मेरठ: पिछले महीने जम्मू-कश्मीर में सेना ने अपनी एक बड़ी ही कीमती चीज को खो दी. वह था सेना का असॉल्ट डॉग एक्सेल, जो एक एंटी टेरेरिस्ट ऑपरेशन में मारा गया. उसकी मौत ने सिर्फ जम्मू-कश्मीर की यूनिट को ही उदास नहीं किया था बल्कि वहां से बहुत दूर मेरठ में भी कई लोगों को गमगीन कर दिया. आज से दो साल पहले एक्सेल का सफर यहीं से शुरू हुआ था.
एक्सेल मेरठ के रिमाउंट वेटरनरी कोर सेंटर (आरवीसी) में सेना के प्रशिक्षित और तैनात सैकड़ों कैनाइन सैनिकों में से एक था. यहां से ट्रेनिंग पाकर निकला हर डॉग, आतंकवाद, नशीले पदार्थों और प्राकृतिक आपदाओं के खिलाफ देश के लिए काम करता है.
इन सबके केंद्र में आरवीसी है. यह सेंटर अपने काम को हल्के में नहीं लेता है: पुणे में राष्ट्रीय रक्षा अकादमी की तरह कोर अपने ट्रेनी को कठोर, नियमित इंस्ट्रक्शन्स में रखता है. नियंत्रित ब्रीडिंग से लेकर पपी एप्टीट्यूड टेस्ट तक, इन कुत्तों को शुरू से ही घातक होने के लिए तैयार किया जाता है.
भारतीय सेना ने श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल, म्यांमार, कंबोडिया और दक्षिण अफ्रीका सहित कई मित्र देशों को इन कैनाइन सैनिकों को उपहार में दिया है. ये देश इन ट्रेन्ड डॉग्स के काम से इतने खुश हैं कि इन्होंने अपने सेना के जवानों को कुत्तों को संभालने का प्रशिक्षण लेने के लिए भारत भेजा है.
बेल्जियन मालिंस नस्ल का एक्सेल जब ट्रेनिंग में पास हुआ, तब वह दो साल का था. उसने अपना अधिकांश जीवन सेंटर में बिताया था. ग्रेजुएट होने वाले हर दूसरे कुत्ते की तरह एक्सेल ने भी आदेशों को मानने, खास तौर पर हमला किए जाने की ट्रेनिंग ली थी.
आरवीसी सेंटर में कुत्तों को ओबेडियंस और ट्रैकिंग स्क्वॉड में ट्रेन करने वाले मेजर एस.के. बरोत्रा ने कहा, ‘एक्सेल की मौत की खबर सुनकर हम सभी बहुत भावुक थे.’ एक्सेल के ग्रेजुएट होने के बाद उसे 26 आर्मी डॉग यूनिट में तैनात किया गया और वह 29 राष्ट्रीय राइफल्स के साथ काम कर रहा था. यूनिट ने उसे एक भाव-भीनी विदाई दी थी. उत्तरी कश्मीर की देखभाल करने वाले किलो फोर्स के जनरल ऑफिसर कमांडिंग (जीओसी) ने भी अन्य अधिकारियों के साथ पुष्पांजलि अर्पित की. एक्सेल सेना के भाषणों में उल्लेखित होने वाला पहला असॉल्ट डॉग भी बन गया.
एक्सेल की यूनिट को उसकी कमी खलती रहेगी लेकिन आरवीसी सेंटर अपने इस दुख से आगे बढ़ते हुए हमेशा की तरह अपने काम में जुटा हुआ है. क्योंकि आर्मी के कैनिन सोल्जर की मांग उनके ग्रेजुएट डॉग की संख्या से ज्यादा है.
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भारी डिमांड
आरवीसी सेंटर कुत्तों से भरा हुआ है. लेकिन यह हंसते-खेलते डॉग और उनके हैंडलर के लिए कोई आराम वाली जगह नहीं है. यहां मेहनती कुत्तों को 9 से 5 बजे तक की मेहनतकश जिंदगी जीनी पड़ती है.
प्रशिक्षण काफी विशिष्ट और एलीट होता है. जिस वजह से इन कुत्तों की डिमांड काफी बढ़ गई है. लेकिन प्रशिक्षण का एक हिस्सा उन्हें दी जाने वाली उचित देखभाल से भी जुड़ा है. सेंटर बढ़ती मांग को पूरा करने से ज्यादा कुत्तों के स्वास्थ्य और भलाई को प्राथमिकता देता है.
एक लैब्राडोर ओशिन को एक सुबह बाहरी सुरक्षा एजेंसी में उसकी पोस्टिंग पर भेजा जाना था. लेकिन जब उसके हैंडलर ने देखा कि उसका तापमान सामान्य से ज्यादा है तो सेंटर ने उसकी निगरानी और देखभाल करने के लिए उसकी तैनाती को रोकने का फैसला कर लिया.
खनन, विस्फोटक और नशीले पदार्थों का पता लगाने में डॉग स्क्वॉड को प्रशिक्षित करने वाले केंद्र के एक प्रशिक्षक मेजर अमन सूद ने कहा, ‘मांग हमेशा से ज्यादा रही है. हम सशस्त्र बलों की ऑपरेशन डिमांड को पूरा कर रहे हैं. हमें बाहरी एजेंसियों से भी डिमांड मिल रही हैं.’
अर्धसैनिक बलों जैसी एजेंसियां और राज्य पुलिस विभाग जैसी संस्थाएं नियमित रूप से सेंटर पर आती रहती हैं.
मेजर बरोत्रा और मेजर सूद सेंटर में डॉग ट्रेनिंग फैकल्टी का हिस्सा हैं. वो कुत्तों को ब्रीड कराने, पालने और प्रशिक्षित करने का काम करते हैं. साथ ही वह अपने हैंडलर्स को प्रशिक्षित करने और स्किल को उन्नत करने के लिए कोर्स भी चलाते हैं. किसी भी समय 500 से ज्यादा कुत्तों का होना अनिवार्य है.
डिटेक्शन डॉग सबसे ज्यादा डिमांड में हैं: सेना और बाहरी एजेंसियां दोनों ही ऐसे डॉग को अहमियत देती हैं. इन कुत्तों को विस्फोटकों, खानों और नशीले पदार्थों का पता लगाने के लिए ट्रेन्ड किया जाता है. लैब्राडोर इसी काम के लिए चुनी गई नस्ल है. इनके पास सूंघने की बेहतर क्षमता, सीखने के लिए दिमाग और लोगों के साथ फ्रेंडली व्यवहार जैसी खासियतें उन्हें इस काम के लिए परफेक्ट बनाती हैं.
टास्क पर भेजने से पहले हैंडलर उन्हें अपना आदेश देते हैं. उनके इंस्ट्रक्शन का मुख्य भाग दो शब्दों की पहचान है – सूंघो और ढूंढ़ो. कुत्ते उनके इस निर्देश पर तुरंत सटीक प्रतिक्रिया देते हैं.
एक डेमो में, ड्यूक नाम के एक ट्रैकर कुत्ते ने कपड़े के टुकड़े पर लगे सेंट से उसे सूंघ कर खोज निकाला. कपड़े के टुकड़े को छिपाने के बाद लैब्राडोर को वहां लाया गया था. उसके हैंडलर ने आदेश दिया: सूंघो, ढूंढ़ो. ड्यूक ने उस कपड़े के टुकड़े को ढूंढ़ निकाला और उसके सामने बैठ गया. ड्रिल को मैन-टू-आर्टिकल सर्च कहा जाता है और वास्तविक ऑपरेशन में लोगों की पहचान करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है.
एक्सेल जैसे असॉल्ट डॉग भी काफी डिमांड में हैं. कश्मीर की एक इमारत में आतंकवादियों को सर्च करने के दौरान एक्सेल की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. बेल्जियम मालिंस की ये नस्ल अपनी चपलता और आक्रामकता के लिए जानी जाती है. आक्रामकता इतनी ज्यादा है कि सेना ने उनके मनोविज्ञान का बेहतर अध्ययन करने के लिए 2011 और 2018 के बीच उन्हें प्रशिक्षण देना बंद कर दिया था.
सेना लैब्राडोर और बेल्जियम मालिंस के अलावा, जर्मन शेफर्ड को भी पैदल सेना की गश्त और गार्ड ड्यूटी जैसे सुरक्षा के कामों के लिए प्रशिक्षण देने पर ध्यान केंद्रित कर रही है. आरवीसी सेंटर में फिलहाल कुछ कॉकर स्पैनियल्स को कोविड का पता लगाने के लिए भी प्रशिक्षित किया जा रहा है: ट्रांजिट कैंपों में तैनात ये डॉग कोविड-पॉजिटिव मूत्र और पसीने के नमूनों का पता लगाने में सक्षम थे.
भारतीय नस्लों को भी ट्रेनिंग दी जाती है. 2016 के बाद से मुधोल हाउंड, चिप्पीपराई, कोम्बाई और राजपालयम सहित स्वदेशी कुत्तों को ट्रेनिंग में शामिल किया गया था. सेना के अनुसार ‘मेक इन इंडिया’ पहल के हिस्से के रूप में सेंटर में सभी कुत्तों के नाम या तो ‘भारतीय’ हैं या फिर ‘पश्चिमी’ – कुरा और टिप्सी ऐसे दो उदाहरण हैं. यहां याद रखने की एकमात्र बात यह है कि नामों को एक दूसरे से आसानी से अलग किया जाना चाहिए – और उनकी ब्रीडिंग लिगेसी को देखते हुए प्रत्येक कुत्ते का नाम उसकी मां के नाम पर रखा जाए.
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बेहतर नस्ल और ट्रेनिंग
डॉग हर सुबह 4 से 5 किलोमीटर की दौड़ लगाते हैं. दिन का पहला ट्रेनिंग सेशन शुरू करने से पहले उनका तापमान मापा जाता है. इसके बाद उनके तैयार होने और खाने का समय आता है. शाम को यह सब फिर से दोहराया जाता है.
कुत्तों पर सेना का ध्यान उनके पैदा होने से पहले शुरू हो जाता है.
सावधानीपूर्वक माता-पिता का चयन किया जाता है. इस प्रक्रिया में उनके आनुवंशिकी की सावधानीपूर्वक जांच की जाती है, वीर्य विश्लेषण किया जाता है और कुत्तों की वंशावली को देखने के लिए एक सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल किया जाता है. उसके शरीर का आकार, संभावित वंशानुगत मुद्दों और पिछली संतान के प्रदर्शन जैसे विभिन्न कारकों का मूल्यांकन किया जाता है.
आरवीसी सेंटर में कई कुत्ते हैं जो सिर्फ ब्रीड करने के लिए हैं और बड़े ध्यान से उनकी देखभाल की जाती है. उनके क्वार्टर के बाहर ट्रेडमिल लगे हैं जिस पर वे एक्सरसाइज करते हैं. उनके घर के आस-पास घूमने और खेलने के लिए काफी खाली जगह होती है. डैम्स – मादा प्रजनन करने वाले डॉग – की लगातार निगरानी की जाती है और उन्हें सभी तरह की जरूरी मेडिकल हेल्प दी जाती है.
जब पिल्ले पैदा होते हैं, तो एक विस्तृत वेल्पिंग प्रक्रिया शुरू होती है. मेजर मिट्टू कुरियन के नेतृत्व में सेना प्रत्येक नवजात पिल्ले की देखभाल करती है, उसके लक्षणों और स्वभाव की निगरानी की जाती है.
जैसे ही वे छह महीने के होते हैं, उन्हें सेना के जीवन में शामिल कर लिया जाता है. उनके शरीर में माइक्रोचिप लगाया जाता है और बेसिक ट्रेनिंग शुरू करने से पहले उनके बाएं कान पर उनके यूनिट नंबर टैटू किए जाते हैं. लेकिन एक बड़ा बदलाव यह है कि सेना अब पहले के ‘डोमिनेशन’ के तरीकों के विपरीत उन्हें प्रशिक्षित करने के लिए ‘पॉजिटिव रेनफोर्समेंट’ का इस्तेमाल करती है.
पॉजिटिव रेनफोर्समेंट में वर्बल अवार्ड और दावत दिया जाना, दोनों शामिल हैं: एक कुत्ते के अच्छा काम करने के बाद हैंडलर उन्हें ‘शाबाश’ या ‘गुड डॉग’ कहकर उन्हें रिवार्ड देता है. तो वहीं खाने में बिस्कुट से लेकर ‘महंगी ट्रीट’ तक दी जाती है, उसमें पनीर और मांस शामिल होता है.
छह महीने के छोटे पिल्ले को बेसिक ओबेडिएंस ट्रेनिंग दी जाती है. फिर वे एक एप्टीट्यूड टेस्ट में शामिल होते हैं. यहां चीजों को फिर से खोजने, आदेशों का पालन करने और संयम का अभ्यास करने की उनकी क्षमता का टेस्ट किया जाता है. उसके अलावा छूने, देखने और सुनने के प्रति उनकी संवेदनशीलता का भी परीक्षण किया जाता है और साथ ही उनके सामाजिक आकर्षण और प्रभुत्व का भी मूल्यांकन किया जाता है. एक पैमाने पर हैंडलर उनका मूल्यांकन करते हैं, जिसके बाद उन्हें विशेष यूनिट के लिए तैयार किया जाता है.
मेजर सूद ने कहा, ‘कुत्ते को एक स्पेशिलिटी में शामिल करने से पहले उसकी योग्यता परीक्षण महत्वपूर्ण है.’ वह आगे बताते हैं, ‘टेस्ट में उनके प्रदर्शन के आधार पर हम तय कर पाते हैं कि डॉग में क्या खासियत है और उसे किस खास काम के लिए चुना जा सकता है और वह कहां बेहतर प्रदर्शन करेगा.’ उन्होंने कहा, ‘एक कुत्ते की वर्किंग ओबेडिएंस उसके स्वभाव और स्किल की कुछ योग्यता पर निर्भर करती है. हम मूलरूप से कुत्तों को उनकी विशेषता के आधार पर पुनर्वर्गीकृत कर रहे हैं.’
सेना का एक कुत्ता अपनी स्किल के आधार पर निम्नलिखित में से किसी एक में विशेषज्ञता प्राप्त कर सकता है: ट्रैकर, गार्ड, माइन डिटेक्शन, एक्सप्लोसिव डिटेक्शन, इन्फैंट्री पेट्रोल, हिमस्खलन बचाव अभियान, खोज और बचाव, एसेल्ट व मादक पदार्थों का पता लगाना. और अब तो कोविड का पता लगाने के लिए भी इन्हें ट्रैन्ड किया जा रहा है. इसके बाद उन्हें ग्रुप में प्रशिक्षित किया जाता है – खदान का पता लगाने और ट्रैकिंग में प्रशिक्षित करने में लगभग 36 सप्ताह लगते हैं, जबकि गार्ड डॉग और पैदल सेना के गश्ती कुत्ते 12 सप्ताह में ग्रेजुएट हो जाते हैं.
पूरी तरह से प्रशिक्षित कुत्ते को उसकी डॉग यूनिट में तैनात किया जाता है, जहां वह क्षेत्र के अनुकूल और अभ्यस्त हो जाता है और रिफ्रेशर ट्रेनिंग से गुजरता है. डॉग स्थायी रूप से अपनी यूनिट में तब तक तैनात रहता है जब तक कि वह नौ साल का न हो जाए. इसके बाद वह रिटायर हो जाता है.
उस उम्र के कुत्ते फिर आरवीसी सेंटर के अपने रिटायरमेंट होम में लौट आते हैं. उन्हें बड़े लाड़-प्यार से रखा जाता और उनके साथ खेला जाता है. उन्हें चाहे तो कोई गोद भी ले सकता है. वरना वे एक सक्रिय सैन्य जीवन के बाद आराम का आनंद लेते हुए, धूप के नीचे घास पर लेट लगाते हुए अपना बाकी का जीवन बिताते हैं.
2015 तक कुत्तों को दर्द और पीड़ा से मुक्ति दिलाने के लिए मार दिया जाता था. लेकिन हंगामे के बाद सेना ने अपने ये नियम बदल दिए.
एक कुत्ते का सबसे अच्छा दोस्त
हर यूनिट में 24 कुत्ते और 35 हैंडलर, एक यूनिट कमांडर और सपोर्ट स्टाफ होता है. सेना के कुत्तों की मांग अधिक है, लेकिन योग्य हैंडलर की संख्या अभी भी बहुत कम है.
सेना के पास एक मैनडेटरी डॉग कोर्स है जो सैनिकों को कुत्तों से निपटने के तरीके के बारे में प्रशिक्षित करता है. यह एक भावनात्मक, मानसिक और शारीरिक चुनौती है. एक विशिष्ट व्यक्ति पर डॉग की निर्भरता और एक डॉग के लिए हैंडलर के लगाव को कम करने के लिए, हैंडलर को नियमित रूप से विभिन्न डॉग यूनिट में पोस्ट किया जाता है.
लेकिन मेजर बरोत्रा को अभी भी वो कुत्तें याद है जिन्हें उन्होंने सबसे पहले प्रशिक्षित किया था. यह लगभग सात साल पहले की बात है. तब से लेकर अब तक वह सैकड़ों कुत्तों को प्रशिक्षित कर चुके है, लेकिन पहली यादें हमेशा खास होती हैं.
मेजर बरोत्रा ने बताया, ‘मैं उन्हें कभी नहीं भूलूंगा. उनमें से एक मेल और एक फीमेल डॉग था. मुझे अभी भी याद है कि उन्हें प्रशिक्षित करते समय मैं उनके व्यक्तित्व को समझने की कोशिश कर रहा था. डॉग की पहचान करने के लिए कई ड्राइव होती हैं. मसलन ‘फूड ड्राइव,’ ‘प्ले ड्राइव’, और ‘प्रे ड्राइव’ और कई अन्य.
बेशक, भावनात्मक लगाव होता है. लेकिन मेजर सूद के अनुसार, सेना उनका एंथ्रपमॉर्फाइज (मानवीकरण) करने की कोशिश नहीं करती है. उन्होंने कहा, ‘कुत्ते को प्रशिक्षित करने का अर्थ है उसे अपनी सभी क्षमताओं के लिए खोलना है न की उसे बांधना.’
वह उस पल को याद करते हैं जब उन्होंने पहली बार एक डॉग को एक ट्रिक समझाने के लिए प्रशिक्षित किया था. वह कहते हैं, ‘उस एक पल से आप कुत्ते के मनोविज्ञान, वह आपसे क्या चाहता है और प्रशिक्षण की कार्य प्रणाली क्या है, आप सब समझ जाते हैं. कुत्ते से इतना कुछ पाना आसान नहीं है, लेकिन अब आप जानते हैं कि यह संभव है – और एक डॉग ट्रेनर के रूप में आप समझ गए हैं कि यह कैसे काम करता है.’ दो साल पहले आरवीसी सेंटर में जाने से पहले उन्होंने तीन साल तक डॉग यूनिट की कमान संभाली थी. विडंबना यह है कि उनके परिवार को कुत्तों से एलर्जी है.
निश्चित तौर पर आरवीसी केंद्र में डॉग को सेवा के लिए तैयार करने में बेहतर जीवन की हर सुविधा दी जाती है. उनके लिए सब कुछ किया जाता है – आहार से लेकर फुर्सत के समय तक. इन सबके बीच क्या कुत्ते, राष्ट्रीय जिम्मेदारियों को निभाने के तनाव और दबाव को महसूस करते हैं?
‘तनाव?’ मेजर सूद ने कहा, ‘बिल्कुल भी नहीं. कुत्तों के पास तनाव के लिए समय नहीं होता है.’
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