे पास तो इंतजार करने के अलावा कोई चारा नहीं है.’
बेतवा के किनारे कम से कम तीन और केन पर चार प्रमुख बांध हैं जो पहले से ही बुंदेलखंड के कुछ हिस्सों को पानी की आपूर्ति कर रहे हैं.
राज्य और केंद्र सरकारें बुंदेलखंड का जल संकट दूर करने की योजनाओं पर करोड़ों खर्च कर चुकी हैं, लेकिन समस्या जस की तस बनी है क्योंकि उन्हें पूरी तरह से लागू नहीं किया गया है, और इस क्षेत्र में सूखे के तमाम कारण भी हैं.
हाल के दशकों में बुंदेलखंड में बारिश के पैटर्न में व्यापक भिन्नता दिखाई दी है, कई जिलों में अचानक बाढ़ आ जाती है तो कई जगह गंभीर सूखे की स्थिति बन जाती है.
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजास्टर मैनेजमेंट (एनआईडीएम) के एक विश्लेषण में पाया गया है कि मिट्टी में कम नमी (कृषि के लिहाज से सूखा) और सतह और भूजल का स्तर नीचे होना (हाइड्रोलॉजिकल सूखा) पर्याप्त बारिश के अभाव में सूखे की स्थिति उत्पन्न होने का एक बड़ा कारण है.
पानी की कमी के बावजूद क्रॉप पैटर्न भी इस तरह बदल गए हैं कि गेहूं और चावल—जिन दोनों में पानी काफी लगता है—रबी और खरीफ मौसम के दौरान बुआई के लिए सबसे लोकप्रिय फसल हैं.
एनडब्ल्यूडीए के अधिकारियों का मानना है कि केन-बेतवा परियोजना से किसानों की समस्याएं दूर होंगी क्योंकि इससे गर्मी के महीनों में सिंचाई की सुविधा सुनिश्चित हो सकेगी जब जमीन सबसे ज्यादा सूखी होती है.
झांसी में एनडब्ल्यूडीए के कार्यकारी अभियंता राघवेंद्र कुमार गुप्ता कहते हैं, ‘मध्य प्रदेश में 92 प्रतिशत कमांड क्षेत्र को पाइपलाइन के माध्यम से पानी मिलेगा.’
हालांकि, बुंदेलखंड के तमाम जिलों में वर्षा, भूजल की उपलब्धता और भौगोलिक स्थिति आश्चर्यजनक रूप से भिन्न है. इससे नहर के प्रति लोगों की प्रतिक्रिया भी प्रभावित हुई है.
लखेरी से कुछ किलोमीटर दूर भगतपुरा में भूजल की उपलब्धता ने इस साल बारिश की कमी को पूरा कर दिया है, क्योंकि यहां जमीन के नीचे चट्टानें होने जैसी कोई समस्या आड़े नहीं आती है.
221 किलोमीटर लंबी नहर इस गांव से होकर गुजरनी है, लेकिन यहां के किसान अपनी जमीन देने के खिलाफ हैं. विरोध स्वरूप कुछ ग्रामीणों ने नहर का मार्ग चिह्नित करने वाले बोल्डर भी हटा दिए हैं.
किसान जयपाल सिंह यादव कहते हैं, ‘हम पीढ़ियों से यह जमीन जोतते आ रहे हैं और अब सरकार उम्मीद करती है कि कुछ पैसों के लिए हम इसे बेच देंगे? हम अपनी जान दे देंगे, लेकिन अपनी जमीन नहीं देंगे.’ उनका चार एकड़ का गेहूं, सरसों और मटर का खेत नहर की जमीन में चले जाने का खतरा है.
उन्होंने कहा, ‘अगर हम अपनी जमीन छोड़ देंगे तो हमें बहुत ज्यादा नुकसान होगा. यह हमारे भरण-पोषण का साधन है. जब हमारे पास जमीन ही नहीं होगी तो हम पानी का क्या करेंगे?’ आसपास मौजूद अन्य किसानों ने पूरी जोरदारी से उनकी बात से सहमति जताई.
कुछ विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि नहरों और बांधों पर ध्यान केंद्रित करने के दौरान इस क्षेत्र की विषमताओं को ध्यान में नहीं रखा जाता है और इसके जलवायु प्रभाव हानिकारक हो सकते हैं.
अनुसंधान और विकास में जुड़ी देहरादून स्थित गैर-लाभकारी संस्था पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट की एक शोधकर्ता सीमा रवंडाले कहती हैं कि इस क्षेत्र की भिन्न भौगोलिक स्थिति और जल-भूविज्ञान यह निर्धारित करने में अहम भूमिका निभाते हैं कि सिंचाई के कौन से तरीके कितने कारगर होंगे. रवंडाले ने अन्य शोधकर्ताओं के साथ एक वर्किंग पेपर में उल्लेख किया कि ‘विशिष्ट सिंचाई रणनीतियों (नहरों और बांधों सहित) पर खासी निर्भरता के साथ पारंपरिक जल संचयन सुविधाओं की लगातार उपेक्षा’ की गई है.
वह कहती हैं, ‘बड़े बांधों और नहरों के साथ समस्या यह है कि वे हमेशा अंतिम छोर तक नहीं पहुंचते हैं. जब ऐसा होता भी है तो वे समय पर पानी नहीं छोड़ते हैं, जिससे किसानों का तनाव ही बढ़ता है. यही नहीं तमाम ऐसे उदाहरण भी सामने हैं कि गाद के कारण कई बड़े बांध अपने उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर पाते हैं. इसकी कोई गारंटी नहीं है कि आने वाले सालों में दौधन बांध के साथ ऐसा नहीं होगा.’
2019 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त एक समिति ने केन-बेतवा परियोजना की प्रभावशीलता पर भी सवाल उठाए थे और कहा कि इसके साथ आगे बढ़ने से पहले सिंचाई के अन्य तरीकों पर विचार किया जाना चाहिए.
भोपाल सिंह के मुताबिक, इस सिफारिश पर विचार किया गया और यह निर्णय लिया गया कि बुंदेलखंड की ‘केन-बेतवा लिंक परियोजना सिंचाई की जरूरतों को पूरा करने का सबसे अच्छा विकल्प है.’
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क्या हर तरफ पहुंचाने के लिए नदी का पानी पर्याप्त है?
आलोचकों के बीच यह भी एक बड़ा मसला है कि क्या केन नदी, जो मानसून के दौरान बहती है लेकिन गर्मी के महीनों के दौरान सूख जाती है, के पास हर जगह तक पहुंचाने के लिए ‘अतिरिक्त’ पानी है.
मार्च 2021 में मध्य प्रदेश और यूपी की सरकारों द्वारा हस्ताक्षरित मेमोरेंडम ऑफ एसोसिएशन के मुताबिक, दौधन बांध में एक सामान्य वर्ष के दौरान 6,590 मिलियन क्यूबिक मीटर (एमसीएम) ‘या इससे अधिक’ पानी रहने की उम्मीद है. इसमें 2,350 एमसीएम का इस्तेमाल मध्य प्रदेश करेगा और 1,700 एमसीएम का उपयोग यूपी द्वारा किया जाएगा.
जल बंटवारे का मसला दोनों राज्यों के बीच वर्षों से विवाद का बिंदु रहा है. मार्च 2020 तक एमपी और यूपी इस पर आम सहमति नहीं बना पाए थे कि प्रत्येक राज्य को कितना मिलना चाहिए. द वायर की एक जांच में पाया गया कि एमओए के तहत जल-बंटवारे का समझौता किसी ताजा हाइड्रोलॉजिकल सर्वेक्षण के बिना किया गया था. हालांकि, यूपी ने पानी की अधिक आपूर्ति की मांग की थी, जिसे अंततः खारिज कर दिया गया.
एनडब्ल्यूडीए के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, ‘एक और हाइड्रोलॉजिकल सर्वेक्षण करना ठीक नहीं है. बहुत संभव है कि पानी की उपलब्धता अलग तरह से नजर आए, और इससे जल-बंटवारे के अनुपात पर नई बहस और असहमति पैदा हो जाएगी.’
केन नदी में हाइड्रोलॉजिकल डेटा लगभग दो दशक पुराना है और सुरक्षा कारणों से इसे क्लासीफाइड रखा गया है, क्योंकि यह गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना बेसिन का हिस्सा है, जो बांग्लादेश और म्यांमार में बहती है.
भोपाल सिंह का कहना है कि हाइड्रोलॉजिकल अध्ययन रुड़की स्थित राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान ने किया था और केंद्रीय जल आयोग ने इस पर अपनी मुहर लगाई थी. 2020 तक बांदा में केन का गेज और डिस्चार्ज डेटा एकत्र किया गया है, जिससे पता चलता है कि नदी में ‘पानी की कोई कमी नहीं है.’
उन्होंने आगे कहा, ‘परियोजना का हाइड्रोलॉजिकल अध्ययन प्रामाणिक डेटा और इसे स्थापित सिद्धांतों और सीडब्ल्यूसी दिशानिर्देशों के आधार पर वैज्ञानिक रूप से जुटाया गया है और यह बिल्कुल सही और व्यवहार्य है.’
एक नदी शोधकर्ता और नदियों को जोड़ने वाली परियोजनाओं पर एक सरकारी समिति के पूर्व सदस्य हिमांशु ठक्कर, जो अभी नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में परियोजना की वन्यजीव मंजूरी को चुनौती दे रहे हैं, का कहना है कि डेटा की स्वतंत्र रूप से समीक्षा नहीं की गई है.
वे कहते हैं, ‘वास्तविकता यही है कि केन नदी के पास देने के लिए अतिरिक्त पानी नहीं है, लेकिन हमसे उम्मीद की जा रही है कि बिना किसी सवाल के इस पर विश्वास कर लें.’
केंद्रीय जल आयोग के पूर्व अध्यक्ष ए.के. बजाज ने केन के पास वितरित करने के लिए अतिरिक्त पानी नहीं होने की चिंताओं को खारिज करते हुए कहा, ‘सरकार के पास डेटा एकत्र करने के लिए पर्याप्त स्थान हैं, और यह सटीक है.’
हालांकि, केन-बेतवा परियोजना को कई अन्य मोर्चों पर विशेषज्ञों और पर्यावरणविदों के सवालों का सामना करना पड़ रहा है.
परियोजना को वन एवं पर्यावरण मंजूरी का विरोध कर रहे याचिकाकर्ताओं ने अदालतों में चुनौती दे रखी है और उनका कहना है कि इसके नतीजे ऐसी क्षति के तौर पर सामने आएंगे जिनकी भरपाई नहीं हो सकेगी, हालांकि, सरकार ने इसे निराधार बताया है.
जलवायु परिवर्तन की चिंता
कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि बहुत संभव है कि इतने बड़े पैमाने की परियोजना लंबे समय में वर्षा और मानसून में बदलाव को बढ़ा दे.
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), बॉम्बे के एक जलवायु वैज्ञानिक डॉ. सुबिमल घोष ने 2019 के एक अध्ययन में पाया कि उत्तर और उत्तर-पश्चिम भारत में सिंचाई के तरीकों का मध्य भारत में वर्षा के पैटर्न पर प्रभाव पड़ा है. वह पिछले ऑब्जर्वेशनल डेटा का उपयोग करके केन-बेतवा लिंक परियोजना के परिणामस्वरूप संभावित जलवायु परिवर्तनों का आकलन कर रहे हैं.
वे कहते हैं, ‘यह केवल जल विज्ञान या भूमि पर मौजूद पानी की मात्रा के बारे में नहीं है. नदियों को लिंक करना सीधे तौर पर महासागरीय प्रणालियों और वायुमंडलीय प्रणालियों से भी जुड़ा है. हम उस पानी की दिशा को मोड़ रहे हैं जिसे समुद्र में जाना है, जो लवणता और जैव रसायन को प्रभावित करेगा. समुद्र की अम्लता में परिवर्तन का मानसून पर प्रभाव पड़ेगा.’
उन्होंने आगे कहा कि एक बेहद अहम सवाल यह है कि, इसे किस तरह से नियंत्रित किया जा सकता है जिससे इन बड़ी जलवायु प्रक्रियाओं में कोई असर न पड़े.
ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद के एक सूचकांक के मुताबिक बुंदेलखंड क्षेत्र भविष्य में सूखा झेलने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं है. एनआईडीएम ने अपनी सिफारिशों में कहा कि बुंदेलखंड के संदर्भ में शुष्क भूमि कृषि और पारंपरिक जल प्रणालियों—टैंकों और तालाबों आदि—के कायाकल्प को प्रोत्साहित करना चाहिए, ताकि जलवायु परिवर्तन से सामंजस्य बनाए रखा जा सके.
हालांकि, केंद्रीय जल आयोग के पूर्व अध्यक्ष ए.के. बजाज का कहना है कि जब केन-बेतवा परियोजना की बात आती है तो जलवायु परिवर्तन चिंता का विषय नहीं है, और प्रस्तावित जलाशय बारिश के अतिरिक्त जल के संग्रहण और सूखे के समय भरपाई के लिए इसे संग्रह करके रखने के लिए पर्याप्त है.
उन्होंने कहा, ‘इस परियोजना में सैकड़ों इंजीनियरों की मेहनत लगी है. इतने सारे लोग गलत नहीं हो सकते. परियोजना तकनीकी रूप से अच्छी है, और इस पर योजना के अनुसार काम होगा. छोटी सिंचाई परियोजनाएं स्थानीय क्षेत्रों के लिए उपयुक्त हैं, लेकिन बुंदेलखंड की पानी की समस्या को हल करने के लिए आपको इतने बड़े पैमाने पर ही कुछ करने की जरूरत होगी.
हालांकि, कुछ विशेषज्ञों को डर है कि परियोजना से क्षेत्र के जंगलों और वन्यजीवों के लिए एक बड़ा खतरा उत्पन्न हो सकता है.
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वन्यजीवों की चिंता, अधिकारी बोले—संरक्षण को लेकर ‘गंभीर’ हैं
मध्य प्रदेश के पन्ना टाइगर रिजर्व में बाघों के मुख्य आवास का करीब 10 प्रतिशत हिस्सा वर्ष के चार से छह महीनों तक जलमग्न होने की उम्मीद है, क्योंकि तेजी से शुष्क होते पर्णपाती जंगल के 24 लाख पेड़ इसमें चले जाएंगे. यहां मानव बस्तियां भी प्रभावित होंगी.
पर्यावरणविदों का कहना है कि केन नदी, जो पन्ना टाइगर रिजर्व से होकर बहती है, मछलियों की 14 प्रजातियों का घर है. दौधन बांध के कारण उनके जिंदा बचने की दर भी प्रभावित हो सकती है. नीचे की ओर घड़ियाल अभयारण्य में पानी की आपूर्ति भी अनिश्चित परिणामों के साथ कम होने की संभावना है.
पन्ना टाइगर रिजर्व के फील्ड डायरेक्टर उत्तम कुमार शर्मा कहते हैं, ‘कोई नहीं जानता कि वास्तव में क्या होगा जब यह क्षेत्र जलमग्न हो जाएगा और यह पारिस्थितिकी को कैसे प्रभावित करेगा.’
उन्होंने कहा कि वन एवं वन्यजीव विभाग की सबसे बड़ी मांग यह है कि जलमग्न भूमि का मुआवजा दिया जाए, ताकि बाघों की आबादी फिर से कम न हो. 2009 में पन्ना रिजर्व के बाघ लगभग विलुप्त हो गए थे, और क्षेत्र में बाघ फिर से लाने के एक कार्यक्रम के तहत उनकी संख्या बढ़ पाई है.
हालांकि, शर्मा का मानना है कि एक बड़े जल निकाय—जैसे बांध का जलाशय—से अभयारण्य को फायदा होगा, जो कि गर्मियों के महीनों में पानी के टैंकरों पर निर्भर रहता है. उन्होंने कहा कि बांध की न्यूनतम भंडारण क्षमता, समुद्र तल से 240 मीटर ऊपर है जो ‘कुछ जानवरों के इसमें डूबने के लिहाज से उथली ही होगी.’
हालांकि, यह एक ऐसी राय है कि रिजर्व के पूर्व क्षेत्र निदेशक आर. श्रीनिवासन मूर्ति सहित कुछ स्वतंत्र विशेषज्ञ सहमत नहीं हैं.
परियोजना के संभावित प्रभावों का आकलन करने वाली एक समिति का हिस्सा रहे मूर्ति ने अपने खुद के एक ऑब्जर्वेशन में पाया है कि बांध के निर्माण से बस्ती पर असर पड़ेगा, एक महत्वपूर्ण गलियारे को नष्ट कर दिया जाएगा और रिजर्व में बाघों के अस्तित्व को खतरा होगा. मूर्ति का कहना है कि लैंडस्केप प्रबंधन योजना का प्रस्ताव है कि पन्ना टाइगर रिजर्व को आसपास के तीन और रिजर्व के साथ एकीकृत कर दिया जाए, लेकिन बाघों के जीवित रहने के लिए उनके शिकार की कोई व्यवहार्य व्यवस्था नहीं है.
मूर्ति, जिनके नेतृत्व में ही 2009 के बाद बाघों की आबादी फिर से बढ़ी थी, का कहना है, ‘यह परियोजना टाइगर रिजर्व को पूरी तरह नष्ट कर देगी. ऐसा कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है जिससे इसके निर्माण के प्रभावों को बेअसर किया जा सके. परियोजना के लिए सुरंग बनाने के लिए मिट्टी के ढेर लगाए जाएंगे. निर्माण में करीब एक दशक का समय लग सकता है. इसका जो प्रतिकूल असर होगा, वह कुछ ऐसा है जिसे फिर से पहले की तरह नहीं किया जा सकता है.’
हालांकि, सरकार का दावा है कि वह बांध के निर्माण से उत्पन्न होने वाली समस्याओं को दूर करने के लिए उपयुक्त कदम उठा रही है.
एनडब्ल्यूडीए के भोपाल सिंह का कहना है कि पर्यावरण और लैंडस्केप प्रबंधन योजनाएं भारतीय वन्यजीव संस्थान के परामर्श से तैयार की जा रही हैं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कम से कम नुकसान हो, और सरकार बाघ अभयारण्य के संरक्षण के बारे में ‘गंभीर’ है.
वे कहते हैं कि परियोजना का उद्देश्य ‘बुंदेलखंड क्षेत्र को न केवल जल सुरक्षा प्रदान करना है, बल्कि समग्र स्तर पर क्षेत्र और खासकर प्रकृति पर निर्भर बाघ, गिद्ध और घड़ियाल जैसी प्रजातियों का संरक्षण सुनिश्चित करना भी है.’
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‘हमें साफ तौर पर बताया जाना चाहिए कि इससे क्या हासिल करने वाले हैं’
पन्ना टाइगर रिजर्व के आसपास के जंगलों के अंदर, जिन ग्रामीणों की जमीनें इस परियोजना के तहत आ जाएंगी हैं, उन्हें इसका अंदाजा भी नहीं लग रहा है कि चीजें कितनी तेजी से आगे बढ़ रही हैं. कई लोग बताते हैं कि उन्हें परियोजना के बारे में समाचार पत्रों, इधर-उधर कही-सुनी बातों और रेडियो के जरिये ही थोड़ी-बहुत जानकारी मिल पा रही है.
बाघ अभयारण्य की परिधि में आने वाले घुघरी गांव के एक किसान सुनमेरा आदिवासी का कहना है, ‘एक अधिकारी ने आकर स्कूल में नोटिस चिपका दिया. उन्होंने कहा कि अगर हमें अपनी जमीन का मुआवजा चाहिए तो हमें अपना फोन नंबर और आधार कार्ड तैयार रखना चाहिए. लेकिन इससे आगे हमें नहीं पता कि इसका क्या मतलब है.’
नोटिस 2013 के भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्वास अधिनियम में उचित मुआवजा और पारदर्शिता के अधिकार के तहत जारी प्रारंभिक गजट नोटिफिकेश का हिस्सा था. दस्तावेज में सिर्फ यही बताया गया है कि अधिनियम की धारा 11 और 12 के तहत हर गांव से कितनी हेक्टेयर भूमि का अधिग्रहण किया जाना है. इसमें यह उल्लेख नहीं था कि ग्रामीण 60 दिनों तक भूमि अधिग्रहण का विरोध कर सकते हैं, इस तथ्य की जानकारी उन्हें बहुत बाद में मिली.
घुघरी रिजर्व के अंदर और आसपास के 10 गांवों में से एक है जो डूब क्षेत्र में आ जाएगा, जहां अधिकांश निवासी आदिवासी हैं और निरक्षरता दर काफी अधिक है.
दौधन गांव, जिस पर 77 मीटर ऊंचे बांध का नाम रखा गया है, में एक लाल पत्थर लगा है जहां जलाशय बनाया जाएगा. यहां कंक्रीट से बने एक ढांचे के अंदर घेरे में बैठे कुछ पुरुष ताश खेल रहे हैं. जबकि यहां अधिकांश घर मिट्टी के बने हैं, जिनकी छत गाय के गोबर के कंडों से भरी हैं.
दौधन में बुनियादी विकास के अभाव का प्रमुख कारण यह भी है कि यह टाइगर रिजर्व के भीतर आता है. इसकी वजह से यहां वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के तहत संरक्षित क्षेत्रों के भीतर कोई भी विकास संबंधी गतिविधि प्रतिबंधित है, जब तक कि वह वन्यजीवों के ‘लाभ’ के लिए न हो.
वन्य जीवों के साथ मानव संपर्क घटाने के लिए पार्क के अंदर आने वाले गांवों को 1981 के बाद से धीरे-धीरे यहां से स्थानांतरित कर दिया गया है, जब इसे रिजर्व घोषित किया गया था. कुछ मामलों में परिवारों को वह मुआवजा नहीं मिला जिसका उनसे वादा किया गया था. केन-बेतवा परियोजना से विस्थापित होने वाले ग्रामीणों को चिंता है कि उनका भी यही हश्र होगा.
दौधन के एकमात्र स्कूल शिक्षक महेश कुमार कोडर कहते हैं, ‘यहां जीवन बहुत कठिन है. हमारे पास कुछ भी नहीं है, यहां तक कि बिजली की स्थिति भी ठीक नहीं है. अगर यहां से हटने का मतलब हमारे लिए बेहतर अवसर हैं तो हम इसके लिए तैयार हैं. लेकिन बिना मुआवजे के नहीं. हम विस्थापन प्रक्रिया के तहत सरकार से 50 लाख रुपये और अधिक स्पष्टता की मांग करते हैं. हमें स्पष्ट तौर पर बताया जाना चाहिए कि इससे हमें क्या हासिल होने वाला है.’
परियोजना के तहत 2014 में तैयार विस्थापन एवं पुनर्वास योजना के अनुसार, अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग यदि जमीन के मालिक होंगे तो वह अन्य लाभों के अलावा, 1.5 लाख रुपये के घर और अधिकतम 2 एकड़ जमीन के हकदार होंगे.
जिन ग्रामीणों के पास जमीन नहीं है, उन्हें समझ नहीं आ रहा कि उनके लिए इसका क्या मतलब है. सुखवाहा गांव में एक दुकान चला रहीं चामा सिंह कहती हैं कि उन्होंने एक आदमी से जमीन खरीदी थी लेकिन उसने इसे तीन अन्य लोगों को भी बेच दिया था और वर्तमान में वह इसे अपने नाम कराने के लिए जूझ रही हैं.
उन्होंने कहा, ‘अगर ऐसा नहीं हो पाया तो उसे तो मुआवजा मि जाएगा और मेरे पास कुछ भी नहीं बचेगा. इन गांवों में बहुत से ऐसे लोग हैं जिनके नाम पर जमीन नहीं है. वे क्या करेंगे?’
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