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Friday, 11 October, 2024
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PFI को पता है कि सांप्रदायिक शेर की सवारी खतरनाक होती है- इनकी बुनियाद नफरत पर खड़ी है

कर्नाटक के हिजाब विवाद के बाद पीएफआई की लोकप्रियता बढ़ी है. लेकिन, सुरक्षा अधिकारियों का आरोप है कि वह भारत में जिहादी तैयार करते हैं.

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अहमदाबाद में 2008 में हुए बम विस्फोट के ठीक पहले सभी मीडिया के दफ्तरों में गुस्से से भरा एक ईमेल आया था. उसमें लिखा था, ‘पांच मिनट, सिर्फ पांच मिनट रुकें और मौत के खौफ को महसूस करें…जिन साढ़े पांच करोड़ काफिरों ने गोधरा दंगों के बाद हमें यातनाएं देते हुए पूछा था, तुम्हारा अल्लाह कहां है. वह सबसे दयालू, सबसे बड़ा यहीं है अपनी सजा के साथ.’ अहमदाबाद बम विस्फोट में 38 लोग मारे गए थे.

पिछले हफ्ते अहमदाबाद के सीरियल बम ब्लास्ट के कई गुनाहगारों को ट्रायल कोर्ट ने मौत की सजा सुनाई. इनमें से कुछ अभियुक्त वे भी थे जिन्होंने वह ईमेल लिखा था. इनमें कुछ इंडियन मुजाहिद्दीन के सदस्य की बमबारी में पहले ही इस्लामिक स्टेट के साथ लड़ाई में मारे जा चुके हैं.

संभावना है कि जिहादी आंदोलन फिर से सिर उठने की कोशिश कर रहा है. मुस्लिम विरोधी हिंसा, नफरत से भरे भाषणों और कर्नाटक हिजाब विवाद से उपजी सांप्रदायिक खाई चौड़ी होती जा रही है. यही हवा देश के दूसरे हिस्सों में फैल रही है जिसके कारण पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) की लोकप्रियता में बढ़ोतरी हुई है. पुलिस और जांच एजेंसियां लंबे अर्से से यह मानती आई हैं कि यह संगठन भारत में अगली पीढ़ी के जिहादी पैदा कर रहा है.

पीएफआई का जन्म और उसका फलना-फूलना

पीएफआई का गठन साल 2006 में नेशनल डेवलपमेंट फ्रंट, द कर्नाटका फोरम फॉर डिग्निटी और मनिथा निथि पसराई जैसे संगठनों को मिलाकर किया गया था. बाबरी मस्जिद के गिराए जाने के बाद, दक्षिण भारत में इन संगठनों का जन्म हुआ. इनमें पीएफआई के फ्रंट ऑर्गनाइजेशन में कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया, नेशनल वोमेन फ्रंट शामिल हैं. सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया इससे जुड़ी हुई राजनीतिक पार्टी है. इसमें देश के अलग-अलग हिस्सों से लोग जुड़े हुए हैं.

पीएफआई के सदस्यों में अब्दुल रहमान और अब्दुल हमीद जैसे लोग शामिल हैं. ये दोनों स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) के नेतृत्वकारी पदों पर रह चुके हैं. इसकी वजह से यह आरोप लगाया जाता है कि पीएफआई का मुख्य उद्देश्य सिमी की फिर से ब्रांडिंग करनी है.

पीएफआई का कहना है कि साल 2001 में सिमी पर प्रतिबंध लगने के बाद वह सिमी के रास्ते पर नहीं चलते हैं.

संगठन का सार्वजनिक एजेंडा, मुस्लिम अधिकारों के मुख्यधारा के सवालों पर जोर देता है. इन सवालों में मुस्लिम विरोधी हिंसा के खिलाफ कार्रवाई, समुदाय के लिए, नौकरी में आरक्षण और धर्म आधारित पर्सनल लॉ शामिल हैं. इसके आधिकारिक दस्तावेजों में जिहादियों के प्रति सहानुभूति का जिक्र देखने को नहीं मिलता है.

ऐसे सबूत मिले हैं कि कम से कम साल 2011 के बाद, पीएफआई कैडर हिंसा में शामिल रहे हैं. इसी साल ईशनिंदा वाली लघु कहानी पढ़ाने के आरोप में पीएफआई के सदस्यों ने इडुक्की कॉलेज के प्रोफेसर टीजे जोसेफ का हाथ काट दिया.

इसके बाद, साल 2013 में केरल की पुलिस ने कन्नूर के नारथ में एक कैंप का पता लगाया. राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने दावा किया कि इस कैंप में पीएफआई के सदस्यों को बम बनाने और तलवार चलाने की ट्रेनिंग दी जा रही थी.


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इस्लामिक स्टेट से संबंध

साल 2014 में, केरल सरकार ने एक हलफनामा दायर किया, जिसमें दावा किया गया कि संगठन इस्लामिक एजेंडे पर गुप्त रूप से काम कर रही है. सरकार ने दावा किया कि पीएफआई के सदस्य, सांप्रदायिक वजहों से की गई 27 हत्याओं में शामिल थे. साथ ही, 86 हत्या के प्रयास के ऐसे मामले थे जिसमें राज्य के कम्युनिस्ट, हिन्दू राष्ट्रवादी और इस्लामिस्ट शामिल थे.

इराक और सीरिया में तथाकथित खलीफा की घोषणा के कुछ महीनों बाद ही, खुफिया सेवाओं से जुड़ी एजेंसियों ने दावा किया कि पीएफआई के सदस्यों और इस्लामिक स्टेट के बीच संबंधों के संकेत मिल रहे हैं.

साल 2016 में, एनआईए ने कुछ गिरफ्तारियां की. एनआईए ने दावा किया कि पीएफआई के सदस्य, इस्लामिक स्टेट के तर्ज पर अल-ज़रूल-खलीफा के गठन की योजना बना रहे थे. एनआईए ने कहा कि इस समूह का उद्देश्य पूरे भारत में आतंकी घटनाओं का अंजाम देना था.

इससे पहले, केरल के 22 लोग धर्मांतरण से संबंधित संगठन से जुड़ने के बाद, इस्लामिक स्टेट में शामिल होने के लिए अफगानिस्तान चले गए थे. इनमें पीएफआई के पूर्व सदस्य भी शामिल थे. इन सदस्यों पर जिहादी समूह के लिए फंड इकट्ठा करने और उसके लिए प्रचार करने का आरोप है.

अपने सदस्यों के इस्लामिक स्टेट में शामिल होने पर पीएफआई ने उनकी इस गतिविधि को ‘संगठन की शिक्षा’ के खिलाफ बताया. पीएफआई ने कहा कि वह बहुत पहले ही जिहादी समूह के ‘धर्म-विरोधी और राष्ट्र-विरोधी’ व्यवहार के बारे में आगाह कर चुका है. एनआई के पास कोई रिकॉर्ड नहीं है कि साधारण सदस्यों को छोड़कर, संगठन और उसके नेतृत्व जिहादी विचारधारा का समर्थन करते हैं. संगठन की जुबान भी संवैधानिक लगती है.

असम और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के आग्रह के बावजूद भी नई दिल्ली (केन्द्र सरकार) ने अबतक पीएफआई को प्रतिबंधित नहीं किया है. इससे लगता है कि सरकार एक ऐसे संगठन से राजनीतिक फायदा होते देख रही है जो पहले से स्थापित मुस्लिम नेतृत्व को चुनौती दे रहा है.


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सिमी से सीख

सिमी की तरह पीएफआई को भी मालूम है कि सांप्रदायिकता का सहारा लेना शेर की सवारी करने की तरह खतरनाक होता है. सिमी का जन्म जमात-ए-इस्लामी से हुआ है. इसके संस्थापक सैयद अबु अला मावडुडी हैं.

साल 1939 में मावडुडी ने एक लेख लिखकर कहा था कि इस्लाम का लक्ष्य राजनीतिक सत्ता हासिल करना होना चाहिए न कि उनके शब्दों में, ‘विश्वास, प्रार्थना और कर्मकांडों के मकड़जाल में पड़ना’. उन्होंने कहा था कि इस्लाम, ‘एक ऐसी क्रांतिकारी विचारधारा है जो पूरी दुनिया के सामाजिक ताने बाने को बदलना चाहती है और उसे अपने विश्वासों और आदर्शों के हिसाब से फिर से गढ़ना चाहती है.’ हालांकि, ये विचारधारा ही पश्चिमी एशिया में आधुनिक जिहादी आंदोलनों की नींव बनेगी. वहीं, जमात इस नतीजे पर पहुंची कि सेकुलर राज्य को बचाना ही हिन्दू संप्रदायवाद को रोकने का पुख्ता तरीका है.

जमात ने 1977 में सिमी का गठन किया था. इसका उद्देश्य युवाओं को जोड़ना था. लेकिन, गठन के पांच साल बाद जमात ने खुद को सिमी से अलग कर लिया. सिमी नेताओं के कट्टरपंथी विचारों से जमात को दिक्कत थी. इसके बावजूद, सिमी मजबूत होता रहा है. पोर्नोग्राफी और नशे के विरोध के साथ ही धार्मिक शिक्षा की कक्षाओं के जरिए सिमी ने जनता का नैतिक समर्थन हासिल किया. यह तरीका पीएफआई जैसा ही था.

सांप्रदायिक शेर की सवारी

साल 1992 में बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के बाद, सिमी की भाषा, स्कॉलर योगिंदर सिकंदर के शब्दों में ‘लड़ाकू और तीखी’ हो गई. सिमी ने अपने पर्चे में चेतावनी दी कि ऐसे मुसलमान जो धर्मनिरपेक्ष सोसाइटी में आराम कर रहे हैं वे जहन्नुम में जाने वाले हैं. इसके कुछ समय के बाद ही, सिमी ने पर्चे लगाए कि मुसलमानों को मध्यकालीन सेनापति गजनवी की तरह ही भारत में मस्जिद गिराने का बदला लेना चाहिए.

सिमी ने 1996 में बयान दिया कि मुसलमानों की सुरक्षा करने में लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्ष विफल रहा है, इसलिए मुसलमानों के पास खिलाफत के लिए संघर्ष ही एकमात्र रास्ता बचता है.

पीएफआई के इस्लामिक स्टेट से झुकाव रखने वाले सदस्य की तरह ही इंडियन मुजाहिदीन के संस्थापक सदस्य भी सिमी से अलग हो गए. साल 2001 के बाद से, इन समूहों के मुख्य सदस्य सैन्य प्रशिक्षण के लिए पाकिस्तान जाते रहे हैं. 2002 में गुजरात के सांप्रदायिक नरसंहार ने इन मुख्य जिहादियों को आगे बढ़ने में मदद किया.

साल 2004 में कर्नाटक के भटकल में दर्जनों नए रंगरूट, पहली बार ट्रेनिंग के लिए जुटे. साथ ही, इंडियन मुजाहिदीन के 2005-2008 तक चले अर्बन टेररिज्म कैंपेन के लिए, सेफ हाउस का नेटवर्क और बम निर्माण स्थल बनाए गए.

साल 2008 के बाद से, भारतीय पुलिस और खुफिया सेवाएं, इंडियन मुजाहिदीन जैसे आतंकवादी समूहों को नष्ट करने में अधिक निपुण हो गई हैं, इसके बावजूद समस्या गहरी होती गई है.

जिहादी बनने के लिए, इस्लामिक स्टेट और अल-कायदा में शामिल होने का सिलसिला लगातार जारी है. इनमें प्राय:  मध्यम आय वाले और शिक्षित परिवार के सदस्य होते हैं. पीएफआई ही मोबलाइज करने का एकमात्र प्लेटफॉर्म नहीं है. एनआईए ने इस मामले में कई अलग-अलग नेटवर्क में शामिल लोगों को गिरफ्तार किया है. इनमें धर्मगुरु से जुड़े लोग के साथ ही ऑनलाइन प्रचार से प्रभावित होने वाले जिहादी भी शामिल हैं.

जैसा कि 1992 और फिर 2002 में हुआ, मुसलमान विरोधी राजनीति और सांप्रदायिक हिंसा ने कुछ युवा मुसलमानों को अपनी मातृभूमि से प्रतिशोध लेने के लिए प्रेरित किया. जिहादी आतंकवाद में विश्वास रखने वालों के लिए एक ही सीख है: पीएफआई जैसे संगठन हो सकता है कि जिहादी तैयार करते हों, लेकिन इनकी बुनियाद नफरत पर खड़ी है.

व्यक्त विचार निजी हैं. 

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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