नई दिल्ली: दिल्ली हाईकोर्ट ने रविवार को कहा कि 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली के दंगे, एक ‘पूर्व-नियोजित और सुनियोजित साज़िश’ का नतीजा थे, और ये पलभर में शुरू नहीं हो गए थे.
न्यायमूर्ति सुब्रामण्यम प्रसाद के दिए फैसले में कहा गया है, ‘जिन दंगों ने फरवरी 2020 में देश की राष्ट्रीय राजधानी को हिला कर रख दिया, वो ज़ाहिर है कि पलभर में शुरू नहीं हो गए थे, और अभियोजन पक्ष ने जो वीडियो फुटेज रिकॉर्ड पर रखा, उसमें मौजूद प्रदर्शनकारियों का आचरण, ज़ाहिरी तौर पर दिखाता है कि वो एक सुनियोजित प्रयास था, जिसका उद्देश्य सरकार के कामकाज को भंग करना, और शहर के लोगों के सामान्य जीवन में बाधा डालना था’.
कोर्ट ने आगे कहा, ‘सीसीटीवी कैमरों को सुनियोजित ढंग से काटना और उन्हें नष्ट करना भी, इस बात की पुष्टि करता है कि शहर में क़ानून व्यवस्था को बिगाड़ने के लिए, एक पूर्व-नियोजित और सुनियोजित साज़िश रची गई थी. ये इससे भी स्पष्ट होता है कि बेशुमार दंगाईयों ने लाठी, डंडे, और बल्ले लेकर, पुलिसकर्मियों के छोटे से दस्ते पर हमला बोला था’.
ये टिप्पणियां उस दौरान की गईं जब अदालत, मोहम्मद इब्राहिम नाम के एक व्यक्ति की ज़मानत याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसे 25 फरवरी को दयालपुर पुलिस थाने में दर्ज एक एफआईआर के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया था, जिसमें भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराएं लगाई गईं थीं, जिनमें धारा 302 (हत्या), और लोक संपत्ति नुकसान निवारण अधिनियम 1984, के प्रावधान शामिल थे. इस एफआईआर का संबंध दिल्ली पुलिस के हेड कांस्टेबल रतन लाल की कथित हत्या से था.
फैसले के अनुसार, केस की जांच पहले ही पूरी हो चुकी है, और पिछले साल जून के बाद से पांच आरोप पत्र दाख़िल किए जा चुके हैं. इब्राहिम को इस मामले में पिछले साल 30 मार्च को गिरफ्तार किया गया था और अब उसका कहना है कि उसे झूठा फंसाया गया था.
कोर्ट ने स्वीकार किया कि इब्राहिम को घटना की जगह पर देखा नहीं जा सकता, लेकिन अपने निर्णय को सही ठहराते हुए कहा कि उसे ‘बहुत सी सीसीटीवी फुटेजेज़ में साफतौर पर पहचाना गया है, जिनमें उसे तलवार लेकर लोगों को भड़काते हुए देखा जा सकता है’.
कोर्ट ने फिर उसे ज़मानत देने के इनकार कर दिया और कहा, ‘ये कोर्ट पहले भी एक लोकतांत्रिक राजव्यवस्था में व्यक्तिगत स्वतंत्रता के महत्व पर अपने विचार व्यक्त कर चुकी है, लेकिन स्पष्ट रूप से नोट किया जाना है कि निजी आज़ादी का इस तरह दुरुपयोग नहीं किया जा सकता कि वो अस्थिरता फैलाकर और दूसरे लोगों को नुक़सान पहुंचाकर, एक सभ्य समाज के ताने-बाने के लिए ख़तरा बन जाए’.
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गोल टोपी, नेहरू जैकेट, सलवार-कुर्ता
इब्राहिम के खिलाफ चार्जशीट में आरोप लगाया गया था कि वीडियो फुटेज के मुताबिक़ उसे दूसरे दंगाइयों की अगुवाई करते हुए देखा जा सकता था, जो मुस्तफाबाद की ओर से आ रहे थे. उसमें ये भी दावा किया गया कि उसने अपने ख़ुलासे में क़बूल किया था कि उसने अपनी तलवार से पुलिसकर्मी पर हमला किया था.
हाईकोर्ट में ज़मानत की मांग करते हुए इब्राहिम के वकील ने कहा था कि लाल की मौत बंदूक़ की गोली के घाव से हुई थी. वकील ने ये संभावना भी जताई कि हो सकता है कि वो गोली किसी पुलिस अधिकारी की बंदूक़ से चल गई हो. वकील ने ये दलील भी दी कि इब्राहिम किसी सीसीटीवी फुटेज में नज़र नहीं आया था और अपराध की जगह पर मौजूद नहीं था, चूंकि कथित घटना के समय उसका मोबाइल फोन लोकेशन उसे न्यू मुस्तफाबाद में दिखा रहा था.
लेकिन, कोर्ट के आदेश में कहा गया कि वीडियो फुटेज के मुताबिक़, इब्राहिम कम से कम पांच कैमरों पर नज़र आ रहा था, जिसमें वो ‘एक गोल टोपी, काली नेहरू जैकेट और शलवार कुर्ता पहने था…और उसके हाथ में एक तलवार थी’. फिर कोर्ट ने टिप्पणी की कि तलवार ‘पृथमदृष्टया एक ख़तरनाक हथियार है’.
जवाब में उसके वकील ने कहा था कि तलवार उसकी और उसके परिवार की सुरक्षा की ख़ातिर, केवल आत्म-रक्षा के लिए थी. लेकिन कोर्ट ने कहा कि इस दलील में ‘कोई दम नहीं है’, क्योंकि वीडियो फुटेज में इब्राहिम को उसके घर से 1.6 किलोमीटर दूर दिखाया गया था और उसके सर पर कोई तात्कालिक ख़तरा नहीं दिख रहा था.
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