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Wednesday, 24 April, 2024
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होंडा फैक्टरी मामले में कर्मचारियों का आरोप, मैनेजमेंट और ट्रेड यूनियन ने मिलकर निकाला

35 वर्षीय सोनू कुमार कहते हैं, ‘हमें बताया गया था कि अगर हमने कागजात पर हस्ताक्षर नहीं किए तो हमें हमारा बकाया नहीं दिया जाएगा और कंपनी परिसर में भी प्रवेश नहीं करने दिया जाएगा.’

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27 सितंबर से लेकर 16 अक्टूबर के बीच 20 दिनों की अवधि के दौरान वाहन निर्माता कंपनी होंडा ने अपने ग्रेटर नोएडा स्थित कारखाने से 545 कर्मचारियों को बाहर निकाल दिया. इन कर्मचारियों का आरोप है कि कंपनी ने उनके ट्रेड यूनियन (श्रमिक संघ) के साथ मिलीभगत कर उनसे पहले से भरे स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति फॉर्म पर हस्ताक्षर करवाए लिए थे.

हेम चंद नागर 2008 से ही होंडा कार्स इंडिया लिमिटेड के साथ काम कर रहे थे वो कहते हैं, ‘जो यूनियन वर्कर्स के भलाई के लिए होता है उन्होंने ही मैनेजमेंट से मिल कर हमारे साथ ऐसा किया.’ होंडा के कर्मचारियों का कहना है कि स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना (वीआरएस) शुरू करने का फैसला करने से पहले कंपनी ने उनसे किसी तरह का सलाह-मशविरा नहीं किया. स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना आमतौर पर श्रमिक संघों द्वारा केवल इसलिए स्वीकार्य की जाती है क्योंकि इसकी प्रकृति ‘स्वैच्छिक’ होती है. निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां अक्सर इसे लागत में कटौती के एक उपाय के रूप में आजमाती हैं लेकिन मंदी, विलय, अधिग्रहण या किसी विदेशी फर्म के साथ संयुक्त उद्यम के कारण भी कंपनियां अपने कर्मचारियों की छंटनी के लिए यह रास्ता अपना सकती हैं. 2019 में सार्वजानिक क्षेत्र के उपक्रमों बीएसएनएल और एमटीएनएल ने भी इन दो लगातार घाटे में रहने वाली दूरसंचार कंपनियों के विलय के एक हिस्से के रूप में अपने कर्मचारियों को वीआरएस की पेशकश की थी.

होंडा का तर्क है कि उसने अपने कर्मचारियों को वीआरएस की पेशकश इसलिए की क्योंकि उसका ग्रेटर नोएडा संयंत्र घाटे में चल रहा था और संभावित बंदी का भी सामना कर रहा था लेकिन कंपनी के कामगार उसके इस दावे से इनकार करते हैं और इनका कहना हैं कि यहां उत्पादन हमेशा की तरह ही हो रहा था. वकील प्रतीक सांगवान का कहना है कि किसी भी कंपनी के लिए यह अनिवार्य होता है कि वह अपने कर्मचारियों को वीआरएस की पेशकश के पीछे के कारण से अवगत कराए और उन्हें फॉर्म भरने का पर्याप्त समय भी दिया जाए. होंडा ने कथित तौर पर ऐसा कुछ नहीं किया.

कंपनी के जनसंपर्क अधिकारी सबा खान ने इन आरोपों का खंडन किया और इस मामले पर होंडा का आधिकारिक बयान हमारे साथ साझा किया. इस बयान में लिखा गया है, ‘कंपनी के खिलाफ लगाए गए सभी आरोप पूरी तरह से झूठे, निराधार और वास्तविक तथ्यों से रहित हैं. उनका उद्देश्य कंपनी की छवि खराब करना है और हम इन सभी आरोपों का खंडन करते हैं. इस बयान के साथ, हम फिर से दोहराना चाहेंगे कि हम एक ऐसे ब्रांड हैं जो विश्वास के आधार पर बने हैं.’

होंडा कार्स इंडिया लिमिटेड का ग्रेटर नोएडा प्लांट | फोटो: मनीषा मोंडल | दिप्रिंट

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ट्रेड यूनियन से मिलीभगत

जनवरी 2020 में होंडा के लगभग 200 कर्मचारी वीआरएस का लाभ उठाकर स्वेच्छा से सेवानिवृत्त हुए थे लेकिन कंपनी ने उसी साल सितंबर में इस योजना को फिर से शुरू किया – और इस बार, उसने कर्मचारियों को इसे अपनाने के लिए ‘मजबूर’ किया. कर्मचारियों का कहना है कि इसने कोविड -19 महामारी के कारण क्वारंटाइन में रह रहे कर्मचारियों को भी कार्यालय आने और कागजात पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा.

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तो सवाल यह है कि कर्मचारियों ने वीआरएस क्या है, यह सब जानने के बावजूद ऐसा क्यों किया?

2007 में होंडा कंपनी में शामिल होने वाले 35 वर्षीय सोनू कुमार कहते हैं, ‘हमें बताया गया था कि अगर हमने कागजात पर हस्ताक्षर नहीं किए तो हमें हमारा बकाया नहीं दिया जाएगा और कंपनी परिसर में भी प्रवेश नहीं करने दिया जाएगा.’

यही वह मौका था जब ट्रेड यूनियन इन कर्मचारियों की सहायता के लिए आगे आ सकती थी लेकिन कर्मचारियों का आरोप है कि होंडा ने पहले ही यूनियन को अपने साथ कर लिया था. ट्रेड यूनियन अधिनियम, 1926 का उद्देश्य यूनियनों के अधिकारों और विशेषाधिकारों की रक्षा करना है लेकिन होंडा के मामले में प्रबंधन के साथ यूनियन की मिलीभगत की वजह से सैकड़ों कर्मचारियों की नौकरी चली गई.

कंपनी के पूर्व कर्मचारी मंगल सिंह के अनुसार, होंडा की ट्रेड यूनियन जो पहली बार 2004 में अस्तित्व में आई थी, हर साल फरवरी में चुनाव के बाद गठित होती है लेकिन कोरोना महामारी के कारण 2020 में चुनाव नहीं हो सका. परन्तु, होंडा के अनुसार, 22 मार्च 2020 को इसके ग्रेटर नोएडा स्थित कारखाने में एक चुनाव हुआ था, जहां 627 कर्मचारी मौजूद थे, और उनमें से 460 ने यूनियन का चुनाव करने के लिए मतदान किया. ‘संयोगवश’ इस बार भी इसमें वही सदस्य शामिल थे, जो एक साल पहले बने यूनियन के समय थे.

यही वह बिंदु है जहां से चीजें थोड़ी गड़बड़ नजर आती हैं. 22 मार्च 2020 को पूरा भारत नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा घोषित एक दिन के जनता कर्फ्यू के अधीन था. ऐसे में सवाल यह है कि होंडा इस दिन 600 से अधिक कर्मचारियों के साथ कोई चुनाव कैसे करवा सकती है?

चुनाव को लेकर यह रहस्य कुछ ऐसा है कि दिप्रिंट ने जिन भी कमर्चारियों से बात की उनमें से किसी को भी इसकी जानकारी नहीं थी. उन्होंने इसके बारे में केवल सूचना के अधिकार (आरटीआई) अधिनियम के तहत दायर एक अनुरोध के माध्यम से ही जाना.

कंपनी के ग्रेटर नोएडा प्लांट के पास एक पार्क में एकत्र होंडा के कर्मचारी जिन्हें सेवानिवृत्ति के कागजात पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया गया था | फोटो: मनीषा मोंडल | दिप्रिंट

हेम चंद नगर, सोनू कुमार, मंगल सिंह और कई अन्य लोगों ने कहा कि उन्होंने डीसीपी, गौतम बौद्ध नगर को एक आरटीआई अनुरोध भी भेजा था जिसके जवाब में उन्हें सूचित किया गया कि उन्हें इस ‘कथित’ चुनाव की देखरेख के लिए होंडा से कोई अनुरोध नहीं मिला था, जैसा कि संघ के लिए आयोजित होने वाले चुनाव में हमेशा किया जाता रहा है.

कर्मचारियों का यह भी कहना है कि बीटा-II पुलिस स्टेशन के अधिकारियों ने होंडा के खिलाफ उनकी प्राथमिकी दर्ज नहीं की जिसके बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश के एकीकृत शिकायत निवारण पोर्टल (इंटीग्रेटेड ग्रीवांस रेड्रेसल पोर्टल) पर शिकायत दर्ज की. मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट जो अब इस मामले की सुनवाई कर रहे हैं उन्होंने पुलिस से यह बताने को कहा है कि इस मामले में कोई प्राथमिकी दर्ज क्यों नहीं की गई?


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होंडा का पक्ष

दिप्रिंट ने होंडा की ग्रेटर नोएडा इकाई में मैनेजर और एसोसिएट रिलेशन के प्रमुख गौरव कटियार से संपर्क किया जिन्होंने कहा कि वह मीडिया से बात करने के लिए अधिकृत नहीं हैं. उन्होंने भी दिप्रिंट को कंपनी के आधिकारिक बयान का संदर्भ लेने की सलाह दी. इस आधिकारिक बयान में कहा गया है, ‘कंपनी ने पिछले साल के वीआरएस कार्यक्रम को पूरी तरह से नैतिक रूप से निष्पादित किया और कंपनी प्रशासन (कॉर्पोरेट एडमिनिस्ट्रेशन) और कानूनी अनुपालन के सभी दिशानिर्देशों का पालन किया. हमने हमेशा अपने सहयोगियों के समग्र कल्याण और भलाई पर अपना ध्यान केंद्रित किया है. हमें विश्वास है कि हमारी वीआरएस योजना इस उद्योग की सर्वश्रेष्ठ योजनाओं में से एक थी और किसी भी तरह के असंतोष का कोई कारण नहीं होना चाहिए.’

क्या वास्तव में ऐसा है? कंपनी ने कथित तौर पर जबरन वीआरएस लेने वाले कर्मचारियों को उनके तनख्वाह भेज दी है. इसने दस ऐसे कर्मचारियों के खाते में भी तीन साल का  वेतन भेज दिया है जिनका कहना हैं कि उन्होंने कभी भी वीआरएस से संबंधित किसी भी दस्तावेज पर हस्ताक्षर हीं नहीं किए हैं लेकिन फिर भी उन्हें भुगतान किया गया और उनकी नौकरी से निकाल दिया गया. 35 वर्ष के सोनू कुमार ने कहा कि होंडा से प्राप्त उनकी अंतिम वेतन भुगतान पर्ची (सैलरी पे स्लिप) में उनकी उम्र 40 वर्ष बताई गई है, जो, संयोग से, वीआरएस के लिए न्यूनतम आयु का मानदंड भी है.

सोनू ने कंपनी के इस दावे को भी खारिज कर दिया कि ग्रेटर नोएडा संयंत्र घाटे में चल रहा था. होंडा के यूटिलिटी डिपार्टमेंट में एक स्थायी कर्मचारी के रूप में काम करने वाले सोनू ने कहा कि 15 जून 2020 राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन को आंशिक रूप से हटाए जाने के बाद से ही से उत्पादन सामान्य हो गया था. बाद में यहां के उत्पादन को राजस्थान में स्थानांतरित कर दिया गया था और सितंबर में कंपनी ने वीआरएस की घोषणा कर दी.

नोएडा सेक्टर 3 में श्रम आयोग का कार्यालय | फोटो: मनीषा मोंडल | दिप्रिंट

अब हम क्या करें?’

ग्रेटर नोएडा कारखाने से ‘निकाल दिए गए’ कई कर्मचारी सेवानिवृत्ति से कुछ ही साल दूर थे और उन्हें अपने होम लोन  और अन्य देनदारियों का भी ध्यान रखना था. सुनील कुमार कहते हैं, ‘बच्चों को अब स्कूल से निकाला जा रहा है. कौन नौकरी पे लेगा इस उमर में?’

40 वर्षीय मंगल सिंह कहते हैं, ‘हम सिर्फ अपनी नौकरी वापस चाहते हैं? और हम चाहते हैं कि होंडा अपने उन कर्मचारियों की बात सुने जिन्होंने उसके लिए अपना पसीना बहाया और उसी के लिए जीते हैं.’ कर्मचारियों का कहना है कि अगर होंडा ने उन्हें दुबारा बहाल नहीं किया तो वे और उनके परिवार सड़कों पर उतरेंगे.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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