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Monday, 4 November, 2024
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मोदी के लिए यह सबका साथ, सबका विकास, सबका लिबास तो है- लेकिन कुछ फैशन आजमाना कतई संभव नहीं लगता

नरेंद्र मोदी लोगों को प्रभावित करने और खुद को उनके जैसा दर्शाने के लिए तरह-तरह के कपड़े पहनते हैं, यह बात पिछले कुछ सालों में उनके पहने विभिन्न तरह के परिधानों से साफ झलकती है. लेकिन निश्चित तौर पर इसमें कुछ अपवाद भी रहे हैं.

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नई दिल्ली: ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए अपने आदर्श वाक्य सबका साथ-सबका विकास को जन-जन के बीच पहुंचाने का एक सबसे प्रभावी साधन है- सबका लिबास. हां, काफी हद तक. आदिवासी नागा टोपी से लेकर सिखों की पगड़ी तक, मोदी ने हर तरह के परिधानों को आजमाया है. लेकिन बात किसी इस्लामी परंपरा से जुड़े परिधानों की हो तो यह सब नहीं चलता.

मोदी एक अनुभवी राजनेता हैं और ये बात अच्छी तरह जानते हैं कि किसी सार्वजनिक हस्ती के लिए फैशन केवल ‘व्यक्तिगत पसंद’ का मसला नहीं होता है, बल्कि इसके तमाम सियासी निहितार्थ निकाले जाते हैं जो किसी समूह विशेष के प्रति भावनात्मक जुड़ाव, एकजुटता और उन्हीं का हिस्सा होने आदि के संकेत देते हैं- और जरूरत के मुताबिक इसका विपरीत इस्तेमाल भी किया जा सकता है.

खासकर, लोकतंत्र में इस तरह का फैशन बहुत कारगर है और समय चुनाव का हो तो इसके असर का कहना ही क्या है. प्रधानमंत्री को टोपी का विशेष शौक है, शायद इसलिए क्योंकि आन-बान-शान की प्रतीक टोपी या पगड़ी का संदेश काफी गहरा होता है और इसे आसानी से आजमाया भी जा सकता है.

जरा गौर कीजिए, मोदी ने पंजाब विधानसभा चुनाव से पहले फरवरी में जालंधर की एक रैली में सिख पगड़ी पहनी थी, जाहिर है कि उसका रंग तो भगवा ही रहना था. इसी तरह, जब मार्च 2021 में असम में चुनाव हुए तो उन्होंने खुशी-खुशी एक जपी पहन ली, जो चौड़े किनारे वाली एक पारंपरिक स्ट्रॉ हैट थी.

उत्तर प्रदेश के चुनावों में उन्होंने न केवल समाजवादी पार्टी की पहचान बनी लाल टोपी का मजाक उड़ाया, बल्कि वाराणसी में अपनी विशाल रैली के दौरान में उत्तराखंड शैली की भगवा टोपी के साथ इसकी काट भी निकाल ली. यही नहीं, इसी साल अप्रैल में पार्टी के 42वें स्थापना दिवस के मौके पर समारोहों के दौरान सभी नेताओं को इसी तरह की टोपी पहनने को कहा गया.

हालांकि, मोदी ये सारा फैशन केवल वोट के लिए ही नहीं आजमाते. बल्कि ताकत से लेकर तपस्या तक तमाम मूल्यों और व्यक्तिगत विशेषताओं को दर्शाने के लिए भी करते हैं, और इसमें उनकी दाढ़ी और बालों का भी बखूबी इस्तेमाल होता है.

इसके अलावा, अगर उनके द्वारा खुले तौर पर आजमाए जाने वाले विभिन्न तरीके के परिधानों पर बारीक नजर डालें तो पता चलता है कि इसमें में भी एक संदेश छिपा है कि मोदी क्या पहनना पसंद नहीं करते हैं.

ताकत को दर्शातीं डिजाइन

जवाहरलाल नेहरू और उनका ट्रेडमार्क बने बंदगला से शुरू होकर भारत में हर राजनेता ने अपनी हैसियत के मुताबिक कोई खास छवि बनाने या लोगों के बीच भरोसा कायम करने के लिए कपड़ों का इस्तेमाल किया है.

कुछ नेता खुद को ‘आम लोगों’ के साथ गहराई से जुड़ा दर्शाने के लिए मितव्ययी और सादगी पसंद वाली छवि बनाते हैं और आम तौर पर किसी खास यूनिफॉर्म में ही नजर आते हैं- जैसे आम आदमी पार्टी नेता के अरविंद केजरीवाल का सामान्य-सा स्वेटर और मफलर, और तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी का सफेद रंग की साड़ी और हवाई चप्पलें पहनना.

वहीं, अन्य नेता कुछ मिक्स एंड मैच अपनाते नजर आते हैं, जैसे राहुल गांधी अक्सर राजनेताओं की पहली पसंद के मानक बने सफेद कुर्ता पहने दिखते हैं, लेकिन कभी-कभी वह ‘यूथफुल’ डिजाइनर एक्सेसरीज में भी नजर आते हैं- जैसे स्नीकर्स के साथ अपनी बहुचर्चित बरबेरी जैकेट. दूसरी तरफ, उनकी मां सोनिया गांधी और बहन प्रियंका स्टार्च की हुई हथकरघा साड़ियां पहनना पसंद करती हैं, जो कहीं न कहीं परिवार की मुखिया रहीं पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की जानी-पहचानी शैली को ही प्रतिध्वनित करती हैं.

भारतीय राजनीति में जहां नेताओं का किसी खास रणनीति के तौर पर कोई पोशाक अपनाना थोड़ा दुर्लभ है, वहीं मोदी की लूकबुक एक अलग ही तरह की है. उनका फैशन खास परिस्थितियों के मुताबिक और खास वर्ग को ध्यान में रखने वाला होता है और साथ ही इसमें कुछ लचीलापन भी अपनाया जाता है.

अगर, घरेलू मोर्चे की बात करें तो लिबास का चयन जगह और समय के मुताबिक राजनीतिक जरूरतों के आधार पर खुद को ‘सामान्य लोगों में से ही एक’ के दिखाने के इरादे के साथ किया जाता है.

फिर, कोविड जैसी ‘विशेष परिस्थितियां’ भी सामने हैं जब कई टिप्पणीकारों ने इस बात को रेखांकित किया कि मोदी के सफेद वस्त्रों और बढ़ी हुई दाढ़ी ने उनकी छवि एक देवतातुल्य इंसान जैसी बनाने में मदद की, जिस पर उम्मीदों से ज्यादा आस्था जताई जा सकती हो.

उन्होंने पश्चिम बंगाल चुनावों के दौरान भी अपना यही लुक बरकरार रखा, जिसे लेकर ऐसी अटकलें जारी रहीं कि वह राज्य के नोबेल पुरस्कार विजेता कवि रवींद्रनाथ टैगोर की जैसी स्कॉलर और ज्ञानी व्यक्ति वाली छवि अपनाने की कोशिश कर रहे हैं.
दिप्रिंट के लिए अपने लेख में राजनीतिक स्तंभकार जैनब सिकंदर ने लिखा, ‘यह ‘लुक’ अपनाकर वह अपने कद को कुछ बड़ा साबित करने की कोशिश कर रहे हैं…वह खुद को गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर—जिन्होंने सही मायने में राष्ट्र को एक दृष्टि दी है—के समकक्ष एक हस्ती के तौर पर स्थापित करना चाहते हैं.’

बहरहाल, जब मोदी विश्व के नेताओं से मिलने के लिए विदेश यात्राएं करते हैं, तो उनका लुक हमेशा अथॉरिटी और प्रोफेशनलिज्म को दर्शा रहा होता है. वह भारत को एक विश्वगुरु बनाने की इच्छा जरूर रखते हैं, लेकिन उन्होंने विदेश यात्राओं के दौरान कभी साधु वाला लुक नहीं अपनाया, शायद उन्हें अच्छी तरह पता है कि इससे वैश्विक नेता के बजाये उनकी ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ छवि को लेकर बहस छिड़ जाएगी.


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‘फिर भी दिल है हिंदुस्तानी’

वैसे तो लग रहा था कि मोदी ने रिप वैन विंकल लुक हमेशा के लिए अपना लिया है लेकिन उन्होंने खासी चर्चा में रही अपनी दाढ़ी आखिरकार पिछले सितंबर में कटा दी और अमेरिका जाते समय विमान से ट्वीट की गई एक तस्वीर के जरिये अपना नया लुक सामने रखा.

उन्होंने कुर्ता-पायजामा के साथ खासकर किसी कारोबारी जैसी दाढ़ी वाला लुक अपनाया. यही नहीं, इस पूरी यात्रा के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन और अन्य नेताओं के साथ अपनी बैठकों में भी मोदी ज्यादातर भारतीय परिधानों में ही नजर आए.
यह, संभवत: उस कुख्यात ‘10 लाख रुपये’ वाले नरेंद्र दामोदरदास मोदी सूट की तुलना में अधिक आत्मविश्वास को दर्शाता है जो उन्होंने बराक ओबामा की 2015 की भारत यात्रा के दौरान पहना था. इस सूट को लेकर भारत में खासी ट्रोलिंग हुई थी और उस समय ओबामा भी तथाकथित ‘मोदी कुर्ता’ से काफी प्रभावित नजर आए थे.

इसी तरह, 2018 में ‘मोदी जैकेट’ का जन्म हुआ, जो प्रधानमंत्री ने तत्कालीन दक्षिण कोरियाई राष्ट्रपति को बतौर उपहार दी थी. हालांकि, इसे लेकर भारतीय मीडिया और ट्विटर पर तमाम लोग उबल पड़े और उनका कहना था कि यह वास्तव में नेहरू जैकेट है, लेकिन पूर्वी एशिया में यह पॉलिटिकल रीब्रांडिंग काफी असरदार रही.

विदेशों में तो मोदी अक्सर अपने औपचारिक भारतीय पहनावे के कारण छाए रहते हैं, जिसमें बंदगला से लेकर कुर्ते के साथ शॉल का इस्तेमाल शामिल है. लेकिन जब वह भारत में होते हैं, तो अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरह की पोशाकों, टोपी, पगड़ी और अन्य पारंपरिक परिधानों के साथ प्रयोग करते रहते हैं.

इसने एक बड़ी चूक को छोड़कर अमूमन उन्हें लोगों के बीच वाहवाही ही दिलाई है.

4 नवंबर 2021 को पीएम मोदी ने जम्मू-कश्मीर के नौशेरा जिले में भारतीय सैनिकों के साथ दिवाली मनाई और इस मौके पर एक सैन्य वर्दी पहनी. हालांकि, यह पहला मौका नहीं था जब उन्होंने ऐसा किया हो, लेकिन इस साल फरवरी में प्रयागराज जिला अदालत में एक याचिका दायर करके कहा गया कि उन्होंने 2021 की कश्मीर यात्रा के दौरान भारतीय सेना की जो वर्दी पहनी थी, उसका इस्तेमाल भारतीय दंड संहिता की धारा 140 के तहत दंडनीय अपराध है.

इस विवाद पर लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर) डॉ. प्रकाश मेनन ने लिखा था कि कानूनी तौर पर तो ऐसा लगता है कि सेना की वर्दी पहनने पर ‘कोई खास रोक नहीं’ है, विशेषकर यह देखते हुए कि धोखा देने का कोई इरादा नहीं था, लेकिन इसने ‘राजनीतिक नैतिकता’ पर सवाल जरूर उठाए हैं.

मेनन ने लिखा, ‘जब मोदी जैसा लोकप्रिय प्रधानमंत्री एक मजबूत छवि से इतर एक सैन्य वर्दी पहनता है, तो यह कहीं न कहीं यह संकेत देता है कि राष्ट्र को यह वर्दी अपनानी चाहिए और देश के लिए लड़ने को तैयार रहना चाहिए…यह एक राष्ट्रवादी भावना है, जो कि दीर्घकालिक तौर पर देश के लिए अच्छी और बुरी दोनों साबित हो सकती है.’

जब ‘राजनीतिक नैतिकता’ का मसला आता है तो एक और बात को लेकर विवाद बना हुआ है, खासकर टोपी पहनने को लेकर मोदी के चयन के संबंध में.

मुस्लिम टोपी को छोड़कर कुछ भी चलेगा

जब टोपी या पगड़ी की बात आती है तो प्रधानमंत्री खुशी-खुशी कुछ भी ट्राई करने को तैयार नजर आते हैं. वह विभिन्न समारोहों में तरह-तरह की टोपी-पगड़ी पहने नजर भी आ चुके हैं.

इसमें 2014 में हॉर्नबिल उत्सव में असाधारण आदिवासी नागा टोपी से लेकर दिसंबर 2021 में विधानसभा चुनाव की तैयारी कर रहे हिमाचल में एक पब्लिक मीटिंग में पारंपरिक पहाड़ी टोपी और ऊनी शॉल तक शामिल है, और यहां तक कि इस साल फरवरी में अफगान सिखों और हिंदुओं के एक प्रतिनिधिमंडल ने उनके सिर पर एक ढीली पगड़ी भी रखी थी. 2019 में, जब मोदी पंजाब के सुल्तानपुर में गुरुद्वारा बेर साहिब का दौरा करने पहुंचे तो उन्होंने पारंपरिक पगड़ी पहनकर मत्था टेका.

हालांकि, 2011 में जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब उन्होंने एक मुस्लिम मौलवी की तरफ से की गई टोपी पहनने की पेशकश सार्वजनिक तौर पर ही ठुकरा दी थी. बाद में एक टीवी इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि अगर टोपी एकता की प्रतीक है तो महात्मा गांधी ने कभी ऐसा क्यों नहीं किया. इसी तरह उन्होंने उसी साल अरब की पगड़ी केफियेह पहनने से भी इंकार कर दिया था. कई टिप्पणीकारों ने तब मोदी के फैसलों का बचाव करते हुए कहा था कि जरूरी नहीं है कि वह इस तरह के किसी प्रतीकवाद में शामिल हों.

कहने में यह बात सही लग सकती है लेकिन फिर उन तमाम अन्य पारंपरिक और धार्मिक परिधानों का क्या, जिन्हें आजमाने में मोदी ने जरा भी देर नहीं लगाई. फैशन जिस तरह एकता की भावना बढ़ा सकता है, उसी तरह परस्पर बैर की वजह भी बन सकता है—यह ऐसा तर्क है जिसका जिक्र राजनीतिक वैज्ञानिक जोशुआ आई. मिलर ने जर्नल पॉलिटी में 2015 में प्रकाशित एक पेपर ‘फैशन और लोकतांत्रिक संबंधों’ में धन के संदर्भ में किया है.

2018 में कांग्रेस नेता शशि थरूर ने भी इस बात को रेखांकित किया कि मोदी हर तरह के ‘असाधारण लिबास’ पहनने के इच्छुक नजर आने के बावजूद ऐसी किसी भी चीज से परहेज करते हैं जो किसी भी तरह से इस्लाम से जुड़ी हो.

यह बात आज भी उतनी ही सच है जितनी पहले थी. इंटरनेट पर मुस्लिम टोपी पहने प्रधानमंत्री मोदी की कई तस्वीरें नजर आ जाएंगी लेकिन जैसा फैक्ट-चेक से साफ है कि ये सभी फर्जी हैं. मोदी अपने मतदाताओं के लिए कई तरह की टोपियां लगाने को तैयार हैं, लेकिन लिबास के चयन को लेकर उनकी पसंद से साफ है कि समान रूप से सभी के लिए नहीं यह उदारता नहीं दिखाई जाती.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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