समाज और संस्कृति के मसलों को बड़ी आबादी तक पहुंचाने के लिए सिनेमा हमेशा से एक मजबूत और अच्छा माध्यम रहा है. हिन्दी के साथ बंगाली सिनेमा की एक शानदार और लंबी परंपरा रही है जिसमें इंसानी जज्बात, उसकी बैचेनी, सामाजिक मुद्दों को रेखांकित किया जाता रहा है.
दिग्गज फिल्मकार सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक और मृणाल सेन का सिनेमा ऐसे ही मुद्दों को दर्ज करता रहा है. इसी धारा को आगे बढ़ाने और मजबूत करने का काम अपने लंबे सफर में बांग्ला फिल्मकार और कवि बुद्धदेब दासगुप्ता ने किया. उन्होंने अपने सिनेमा में यथार्थ (रीइलिज्म) और संगीत (लिरिसिज्म) को जोड़कर पेश किया जो उनकी पैनी सामाजिक दृष्टि को दिखाता है. एक दृश्य को गढ़ने में दासगुप्ता चित्र, कैमरा और संगीत का बेजोड़ मिश्रण करते थे.
गुरुवार सुबह 77 साल की उम्र में बुद्धदेब दासगुप्ता का निधन हो गया. वे लंबे समय से किडनी की बीमारी से जूझ रहे थे. उनके जाने के साथ ही ‘समानांतर सिनेमा’ की एक मजबूत धारा भी टूट गई.
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, सुधीर मिश्रा, फिल्मकार अंजन दत्ता सहित कई कलाकारों, उनके परिचितों ने उन्हें लेकर अपने अनुभव साझा किये और उन्हें श्रद्धांजलि दी.
ममता बनर्जी ने ट्वीट कर कहा, ‘प्रख्यात फिल्म निर्माता बुद्धदेब दासगुप्ता के निधन पर दुख हुआ. उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से सिनेमा की भाषा में गीतात्मकता का संचार किया. उनका निधन फिल्म जगत के लिए अपूरणीय क्षति है. उनके परिवार, सहकर्मियों और प्रशंसकों के प्रति संवेदना.’
Saddened at the passing away of eminent filmmaker Buddhadeb Dasgupta. Through his works, he infused lyricism into the language of cinema. His death comes as a great loss for the film fraternity. Condolences to his family, colleagues and admirers
— Mamata Banerjee (@MamataOfficial) June 10, 2021
फिल्मों का सौंदर्य-काव्यशास्त्र और ‘आइडिया ऑफ स्पेस’
बुद्धदेब दासगुप्ता ऐसे संवेदनशील फिल्मकार थे जिनकी फिल्मों के नायक अक्सर अंर्तद्वंद से गुजरते थे. ये अंर्तद्वंद सामाजिक-राजनीति-आर्थिक कारणों से होते थे. वे हमेशा अंतर्विरोध की खोज में रहते थे और इसकी झलक उनकी कला में दिखती थी.
उनकी फिल्में समाज और संस्कृति में व्यक्ति की उपस्थिति को दर्ज करती थीं. वास्तविक और काल्पनिक दुनिया के बीच भी एक दुनिया होती है, दासगुप्ता अपनी फिल्मों में उसी बीच की दुनिया को उभारते थे.
फिल्म स्कॉलर, क्यूरेटर और इतिहासकार अमृत गंगर ने दिप्रिंट को बताया कि सौंदर्य की दृष्टि से, मेरे लिए यह स्पेस (आकाश) है जो समय को समाहित करता है.
उन्होंने कहा, ‘कुछ साल पहले बुद्धदेब दासगुप्ता पर लिखते हुए मैंने अपने एक अंग्रेज़ी के लेख का शीर्षक- ‘दूरत्व, समीपत्व ‘ दिया. यह उनकी पहली फीचर फिल्म दूरत्व (1978) पर लेख था. इसमें जो महत्वपूर्ण चीज़ है वो ‘दूरत्व’ शब्द के ‘त्व’ हिस्से में है.’
उन्होंने बताया, ‘दूरत्व में पिंजरे में कैद पक्षी का एक शॉट है जो लगभग 45 सेकंड तक चलता है और फिर आप आपने मन की आंख को 15 साल बाद बुद्धदेव की फिल्म ‘चराचर ‘ (1993) की यात्रा पर ले चलिए, जहां शुरुआती दृश्य में ही आप दूरत्व के स्पेस को असीम में आज़ाद होते हुए देख सकते हैं.’
‘स्पेस की यह निरंतर आज़ादी मुझे रूचिकर लगती है. यही बुद्धदेब दासगुप्ता का सिनेमा-काव्यशास्त्र है.’
उन्होंने बताया, ‘करीब दो दशक पहले, मैं और बुद्धदेब दासगुप्ता कॉपेनहेगन (डेनमार्क) में डेनिश फिल्म इंस्टीट्यूट में थे, जहां मैंने ‘उत्तरा ‘ फिल्म देखाई. उन्होंने इस फिल्म पर चर्चा भी की. तब मैंने उनसे अपने ‘आइडिया ऑफ स्पेस’ के बारे में उन्हें बताया था, जो उन्हें काफी पसंद आया.
फिल्म स्कॉलर गंगर कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि वह इतालवी नव-यथार्थवाद (न्यो-रीइलिज्म) में नहीं फंसे और अपनी सिनेमैटोग्राफिक यात्रा में एक अलग सफर तय किया. मुझे लगता है कि वह खुद को फेडेरिको फेलिनी और निश्चित रूप से बुनुएल और तारकोवस्की के करीब महसूस करते थे.’
उनकी पहली फीचर फिल्म दूरत्व (1978) जिसके लिए उन्हें बेस्ट फीचर फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी मिला, ये फिल्म ‘नक्सल आंदोलन’ पर आधारित थी. इसके बाद इसी थीम पर उन्होंने 1982 में गृह जुद्ध (गृह युद्ध) और 1984 में हिन्दी फिल्म अंधी गली बनाई. नक्सल आंदोलन और सामाजिक विरोधाभासों को ये फिल्में गहराई से उभारती हैं.
1984 में आई फिल्म अंधी गली के इस संवाद से इसे बखूबी समझा जा सकता है-
‘आज वक्त हमारे खिलाफ है और इसके लिए हम ही जिम्मेदार हैं, लेकिन वक्त बदलेगा….आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसो….कभी जरूर बदलेगा. मेरे रहते न हो, तुम्हारे रहते जरूर बदलेगा…..ये याद रखना.’
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‘समानांतर सिनेमा’ की धारा को मजबूत किया
अंधी गली फिल्म में उनके साथ काम कर चुकीं जानी-मानी अभिनेत्री दीप्ति नवल ने बुद्धदेब दा को याद करते हुए लिखा, ‘बंगाली सिनेमा के बेहतरीन निर्देशकों में से एक बुद्धदेब दासगुप्ता के निधन के बारे में सुनकर दुख हुआ. बुद्ध दा का न केवल एक उम्दा निर्देशक के रूप में बल्कि बेहद संवेदनशील कवि और एक अद्भुत, सौम्य इंसान के रूप में भी सम्मान है.’
समानांतर सिनेमा पर गहराई से नज़र रखने वाले जयनारायण प्रसाद कहते हैं कि उन्होंने लगभग 25 फिल्में और दर्जनों डॉक्यूमेंट्री बनाईं. उनकी शुरुआत डॉक्यूमेंट्री से हुई.
जयनारायण प्रसाद ने दिप्रिंट को बताया, ‘उनकी फिल्मों में आम आदमी की पीड़ा, उसके संघर्ष अभिव्यक्त होते थे.’
उन्होंने कहा, ‘बुद्धदेब दासगुप्ता एक व्यक्ति हैं लेकिन उनके व्यक्तित्व में तीन चीजें हैं- इकोनॉमिक्स, कविता और फिल्में.’
‘बंगाल में सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन की धारा को और मजबूत और समानांतर सिनेमा की धारा को पुष्ट करने के लिए वो आगे आये. उन्होंने अपनी शर्तों पर ही फिल्में बनाईं.’
बंगाली फिल्म जगत की मौजूदा धारा किस ओर है, इस पर जयनारायण प्रसाद ने बताया, ‘जैसे बॉलीवुड और साउथ में मसाला फिल्में बनती हैं, यहां भी ज्यादातर उसी तरह की फिल्में बन रही हैं. अपने शर्तों पर फिल्म बनाने वाले गिने चुने लोग हैं जिनमें से बुद्धदेब दासगुप्ता एक थे.’
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सिनेमा और समाज
दक्षिण बंगाल में स्थित पुरुलिया के अनारा में 1944 में बुद्धदेब दासगुप्ता का जन्म हुआ. उनके पिता भारतीय रेलवे में कार्यरत थे. उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में पढ़ाई की और बर्धमान विश्वविद्यालय के श्यामसुंदर कॉलेज और फिर कलकत्ता विश्वविद्यालय के सिटी कॉलेज में अर्थशास्त्र पढ़ाया.
सिनेमा और कविता के प्रति उनका रुझान शुरुआत से ही रहा. उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में बताया है कि जब वो मास्टर्स कर रहे थे उसी दौर में उन्होंने अपनी पहली डॉक्यूमेंट्री बनाई थी.
कॉलेज में पढ़ाने में उनका ज्यादा दिनों तक मन नहीं लगा और वे अपने समाज और उसके विरोधाभासों को चलचित्र के जरिए रेखांकित करने में लग गए.
उनके कविता प्रेम का असर उनकी फिल्मों में भी नज़र आता है. उन्होंने कहा है कि कलकत्ता फिल्म सोसाइटी ने उनकी दृष्टि को काफी बदला. वहां दिखाई जाने वाली अंतर्राष्ट्रीय फिल्मों और सिनेमा पर चर्चा ने उन्हें काफी कुछ सिखाया.
दासगुप्ता ने 1968 में 10 मिनट की अपनी पहली डॉक्यूमेंट्री द कॉन्टीनेंट ऑफ लव बनाई. उन्होंने कई डॉक्यूमेंट्री बनाई हैं. वे मानते हैं कि उनकी बनाई शुरुआती डॉक्यूमेंट्री उतनी अच्छी नहीं थी लेकिन सिनेमा के तकनीक को समझने में उन चीज़ों ने उन्हें काफी मदद की, जिससे वे आगे चलकर अच्छी फिल्में बना सकें.
हिन्दी में उन्होंने तीन फिल्में बनाईं, 1984 में अंधी गली, 1989 में बाघ बहादुर और 2013 में अनवर का अजब किस्सा.
2013 में बनी और पिछले साल ही उनकी फिल्म अनवर का अजब किस्सा रीलीज हुई. इस फिल्म में नवाजुद्दीन सिद्दीकी और पंकज त्रिपाठी हैं. इस फिल्म का एक संवाद है, जो बतौर निर्देशक बुद्धदेब दासगुप्ता की कल्पना और उनके काव्यात्मकता को रेखांकित करता है.
फिल्म के एक सीन में पंकज त्रिपाठी कहते हैं, ‘जब कॉलेज में पढ़ता था, तब सोचता था, अंटार्टिका पर जाऊंगा, वहां नॉर्थ पोल पर कहीं घर बनाऊंगा.‘
ये संवाद बताता है कि बुद्धदेब दासगुप्ता इंसानी जज्बात और उसकी आकांक्षाओं को कितनी व्यापकता के साथ देखते थे.
‘आश्चर्य के भाव’
फिल्म स्कॉलर अमृत गंगर बताते हैं, ‘दासगुप्ता अपनी फिल्मों में प्रत्येक व्यक्ति में अंतर्निहित सामाजिक-श्रेणीबद्ध तनावों और अंतर्विरोधों, आकांक्षात्मक इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं से अवगत थे.’
‘चाहे वह मोंदो मेयर उपाख्यान (2002) के एक गांव की एक वेश्या रजनी की बेटी लाली हो, या उत्तरा में बौना, जिसे ‘लंबे’ इंसानों को देखकर पीड़ा होती है.’
उन्होंने बताया, ‘बुद्धदेव ने शायद अपनी कविताओं की तरह ‘रूपक’ का निर्माण किया, जिसने दर्शकों को एक निरंकुश फासीवादी विचार के बजाय जटिल परिस्थितियों से राब्ता कराया.’
‘और इस तरह उन्होंने ‘आश्चर्य के भाव’ को बरकरार रखा.’
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‘समय से मुठभेड़’ करने वाले फिल्मकार
बुद्धदेब दासगुप्ता के सिनेमाई सफर की शुरुआत उस दौर में हुई जब बंगाल में नक्सल आंदोलन अपने उरूज पर था. बंगाल के समाज में एक हलचल थी और कई ऐसे मुद्दे थे जिससे लोग सीधे तौर पर प्रभावित थे.
जयनारायण प्रसाद बताते हैं, ‘वो समय से मुठभेड़ करने वाले फिल्मकार हैं. 1970 का नक्सलबाड़ी हो या आज का समय, वो अपने सिनेमा में उसे रेखांकित करते हैं.’
प्रसाद कहते हैं, ‘बुद्धदेब दासगुप्ता संवेदनशील आदमी थे और उनकी दृष्टि पैनी और बहुत साफ थी. उनके जाने से समानांतर सिनेमा का दौर खत्म हो गया.’
फिल्म स्कॉलर अमृत गंगर बताते हैं, ‘बुद्धदेब दासगुप्ता की ट्रायलॉजी ‘दूरत्व’ (1978), ‘गृहजुद्ध’ (1982) और ‘अंधी गली’ (1984)- वैचारिक प्रतिबद्धता को जांचते हुए नक्सल आंदोलन से संबंध रखती है.’
‘नीम अन्नपूर्णा (1979) भी मानवतावाद की गहरी भावना को प्रदर्शित करती है. उदाहरण के लिए, बाग बहादुर, पारंपरिक और व्यावसायिक संस्कृतियों के बीच संघर्ष को खंगालती है.’
उन्होंने बताया, ‘दासगुप्ता ने सामाजिक ताने-बाने को सीधे-सीधे रूप में नहीं देखा, बल्कि सामंजस्य और विसंगतियों के सभी मानवीय और प्राकृतिक अंतर्विरोधों को जटिलता में देखा, जिसे उन्होंने अपने द्वारा गढ़े गए पात्रों और सामाजिक, स्थानिक असमानताओं के माध्यम से दर्ज किया.’
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कई बार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला
बुद्धदेव दासगुप्ता दो बार कलकत्ता स्थित सत्यजीत रे फिल्म इंस्टीट्यूट के निदेशक रहे. उनकी पांच फिल्मों को बेस्ट फीचर फिल्म के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला. ये फिल्में थीं- बाघ बहादुर (1989), चराचर (1993), लाल दर्जा (1997), मोंदो मेयर उपाख्यान (2002) और कालपुरुष (2008).
बेहतरीन निर्देशन के लिए 2000 में आई फिल्म उत्तरा और 2005 की स्वपनेर दिन के लिए उन्हें बेस्ट डायरेक्शन का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला.
इसके अलावा उनकी फिल्मों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी खूब सराहा गया. वेनिस फिल्म फेस्टिवल, बर्लिन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल, लोकार्नो फिल्म फेस्टिवल, कार्लोवी फिल्म फेस्टिवल, बैंकॉक इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में उन्हें सम्मानित किया गया.
अध्यापन कार्य, फिल्में बनाने के साथ-साथ बुद्धदेब दासगुप्ता कवि भी थे. बीते सालों में उनकी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं.
उनकी कविता की किताबों में गोविर अराले, कॉफिन किम्बा सूटकेस, हिमजोग, छाता काहिनी, रोबोटेर गान, श्रेष्ठ कबिता शामिल हैं.
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