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Friday, 29 March, 2024
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गुलमर्ग में नियंत्रण रेखा के पास रहने वालों को रोज़ी-रोटी की चिंता है, अनुच्छेद 370 की नहीं

ग्रामीणों का कहना है कि सरकार पर्यटन को बढ़ावा देने के अपने वादे पर अमल करे और गुलमर्ग में रोज़गार के अवसर पैदा करे.

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बूटा पथरी, गुलमर्ग: घुमंतु बकरवाल जनजाति के गुलाम अली जम्मू कश्मीर में नियंत्रण रेखा से छह किलोमीटर दूर बूटा पथरी के नागिन गांव 3 में अपने पड़ोसी की झोपड़ी पर चिपकाए गए पर्चे को देखते हैं.

अली पढ़ना नहीं जानते, इसलिए वो झोपड़ी के भीतर बैठे एक युवक को ‘खुशखबरी’ शीर्षक उस पर्चे को पढ़ कर बताने के लिए कहते हैं.

युवक ज़ोर-ज़ोर से पढ़ता है. ‘खुशखबरी. अनुच्छेद 370 निरस्त करने के फायदे: भ्रष्टाचार खत्म होगा, केंद्र सरकार का पैसा सीधे गांवों तक पहुंचेगा, आपको अपनी ज़मीन की अच्छी कीमत मिलेगी, बॉलीवुड और हॉलीवुड कश्मीर में बुलंदियों पर होगा और संगीत एवं अभिनय में रुचि रखने वाले युवाओं को इंडस्ट्री में रोज़गार मिलेगा, क्रिकेट और खेल के दीवानों के लिए स्टेडियम बनाए जाएंगे…’

युवक अभी पढ़ ही रहा होता है कि अली की रुचि खत्म हो जाती है. सिर हिलाते हुए वह अपनी झोपड़ी में चले जाते हैं.

वह कहते हैं, ‘सेना के जवानों ने घरों पर ये पर्चा चिपकाया है. उन्होंने हमसे कुछ कहा नहीं, पर कई गांवों में उन्होंने ऐसा किया है. मुझे लगा था कि ये हमारी सुरक्षा से संबंधित कोई सूचना होगी.’

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हालांकि, सेना इस तरह का कोई पर्चा चिपकाने से इनकार करती है.

अनुच्छेद 370 की नहीं, रोज़ी-रोटी की चिंता

नागिन 3 गांव हरे-भरे जंगलों और ऊंचे पहाड़ों से घिरा है. एक पतली सी सड़क इसे नियंत्रण रेखा से जोड़ती है. अनुच्छेद 370 को निरस्त किए जाने के मुद्दे पर यहां के निवासी ज़्यादा कुछ नहीं बोलते हैं. घाटी के मुकाबले ये बिल्कुल अलग स्थिति है क्योंकि वहां लोग इस मुद्दे पर गुस्से का इजहार करते हैं.

लगभग सौ परिवारों वाले इस गांव के लोगों को रोज़मर्रा की ज़िंदगी की ज़्यादा चिंता है. गांव के अधिकतर लोग पास के गुलमर्ग कस्बे में काम करते हैं, और इलाके में पर्यटकों की अनुपस्थिति के मद्देनज़र उन्हें दाल-रोटी की चिंता सता रही है.

चिंता रसद के घटते भंडार को लेकर भी है. बकरवाल समुदाय के गुलाम कादर चेची कहते हैं, ‘घर पर खाने का सामान नहीं है. हम आलू या स्थानीय जंगलों से मिली चीज़ों को खा कर गुजारा कर रहे हैं. पांच किलो चावल 200 रुपये का मिल रहा है. हम रोज़ाना 30 रुपये भी नहीं कमा पाते हैं क्योंकि कोई पर्यटक आ ही नहीं रहा है. भला हम कहां से ये सब खरीदेंगे?’

उन्होंने कहा, ‘हमें कोई मतलब नहीं कि किसकी सरकार है. हम उनके किसी वादे पर क्यों विश्वास करें, जब हमें भयानक गरीबी झेलनी पड़ रही हो?’

चेची ने स्वीकार किया कि अनुच्छेद 370 पर फैसले के राजनीतिक निहतार्थों का उन्हें कुछ नहीं पता. वह कहते हैं, ‘हमें श्रीनगर में अपने रिश्तेदारों से इसकी जानकारी मिली. यहां तो कोई समाचार मिलना मुश्किल है क्योंकि हमारे पास टीवी या रेडियो नहीं है. हमने जो सुना है उसके अनुसार बाहर के लोग अब हमारी ज़मीन खरीद सकते हैं. वैसे, मुझे इसकी परवाह नहीं है क्योंकि बेचने के लिए मेरे पास ज़मीन का टुकड़ा तक नही है.’

चेची ने आगे कहा, ‘यदि सरकार हमारे लिए कुछ करना चाहती है तो सबसे पहले वो यहां पर्यटन को बढ़ावा दे, ताकि परिवार का पेट भरने के लिए हम दो पैसे कमा सकें.’

मजदूरी करने वाले गुलाम दीन को अपने पड़ोसी के यहां खाना पड़ रहा है है क्योंकि पिछले महीने भर में वह 200 रुपये भी नहीं कमा सके हैं.

उन्होंने कहा, ‘इस तरह तिल-तिल मरने से बेहतर है लड़ाई में एक ही बार खत्म हो जाना. मुझे बड़े लोगों के इन राजनीतिक चालों की कोई जानकारी नहीं है. मुझे तो बस दाल-रोटी जुटाने की चिंता है. यहां हमें कोई सुविधा नहीं मिलती है, फिर भी हम शिकायत नहीं करते. पर जब हमें रोज़ एक वक्त का खाना तक नहीं मिलेगा, तो फिर हम कहां जाएंगे?’

पर पर्यटन ठप होने की चिंता के बीच गुलमर्ग में सारी गतिविधियां बंद नही हैं. इलाके में आतंकवादियों की घुसपैठ का सुराग मिलने के बाद सेना ने पिछले सप्ताह भर में इस क्षेत्र में 350 तलाशी अभियान चलाए हैं.

मजदूरी करने वाले जुमन अली कहते हैं, ‘हमें लगा था कि हमसे गांव खाली करने को कहा जाएगा, पर ऐसा नहीं हुआ. सेना के दस्ते ने जंगलों में अपना तलाशी अभियान चलाया था. हेलीकॉप्टर भी लगाए गए थे, पर हमसे कुछ नहीं कहा गया. हमारे लिए रोज़मर्रा की ज़िंदगी पहले जैसी ही रही.’

पूर्ण लॉकडाउन में पत्रों का सहारा

मोबाइल फोन काम नहीं करने के कारण परस्पर एक किलोमीटर के फासले पर स्थित नागिन गांव 1, 2 और 3 के निवासी अब बारामूला के कटियांवाली स्थित अपने परिजनों से पत्र-व्यवहार करने लगे हैं.

उनके परिवार गर्मियों में तो गांव में रहते हैं पर सर्दियों से पहले कटियांवाली चले जाते हैं क्योंकि यहां उनकी झोपड़ियां बर्फ में दब जाती हैं.

गुलमर्ग में टूरिस्ट गाइड का काम करने वाले शबीर अहमद कहते हैं, ‘हमारे परिजनों में से आधे कटियांवाली में रहते हैं. हमारा उनसे संपर्क नहीं हो पा रहा है क्योंकि मोबाइल नेटवर्क ठप है. इसलिए हम काम से वहां जाने वाले लोगों के ज़रिए हाथ से लिखी चिट्ठियां भेजते हैं. वे उधर से जवाबी पत्र भेजते हैं.’

उन्होंने कहा, ‘मैंने पहली बार इतने लंबे समय तक अपने बच्चों से बात नहीं की है. मेरे बेटे ने एक पत्र भिजवाया है जिसमें उसने अपने सकुशल होने की बात लिखी है. पत्र पढ़ कर मैं खुश हो गया. मैंने उसे घाटी में ज़्यादा नहीं निकलने और घर में सुरक्षित रहने की सलाह दी है.’

कई अन्य लोगों ने भी अपने बच्चों और रिश्तेदारों से इसी तरह पत्रों के ज़रिए संपर्क करने की बात कही. वे पढ़ने के बाद पत्र को नष्ट कर देते हैं. इसका कारण पूछे जाने पर वे बस मुस्कुरा देते हैं.

नागिन 2 गांव के लोगों ने एक व्यक्ति को हर दूसरे दिन उनकी चिट्ठियां ले जाने की जिम्मेवारी सौंपी है. अहमद इस बारे में बताते हैं, ‘हम एक व्यक्ति को बारामूला भेजते हैं, जो हर दूसरे या तीसरे दिन हमारे बच्चों और रिश्तेदारों की खैरियत पूछने घाटी भी जाता है.’

उन्होंने कहा, ‘इस तरह काम चल रहा है हमारा. हम बारी-बारी से संदेशवाहक की भूमिका निभाते हैं. हम वहां अपने परिजनों से और पड़ोसियों के रिश्तेदारों से मिलते हैं. इधर के संदेश उनको सौंपते हैं, और उधर के संदेश यहां लाते हैं.’

‘सरकार को एक मौका देने के लिए तैयार’

इरफ़ान अहमद चेची 23 साल के हैं. स्नातक होने के बावजूद बेरोज़गार हैं. वह हर दिन 9 बजे अपने पिता के साथ घर से निकल पड़ते हैं, और पर्यटकों की आस में घोड़ो और स्लेजों के साथ गुलमर्ग जाते हैं. पर उन्हें खाली हाथ वापस आना पड़ता है.

उन्हें अनुच्छेद 370 खत्म करने के सरकार के फैसले की जानकारी है, और वह सरकार को एक मौका देना चाहते हैं. उन्होंने कहा, ‘सरकार ने 50,000 रिक्तियों की घोषणा की है. मैं देखूंगा कि ऐसा वाकई में होता है कि नहीं. यहां युवाओं को जीवन-यापन के लिए रोज़गार चाहिए. यदि रोज़गार की व्यवस्था होती है तो आधी समस्याएं यों ही समाप्त हो जाएंगी. हमें बस रोज़गार से मतलब है, नेता या सरकार से नहीं.’

इरफ़ान ने आगे कहा, ‘कल यदि कोई निजी कंपनी यहां निवेश करती है, तो निश्चय ही रोज़गार के अवसर पैदा होंगे और हम उसका स्वागत करेंगे. पर समस्या ये है कि हर सरकार वादा तो बहुत कुछ करती है, पर सचमुच में कभी कुछ नहीं करती.’

उनकी बात में मोहम्मद इस्माइल चेची अपनी बात जोड़ते हैं, ‘पिछली बार, बाढ़ के समय सरकार ने हमारे एक लाख रुपये के कर्ज को माफ करने की घोषणा की थी, पर हुआ कुछ नहीं. अब भी मैं सालाना 7,000 रुपये चुका रहा हूं. ये बहुत बड़ा बोझ है क्योंकि अब यहां मेरी कोई कमाई रही नहीं. पिछले एक महीने के दौरान मैंने 20 रुपये भी नहीं कमाए हैं.’

(इस खबर को पढ़ने के लिए अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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