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Sunday, 22 December, 2024
होमदेश'नागाओं के खिलाफ नस्लभेद'- अपनी मां का मांस खाने वाली जनजाति को दर्शाती बंगाली कहानी पर विवाद

‘नागाओं के खिलाफ नस्लभेद’- अपनी मां का मांस खाने वाली जनजाति को दर्शाती बंगाली कहानी पर विवाद

लेखक देबरती मुखोपाध्याय का कहना है कि उनकी लघु कहानी एक काल्पनिक जनजाति के बारे में है. यह सिर्फ एक 'फिक्शन' है और 'नागालैंड' शब्द को आने वाले संस्करणों से हटा दिया जाएगा.

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नई दिल्ली: नागालैंड में, ‘जेसुमी’ नाम का एक आदिवासी समुदाय ‘अपनी बूढ़ी मां को मौत के घाट उतारता है और फिर उसकी आत्मा की शांति के लिए उसका मांस खाने की परंपरा का पालन करता है. उनका मानना है कि एक मां जो अपने गर्भ से बच्चे को दुनिया में लाती है, उसी बच्चे के अंदर जाकर खत्म हो जाना चाहिए’- इस हैरान-परेशान करने वाली परंपरा के बारे में बंगाली लेखिका देबरती मुखोपाध्याय ने अपनी लघु कहानी ‘भोज’ में लिखा है. इस कहानी का एक अंश 18 अगस्त को फेसबुक पोस्ट पर शेयर किया गया था, जिसे विरोध के बाद वहां से हटा दिया गया.

कोरी ‘कल्पना’ पर आधारित यह कहानी पहली बार 2017 में बंगाली पत्रिका नबाकलोल में प्रकाशित हुई और बाद में लघु कथाओं के संग्रह ‘देबारतिर सेरा थिलर’ में इसे जगह मिली. लेकिन अब उनकी इस पोस्ट को लेकर ट्विटर और फेसबुक पर कई नागा लोगों ने अपना गुस्सा जाहिर किया है. वह नागाओं के ‘नस्लवादी’ के रूप में चित्रण की आलोचना कर रहे हैं.

पश्चिम बंगाल में सिविल सेवा अधिकारी मुखोपाध्याय ने दिप्रिंट को बताया कि कई लोगों ने बंगाली में लिखी गई पोस्ट को ‘गलत’ तरीके से लिया है और उनके खिलाफ ‘झूठे आरोप’ लगाए जा रहे हैं.

लेखिका ने कहा, ‘भोज’ एक लघु कहानी है जो 2017 में लिखी गई थी. दो दोस्तों की यह कहानी एक काल्पनिक स्थान पर एक काल्पनिक जनजाति के बारे में है… मैंने किसी वास्तविक नाम या रीति-रिवाजों का उल्लेख नहीं किया है. सबसे बड़ी बात, यह पूरी तरह से काल्पनिक है. कहानी के साथ एक डिस्क्लेमर भी लगा है.’

उन्होंने आगे कहा, ‘(असली) जगहों पर आधारित कई वेब सीरीज /फिल्में/ और किताबें हैं. अगर उनमें कोई राजस्थान में की गई हत्या का चित्रण करता है तो इसका मतलब राजस्थान को बदनाम करना नहीं है.’

मुखोपाध्याय के मुताबिक, सोशल मीडिया पर कुछ नागाओं को यह सोचकर गुमराह किया जा रहा है कि ‘जेसुमी’ नागालैंड के एक शहर चिज़ामी को संदर्भित करता है, जबकि यह एक काल्पनिक बंगाली शब्द है. उन्होंने साफ किया कि दोनों के बीच कोई संबंध नहीं है.

चिज़ामी का छोटा शहर फेक जिले की घनी जंगलों वाली पहाड़ियों के बीच स्थित है, जहां चाखेसांग जनजाति का वर्चस्व है.

मुखोपाध्याय ने सोमवार को एक अन्य फेसबुक पोस्ट में नागालैंड के लोगों को ‘पूरी तरह से अनजाने में’ चोट पहुंचाने के लिए माफी मांगी और कहा कि ‘नागालैंड’ शब्द को अगले संस्करण में एक काल्पनिक नाम में बदल दिया जाएगा.

उन्होंने अपनी पोस्ट में लिखा, ‘मैंने प्रकाशक के साथ बात की है. वे अगले संस्करण में ‘नागालैंड’ नाम को कुछ काल्पनिक नाम में बदल देंगे. मैं किसी और की राय की जिम्मेदारी नहीं लूंगी.’


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‘गैसलाइटिंग नागा लोग’

कई ट्विटर यूजर्स ने मुखोपाध्याय की उनकी कहानी में कथित तौर पर नागा लोगों को ‘नरभक्षी’ के रूप में चित्रित करने के लिए आलोचना की और समुदाय की ‘बदनाम’ किए जाने पर अपनी नाराजगी व्यक्त की. कुछ ने उन्हें ‘नस्लवादी’ भी कहा.

नागा विद्वान डॉली किकॉन ने अपने ट्वीट में लिखा, ‘इस तरह के आपत्तिजनक चित्रण करने के लिए नस्लवादी श्रेष्ठता और नागा लोगों को गैसलाइट करने के अंदाज पर ध्यान दें.’

वरिष्ठ पत्रकार नितिन सेठी ने कहा कि ‘पैकेजिंग पेपर या शब्दों में लिपटा नस्लवाद अभी भी उतना ही कच्चा और सड़ा हुआ है.’

एक यूजर ने सुझाव दिया कि अगर कहानी काल्पनिक है तो मुखोपाध्याय को अपनी कहानी में ‘नागालैंड’ शब्द का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए था.

मुखोपाध्याय ने कहा कि कहानी के बारे में काफी कुछ बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है क्योंकि लोगों को कहानी का ‘पूरा अनुवाद’ नहीं मिल सका है

उन्होंने जोर देकर कहा, ‘उन्हें लग रहा है कि मैंने उन्हें बदनाम किया है. लेकिन ऐसा करने का कोई सवाल ही नहीं है.’

असत्यापित ‘लोककथा’

अपनी थ्रिलर लघु कहानी के लिए प्रेरणा के बारे में विस्तार से बताते हुए मुखोपाध्याय ने कहा कि एक बूढ़े मजदूर (एक गैर-नागा व्यक्ति), जिसे वह पांच साल पहले नागालैंड में मिली थी, ने उसे ‘अजीब परंपरा’ के बारे में बताया था.

उन्होंने कहा, ‘इस परंपरा का पालन एक जनजाति द्वारा किया जाता है जो आत्मा के संरक्षण में विश्वास करती थी. जिस तरह से हम दुनिया में मां के गर्भ से आते हैं, उनकी मृत्यु के बाद वे मां का मांस खाते हैं ताकि उसकी आत्मा उसके बच्चे के भीतर रह सके. यह एक काल्पनिक लोककथा है. मैंने काल्पनिक विवरण का इस्तेमाल करके अवधारणा लिखी है.’

इसके अलावा मुखोपाध्याय ने कहा कि बूढ़े व्यक्ति ने उन्हें बताया था कि 70 के दशक से पहले ही इस परंपरा का पालन किया जाना बंद कर दिया गया था.’ लेकिन वह नागा व्यक्ति के साथ लोककथा को सत्यापित नहीं कर सकी.

लेखक ने कहा, ‘मैं तब एक युवा लेखिका थी और मुझे नहीं पता था कि पांच साल बाद इस तरह का मसला उठ खड़ा होगा. मैंने इन सालों में काफी कुछ सीखा है और पहले से ज्यादा परिपक्व हो गई हूं.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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