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Sunday, 5 May, 2024
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फेवरे-ल्युबा: भारत के बाज़ार में आने वाली ‘पहली’ स्विस घड़ी जिसकी चमक स्मार्टफोन के दौर में फीकी पड़ी

स्विस विरासत घड़ी ब्रांड फेवरे-ल्युबा 70 और 80 के दशक के दौरान अच्छा कर रही थी, जिसके बाद वो बाज़ार से गायब हो गई. फिर 2011 में उसे टाइटन कंपनी ने खरीद लिया.

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नई दिल्ली: स्मार्टफोन्स के हमारी ज़िंदगी में आने से बहुत पहले कलाई पर पहनी जाने वाली घड़ियां एक विरासत की तरह होती थीं, जिन्हें एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के हवाले किया जाता था और जो आकांक्षाओं तथा भावनाओं की कहानियां सुनाती थीं. और स्विस घड़ियां इस शाश्वत परंपरा का एक प्रमुख प्रतीक होती थीं.

ऐसा ही एक ब्रांड जिससे उत्साही लोग मोहित रहते थे, वो था 280 साल पुराना फेवरे-ल्युबा, दुनिया की दूसरी सबसे पुरानी स्विस घड़ी कंपनी, जो 1865 में भारतीय बाज़ार में दाखिल हुई थी. उच्च-क्वालिटी की इसकी घड़ियां खासकर 1960, 70 और 80 के दशक में मध्यम वर्ग के लोगों को बहुत आकर्षित करती थीं.

हालांकि कंपनी ने करीब पांच दशकों तक भारत में कारोबार किया लेकिन 1990 के दशक में और उसके बाद, इस ब्रांड का आकर्षण घटने लगा और अपेक्षाकृत नई तथा न्यूनतम घड़ियां बाज़ार में आ गईं और स्मार्टफोन्स के उदय के साथ ही टाइमपीस घड़ियां पुरानी पड़ गईं.

फेवरे-ल्युबा को 1737 में एब्राहम फेवरे ने शुरू किया था. लेकिन ये एब्राहम के परपोते फ्रिट्ज़ फेवरे थे, जिन्होंने 1960 के दशक में भारत का दौरा किया और भारत के बाज़ार में अपना ब्रांड लॉन्च किया, ठीक उस समय जब ब्रिटिश राज शुरू हो रहा था.

‘फेवरे-ल्युबा भारत में आने वाला स्विस घड़ियों का पहला ब्रांड था, इसलिए इसका भारत के साथ एक बहुत लंबा रिश्ता है.’ कंपनी के सीईओ टॉमस मॉर्फ का पहले ये कहते हवाला दिया गया था, जब वो 80 के दशक में अचानक से गायब हो जाने के बाद, ब्रांड की भारतीय बाज़ार में वापसी पर बोल रहे थे.

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भारत से विदाई

60 की उम्र पार कर चुके घड़ीसाज़ जावेद हुसैन खान ने, जिनकी दिल्ली के निज़ामुद्दीन में दुकान है, दिप्रिंट से कहा, ‘स्विस घड़ियों के सभी ब्रांड 1975 में भारत से चले गए थे. इंदिरा गांधी के कार्यकाल में इमरजेंसी लगने की वजह से स्विस ब्रांड्स ने अपनी दुकानें बंद कर दीं और घड़ियों की बहुत सारी तस्करी जो पहले हुआ करती थी वो भी बंद हो गई. ओमेगा और राडो जैसे बड़े ब्रांड्स को छोड़कर, ज़्यादातर स्विस घड़ियां भारत में आनी बंद हो गईं’.

लगभग उसी समय भारत सरकार ने भी 1961 में अपनी प्रतिष्ठित घड़ी कंपनी एचएमटी का संचालन और प्रचार शुरू कर दिया, जो एक सार्वजनिक क्षेत्र का उपक्रम था. उसकी वजह से स्विस घड़ियां भारतीय बाज़ार से और बाहर हो गईं.


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वापस भारतीय उपभोक्ताओं तक पहुंच

लेकिन एक दूसरे दशक में फेवरे-ल्युबा की वापसी देखी गई. 16 नवंबर 2011 को टाटा ग्रुप ने फेवरे-ल्युबा को खरीद लिया और उसका कंपनी मुख्यालय ज़ुग, स्विट्ज़रलैंड चला गया. करीब 13.8 करोड़ रुपए में ब्रांड को खरीदकर, टाइटन कंपनी ने जो टाटा समूह का हिस्सा है, स्पेन की वालफैमिली एसएल और स्विट्ज़रलैंड की मेसन फेवरे-ल्युबा एसए के साथ एक करार पर दस्तखत करके ब्रांड के ग्लोबल राइट्स हासिल कर लिए.

भारत में इसे अधिकारिक रूप से 2016 में फिर से लॉन्च किया गया, जब ईथॉस के चुनिंदा वॉच स्टोर्स में फेवरे-ल्युबा शेल्फ पर आ गई.

फेवरे-ल्युबा एजी बोर्ड के अध्यक्ष और उससे पहले टाइटन के प्रबंध निदेशक रह चुके भास्कर भट का ये कहते हुए हवाला दिया गया था, ‘फेवरे-ल्युबा करीब 40 साल तक भारत से गायब रही है. हमारा उद्देश्य इस ब्रांड को ठीक से लॉन्च करना था. इसके साथ एक विरासत जुड़ी हुई है’.

हालांकि टाइटन ने अपनी ओर से उसका फिर से आह्वान करने की भरसक कोशिश की, जिसे कंपनी फेवरे-ल्युबा का एक शाश्वत स्वभाव समझती थी लेकिन उसके बाद के सालों में ये घड़ी धीरे-धीरे अपने अंत की तरफ बढ़ गई.

अपने ब्रांड की दशकों पहले बनाई पहचान को ठोस रूप देने की कोशिश में, फेवरे-ल्युबा अपने पुराने अंदाज़ पर बनी रही और उसके नतीजे में इन घड़ियों की मांग घटने लगी. हो सकता है कि पुरानी पीढ़ी ने सांस रोककर ब्रांड की वापसी का इंतज़ार किया हो लेकिन नई पीढ़ी ने ब्रांड को बहुत अच्छे से नहीं लिया.

दिल्ली साहित्य समारोह के प्रोग्राम डायरेक्टर कुनाल गुप्ता, जो घड़ियों के शौकीन भी हैं, दिप्रिंट को बताया, ‘जब ब्रांड भारत में वापस आया, तो उसकी सामग्री उसके दाम के हिसाब से बिल्कुल भी अच्छी नहीं थी. साथ ही उसके पुराने पड़ गए डिज़ाइन की वजह से भी, वो लोगों की लोकप्रिय पसंद नहीं बन पाई’.

खान ने भी कहा कि जब इन्हें भारत में फिर से लॉन्च किया गया, तो ये घड़ियां ‘बेहद महंगी’ थीं. उन्होंने आगे कहा, ‘उसके अलावा, इसने वक्त के साथ बदलाव नहीं किए. लोग आधुनिक दिखने वाली घड़ियों की ओर खिंच रहे थे. यहां तक कि एचएमटी ने भी अपने लुक में बदलाव किया और उसे थोड़ा और शार्प बना दिया, ताकि वो आधुनिक उपभोक्ताओं की पसंद के हिसाब से बन सके’.

कोविड-19 ने आखिरकार ब्रांड के ताबूत में आखिरी कील ठोक दी. 2020 में एक नियामक फाइलिंग में टाइटन कंपनी ने कहा कि वो लगातार फेवरे-ल्युबा की सहायता करती आ रही थी और इसे फिर से जीवित करने और इसके विकास के लिए उसने करीब 275 करोड़ रुपए के निवेश किए थे. लेकिन मौजूदा महामारी ने इसे फिर से जीवित करने की योजनाओं और ब्रांड की संभावनाओं को बुरी तरह प्रभावित किया था.

टाइटन ने ये भी ऐलान किया कि वो अपने फेवरे-ल्युबा ऑपरेशन को कम करने जा रही है. उसी साल टाइटन ने मॉन्टब्लैंक इंडिया रिटेल के साथ अपने पांच-वर्षीय संयुक्त उद्यम को भी खत्म करने का ऐलान कर दिया.

दिप्रिंट ने टाइटन की पीआर टीम से संपर्क किया था लेकिन उन्होंने इस मुद्दे पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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