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Friday, 19 April, 2024
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‘नहीं, मैं एक पुरुष हूं’- गीत चतुर्वेदी के बहाने ‘फैन कल्चर बनाम सरोकारी साहित्य’ की बहस कितनी वाजिब

हिन्दी के लेखक और कवि क्या 'समझौतावादी' हो रहे हैं और उनकी लेखनी से कौन सी चीज़ गायब है जो समाज की बैचेनी, उसके अंर्तद्वंद को सामने नहीं ला पा रही हैं.

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नई दिल्ली: लोकप्रिय कवि गीत चतुर्वेदी इन दिनों सोशल मीडिया पर चर्चा के केंद्र में हैं. 7 जून को उन्होंने एक पोस्ट शेयर की जिसके बाद से ही सोशल मीडिया पर लगातार मीम बनाए जा रहे हैं और उनकी आलोचना भी की जा रही है.

पोस्ट में गीत चतुर्वेदी ने लिखा-

उसने पूछा,
“तुम्हें प्यार करना आता है?”

मैंने कहा,
“नहीं, मैं एक पुरुष हूं।”

गीत चतुर्वेदी की इस पोस्ट के बाद ये सवाल उठ रहा है कि कवि और लेखकों की लेखनी लोकप्रियता के आधार पर होनी चाहिए या सामाजिक सरोकार के आधार पर और क्या समाज के महत्वपूर्ण मुद्दों और समस्या को हिन्दी का लेखक या कवि अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त कर रहा है?

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राजकमल प्रकाशन के संपादक सत्यानंद निरुपम ने इस मुद्दे को विस्तार देते हुए कुछ सवाल उठाए हैं.

बीते दिनों गुजरात की कवियित्री पारुल खखर की एक कविता खूब वायरल हुई जिसमें उन्होंने कोरोना के समय की चिंताओं और उससे उपजे सवालों को अपनी कविता के सहारे रखा और लोगों ने इसे अपनी अभिव्यक्ति के तौर पर खूब सराहा. दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जा सकता है कि गुजरात साहित्य अकादमी के आधिकारिक प्रकाशन में उन लोगों को ‘साहित्यिक नक्सली’ कहा गया है, जिन्होंने पारुल खक्कर की कविता पर चर्चा की या उसे आगे बढ़ाया.

लेकिन हिन्दी का विशाल वर्ग भी अपनी अभिव्यक्ति को खोजता हुआ गुजराती कविता से ही जाकर जुड़ा जिसका हिन्दी अनुवाद किया गया था. आखिर हिन्दी का लेखक ‘पाठक बनाम फैन्स ‘, ‘सामाजिकता बनाम लोकप्रियता ‘ और समय से टकराने की बहसों से क्यों पीछे रहता है?

कवि और लेखक सुधांशु फिरदौस लिखते हैं, ‘पहले कविता के पाठक और आलोचक हुआ करते थे. अब कवि के फैन और ट्रोल होते हैं.’

दिप्रिंट ने कुछ लेखक, संपादक और प्रोफेसर से बात कर ये जानने की कोशिश की कि क्या हिन्दी के लेखक और कवि ‘समझौतावादी’ हो रहे हैं और उनकी लेखनी से कौन सी चीज़ गायब है जो समाज की बैचेनी, उसके अंर्तद्वंद को सामने नहीं ला पा रही हैं.

गीत चतुर्वेदी से दिप्रिंट ने फॉन कॉल और टेक्स्ट मैसेज के जरिए उनका पक्ष जानने, हिन्दी में बढ़ते फैन कल्चर, लेखक के सामाजिक सरोकारों को लेकर बात करने की कोशिश की लेकिन रिपोर्ट प्रकाशित होने तक उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं मिला है.


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‘हिन्दी पट्टी इस दौर में दिखार हो गई है’

लेखक और दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन का काम करने वाले प्रभात रंजन ने दिप्रिंट को बताया, ‘वैचारिक और सामाजिक प्रतिबद्धता ही लेखक को बड़ा बनाती है. लोकप्रियता समय के साथ बदल जाती है.’

उन्होंने कहा, ‘जो लोग सामाजिक तौर पर सक्रिय होने का दावा करते हैं, ऐसे समय में उनकी जिम्मेदारी ज्यादा बढ़ती है. समाज कि चिंता लेखन में होनी चाहिए और ये हिन्दी की परंपरा में रही है. सामाजिक प्रतिबद्धता से ही प्रेमचंद इतने बड़े लेखक हुए हैं.’

1991 में हुए उदारीकरण के बाद भारतीय समाज काफी बदला है. उसकी अपेक्षाओं, आकांक्षाओं में काफी तब्दीली आई है. लेकिन क्या हिन्दी साहित्य में ये परिलक्षित होता है?

इस पर सत्यानंद निरुपम कहते हैं, ‘पिछले 30 सालों में समाज बहुत तेजी से बदला है और उसके भीतर सामाजिक-पारिवारिक बदलावों को हमारे साहित्य में जगह नहीं मिली है. दूसरी भाषाओं में तात्कालिक मुद्दों से टकराने की कोशिश जारी है लेकिन समाज के मुद्दों, समस्याओं को ठीक तरह से हिन्दी साहित्य में नहीं कहा जा रहा है.’

लखनऊ विश्वविद्याल में हिन्दी के असिस्टेंट प्रोफेसर रविकांत ने दिप्रिंट से कहा कि 1990 से लेकर 2010 तक दलित, आदिवासी और स्त्री जैसे विषयों को लेकर खूब लेखन हुआ है. हिन्दी कथा साहित्य, उपन्यासों, कविताओं में ये सवाल लगातार उठाए गए हैं.

उन्होंने कहा, ‘2014 में मोदी सरकार के आने के बाद जैसे ही दक्षिणपंथ का बोल-बाला शुरू हुआ तो बहुत सारे लेखकों ने पाले बदल लिए. जिस कारण महत्वपूर्ण मुद्दों पर लिखने के सवाल पीछे छूटने लगे.’

‘लेकिन ये पूरा सच नहीं है, इसी दौर में कई लेखक इस बारे में लिख भी रहे हैं और निश्चित तौर पर कईयों ने अपने को बदला भी है. कुछ बड़े नाम इस दौर में खामोश हो गए हैं, जिनसे हमें उम्मीद होती है.’

इस पर प्रभात रंजन कहते हैं, ‘हिन्दी पट्टी इस दौर में दिखार हो गई है. जो लोग पहले सक्रियता दिखाते थे वे लोग भी अभी चुप हैं.’

तात्कालिक विषयों पर लेखन न होने पर लेखक चंदन पाण्डेय कहते हैं, ‘आकस्मिक घटना को क्रिएटिव तौर पर पेश करना आसान नहीं होता है और इसके लिए समय लगता है. लेकिन एक बात तो है- अंग्रेजी में जितना नॉन-फिक्शन में काम हो रहा है उसका एक तिहाई काम भी हिन्दी में नहीं हो रहा है.’


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फैन कल्चर’

बीते सालों में लगातार ये देखा गया है कि कवि और लेखक बेस्टसेलर होने का दावा करते हैं और इसे ही लोकप्रिय होने का पैमाना भी मान लिया गया है. इससे हिन्दी का एक बड़ा पाठक वर्ग तो तैयार हुआ है जो खुद को लेखक या कवि से ज्यादा जुड़ा हुआ पाता है लेकिन इस कारण ‘फैन कल्चर’ तेजी से बढ़ा है.

सत्यानंद निरुपम ने दिप्रिंट से कहा, ‘हिन्दी में एक तरफ फैन कल्चर का आरंभ हो गया है और कुछ ऐसे लेखक भी हो गए हैं जिनके खूब सारे फैन हैं. कवियों और लेखकों को मालूम हो गया है कि वो क्या लिखेंगे तो किस तरह का रिएक्शन आएगा. वो अपनी लोकप्रियता को लगातार बढ़ा रहे हैं और इसके तौर-तरीके उन्हें पता चल गए हैं.’

उन्होंने कहा, ‘सवाल यह है कि अपनी लोकप्रियता को खतरे में डालकर आप कुछ कह पा रहे हैं या नहीं और लेखक की कोई सामाजिक जिम्मेदारी होती है या नहीं, और अगर ऐसा है तो आप रचनात्मक भूमिका के प्रति ईमानदारी रखते हुए उसे निभा रहे हैं या अपने साहित्य का लोहा मनवाने के लिए लिख रहे हैं.’

उन्होंने कहा, ‘हिन्दी में लेखकों की पहुंच और जोर बढ़ा है, फिर भी वो समझौतावादी क्यों दिख रहे हैं.’ प्रभात रंजन का मानना है कि ‘हिन्दी समाज सरकार और सत्ता से काफी बचकर चलता है.’

निरुपम कहते हैं, ‘इस बीच कई लोगों ने अच्छा भी लिखा है लेकिन बहुत कुछ अभी भी छूटा हुआ है. कोविड के कारण बीते दो महीनों में जो स्थिति हुई, उसके बाद लेखकों को जैसा व्यवहार करना चाहिए, ऐसा कुछ होता नहीं दिख रहा है.’

वो कहते हैं, ‘ऐसा नहीं है कि हिंदी के कवि इस दौर में वायरल नहीं हुए. लेकिन मंचीय कवि समाज से बेपरवाह हैं.’

‘संपत सरल की एक कविता वायरल हुई थी. हुसैन हैदरी, नेहा सिंह राठौर इसी दौर में सबकी जुबान पर चढ़े. इस दौरान पाश, दुष्यंत कुमार, हबीब जालिब, अदम गोंडवी जैसे कवि भी कम उद्धृत नहीं हो रहे. नीलोत्पल मृणाल इसी दौर में उभरे हैं. अदनान कफील दरवेश, जसिंता केरकेट्टा, फरीद खान इसी दौर में सामने आए हैं.’

प्रोफेसर रविकांत कहते हैं, ‘हिन्दी में बहुत सारे चेतन भगत पैदा हो गए हैं. आज की पीढ़ी के लिए साहित्य मनोरंजन और कमाई का साधन बन गया है. प्रेमचंद कहते थे कि साहित्य जीवन की आलोचना है लेकिन अब यथार्थ और आलोचना खत्म हो गई है.’


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‘फेक डिबेट’

सत्यानंद निरुपम ने अपनी फेसबुक पोस्ट में भी लिखा है, ‘साहित्यिक होना अलोकप्रिय होना नहीं है, लेकिन लोकप्रियता के लिए साहित्यिकता को फॉर्मूलावादी बना देना, समझौतावादी बन जाना, असुविधा में पड़ने से बचना, समय से टकराने के बजाय समय के साथ बहना- यह तो कुछ ठीक स्थिति नहीं है.’

दिप्रिंट से बात करते हुए लेखक चंदन पाण्डेय कहते हैं कि ये पूरी डिबेट (बहस) ही फेक है.

‘जो लोग बातचीत का ट्रेंड सेट करते हैं, इसे ठीक करने की उनकी ज्यादा जिम्मेदारी है. हमें लोकप्रिय और लोकलुभावना लेखन में फर्क करना चाहिए. जिसे लोकप्रिय कहा जा रहा है वो वास्तव में लोकलुभावना है और इसके लिए पाठकों की जिम्मेदारी होती है कि वो ऐसे लेखन को खारिज करें.’

चंदन पाण्डेय ने कहा, ‘लोकप्रिय लेखन हो रहा है और उसकी आलोचना करते हुए भी हम सिर्फ उसी की बात कर रहे हैं, यह कहीं न कहीं गुड कॉप और बैड कॉप का खेल है. लोकलुभावना लेखन का जो विकल्प है उसकी बात उसके आलोचक भी नहीं करना चाहते, वे भी नहीं चाहते कि सच बात सामने आए.’


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कौन हैं गीत चतुर्वेदी

गीत चतुर्वेदी हिन्दी के लोकप्रिय कवि हैं. उनकी कविताओं का युवाओं में काफी प्रभाव है. बतौर पत्रकार भी वो काम कर चुके हैं. 2007 में उनकी कविता ‘मदर इंडिया’ के लिए उन्हें भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.

गीत चतुर्वेदी ने अब तक 11 किताबें लिखी हैं. जिनमें न्यूनतम मैं, आलाप में गिरह, अधूरी चीज़ों का देवता, खुशियों का देवता उनकी कुछ चर्चित रचनाएं हैं. उनकी कविताएं कई भाषाओं में अनूदित भी हो चुकी हैं.

गीत चतुर्वेदी की जिस पोस्ट पर विवाद हो रहा है, उसे लेकर प्रभात रंजन कहते हैं, ‘उन्होंने जो लिखा वो कविता नहीं है, कविता संपूर्णता में होनी चाहिए. रचनाएं काफी तैयारी के साथ लिखी जाती है.’

कविता क्या है, इस पर रंजन कहते हैं, ‘भावों की अभिव्यक्ति ही कविता है.’ कविता क्या होती है, इसे लेकर कई कवियों ने अपनी तरह से व्याख्या की है. दिवंगत कवि कुंवर नारायण ने कहा है, ‘कविता एक ऐसी दृष्टि है जो हमें खास तरह से दुनिया को देखने और अपने अनुभवों को जानने में मदद करती है.’


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