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Friday, 3 May, 2024
होमदेशUP के गांवों में बीवियों को पीटने वाले पतियों से आज़ाद करा रही घूंघट करने वाली यह 'ग्रीन आर्मी'

UP के गांवों में बीवियों को पीटने वाले पतियों से आज़ाद करा रही घूंघट करने वाली यह ‘ग्रीन आर्मी’

ग्रीन आर्मी का उद्देश्य घरों में महिलाओं के खिलाफ होने वाले उत्पीड़न और यौन व घरेलू हिंसा के खिलाफ खड़े होने में मदद करना है. लेकिन अब वे आर्थिक स्वतंत्रता भी चाहती हैं.

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वाराणसी/मिर्जापुर: “घूंघट छाती से सिर तक आ गया इतने सालों में – ये बहुत बड़ी बात है,” उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के कुशियारी गांव में लाठी-डंडों से लैस आत्मरक्षा तकनीकों का प्रदर्शन कर रही महिलाओं के एक समूह की तरफ इशारा करते हुए आशा देवी ने कहा.

वह महुए के पेड़ के नीचे एक कुर्सी पर बैठी हुई कुछ अन्य लोगों को उसके बगीचे से अमरूद और अंगूर तोड़ते हुए देखती है.

हरे रंग की साड़ियां पहने हुए ये सभी महिलाएं घूंघट की आदी हैं इसलिए काम करते समय भी वे घूंघट को सही करती रहती हैं. आस-पास कोई पुरुष न होने के कारण, कुछ ने अपने सिर से घूंघट हटा लिया था, और गर्मी से बचने के लिए अपने पेटीकोट के साथ-साथ अपनी साड़ियां भी ऊपर खींच ली थीं. हालांकि, मुख्य सड़क से आने वाली हॉर्न की आवाज़ सुनकर घूंघट को वापस अपनी जगह पर और साड़ियों को नीचे खींच करके सही कर लिया गया.

कुशियारी की ये महिलाएं – ज्यादातर दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़ी जातियों से – सभी ग्रीन आर्मी का हिस्सा हैं, जिसका गठन 2014 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के पूर्व छात्र रवि मिश्रा द्वारा गांव में किया गया था.

यह मिशन है? जो कि समाज के पिछड़े वर्गों की महिलाओं को अपने घरों में अपमानजनक स्थिति से बाहर आने और यौन व घरेलू हिंसा के साथ साथ हर तरह के उत्पीड़न के खिलाफ खड़े होने के लिए सशक्त बनाना है. अब लगभग 1,800 महिलाएं ग्रीन आर्मी का हिस्सा हैं.

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ग्रीन आर्मी की महिलाओं और मिश्रा के अनुसार, इस इनीशिएटिव के तहत मुख्य रूप से पुरुषों की काउंसिलिंग की जाती है और कभी-कभी “हथियार के रूप में डंडों” का उपयोग किया जाता है. उन्होंने कहा कि पिछले कुछ वर्षों में वे यूपी के कई गांवों में शराब और नशीली दवाओं की लत को कम करने में कामयाब रहे हैं, जहां वे अब सक्रिय हैं.

मिश्रा, जो गैर-लाभकारी संस्था होप वेलफेयर ट्रस्ट के सह-संस्थापक भी हैं और जिसके तहत ग्रीन आर्मी संचालित होती है, उन्होंने कहा, “ये महिलाएं न केवल घरेलू शोषण रोकती हैं बल्कि दहेज प्रथा और अंधविश्वासी रीति-रिवाजों के खिलाफ भी लड़ती हैं. वे बच्चियों को शिक्षित करने की दिशा में भी काम करती हैं. उनका काम सिर्फ पुरुषों को उनके जीवन में बेहतर बनाना नहीं है, बल्कि उनके गांवों की स्थिति भी सुधारना है. लेकिन अहिंसा हमेशा हमारी प्राथमिकता होती है.” मिश्रा एक ट्यूशन टीचर के रूप में नौकरी करते हैं.

ग्रीन आर्मी की महिलाओं से बात करते रवि मिश्रा | फोटो: मनीषा मंडल | छाप

आशा देवी की रवि मिश्रा से मुलाकात 2014 में कुशियारी के उनके दौरे के वक्त हुई थी. उन्होंने कहा कि वह ग्रीन आर्मी के पहले कुछ सदस्यों में से एक थीं.

समूह के सदस्य इस बात पर भी जोर देते हैं कि उनकी विचारधारा और काम-काज का तरीका 2006 में यूपी के बांदा जिले में गठित काफी लोकप्रिय गुलाबी गैंग से अलग है. हालांकि, सबसे खास बात वही है – उत्पीड़न के खिलाफ खड़े होना.

मिश्रा के अनुसार, गुलाबी गैंग के विपरीत, ग्रीन आर्मी “पुरुष विरोधी” नहीं है और लोकल अथॉरिटी के साथ मिलकर काम करती है.

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, “डंडे, मारने के लिए नहीं बल्कि विश्वास और सपोर्ट के लिए हैं. जब चीजें नियंत्रण से बाहर हो जाती हैं, तभी ये लाठियां हथियार बनकर सामने आती हैं.”

ग्रीन आर्मी की महिलाओं की नज़र अब एक नए लक्ष्य पर है – आर्थिक स्वतंत्रता.

दिप्रिंट ने महिलाओं के इस समूह पर नज़र रखने के लिए यूपी के वाराणसी और मिर्ज़ापुर जिलों के गांवों की यात्रा की, ताकि पुरुषों के नियंत्रण के खिलाफ उनके संघर्ष की कहानियों, ग्रीन आर्मी के इतिहास, इसके संचालन के तरीके और अब तक उनके जीवन में आए बदलावों को समझा जा सके.


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आशा देवी की कहानी

आशा देवी एक दलित महिला हैं जिनकी शादी 14 साल की ही उम्र में हो गई थी. उनका पति उन्हें रोज़ पीटता था.

दिप्रिंट से बात करते हुए, उन्होंने कहा कि जब वह गर्भवती थीं तब भी उसकी पिटाई बंद नहीं हुई, और जब उनके बच्चे बड़े हो रहे थे तो चीजें और भी बदतर हो गईं. उन्होंने कहा, “खाने वालों की संख्या बढ़ गई और मार-पिटाई भी उसके साथ ही बढ़ गई. हर दिन, मेरे पति नशे में धुत्त होकर आते थे और मुझे गालियां देते थे व पीटते थे,” आगे आशा देवी कहती हैं, “ऐसी भी रातें हुआ करती थीं जब मैं दर्द के कारण सो नहीं पाती थी और अगर वह मुझे रोते हुए देख लेता, तो और पीटता.”

उन्होंने आगे कहा कि सर्द रातों में, उनका पति उन्हें घर से बाहर निकाल देता था और उन्हें घर में रहने देने के लिए बार-बार विनती करनी पड़ती थी. अपने आंसुओं को रोकने की कोशिश करते हुए उन्होंने कहा, “उस समय मुझे लगता था कि काश मुझे मौत आ जाए,”

उसके जले हुए हाथ उस यातना की गवाही देते हैं जो उन्होंने सालों तक सहा है. उन्होंने कहा, “एक दिन मैंने यह सब कुछ खत्म करने का फैसला किया और खुद को आग लगा ली. लेकिन मैं बच गई,”

अपना जला हुआ हाथ दिखाती हुई आशा देवी | फोटो: मनीषा मंडल | दिप्रिंट

उन्होंने बताया कि जब उनके बच्चे कुछ और बड़े हो गए तो आख़िरकार पिटाई बंद हो गई, क्योंकि उनके पति को लगा कि अब वह अकेली नहीं है.

2014 में एक दिन, अचानक आशा देवी की मुलाकात मिश्रा से हो गई, जब वह होप वेलफेयर ट्रस्ट के सहयोगियों के साथ कुशियारी यह देखने के लिए आए हुए थे कि बच्चे स्कूल क्यों नहीं जा रहे हैं.

वह मदद की गुहार लगाते हुए उनकी तरफ दौड़ीं. उन्होंने दिप्रिंट को बताया, “मैंने उनसे पूछा कि आप हमारे बच्चों से पढ़ाई की उम्मीद कैसे करते हैं, जब वे अपने शराबी पिता को हर रात अपनी मां को पीटते और दिन में जुआ खेलते हुए देखते हैं. तभी रवि ने मुझसे मेरी तरह पीड़ित अन्य महिलाओं को भी लाने के लिए कहा. इसलिए, हम सभी आये और इस महुए के पेड़ के नीचे बैठ कर उन्हें और दूसरों को अपनी कहानियां सुनाईं.”

आशा देवी के मुताबिक जब उन्होंने ग्रीन आर्मी की बैठकों में हिस्सा लेना शुरू किया तो उनके पति उनका मजाक उड़ाते थे.

उन्होंने कहा, “वह मुझसे कहता था कि ग्रीन आर्मी के भाइयों द्वारा मेरी कहानी साझा करने के लिए बनाए गए वीडियो से परिवार का नाम खराब होता है. उन्होंने मेरे चरित्र पर भी सवालिया निशान लगाए,”

लेकिन आशा देवी के ग्रीन आर्मी का हिस्सा होने का उनके पति पर प्रभाव पड़ा. उन्होंने दिप्रिंट को बताया, “मेरे पति ने दो महीने पहले शराब पीना बंद कर दिया है और पिछले आठ सालों से उन्होंने मुझे छुआ भी नहीं है.”

गुड्डी की कहानी

यूपी के मिर्ज़ापुर जिले के छोटे से गांव जंगल महल में रहने वाली दलित समुदाय की गुड्डी बांस की अपनी छड़ी साफ करते हुए अपने साथ हुए अत्याचार की कहानी सुनाती हैं.

उन्होंने अपनी हरी साड़ी के पल्लू से अपने चेहरे पर बह रहे आंसूओं को पोंछते हुए कहा, “मेरी शादी 13 साल की उम्र में हो गई थी और मेरे पति ने हमारी शादी के अगले दिन से ही मुझे मारना शुरू कर दिया था. ज़्यादातर रातों में, वह मुझे और बच्चों को भूखा रखता था. उसने मुझे पूरे गांव के सामने घर से बाहर निकाल दिया कई बार मैंने इससे समझौता कर लिया, मुझे लगा जैसे यही मेरी किस्मत है.”

उन्होंने दिप्रिंट को बताया कि उनका पति दिन-रात नशे में रहता था. उन्होंने आगे कहा, “पिटाई के बाद, शरीर में दर्द होने के बावजूद भी मुझे उसके साथ सोना पड़ता था और घर के पांचों लोगों के लिए खाना बनाना पड़ता था.”

उन्होंने कहा, “ग्रीन आर्मी मेरी रक्षक थी. एक दिन, ग्रीन आर्मी की महिलाएं हमारे गांव में आईं. मैंने समूह की बैठकों में भाग लेना शुरू कर दिया और दीदियों को अपनी कहानी बतायी,”

2016 में ग्रीन आर्मी हाथों में लाठियां लेकर उनके घर में घुस आई और उनके पति को धमकाया. उन्होंने कहा, “तब से, उसने मुझे मारना बंद कर दिया और शराब पीना और जुआ खेलना भी बंद कर दिया. आज, मेरी दोनों बेटियां पढ़ रही हैं – एक स्कूल में है जबकि दूसरी स्नातक की डिग्री के लिए पढ़ रही है. मेरे दोनों बेटे भी स्कूल जाते हैं,”

चानतारा की कहानी

कुशियारी से सटा हुआ एक और छोटा सा गांव है, जिसे देवारा कहा जाता है – जहां ग्रीन आर्मी की लगभग 25 महिलाएं रहती हैं.

दिप्रिंट से बात करते हुए यहां की एक निवासी चानतारा ने बताया कि कैसे वह भी घरेलू हिंसा झेलने के बाद इस सेना में शामिल हुईं.

उसने कहा, “मेरे पति हर रात मेरे सिर पर मारते थे और मेरे बाल खींचते थे. मैं अपनी याददाश्त खोने लगी थी और खुद को मारना चाहती थी, लेकिन अपने बच्चों के बारे में सोचकर ऐसा नहीं कर सकी,”

लगातार प्रताड़ना से तंग आकर 2018 में चानतारा ने इसके बारे में ग्रीन आर्मी से शिकायत की.

उसने कहा कि महिलाओं ने उसे उस रात घर न लौटने की हिदायत दी और अगले दिन उसे अपने साथ लेकर उसके घर गईं. फिर उन्होंने उसके पति को घेर लिया और उससे कहा कि अगर वह अपनी पत्नी को मारता रहेगा, तो वे वापस आएंगी और उसकी पिटाई करेंगी.

“दीदियों ने उससे कहा कि वह अकेला आदमी है और हम सभी से एक साथ नहीं लड़ सकता. उन्होंने उससे कहा, परिणाम भयानक होंगे, और यहां तक कि उसकी शराब की बोतलें भी तोड़ दीं,” चानतारा ने कहा. “तब से उसने मुझे मारना बंद कर दिया.”

चानतारा तब से ग्रीन आर्मी की सदस्य हैं.


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पुलिस को लेकर अलग सोच और निर्भरता

जंगल महल में, शीला नाम की एक महिला ने ग्रीन आर्मी यूनिट से संपर्क किया, जिसमें लगभग 40 महिलाएं शामिल थीं और हस्तक्षेप की मांग की. दिप्रिंट ने देखा कि महिलाओं ने घरेलू हिंसा के इस मामले को कैसे डील किया.

शीला ने कहा कि उसका पति इतना शराबी था कि उसे दिन और रात का भी पता नहीं रहता था.

अपनी नेता मालती के नेतृत्व में, महिलाओं ने अपनी लाठियां उठाईं और शीला की छोटी सी झोपड़ी में घुस गईं. उन्होंने उसके पति श्याम लाल को बैठने के लिए कहा. शीला के अनुसार उन्होंने उसके पति से कहा, “आपको ऐसा करना बंद करना होगा. आप अच्छी तरह जानते हैं कि हम कैसे काम करते हैं. आपने इस महिला से विवाह किया और बच्चे पैदा किए. अब, तुम नशे में रहते हो और उसे मारते हो. अगली बार अगर हमने उसकी एक भी शिकायत सुनी तो हम यहां सिर्फ बात करने के लिए नहीं आएंगे.”

यूनिट के सदस्यों में से एक, सुमन ने दिप्रिंट को बताया: “हम पुरुषों को पीटना नहीं चाहते हैं. हम उन्हें वस्तु स्थिति को समझाना चाहते हैं. ऐसे उदाहरण हैं जब हम एक ही घर में कई बार गए हैं. एक मामले में तो ससुर आए दिन बहू को मारता-पीटता था. पति भी उस पर काबू नहीं रख सका. हमने पांच बार उसकी काउंसलिंग की. छठीं बार में, हमने पुलिस से संपर्क किया और वे हमारे साथ गए.

ग्रीन आर्मी की दो महिलाओं ने आत्मरक्षा तकनीकों का प्रदर्शन करती हुई | फोटो: मनीषा मंडल | दिप्रिंट

हालांकि, जरूरत पड़ने पर ग्रीन आर्मी पुलिस की मदद लेती है, लेकिन महिलाओं ने कहा कि वे अपने पतियों के खिलाफ शिकायत दर्ज नहीं कराना चाहतीं. इसके पीछे कारण सामाजिक ताना-बाना और पैसे के लिए उनकी अपने पतियों पर निर्भरता से लेकर कोर्ट का चक्कर काटना तक है.

मिश्रा के अनुसार, लगभग 200 ग्रीन आर्मी महिलाओं को “पुलिस मित्र (मित्र) आईडी कार्ड” दिए गए हैं, जिससे उनके लिए अधिकारियों से संपर्क करना आसान हो जाता है. मिश्रा ने कहा, “ऐसी स्थितियों में जहां चीजें हाथ से बाहर हो जाती हैं, महिलाएं आईडी कार्ड से लैस होकर स्थानीय पुलिस के पास जाती हैं और सहायता मांगती हैं.”

जब पूछा गया कि महिलाएं क्यों अपने पतियों को छोड़ नहीं देतीं, तो आशा देवी ने कहा: “अगर हम उन्हें छोड़ देंगे तो कहां जाएंगे? हमारे पास पढ़ी-लिखी नहीं हैं.”

पहरेदार महिलाएं

अपने गांवों में पत्नियों के साथ गलत बर्ताव करने वाले पुरुषों के खिलाफ एकजुट होकर लड़ने और शराब व नशीली दवाओं के दुरुपयोग, जुए की लत को रोकने के लिए, लाठियों से लैस होकर महिलाओं के एक साथ आने की अवधारणा नई नहीं है.

गुलाबी गैंग का गठन संपत पाल देवी ने इसी उद्देश्य से किया था.

दिप्रिंट से बात करते हुए, संपत पाल देवी ने कहा कि वर्तमान में उनके संगठन में पूरे भारत में हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और झारखंड सहित अन्य राज्यों से लगभग 11 लाख सदस्य हैं.

उन्होंने कहा कि यह उनका विचार था जिसका उपयोग दूसरों ने किया. “मैंने पहल की, और तब से ग्रीन आर्मी और बेलन गैंग जैसे अन्य संगठनों का गठन किया गया है. अवधारणा वही है. महिलाएं महिलाओं के साथ खड़ी हैं,”

हालांकि, ग्रीन आर्मी और गुलाबी गैंग के बीच कुछ अंतर हैं.

गुलाबी साड़ियां पहने, गुलाबी गैंग के सदस्यों को ज्यादातर विजिलेंट लोगों के रूप में जाना जाता है क्योंकि वे पुलिस की सहायता के बिना, अपने दम पर मामलों को सुलझाना पसंद करती हैं. इस बीच, मिश्रा इस बात पर जोर देते हैं कि ग्रीन आर्मी “अहिंसा को प्राथमिकता देती है” और पुलिस सहायता लेने से गुरेज नहीं करती.

उन्होंने कहा, “ग्रीन आर्मी (गलत व्यवहार करने वाले) पुरुषों को मारने के बजाय उन्हें मनाने और समझाने-बुझाने में विश्वास करती है,” उन्होंने दोहराया कि “अहिंसा हमारे लिए सबसे ऊपर है और ये महिलाएं इसके अलावा अगर कुछ भी करती हैं तो वह आत्मरक्षा में करती हैं”.

दूसरी ओर, संपत पाल देवी ने दिप्रिंट से कहा: “हम सभी जानते हैं कि पुलिस क्या करती है. इसलिए, हम अधिकारियों से कोई सहायता नहीं लेते हैं.”

गुलाबी गैंग के विपरीत, जिस गैर-लाभकारी संस्था के तहत ग्रीन आर्मी संचालित होती है, उसे मिश्रा के अनुसार सात ट्रस्टियों की एक टीम द्वारा चलाया जाता है, जो सभी पुरुष हैं. इसके अलावा, नए-शामिल हुए सदस्यों को ढाई महीने का प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है.

उन्होंने कहा कि क्लस्टर-विलेज स्तर पर भी, महिलाओं को पुरुष प्रतिनिधियों द्वारा प्रशिक्षित और निर्देशित किया जाता है, उन्होंने कहा, “25 लोगों की की कोर ग्रीन आर्मी टीम में केवल एक महिला है”.

उन्होंने कहा, “बीएचयू की महिला छात्राएं अक्सर इन महिलाओं से बात करने के लिए गांवों में जाती हैं.”

संपत पाल देवी ने कहा, गुलाबी गैंग के लिए, कोई भी व्यक्ति कॉल के माध्यम से पहुंच सकता है या अपने जिले या गांव में गिरोह के अन्य सदस्यों को सूचित कर सकता है.

मिर्जापुर क्लस्टर के चीफ और स्कूल टीचर विजय कुमार सिंह ने दिप्रिंट को बताया कि ग्रीन आर्मी के सदस्यों की संख्या कुछ गांवों में 25 और अन्य में 42 तक सीमित है.

उन्होंने समझाया, “हमने धन की कमी के कारण बहुत अधिक महिलाओं को शामिल नहीं किया है. हम आंतरिक झड़पें भी नहीं चाहते हैं और चाहते हैं कि वे एकजुट रहें,”

महिलाओं को उनके अधिकारों के लिए लड़ने में मदद करने के लिए मुंबई स्थित उद्यमी नीति गोयल ने भी आगे आकर मिश्रा और उनकी टीम के साथ सहयोग किया.

गोयल ने दिप्रिंट को बताया, “ग्राउंड टीम (ग्रीन आर्मी की) ने देखा कि कैसे पुरुष काम नहीं करते थे. बच्चों और महिलाओं को खाना नहीं मिलता था. उन्हें हरी साड़ियां और लाठियां देकर एक पहचान दी गई, जो उन्हें सशक्त बनाने की दिशा में पहला कदम है,”

2020 और 2021 में, कोविड की वजह से लगे लॉकडाउन और उसके बाद बेरोज़गारी ने गांवों में ऐसी महिलाओं के लिए चीजों को और अधिक कठिन बना दिया. “पुरुष शहरों से वापस आ गए. यहां के लोगों के पास नौकरियां नहीं थीं और वे शराब के लिए संघर्ष कर रहे थे. हमेशा की तरह, महिलाओं को पुरुषों की कुंठाओं का शिकार होना पड़ता था,” देवारा गांव की निवासी दरिया ने कहा, ”अब चीजें बेहतर हो गई हैं.”

‘आर्थिक स्वतंत्रता’

कुशियारी में, जहां ग्रीन आर्मी का गठन किया गया था, वहां असंतोष है – महिलाएं आर्थिक स्वतंत्रता चाहती हैं.

आशा देवी हस्तक्षेप करने की कोशिश करती है लेकिन ममता, मुन्नी और यूनिट के कुछ अन्य लोग सुनने से इनकार कर देते हैं.

ममता ने कहा, “हमें समाज की भलाई के लिए सेवा शुरू किए हुए कई साल हो गए हैं, लेकिन कब तक? हम अब आर्थिक स्वतंत्रता चाहते हैं. हम काम करना चाहते हैं ताकि हम अपने प्रति गलत व्यवहार करने वाले पतियों को छोड़ सकें. वे लोग हमें ताने देकर पूछते हैं कि ‘आप बैठकें करती हैं और हमें धमकाती हैं, लेकिन आप कमाती क्या हैं?”.

आशा देवी एक अलग दृष्टिकोण रखती हैं. उन्होंने कहा, उन्होंने (ग्रीन आर्मी) हमें ‘हिम्मत’ दी. अब यह हमारा काम है कि हम कोशिश जारी रखें. हमारे घरों की चारदीवारी और घूंघट से बाहर निकलने में वर्षों लग गए हैं. बदलाव धीमा है लेकिन यह हो रहा है,”

यूनिट की एक अन्य सदस्य मुन्नी देवी ने उन्हें टोकते हुए कहा, “हम लंबी लड़ाई लड़ रहे हैं. अब ज़रूरत इस बात की है कि हमारे पास उनसे न लड़ने और बाहर निकलने का विकल्प हो.”

उसने पूछा, “यह कैसे होगा अगर हम उन पुरुषों के साथ सोतो रहेंगे जो हमें मारते थे? कल अगर हम एकजुट नहीं हुए तो हमारे पास क्या गारंटी है कि वे हम पर दोबारा हमला नहीं करेंगे?”

मिश्रा ने दिप्रिंट को बताया कि वह उनकी मांग को पूरा करने की दिशा में काम कर रहे हैं.

उन्होंने बताया कि उनके एनजीओ के लिए धन ज्यादातर बीएचयू के प्रोफेसरों से आता है और उन्होंने कुछ पहल के लिए क्राउडफंडिंग शुरू कर दी है.

मिश्रा के मुताबिक, देवारा गांव में उन्होंने चप्पल बनाने की एक छोटी सी फैक्ट्री शुरू की है और जल्द ही इसे पूरी तरह चालू करने की योजना है. यूपी के सोनभद्र जिले में पेपर प्लेट बनाने की पहल शुरू की गई है, और देवारा में कुछ महिलाओं को फल और सब्जियां बेचने के लिए ठेले भी उपलब्ध कराए गए हैं.

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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