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Wednesday, 20 November, 2024
होमदेशप्राउड मुस्लिम या रैडिकल इस्लामिस्ट? PFI का संबंध हिजाब विवाद से लेकर आतंकी गतिविधियों से क्यों जुड़ता है?

प्राउड मुस्लिम या रैडिकल इस्लामिस्ट? PFI का संबंध हिजाब विवाद से लेकर आतंकी गतिविधियों से क्यों जुड़ता है?

पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया हिजाब विवाद के बाद एक बार फिर सुर्खियों में है. पीएफआई पर संदिग्ध गतिविधियों में शामिल रहने का आरोप है. इनमें कई गंभीर आरोप भी शामिल हैं. इस बीच पीएफआई पर बैन की मांग उठने लगी है. लेकिन, संगठन लगातार अपना प्रभाव बढ़ा रहा है.

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बेंगलुरु/कोझीकोड: सफेद बाल, काले रंग का मोटे फ्रेम का चश्मा और आधी बाजू की शर्ट को करीने से पहने अंग्रेजी के पूर्व प्रोफेसर पी कोया (68) केरल के पारंपरिक एकेडमिशियन लगते हैं.

उन्होंने तीन दशकों तक शेक्सपीयर को पढ़ाया है. लेकिन, इसके अलावा एक और बात है जो उनके व्यक्तित्व का हिस्सा है. वह इस्लामिक संगठन, पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) के संस्थापकों में से एक है और प्रतिबंधित आतंकी संगठन स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) के पूर्व सदस्य भी रह चुके हैं.

केरल के कोझीकोड में इस्लामिक यूथ सेंटर के अपने दफ्तर में प्लास्टिक की कुर्सी को खींचते हुए वह शिकायती लहजे में कहते हैं कि पीएफआई के बारे में विवाद की वजह भारत में ‘धर्म और फासीवाद’ का ‘खतरनाक और विनाशकारी’ घालमेल है. उन्होंने कहा, ‘हम इसे 56 इंच का फासीवाद’ कहते हैं.

कर्नाटक के शैक्षणिक संस्थानों में हिजाब विवाद शुरू होने के बाद पीएफआई सुर्खियों में है. संगठन और उसके सहयोगियों पर हिजाब बैन खिलाफ आंदोलन कर रही महिलाओं को प्रभावित करने और राजनीतिक फायदे के लिए सांप्रदायिक अशांति फैलाने का आरोप है.

पिछले रविवार को बजरंग दल के एक कार्यकर्ता की हत्या चाकू मार कर कर दी गई. जिसके बाद विश्व हिन्दू परिषद (वीएचपी) और कुछ बीजेपी नेताओं ने इसके लिए पीएफआई को जिम्मेदार ठहराया था.

कोझीकोड में इस्लामिक यूथ सेंटर में पीएफआई के संस्थापक प्रो. पी. कोया | फोटो: अनुषा रवि सूद

ऐसा नहीं है कि इस तरह के आरोप पहली बार लग रहे हैं. इससे पहले भी, पीएफआई के गठन के बाद से ही उस पर कट्टरवाद को बढ़ाने, सरकार विरोधी गतिविधियों में शामिल रहने, सांप्रदायिक अशांति फैलाने, ‘देशद्रोह’ और प्रतिबंधित सिमी जैसे चरमपंथी संगठनों के साथ संबंध रखने के आरोप लगते रहे हैं. हालांकि, बीते कुछ समय में संगठन के व्यवहार में कुछ बदलाव देखने को मिले हैं. यह उनके बोलचाल, लहजे और खुद को पेश करने के तरीके में दिखता है.

पिछले गुरुवार को पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में आयोजित ‘पॉपुलर फ्रंट डे’ के कार्यक्रम में एक पीएफआई नेता ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को सीधी चुनौती देते हुए उसे ‘कैंसर’ बताया और हिजाब ‘ड्रामा’ शुरू करने का दोषी ठहराया. इस कार्यक्रम में तृणमूल कांग्रेस के एक विधायक भी शामिल थे.

गुरुवार को ही पीएफआई ने राजस्थान के कोटा में एक बड़ी रैली का आयोजन किया. इसके बाद, बीजेपी ने कांग्रेस पर राज्य में ‘राष्ट्र-विरोधी’ संगठनों को प्रोत्साहित करने का आरोप लगाया. इसी तरह से पीएफआई ने केरल में भी का मार्च निकाला. यहीं पर इस संगठन की स्थापना की गई थी. साथ ही, तमिलनाडु, गोवा, दिल्ली और महाराष्ट्र में छोटे स्तर पर कार्यक्रमों का आयोजन किया गया.

लगातार जांच एजेंसियों की नजर में रहने के बावजूद, पीएफआई लगातार मजबूत होती रही है. संगठन का न सिर्फ़ केरल और कर्नाटक के साथ ही उत्तर भारत में भी अच्छी खासी मौजूदगी है.

पीएफआई से जुड़े सहयोगी संगठन भी मजबूत हुए हैं. पीएफआई की छात्र शाखा कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया (सीएफआई) का कर्नाटक के तटीय इलाकों में मजबूत पकड़ है. इसके साथ ही सीएफआई ने दिल्ली में भी हिजाब बैन के खिलाफ प्रदर्शनों का नेतृत्व किया. इससे जुड़ी राजनीतिक पार्टी सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (एसडीपीआई) ने कर्नाटक के कुछ स्थानीय चुनावों में जीत दर्ज की है.

पीएफआई के बढ़ते प्रभाव के बीच, एक बार फिर से इसे बैन करने की मांग उठने लगी है. पिछले दस दिनों में असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा शर्मा, मैसूर के बीजेपी सांसद प्रताप सिम्हा और श्रीराम सेना जैसे हिन्दुत्व संगठन इस तरह की मांग करने वालों में शामिल हैं.

पीएफआई का कहना है कि वह सिर्फ हिंदुत्व ताकतों के खिलाफ है और उसे राजनीतिक वजहों से जानबूझकर परेशान किया जा रहा है.

पीएफआई को लेकर अलग-अलग विचार हैं. दिप्रिंट ने जांच में शामिल अधिकारियों और पीएफआई नेताओं से बात करके संगठन की पिछली गतिविधियों, उन मामलों और विवादों जिनमें संगठन का नाम है की पड़ताल की है. साथ ही, यह भी पता लगाया है कि संदेह के घेरे में रहने के बावजूद भी संगठन कैसे आगे बढ़ रहा है. हालांकि, पीएफआई पर कुछ गंभीर आरोप भी हैं.


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Graphics by Soham Sen
ग्राफिक्स: सोहम सेन | दिप्रिंट

पीएफआई इतना ‘कुख्यात’ क्यों हैं

पीएफआई खुद को ‘नियो सोशल मूवमेंट’ कहता है जिसका विजन हाशिए पर जी रहे सभी लोगों को सशक्त करना है. इसके उलट कई जांच एजेंसियां, मसलन प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) और केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) और राज्य पुलिस, कई मामलों में पीएफआई की जांच कर रही है. ये मामले देश के अलग-अलग हिस्सों में दर्ज हैं.

पीएफआई से जुड़े अन्य विवादों के अलावा संगठन पर, केरल में सोने की तस्करी के रैकेट में शामिल होने, कर्नाटक और केरल में धर्मांतरण के लिए शादी, दिल्ली में सीएए विरोधी दंगों को प्रायोजित करने और ‘देशद्रोह’ और उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक हिंसा भड़काने के आरोप लगे हैं.

फिलहाल, एनआईए पूरे भारत में अलग-अलग मामलों में 100 से ज्यादा पीएफआई सदस्यों के खिलाफ जांच कर रही है. साथ ही, ईडी 2020 के दिल्ली दंगों और नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के विरोध में कथित रूप से फंडिंग करने के मामले में संगठन की जांच कर रही है.

दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल भी, 2020 के दिल्ली दंगों के लिए कथित रूप से ‘लॉजिस्टिक्स मुहैया कराने’ में पीएफआई की भूमिका की जांच कर रही है.

पीएफआई पर साजिश रचने और दंगों के लिए फंडिंग देने के आरोपों के बीच उसे प्रतिबंधित करने की मांग कई बार उठी है.

साल 2019 में, उत्तर प्रदेश सरकार ने पीएफआई पर सीएए विरोधी दंगों को भड़काने का आरोप लगाते हुए उसे प्रतिबंधित घोषित करने की मांग की. इसके साथ ही, एनआईए ने साल 2017 में गृह मंत्रालय को एक विस्तृत रिपोर्ट भेजी और संगठन पर प्रतिबंध लगाने की मांग की.

एजेंसी ने पीएफआई को ‘राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा’ बताया था और दावा किया था कि संगठन, मलप्पुरम में सत्य सरानी जैसे संगठनों का इस्तेमाल ‘जबरन धर्मांतरण’ करने के लिए कर रहा था. एनआईए ने यह भी आरोप लगाया कि संगठन आतंकी हमले की साजिश रचने और बम बनाने में शामिल था.

रिपोर्ट में एनआईए ने कहा कि पीएफआई 23 राज्यों में सक्रिय था. साथ ही, संगठन पर ‘युवाओं का ब्रेनवॉश‘ करने के लिए संस्थान चलाने और देशी बम बनाने की ट्रेनिंग देने का आरोप लगाया गया है.

एनआईए ने जिन मामलों के आधार पर अपना दस्तावेज तैयार किया है, उनमें साल 2010 में केरल के इडुक्की जिले में प्रोफेसर टीजे जोसेफ पर कुल्हाड़ी से हमला करके उनका हाथ काट देना, बेंगलुरु में आरएसएस नेता आर रुद्रेश की हत्या, इस्लामिक स्टेट के अल-हिन्दी मॉड्युल की तरह ही दक्षिण भारत में गतिविधियां करने और साल 2010 में कन्नूर स्थित पीएफआई के अड्डों से बम, आईईडी, और तलवार की बरामदगी शामिल है.

एजेंसी ने 2016 में स्पेशल एनआईए कोर्ट की ओर से 21 पीएफआई सदस्यों को सजा सुनाने के मामले का भी हवाला दिया है. साल 2013 में कन्नूर में एक आतंकी शिविर लगाने के आरोप में स्पेशल कोर्ट ने यह सजा सुनाई थी.

एनआईए के एक सूत्र ने दिप्रिंट को बताया, ‘हम पीएफआई से जुड़े डोजियर (सबूत के तौर पर पेश किए गए दस्तावेज) के आधार पर बैन चाहते थे. गृह मंत्रालय में यह अनुरोध लंबित है,’

पिछले साल अप्रैल महीने में, केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि वह पीएफआई को बैन की ‘प्रक्रिया में हैं’ लेकिन ऐसा अबतक नहीं हुआ है.

Smoke rises from buildings in Gokulpuri, one of the Northeast Delhi areas worst affected by communal riots
2020 में सांप्रदायिक दंगों से सबसे बुरी तरह प्रभावित पूर्वोत्तर दिल्ली के क्षेत्रों में से एक गोकुलपुरी में इमारतों से उठने वाले धुएं की फाइल फोटो | अनन्या भारद्वाज | दिप्रिंट

पीएफआई चेयरमैन ओएमए सलाम राजनीतिक हिंसा और आतंकी गतिविधियों से संबंध होने के आरोपों को ‘बनावटी’ बताते हैं, ताकि उन्हें अविश्वसनीय साबित किया जा सके.

सलाम ने कहा, ‘जाहिर है, आरएसएस नेटवर्क जिसका सरकारी तंत्र पर जबरदस्त पकड़ है और मीडिया हमारे बारे में गलत बातें फैला रहे हैं. उनकी आवाज और नैरेटिव आज भले ही मजबूत है लेकिन एक दिन यह कमजोर पड़ जाएगा. अंधेरी सुरंग के खत्म होने पर हमेशा उजाला आता है.’ जब ये बातें सलाम ने अपनी दो मंजिला ऑफिस पर बैठे हुए कही, उस समय कम से कम दो दर्जन लोग बाहर में उनका इंतजार कर रहे थे.


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‘अनअपॉलोजेटिक मुस्लिम’ या आतंकियों का समर्थक?

पीएफआई के राष्ट्रीय महासचिव अनिस अहमद स्वीकार करते हैं देश के अलग-अलग हिस्सों में दर्जनों मामलों में संगठन के सदस्यों को आरोपी बनाया गया है लेकिन वह यह भी कहते हैं कि ये ‘व्यक्तिगत अपराध’ हैं जिसके लिए संगठन को दोषी नहीं ठहराया जाना चाहिए.

उन्होंने कहा, ‘हमने उन अपराधों की निंदा की है जिनमें हमारे सदस्य भी शामिल थे, जैसे कि केरल में हाथ काटने का मामला (जिसमें एक इसाई प्रोफेसर पर ईशनिंदा करने का आरोप लगाया गया था.) हम इसे माफ नहीं कर सकते.’ वह कहते हैं कि हम पर अतिवादी होने का आरोप सही नहीं है.

अहमद ने कहा, ‘जैसे ही आप अनअपॉलोजेटिक (अपने विश्वासों  पर दृढ़ रहने वाले) मुसलमान के तौर पर खुद को पेश करते हैं आपको एक कट्टरपंथी घोषित कर दिया जाता है. हम अपने विश्वासों को लेकर अडिग हैं. क्या भारत में किसी भी संगठन के लिए कार्य करना संभव होगा अगर उसके आतंकवादी संबंध हों? यह पर्याप्त सबूत है.’

इससे पहले, पीएफआई पर सिमी का ही दूसरा रूप होने के आरोप लग चुके हैं. सिमी, साल 2002 और 2003 के बीच मुंबई में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों सहित कई आतंकी घटनाओं में शामिल रहा है.

आधिकारिक रूप से पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया साल 2006 में तीन संगठनों के विलय होने के बाद अस्तित्व में आया. इनमें, केरल का संगठन नेशनल डेवलपमेंट फ्रंट (एनडीएफ), कर्नाटक फोरम फॉर डिग्नीटी (केएफडी) और तमिलनाडु का मनिथा नीथि परसाई (एमएनपी) शामिल हैं.

हालांकि, इनमें से कई पीएफआई के संस्थापक सदस्यों में कई सिमी के नेता रह चुके हैं. इनमें पूर्व पीएफआई अध्यक्ष और वर्तमान उपाध्यक्ष ईएम अब्दुल रहिमन (1982 से 1993 के बीच सिमी के महासचिव) और एसडीपीआई अध्यक्ष ई. अबूबकर (1982 से 1984 तक सिमी के केरल प्रदेश अध्यक्ष) शामिल हैं. इसके अलावा, पीएफआई के वरिष्ठ नेता और राष्ट्रीय कार्यकारी सदस्य प्रोफेसर पी कोया, सिमी और एनडीएफ दोनों के संस्थापक सदस्य भी थे.

कोया से उनके अतीत के बारे में पूछने पर उन्होंने दिप्रिंट को बताया कि वह 1982 में ही सिमी से अलग हो चुके थे और उसके एक दशक के बाद 1993 में एनडीएफ का गठन किया था. बकौल कोया, 1980 और 1990 के दशक में ‘हिन्दुत्व फासीवाद के बढ़ने’ पर प्रतिक्रिया में उन्होंने इस संगठन का गठन किया था.

कोया ने कहा, ‘1992 में फासीवाद का उफान अपने चरमोत्कर्ष पर तब पहुंच गया जब लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में एक गैंग ने बाबरी मस्जिद को बर्बाद कर दिया. इसके बाद यह स्पष्ट हो गया कि पारंपरिक मुस्लिम संगठन मुस्लिम समुदाय की चिंताओं को व्यक्त कर पाने में विफल हैं.’

बेंगलुरु दक्षिण के डिप्टी कमिश्नर ऑफ पुलिस (डीसीपी) हरीश पांडे पीएफए के अतीत को लेकर अलग विचार रखते हैं. इस संगठन से जुड़े मामलों की जांच करने के बाद वह इन नतीजों पर पहुंचे हैं.

पांडे ने कहा, ‘2000 दशक की शुरुआत में अतिवादी इस्लामिक संगठन तेजी से फला-फुला. (2001 में) सिमी के बैन होने के बाद बड़ी संख्या में अतिवादी कैडर सिमी से अलग हो गए और कुछ समय के लिए अंडरग्राउंड हो गए, लेकिन बाद में पीएफआई के तौर पर फिर से सामने आए.’

पीएफआई अध्यक्ष ओ.एम.ए. सलाम कोझीकोड में अपने कार्यालय में | फोटो: अनुषा रवि सूद

पीएफआई नेता इन आरोपों से इनकार करते हैं. उनका कहना है कि सिमी के बैन होने से बहुत पहले ही उनका पूर्ववर्ती संगठन एनडीएफ 1993 में ही गठित हुआ था.

कोया ने कहा कि एनडीएफ और सिमी दस सालों तक समकालीन संगठन थे लेकिन बाद में सिमी बंद होगा. दोनों की विचारधारा अलग-अलग थी.

उन्होंने कहा, ‘सिमी का मानना था कि भारत की समस्याओं का एकमात्र समाधान इस्लाम ही है, लेकिन हम मानते थे कि भारत कई धर्मों वाला बहुलवादी देश है. हमने कभी भी सिमी के विचारों का समर्थन नहीं किया.’

अनीश अहमद और ओएमए सलाम की तरह ही एक अन्य पीएफआई नेता ने कहा कि इसमें कोई बड़ी बात नहीं है कि अतीत में कुछ नेता सिमी से जुड़े हुए थे.

अनिश अहमद पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं और पीएफआई के बनने से पहले केएफडी के सदस्य थे. उन्होंने कहा, ‘सिमी के कुछ पूर्व नेता पीएफआई के सीनियर नेता भी हैं इतनी सी बात से यह नहीं कहा जा सकता है कि सिमी का पुनर्गठन करके पीएफआई बनाया गया है.

अहमद के मुताबिक, दूसरी पार्टियों मसलन कांग्रेस, जेडीएस, सीपीआई(एम) और मुस्लिम लीग से भी लोग पीएफआई में शामिल हुए हैं. सिर्फ़ सिमी से आए हुए लोगों पर ही बात करना ‘सोची-समझी साजिश’ का हिस्सा है.

पीएफआई में कई संगठनों को आकर्षित करने में कामयाब रहा है. साल 2009 में देश के कई संगठनों का विलय पीएफआई में हुआ. इनमें गोवा का सिटीजन फोरम, राजस्थान का कम्युनिटी सोशल एंड एजुकेशनल सोसाइटी, पश्चिम बंगाल का नागरिक अधिकार सुरक्षा, मणिपुर का लिलोंग सोशल फोरम और आंध्र प्रदेश का एसोसिएशन ऑफ सोशल जस्टिस शामिल हैं.

पीएफआई नेताओं के मुताबिक साल 2022 में संगठन के विस्तार में फिर से तेजी आई है.


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पीएफआई का विकास: मुस्लिम ‘सशक्तिकरण’ बनाम ‘आपराधिक चोरी’

पीएफआई के चेयरमैन ओएमए सलाम के मुताबिक, पूरे भारत में पीएफआई के चार लाख कैडर हैं और इनकी संख्या तेजी से बढ़ रही है. उन्होंने कहा कि पार्टी के समर्थकों और उससे सहानुभूति रखने वाले लोगों की संख्या ‘लाखों’ में है जो ‘कार्यक्रमों’ में तो शामिल होते हैं लेकिन सदस्यता लेने से झिझकते हैं क्योंकि संगठन ‘लगातार नजर पर रहती है’.

सलाम ने कहा, ‘हमारे ज़्यादातर नेता केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु से हैं लेकिन हम एक संगठन के तौर पर लगातार बढ़ रहे हैं. अब हमारे कैडर भारत के पश्चिम, पूर्व और उत्तर के राज्यों में भी हैं और जल्द ही वहां से नेतृत्वकारी भी बनेंगे.’

सलाम के इस बयान की पुष्टि ‘यूनिटी मार्च’ में बड़ी संख्या में जुटे भीड़ से होती है. 17 फरवरी को राजस्थान और पश्चिम बंगाल में इस मार्च का आयोजन किया गया था. इसके साथ ही, पिछले कुछ सालों में उत्तर प्रदेश और नई दिल्ली में पीएफआई सदस्यों पर दर्ज किए गए मामलों से भी इसके बढ़ते प्रभाव का आकलन किया जा सकता है.

PFI cadres at the meeting in Murshidabad on 17 February | Sreyashi Dey | ThePrint
17 फरवरी को मुर्शिदाबाद में बैठक में पीएफआई के कार्यकर्ता | श्रेयशी डे | दिप्रिंट

पीएफआई अपनी बढ़ती लोकप्रियता का श्रेय मुसलमानों और हाशिये में शामिल लोगों को ‘सशक्त’ करने के अपने प्रयासों को देता है. वहीं, जांच एजेंसियों का कहना है कि वे पीएफआई के मामले में आपराधिक गतिविधि और गैरकानूनी फंडिंग का एक पैटर्न देखते हैं.

डीसीपी हरीश पांडे के मुताबिक, कर्नाटक के अल्पसंख्यक बहुल इलाकों में संगठन मजबूत हुई है. इनमें खास कर दक्षिण कन्नड़ के उल्लाल, बंटवाल, हसन और चिक्कामगलुरु जैसे इलाके शामिल हैं. पीएफआई के बढ़ते प्रभाव के बारे में पांडे ने कहा, पीएफआई के मजबूत होने के साथ ही, इंटरफेथ रिलेशनशिप (दो अलग-अलग धर्म मानने वाले लोगों के बीच प्रेम संबंध) होने पर हत्याएं और हिंसा के मामले बढ़ गए.

पुलिस अधिकारी ने कहा कि साल 2011 में हुंसुर के दो कॉलेज छात्रों के अपहरण और उनकी हत्या से पीएफआई के सदस्यों की मंशा का पता चलता है. संस्थान के लिए फंड इकट्ठा करने के लिए पीएफआई सदस्य जबरन वसूली, डकैती, अपहरण और हत्या जैसे अपराधों में शामिल होते हैं.

पांडे ने कहा कि संगठन के सदस्य विचारधारा और राजनीतिक मामलों में भी अपराध करने में विश्वास करते हैं. साल 2019 में पीएफआई के सदस्यों और इससे जुड़ी राजनीतिक पार्टी एसडीपीआई, कांग्रेस के विधायक तनवीर सैत पर जानलेवा हमले में शामिल थी.

उनके मुताबिक, इस तरह के अपराध पीएफआई ‘कार्यकर्ताओं’ की ओर से अंजाम दिए जाते हैं जो संस्थान के आधिकारिक सदस्य नहीं होते हैं.

पांडे ने कहा, ‘कार्ड धारी सदस्यों और गैर पंजीकृत कार्यकर्ताओं के बीच स्पष्ट रूप से अंतर है.’ उन्होंने कहा कि ये आपराधिक घटनाओं को अंजाम देते हैं लेकिन पीएफआई से उनके संबंधों को साबित करना मुश्किल होता है.’

उन्होंने कहा, ‘एक ट्रेंड यह है कि जो लोग आपराधिक गतिविधियों में शामिल होते हैं वे अशिक्षित और गरीब होते हैं. इनमें से कई पहले से आपराधिक गतिविधियों में शामिल रहे हैं. ऐसे लोगों की लगातार भर्तियां की जाती हैं.’

पुलिस अधिकारी ने कहा कि किसी अपराध में नाम आ जाने पर गरीब मुसलमानों को वकील मुहैया करवाना भी पीएफआई की ‘रणनीति’ का हिस्सा है.

पांडे ने कहा, ‘इन युवाओं को संभावित रंगरूटों के तौर में देखा जाता है. पीएफआई उनके कानूनी (कोर्ट कचहरी और वकीलों के खर्च) फीस भरता है, उनके परिवारों की देखभाल करता है, और उनकी वफादारी हासिल करता है.’

उन्होंने पिछले साल अगस्त में बेंगलुरु के डीजे हल्ली दंगों का उदाहरण देते हुए कहा कि इस मामले में पीएफआई की ओर से  गिरफ्तार लोगों को कानूनी सहायता दी गई थी. इस मामले में एनआईए ने पीएफआई और एसडीपीआई के कम से कम 47 सदस्यों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की थी.

हालांकि, जिस गतिविधि को जांच एजेंसियां वफादार कैडर बनाने की एक चाल मानती है, पीएफआई उसे वंचित मुसलमानों की सेवा बताता है.

अनिश अहमद ने कहा, ‘आमतौर पर मुसलमानों को फर्जी मुकदमों में फंसा दिया जाता है. (मुसलमानों के खिलाफ) लिंचिंग की अधिकांश घटनाओं में दोषियों को बरी कर दिया जाता है क्योंकि पीड़ितों को कानूनी सहायता तक पहुंच नहीं होती है. (मुस्लिम) कम्युनिटी को कानूनी प्रक्रिया की जानकारी नहीं है. हमारे पास एक मजबूत कानूनी टीम है जो उन्हें केस लड़ने में मदद करती है.’

उनके मुताबिक, पीएफआई की ओर से कानूनी सहायता देने से कई मामलों में लोगों को न्याय मिला है. इनमें हादिया धर्म परिवर्तन विवाद, मुजफ्फरनगर दंगे और झारखंड में तबरेज अंसारी की लिंचिंग जैसे मामले शामिल हैं.

अहमद ने कहा, ‘सही धाराओं के तहत प्राथमिकी दर्ज करने से लेकर जांच अधिकारियों से जानकारी लेना, अपील की ड्राफ्ट और कानूनी दस्तावेज तैयार करना, पीड़ित परिवारों को कानूनी लड़ाई जारी रखने के लिए प्रेरित करने तक, पीएफआई की बड़ी कानूनी टीम कई मोर्चे पर बैकग्राउंड में काम करती है, वह कानूनी और मीडिया के छात्रों को आर्थिक मदद देने की बात भी कहते हैं.

पीएफआई युवाओं के स्कूल छोड़ने से रोकने के लिए भी कार्यक्रम चलाने और पिछड़े गांवों को ‘गोद लेने’ की योजना बना रहा है.

ओएमए सलाम ने दिप्रिंट से कहा, ‘हम उत्तर भारत के सबसे गरीब गांव को विकसित करना चाहते हैं. यह मुस्लिम बहुल क्षेत्र भी है. यह सिर्फ़ संयोग ही नहीं है. यह संस्थानिक तौर पर अल्पसंख्यकों को दबाने और उन्हें हासिए पर रखने का नतीजा है.’ उन्होंने कहा कि वह इस गैर-बराबरी को खत्म करना चाहते हैं.

सामाजिक सुधारों को छोड़ दें तो संगठन अब इस बात की कोशिश में भी जुटा है कि उसे किसी भी तरह से राजनीतिक वैधता प्राप्त हो जाए.


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पीएफआई और राजनीति

पीएफआई पर अकसर यह आरोप लगता रहा है कि वह मुस्लिम समुदाय को धर्म और राजनीति पर उकसाती रहती है, लेकिन संगठन के लोग इस बात को नहीं मानते. कोया कहते हैं, ‘धर्म से हमारा कोई लेना-देना नहीं है. हमारा संगठन कोई राजनीतिक दल नहीं है लेकिन हमारी कोशिश रहती है कि दलित जैसे पिछड़ों के साथ सहयोग करें.’

हालांकि, पीएफआई के राजनीतिक घटक एसडीपीआई ने स्थानीय चुनावों में अपनी जगह बनाने की कोशिश की है.

2017 में कर्नाटक के मवेशी वध प्रतिबंध के खिलाफ एक SDPI विरोध | फोटो: एएनआई/ट्विटर

पिछले साल दिसंबर महीने में एसडीपीआई ने कर्नाटक शहर के स्थानीय निकाय चुनावों में छह सीटें जीती थीं. छह सीटों में तीन सीटें उडुपी जिले के कौप और दक्षिण कन्नड़ा जिलों के दो स्थानों विट्टला और कोटेकर से एक-एक सीट पर उसे जीत मिली थी. इन दोनों ही तटीय इलाकों में मुस्लिम की संख्या ज्यादा है. छठवीं सीट चिक्कामगलूरू सीट से पार्टी का दलित उम्मीदवार विजयी हुआ था.

अनीस अहमद ने दिप्रिंट को बताया कि एसडीपीआई की शुरूआत पीएफआई ने नहीं की लेकिन हमने 2009 में एक राजनीतिक सम्मेलन करवाया था. इसी सम्मेलन के दौरान एसडीपीआई का गठन किया गया.

केरल के राजनीतिक विश्लेषक एसडीपीआई के शुरू होने की इस कहानी से सहमत नहीं हैं.

मलयालम भाषा और राजनीतिक कॉलम लेखक पॉल जकारिया कहते हैं, ‘पीएफआई कट्टरपंथी एनडीएफ की एक शाखा थी. जब पीपुल्स डिमोक्रेटिक पार्टी (केरल की पीडीपी, जम्मू कश्मीर वाली से अलग है) के नेता अब्दुल नासेर मदानी को आतंकी हमले के आरोप में गिरफ्तार किया गया तब पीडीपी ने अपना नाम बदलकर एसडीपीआई रख लिया. ये लोग भी आरएसएस जैसे ही सांप्रदायिक हैं.’

एसडीपीआई का लक्ष्य राजनीतिक चुनावों को जीतना है जबकि पीएफआई की छात्रों से जुड़ी शाखा, कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया (सीएफआई) कर्नाटक में एबीवीपी (आरएसएस की छात्रों शाखा) की तर्ज पर अपना कैडर तैयार करने में जुटी है. यहां की कुछ जगहों पर उसकी पकड़ कांग्रेस की विद्यार्थी शाखा से काफी ज्यादा है. हिजाब आंदोलन में भी इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी.

एसडीपीआई और हैदराबाद की असाउद्दीन ओवैसी के नेतृत्व वाली दूसरी मुस्लिम केंद्रित पार्टी, ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लीमीन (एआईएमआईएम) में कुछ समानताएं और संबंध हैं.

एआईएमआईएम की तरह ही एसडीपीआई पर भी कांग्रेस ने आरोप लगाया था कि उसकी सांठगांठ बीजेपी से है. चुनावों के समय दोनों ही वोटों के ध्रुवीकरण के लिए काम करते हैं.

पीएफआई के नेता अनीस अहमद स्वीकार करते हैं कि एआईएमआईएम के साथ उनके मधुर संबंध हैं. जिस प्रकार से हमारे ऊपर कई तरह के आरोप लगते हैं, उसी तरह के आरोपों का शिकार एआईएमआईएम भी है. लेकिन इन आरोपों की पुष्टि के लिए कोई सबूत नहीं रहता तो भला कोई क्यों इनको सच मानेगा.

पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में दिसंबर 2019 को सीएए से संबंधित हुई हिंसा के बाद, केंद्रीय जांच रिपोर्ट में दावा किया गया कि 5 जनवरी 2020 को होने वाली सार्वजनिक बैठक की तैयारी करवाने में एआईएमआईएम ने पीएफआई की मदद की थी. तृणमूल कांग्रेस ने बैठक की योजना पर रोक दी थी, लेकिन दो वर्षों बाद फरक्का से टीएमसी विधायक मनीरूल इस्लाम ने इसी महीने मुर्शिदाबाद में पीएफआई नेताओं के साथ एक विशाल जनसभा में हिस्सा लिया था.


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पीएफआई को फंड कौन देता है?

जांच निदेशालय ने 2020 में पीएफआई के तमाम पदाधिकारियों के यहां छापे मारे थे. संगठन पर आरोप था कि उसने देश भर में सीएए विरोधी और एनआरसी (नागरिकों के राष्ट्रीय पंजीयन) के खिलाफ हुए प्रदर्शनों में आर्थिक मदद पहुंचाई थी.

वहीं, अनीस अहमद कहते हैं, ‘मैं ईडी को छापों के लिए धन्यवाद दूंगा जिसने मेरी बेटी का बर्थ सर्टिफिकेट ढूंढ़ निकाला जो दो साल से नहीं मिल रहा था. ईडी को मेरे या पीएफआई के दूसरों नेताओं के यहां से कोई आपत्तिजनक चीज नहीं मिली.’

इस इस्लामिक संगठन पर हमेशा से ही विदेशी चंदे लेने के आरोप लगते रहे हैं लेकिन उनका कहना है कि आम मुसलमान संगठन चलाने में मदद करते हैं.

अहमद कहते हैं, ‘हादिया मामले में लड़ाई के लिए, एक ही शुक्रवार को सिर्फ 15 मिनट के भीतर मस्जिद के सामने खड़े होकर पीएफआई ने 80 लाख रुपए जुटा लिए थे. संगठन का खर्च दो तरह के दान पर निर्भर है- पहला तरीका है सालाना दान लेने का अभियान जो रमजान के महीने में चलता है और दूसरा तरीका स्कॉलरशिप और दूसरे कार्यक्रमों के लिए लिया गया दान जो नियमित तौर पर चलता है.’

कुछ फंडों का उपयोग नए भर्ती में शामिल हुए कैडर की विवादास्पद ट्रेनिंग के लिए भी होता है.

जांचकर्ताओं का कहना है कि ट्रेनिंग और कैडर तैयार करने वाले कैंपों का एक स्याह पक्ष भी है.

यह दोनों ही बातें इस पर निर्भर है कि आप किससे बात करते हैं. एक पक्ष पीएफआई को प्रबंधन का स्वर्ग बताता है तो वहीं दूसरा पक्ष इसे आतंकी ट्रेनिंग का अड्डा कहता है.

दिप्रिंट से हुई बातचीत में पीएफआई के राष्ट्रीय महासचिव अनीस अहमद कहते हैं, ‘सभी नए कैडर को एक प्रक्रिया से गुजरना होता है. पहले दिन से ही ट्रेनिंग में संगठन के इतिहास, उसके दृष्टिकोण, मिशन और उद्देश्य के बारे में बताया जाता है. हम उन्हें सामाजिक मूल्यों के बारे में भी बताते हैं. कोई भी सदस्य दहेज नहीं ले सकता. किसी भी सदस्य को क्रिप्टोकरेंसी से लेकर किसी भी गैरकानूनी कारोबार करने की मनाही है.’

ज्वाइन करने के छह महीने बाद नई भर्ती वालों को पांच दिवसीय लीडरशिप ट्रेनिंग प्रोग्राम में शामिल होना रहता है. इसमें नीतियों, संवैधानिक और कानूनी जागरूकता के साथ-साथ व्यक्तित्व विकास और संगठनात्मक प्रबंधन की शिक्षा दी जाती है.

अनीस अहमद बताते हैं, ‘हमारे पास व्यक्तित्व विकास की ट्रेनिंग देने वाली टीम है. साथ ही, प्रबंधन की क्लासेस भी चलती हैं जिनमें लोगों को एकत्र करने, प्रोग्राम चलाने, जनसभा आदि करने की ट्रेनिंग दी जाती है. हम वक्ताओं की पहचान करके उन्हें पब्लिक स्पीकिंग के लिए ट्रेनिंग देते हैं. शारीरिक शिक्षा के लिए योग की ट्रेनिंग की व्यवस्था अलग से है.’

हालांकि, जांच एजेंसियों का दावा है कि पीएफआई के कैंपों में चलने वाली क्लास में आतंकी गतिविधियों के लिए प्रशिक्षण दिया जाता है.

इसका ज्वलंत उदाहरण 2013 में कन्नूर के नाराथ में बरामद हुए हथियार हैं. एक तरफ एनआईए ने आरोप लगाया था कि पीएफआई के सदस्यों को हथियारों और देशी बम चलाने का प्रशिक्षण दिया जाता है, वहीं संगठन का कहना था कि वे योग कैंप में ट्रेनिंग दे रहे थे. कोर्ट ने 2016 में पीएफआई और एसडीपीआई के 21 कार्यकर्ताओं को हथियार और गोला बारूद रखने, आपराधिक साजिश में शामिल होने और आतंकी कैंप चलाने के आरोपों में दोषी करार दिया था.


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The protesting students of the Udupi Women’s PU College | Photo: Anusha Ravi | ThePrint
हिजाब के बैन को लेकर कर्नाटक में प्रदर्शन करते छात्र। फोटो- अनुषा रवि सूद- दिप्रिंट

इस बार बैन लगने पर किसने रोका?

पीएफआई का कहना है कि बैन को लेकर जो तमाम आरोप लगाए गए हैं वह किसी भी तरह व्यवहारिक नहीं हैं.

पुलिस के जांचकर्ताओं का कहना है कि पीएफआई पूरे मामले से इसलिए बच गई क्योंकि कोई ठोस सबूत नहीं मिल पाया. वैधानिक देरी और कमियां भी उसे बचाने में जिम्मेदार हैं.

कर्नाटक के डायरेक्टर जनरल रैंक के अधिकारी ने शिकायत करते हुए बताया कि कानूनी प्रक्रिया के चलते अकसर समय से कार्यवाई करने में बाधा आती है.

‘हमारी कानूनी व्यवस्था में ट्रायल के शुरू में होने में ही देरी हो जाती है. अगर शुरू भी होती है तो कानूनी व्यवस्था उसे लंबे समय तक खींचती रहती है. अगर प्राथमिक आधार वाले आतंकी हमले के मामले में न्याय मिलने में 18 साल का समय लगता है तो कोई कल्पना करे कि हत्या, राजनीतिक संघर्षों आदि के मामलों में अंतिम फैसला आने में कितना समय लगता होगा.’

इसी अधिकारी ने यह भी बताया कि पीएफआई की आपराधिक गतिविधियां कर्नाटक पुलिस की नजर में एक दशक पहले से ही आने लगी थीं. लेकिन कोई किसी संगठन पर तभी कोई कार्यवाई कर सकता है जब अभियुक्त के खिलाफ मामले की सुनवाई हो और कानून उस पर कोई अंतिम फैसला सुनाए.

अधिकारी ने एक और समस्या की तरफ इशारा करते हुए बताया, ‘हमारे यहां साक्षीदारों (गवाहों) की सुरक्षा की अच्छी व्यवस्था नहीं है. इससे गवाहों को फुसलाने-धमकाने की सुविधा मिल जाती है और वे मामले के खिलाफ हो जाते हैं, जिससे सजा दिलाना एक चुनौती बन जाती है.’

उधर अनीस अहमद ने दावा किया कि पीएफआई गैरकानूनी कामों में लगने की बजाय भारतीय संविधान को ठीक ढंग से लागू कराने के लिए संघर्ष कर रही है, जो वर्तमान में नहीं है.

अहमद, केरल के पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता और 2008 में हुए बेंगलुरु के सीरियल ब्लास्ट के आरोपी अब्दुल नासिर मदानी का मामला उठाते हैं. उनका कहना है कि मदानी पर कथित रूप से लश्कर-ए-तैय्यबा से जुड़े होने का आरोप लगा था.

अहमद ने कहा, ‘जबकि मोहन भागवत के भी असीमानंद (2007 के समझौता एक्सप्रेस बम कांड में अभियुक्त, बाद में छोड़ दिया गया) से संबंध हैं. लेकिन किसी में दम नहीं कि वह भागवत के साथ वह व्यवहार करे जैसा मदानी के साथ किया गया है. यह साफतौर पर पक्षपात का मामला है और बहुसंख्यक फासीवादी विचारधारा की पैदाइश है.’

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