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Sunday, 17 November, 2024
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कृष्ण जन्मभूमि विवाद के पीछे है सदियों की सियासत और मुग़लों की गद्दी का खेल

कृष्ण जन्मभूमि एक कड़वी क़ानूनी लड़ाई के केंद्र में है. एक अदालत ने एक याचिका पर सुनवाई शुरू कर दी है जिसमें मांग की गई है, कि शाही ईदगाह मस्जिद को जो एक मंदिर के पास है सील कर दिया जाए.

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नई दिल्ली: ‘शुद्ध सोने से बनी पांच मूर्तियां थीं जिनकी ऊंचाई क़रीब पांच हाथ थी’, ये आश्चर्य व्यक्त किया था इतिहासकार मोहम्मद इब्ने अब्द अल-जब्बार ‘उतबी’ ने, जब उसके सेनापति महमूद गजनी की सेनाएं 1031 ईसवी में मथुरा की सड़कों से होकर गुज़री थीं. उनमें से ‘एक ऐसी थी जिसे अगर सुल्तान बाज़ार में खुला देख लेता, तो उसे पचास हजrर दीनार में भी सस्ता समझता’.

अंत पहले से तय था: ‘उन्होंने पूरे शहर को तबाह कर दिया, और वहां से कन्नौज की तरफ बढ़ गए’.

1953 में, वो मंदिर बनना शुरू हुआ जिसे अब कृष्ण जन्मभूमि कहा जाता है- जो विद्वान और कांग्रेस नेता मदन मोहन मालवीय और प्रमुख व्यवसाइयों जुगल किशोर बिड़ला तथा राम कृष्ण डालमिया के प्रयासों का परिणाम था.

काशी विश्वनाथ मंदिर और उससे पहले राम जन्मभूमि मंदिर की तरह, कृष्ण जन्मभूमि भी एक कड़वी कानूनी लड़ाई के केंद्र में है. पिछले गुरूवार एक अदालत ने एक याचिका पर सुनवाई शुरू कर दी जिसमें मांग की गई है कि शाही ईदगाह मस्जिद को जो एक मंदिर के पास है सील कर दिया जाए.

कृष्ण जन्मभूमि मंदिर की कहानी भी उन दूसरे मंदिरों की तरह जटिल है, जो आज सांप्रदायिक विवाद में घिरे हैं- और जिसे अदालत के अंदर की गर्मा-गरम लड़ाई या ऐतिहासिक और सांस्कृतिक शिकायतों पर राजनीतिक बहस के दौरान बयान करना मुश्किल है.


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राजा और मंदिर

ये बात कहीं दर्ज नहीं है कि दरअस्ल महमूद ने कौन से मंदिरों को नष्ट कराया- न ही ये रिकॉर्ड है कि क्या किसी मंदिर को विशेष रूप से हिंदू भगवान कृष्ण के जन्मस्थान के तौर पर देखा जाता था.

1605 में तीसरे मुग़ल सम्राट जलालुद्दीन अकबर की मौत के बाद, ओरछा के राजपूत शासक वीर सिंह देव ने मथुरा में एक भव्य मंदिर का निर्माण शुरू कराया. वीर सिंह के पिता मधुकर शाह किसी समय पर मुग़ल गद्दी के सहयोगी रहे थे, लेकिन नए राजा किन्हीं कारणों से, जो इस कहानी के लिए महत्वपूर्ण हैं, अकबर से शत्रुता रखते थे.

मधुकर शाह की मौत के बाद उनके सबसे बड़े बेटे राम शाह को मुग़ल शासन की ओर से ओरछा का शासक नियुक्त कर दिया गया. वीर सिंह ने अपने भाई के खिलाफ बग़ावत कर दी, और आख़िरकार अकबर के असंतुष्ट बेटे नूरुद्दीन मोहम्मद सलीम की सेनाओं में शामिल हो गए, जो भावी मुग़ल सम्राट जहांगीर थे. अन्य सेवाओं के अलावा उन्होंने जहांगीर के दुश्मन दरबारी अबुल फज़ल की की हत्या की थी.

वीर सिंह ने मुग़लों की सत्ता के इस खेल में अच्छे से बाज़ी लगाई थी. जहांगीर ने उन्हें ओरछा का राज दे दिया हालांकि उनके भाई अभी जीवित थे. लेकिन, इतिहासकार हीदी पॉवेल्स ने दर्ज किया है कि नए राजा के सामने एक समस्या थी.

अपने शासन की वैधता से जुड़े संशय की समस्या से निपटने के लिए, उन्होंने मुग़ल झंडे की सेवाओं से जो दौलत कमाई उसका एक बड़ा हिस्सा परोपकार और मंदिर निर्माण में ख़र्च कर दिया. उन्होंने अपने बारे में संचरित्र कविताएं भी लिखवाईं, जिनमें उनके गद्दी पर बैठने को न्यायोचित ठहराया गया था.

लेकिन, वीर सिंह के केशवदेव मंदिर को कृष्ण के विशेष जन्मस्थान से जोड़ने के कोई ख़ास सबूत मौजूद नहीं हैं. पहली ईसवी सदी से मथुरा वैष्णव कला के एक केंद्र के रूप में उभर गया था. हालांकि मथुरा एक प्रमुख तीर्थ-स्थल था, लेकिन बचे हुए शिलालेखों या यात्रियों के वृत्तांतों से ऐसा कुछ पता नहीं चलता, कि ऐसी कोई ख़ास जगह थी जिसका कृष्ण के जन्मस्थान से संबंध था.

हालांकि इसमें कोई संदेह नहीं है कि नया मंदिर, जो उस समय प्रचलित करेंसी की 33 लाख मुद्राओं की लागत से बना था बहुत ही शानदार था. अपने एक समकालीन वृत्तांत में फिज़ीशियन निकोलो मनूची ने लिखा, ‘सोने का पानी चढ़े हुए इसके शिखर को अठ्ठारह लीग दूर स्थित आगरा से देखा जा सकता था’.

वो नज़ारा बहुत समय तक बरक़रार नहीं रह सका. 1669 में सम्राट औरंगज़ेब ने केशवदेव मंदिर को ध्वस्त कराकर उसकी जगह एक मस्जिद बनाने का आदेश जारी कर दिया- और इस तरह उस झगड़े की नींव रख दी गई जो अब मथुरा की अदालत में चल रहा है.


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आस्था या सियासत

उसके इतिहासकार मौहम्मद मुस्ताद ख़ान के लेखों से ज़ाहिर है कि धर्म का औरंगज़ेब के फैसले के फैसले से कम से कम कुछ संबंध ज़रूर था.

ख़ान ने दर्ज किया, ‘एक छोटे से समय में, अपने अधिकारियों की कोशिशों से अधर्म की इस मज़बूत बुनियाद को नष्ट करने का काम पूरा कर लिया गया, और उसकी जगह पर एक बड़ी रक़म ख़र्च करके एक ऊंची मस्जिद का निर्माण कराया गया’.

उसने लिखा कि मंदिरों की मूर्तियों को ‘बेगम साहिब मस्जिद की सीढ़ियों में चुनवा दिया गया, ताकि उनपर लगातार पांव रखकर चला जा सके’.

हालांकि मध्यकालीन दिमाग़ को आधुनिक दुनिया की निगाह से देखना भ्रामक साबित हो सकता है. हो सकता है कि औरंगज़ेब धर्मांध रहा हो, लेकिन जैसा कि स्कॉलर अनिकेत छेत्री ने लिखा है, कुछ हिंदुओं के साथ उसके मधुर संबंध थे.

छेत्री लिखते हैं, ‘औरंगज़ेब ने मथुरा, इलाहबाद, बृंदावन (अब वृंदावन) और दूसरी जगहों पर कई मंदिरों के भूमि अनुदानों का नवीकरण किया. 1687 में सम्राट ने रामजीवन गोसाईं को ज़मीनें दी जिससे कि धर्मपरायण ब्राह्मणों तथा फकीरों के लिए आवास बनाए जा सकें. 1691 में उसने बालाजी मंदिर की सहायता के लिए आठ गांव और काफी बड़ी टैक्स-फ्री ज़मीन दान में दी. 1898 में उसने ख़ानदेश में रंग भट्ट नाम के एक ब्राह्मण को भी ज़मीन दी’.

इतिहासकार रिचर्ड ईटन ने मंदिर विध्वंस पर अपने मौलिक काम मे लिखा है कि केशवदेव मंदिर के खिलाफ औरंगज़ेब के रोष का तात्कालिक कारण भी शायद राजनीतिक ही रहा था.

1669 में, जाट बाग़ियों ने औरंगज़ेब के शासन के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया था, और हो सकता है कि मंदिर गिराने के पीछे एक सामूहिक सज़ा देने की मंशा रही हो. कुछ वृत्तांतों के अनुसार मथुरा के कुछ ब्राह्मणों ने मुग़ल हुकूमत के धुर विरोधी शिवाजी भोंसले प्रथम की जेल से बचकर भागने में सहायता की थी.

और शायद सबसे ख़राब बात ये रही कि औरंगज़ेब का रोष सबसे ज़्यादा उन संबंधों से पैदा हुआ, जो कुछ हिंदू समुदायों और उसके विद्रोही भाई दारा शिकोह के बीच बन गए थे.

ईटन ने लिखा है कि मुग़ल अभिलेखों में कई चेतावनियां हैं कि ब्राह्मण ‘झूठी किताबें पढ़ाने का काम करते हैं’. उनमें आगे लिखा गया है कि ‘हिंदू और मुसलमान दोनों समुदायों के ‘प्रशंसक और छात्र’ दूर दूर से सफर तय करके, इस ‘विचलित समूह’ द्वारा पढ़ाए जा रहे ‘अशुभ विज्ञानों’ की पढ़ाई के लिए आते थे.

1687 में, जिन जाट बाग़ियों को औरंगज़ेब दबाना चाहता था, उन्होंने मूर्ति भंजन की अपनी अपनी गतिविधि को अंजाम दिया जो एक लंबे विद्रोह का हिस्सा थी, जो अंत में जाकर साम्राज्य के पतन का एक कारण बना. मनूची ने लिखा कि सम्राट अकबर की हड्डियों को खोदकर निकाला गया और उनमें आग लगा दी गई. इन तमाम सदियों के दौरान मुगलों के पूर्वज तैमूर वंश का इतना ज़्यादा अपमान पहले कभी देखने में नहीं आया.

मनूची इस निष्कर्ष पर पहुंचा, ‘उसके ज़िंदा रहते हुए ये लोग कुछ नहीं कर सके, इसलिए बाद में इन्होंने उसकी क़ब्र से अपना बदला उतारा’.

हालांकि 19वीं शताब्दी तक नष्ट किए गए मंदिर के आसपास के ग्रामीण इलाक़े में फिर से शांति हो गई थी और पूजा बहाल हो गई थी. पाण्डुलिपियों में दर्ज है कि स्थानीय शासक पुरोहितों के लिए एक नए निवास स्थान, दो मंदिरों और एक जलाशय का हवाला देते हैं.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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