नई दिल्ली: जल्द ही एक हाईकोर्ट में अकादमिक प्रकाशन जगत में एकछत्र राज करने वाले प्रकाशन समूह ‘बदमाश’ वेबसाइटों और साइंस के ‘रॉबिन हुड’ की बगावत खत्म करने के लिए लड़ते नज़र आएंगे. इसमें दांव पर है, साइंस और सोशल साइंस के क्षेत्र में होने वाली रिसर्च और तमाम अध्ययन सामग्री तक मुफ्त पहुंच उपलब्ध होना और नतीजे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर असरकारी हो सकते हैं.
दिल्ली हाईकोर्ट में विचाराधीन यह मुकदमा साइंस-हब और लिबजेन नामक दो वेबसाइटों के खिलाफ दायर कॉपीराइट उल्लंघन मामले से जुड़ा है, जो लाखों शोध पत्रों और पुस्तकों तक मुफ्त पहुंच प्रदान करते हैं.
ये मामला दिसंबर 2020 में एल्सेवियर, विली इंडिया, विली पीरियॉडिकल और अमेरिकन केमिकल सोसाइटी की तरफ से दायर किया गया था जो ऐसे प्रमुख वैज्ञानिक और अकादमिक प्रकाशन समूह हैं जो लांसेट और सेल सहित विभिन्न डिजिटल पत्रिकाओं की मार्केटिंग, बिक्री और लाइसेंस की जिम्मेदारी संभालते हैं. इसलिए, तीनों प्रकाशकों के पास कई वैज्ञानिक और सामाजिक विज्ञान प्रकाशनों का विशेष अधिकार हैं. उनकी मांग है कि दोनों वेबसाइटों को उनके ‘लिटरेरी वर्क’ को साझा करने से प्रतिबंधित किया जाए.
इन जर्नल ने ऑस्ट्रिया, बेल्जियम, डेनमार्क, फ्रांस, जर्मनी, इटली, पुर्तगाल, रूस, स्पेन और स्वीडन समेत कई देशों में दोनों वेबसाइटों के खिलाफ इस तरह के कॉपीराइट उल्लंघन के मुकदमे दायर कर रखे हैं.
पिछले दो वर्षों में मुकदमा कम से कम 40 बार दिल्ली हाईकोर्ट के समक्ष आया है. हालांकि, अभी तक वेबसाइटों के खिलाफ कोई अंतरिम स्टे या अस्थायी रोक नहीं लगाई गई है.
हाईकोर्ट में मामला विचाराधीन होने के बीच कई शोधकर्ताओं और शिक्षाविदों ने बयान जारी कर साइंस-हब और लिबजेन के प्रति समर्थन जताया है. उन्होंने इस बात को रेखांकित किया है कि वेबसाइटों के ऐसी सामग्री प्रकाशित करने पर किसी भी तरह का प्रतिबंध भारत में शोध पर क्या असर डालेगा.
कानूनी और वैज्ञानिक विशेषज्ञों ने एक अधिक ‘प्रक्रियागत समस्या’ की ओर इशारा करते हुए सरकार और वैज्ञानिक समुदाय से अपील की है कि वे इसका पता लगाएं कि ऐसी वेबसाइटों की आवश्यकता क्यों है. उन्होंने रिसर्च वर्क को और अधिक सुलभ बनाने के लिए प्रयास पर जोर दिया और ‘नेटफ्लिक्स फॉर रिसर्च’ का आइडिया भी सामने रखा.
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‘विज्ञान के क्षेत्र में क्रांति’
इस मुकदमे में प्रकाशकों ने एलेक्जेंड्रा एल्बाक्यान को प्रतिवादी बनाया है, जो कजाकिस्तान के एक कंप्यूटर प्रोग्रामर और साइंस-हब के संस्थापक है, जिन्हें अक्सर ‘रॉबिन हुड ऑफ साइंस’ कहा जाता है. उन्होंने लाइब्रेरी जेनेसिस या लिबजेन नामक वेबसाइट के खिलाफ भी मामला दर्ज किया है. हालांकि, लिबजेन के मालिक के बारे में अभी तक कोई जानकारी नहीं है और दिल्ली हाईकोर्ट में उनका कोई प्रतिनिधि भी नहीं है.
साइंस-हब वेबसाइट पर 8.8 करोड़ शोध लेखों और पुस्तकों का डेटाबेस होने का दावा किया जाता है जो किसी को भी पढ़ने के लिए स्वतंत्र रूप से उपलब्ध है. इसका कहना है कि पहले, ‘‘ज्ञान केवल उच्च कीमतों पर उपलब्ध था और ज्यादातर लोग इसके भुगतान में सक्षम नहीं थे, साइंस-हब ने यह सारी पेड नॉलेज मुफ्त में मुहैया कराकर विज्ञान के क्षेत्र में क्रांति ला दी है.’’
वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़ों में दावा किया गया है कि भारत 26 लाख से अधिक लेख डाउनलोड किए जाने के साथ पिछले माह साइंस-हब से सबसे अधिक पेपर डाउनलोड करने वाले देशों की सूची में तीसरे स्थान पर रहा. इसके विपरीत, मुकदमा दायर करने वाले जर्नल्स के पास कुछ ही पब्लिकेशन के लिए ओपेन एक्सेस है, जबकि उनके अधिकांश लेख केवल सबस्क्रिप्शन मॉडल पर ही उपलब्ध हैं.
इंस्टीट्यूट ऑफ मैथेमेटिकल साइंसेज, चेन्नई के एक कम्प्यूटेशनल बायोलॉजिस्ट राहुल सिद्धार्थन ने दिप्रिंट को बताया कि अमूमन आम लोगों के लिए अकादमिक पत्रिकाएं ‘बहुत अधिक महंगी’ होती हैं. उन्होंने बताया, ‘‘उदाहरण के तौर पर सेल (एक एल्सेवियर जर्नल) में 24 घंटे के लिए एक लेख की कीमत 39.95 डॉलर (लगभग 3,300 रुपये) और टैक्स अलग से है.’’
उन्होंने कहा कि सदस्यता आम लोगों और तमाम संस्थानों की ‘पहुंच से दूर’ ही बनी हुई है और देश के तमाम उच्च शिक्षण संस्थानों का मामूली हिस्सा ही अकादमिक पत्रिकाओं की सदस्यता लेता है. यही नहीं इन पत्र-पत्रिकाओं के लिए शोध लिखने वाले वैज्ञानिकों को उनके लिए भुगतान तक नहीं किया जाता और कोई रॉयल्टी भी नहीं मिलती है, इसलिए वे आम तौर पर ‘अपने काम का प्रसार होने से खुश ही होते हैं.’
उन्होंने कहा, ‘‘मुझे लगता है कि साइंस-हब को एक फ्री लाइब्रेरी के तौर पर देखा जाना चाहिए जो उन छात्रों और शोधकर्ताओं की शिक्षा के लिए काम करती है जो सदस्यता लेकर ऐसी सामग्री हासिल करने में सक्षम नहीं हैं.’’
मुकदमा दायर होने के बाद पूरी दिल्ली के विश्वविद्यालयों से संबद्ध कई सोशल साइंस शोधकर्ताओं ने कोर्ट में एक आवेदन दायर करके दलील दी कि वेबसाइटों को ब्लॉक किए जाने संबंधी कोई भी निर्णय उन पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा. दिल्ली साइंस फोरम, सोसाइटी फॉर नॉलेज कॉमन्स और 20 वैज्ञानिकों और विद्वानों के एक समूह ने भी रिसर्च के लिए इन वेबसाइटों की अहमियत समझाते हुए कोर्ट में आवेदन दायर किया है.
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डीयू फोटोकॉपी मामला
साइंस-हब का प्रतिनिधित्व अन्य लोगों के साथ-साथ अधिवक्ता नीलेश जैन भी कर रहे जो कि वेबसाइट के एक यूजर हैं. जैन ने दिप्रिंट को बताया, ‘‘2016 में दिल्ली यूनिवर्सिटी में पोस्ट-ग्रेजुएशन के दौरान मुझे साइंस-हब और लिबजेन जैसी वेबसाइटों के बारे में पता चला और मैंने अपने पेपर और प्रेजेंटेशन के लिए नियमित तौर पर उनका उपयोग करना शुरू कर दिया. मेरे पास वास्तव में उस समय सभी शोध पत्रों और पुस्तकों तक पहुंचने के लिए संसाधन नहीं थे, जिनकी मुझे आवश्यकता थी इसलिए इन वेबसाइटों से काफी बड़ी राहत मिली.’’
उन्होंने आगे दावा किया कि उस समय दिल्ली यूनिवर्सिटी में हज़ारों छात्र थे और उनके लिए सेंट्रल लाइब्रेरी में बहुत सीमित कंप्यूटर थे—और ज्यादातर बेकार ही पड़े थे. बहरहाल, सेंट्रल लाइब्रेरी में ही वे वैज्ञानिक प्रकाशकों के डेटाबेस तक पहुंच सकते थे.
संसाधनों की इस कमी को अनुभव कर चुके जैन ने दिल्ली हाईकोर्ट में मुकदमा दायर किए जाने संबंधी ट्वीट को देखते ही एल्बाक्यान की मदद करने की ठान ली. तब से वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल शंकरनारायणन और बौद्धिक संपदा वकील रोहन के. जॉर्ज सहित कई वकील एल्बाक्यान के तरफ से कोर्ट में पेश हो रहे हैं.
साइंस-हब ने जनवरी 2021 में दिल्ली हाई कोर्ट के पेश अपने बचाव जिसकी एक प्रति दिप्रिंट के पास उपलब्ध है, में वादी पत्रिकाओं के कथित रूप से शोषणकारी व्यवसाय मॉडल पर प्रकाश डाला. इसके बाद दावा किया गया कि प्रकाशकों द्वारा दायर मुकदमा कॉपीराइट अधिनियम की धारा 52(1)(ए)(i) से बाहर है. इस प्रावधान को आमतौर पर ‘फेयर डीलिंग एक्सेप्शन’ के नाम से जाना जाता है. यह शोध के साथ-साथ निजी इस्तेमाल के लिए भी साहित्यिक, नाटकीय, संगीत या कलात्मक कार्यों तक पहुंच की अनुमति देता है.
इसके अलावा साइंस-हब और लिबजेन का समर्थन करने वाले सोशल सांइंस शोधकर्ताओं ने भी धारा 52(1)(i)(i)—शिक्षा के अपवाद—पर भरोसा जताया है जो किसी शिक्षक या कोर्स अध्ययन करने वाले छात्र के कॉपीराइट वर्क को रिप्रोड्यूस करने की अनुमति देता है.
विशेषज्ञों की तरफ से ऐतिहासिक डीयू फोटोकॉपी मामले का भी हवाला दिया गया, जिसमें ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस (ओयूपी), कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस (सीयूपी) और टेलर एंड फ्रांसिस (टीएंडएफ) ने रामेश्वरी फोटोकॉपी सर्विस को अदालत में घसीटा था. फोटोकॉपी की इस छोटी-सी दुकान को दिल्ली यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रम में निर्धारित पुस्तकों से संबंधित अंशों की फोटोकॉपी संकलित करने और छात्रों को मुहैया कराने के लिए कोर्स पैक बनाने का लाइसेंस था.
इस मामले ने शिक्षा पर खर्च और पहुंच के संबंध में इसके प्रभाव पर जनता का ध्यान आकृष्ट किया था. हाईकोर्ट की एकल जज पीठ ने सितंबर 2016 में मुकदमे को खारिज करते हुए कहा कि फोटोकॉपी वाली दुकान का कृत्य प्रकाशकों के कॉपीराइट के उल्लंघन नहीं माना जा सकता.
देश की सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं को ध्यान रखकर निष्पक्ष व्यवहार और शिक्षा को अपवाद मानने पर भरोसा जताने वाले इस फैसले को शिक्षा तक पहुंच के लिहाज़ से एक बड़ी जीत माना गया.
दिसंबर 2016 में, दिल्ली हाईकोर्ट की ही एक खंडपीठ ने शिक्षा एक अपवाद होने की व्याख्या करते हुए प्रावधान किया था कि जब तक कोई दिया गया कार्य शैक्षिक निर्देश के उद्देश्यों के लिए आवश्यक है तब तक इसे पुन: प्रस्तुत किया जा सकता है.
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‘हाइड्रा-हेडेड दुष्ट वेबसाइट्स’
हाईकोर्ट के समक्ष प्रकाशकों ने मांग की है कि इन वेबसाइटों को स्थायी रूप से ब्लॉक किया जाए क्योंकि ये रोग यानी ‘दुष्ट’ हैं. यह शब्दावली दिल्ली हाईकोर्ट के एक फैसले से आती है, जो उसने 10 अप्रैल 2019 को जारी किया था. इस फैसले में कोर्ट ने लगभग 30 टोरेंट वेबसाइट्स को पायरेटेड फिल्में और शो दिखाने से रोक दिया था और इंटरनेट सेवा प्रदाताओं (आईएसपी) को इन वेबसाइटों पर प्रतिबंध लगाने का निर्देश भी दिया था.
उस मामले में ट्वेंटिएथ सेंचुरी फॉक्स और यूटीवी सॉफ्टवेयर कम्युनिकेशन लिमिटेड जैसी फिल्म निर्माण कंपनियों ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था, जिनका आरोप था कि ये वेबसाइटें उनकी कॉपीराइट सामग्री (फिल्में, टेलीविजन शो आदि) को स्ट्रीमिंग और डाउनलोड करने की अनुमति देती हैं. इन प्रोडक्शन कंपनियों का पक्ष लेते हुए कोर्ट ने कहा था कि ‘डिजिटल पायरेसी ने फिल्म उद्योग को नुकसान पहुंचाया है.’ इसने फैसला सुनाया कि कुछ वेबसाइटों—जिन्हें ‘दुष्ट वेबसाइट’ माना जाता है—को ऐसी कॉपीराइट वाली सामग्री के विशिष्ट यूआरएल प्रतिबंधित करने के बजाये पूरी तरह अवरुद्ध किया जा सकता है. कोर्ट ने किसी वेबसाइट को ‘दुष्ट’ के तौर पर वर्गीकृत करने वाले नौ फैक्टर भी निर्धारित किए.
याचिकाकर्ता जर्नल अब चाहते हैं कि साइंस-हब और लिबजेन जैसी वेबसाइटों को ‘दुष्ट वेबसाइट’ के तौर पर वर्गीकृत किया जाए और यह भी चाहते हैं कि उनके खिलाफ प्रभावी तौर पर एक रोक लगा दी जाए.
दिल्ली हाईकोर्ट ने 2019 के उसी फैसले में प्रभावी निषेधाज्ञा के उपाय निर्धारित किए थे, जो ‘हाइड्रा-हेडेड’ वेबसाइटों के खतरे दूर करने के लिए था. ऐसी वेबसाइट प्रतिबंधित होने के बाद अपनी सामग्री तक पहुंच के लिए कई मिरर या वैकल्पिक लिंक बना लेती है हैं. ऐसे में यदि किसी एक मामले में प्रभावी निषेधाज्ञा लागू होती हैं तो प्रकाशकों को किसी नए डोमेन या मिरर वेबसाइटों को बंद कराने के लिए न्यायाधीशों के पास जाने की जरूरत नहीं होगी और वे नए इन्हें बंद कराने के लिए कोर्ट के ज्वाइंट रजिस्ट्रार के पास जा सकते हैं. हालांकि, विशेषज्ञों ने कुछ मामलों में ‘अस्पष्ट’ और ‘अति व्यापक’ होने को लेकर इस उपाय की आलोचना की और यह सुनिश्चित करने के लिए तंत्र की मांग की है कि निषेधाज्ञा वैध और आनुपातिक हो.
दिसंबर 2020 में साइंस-हब ने कोर्ट को अंडरटेकिंग दी कि वह अपनी वेबसाइट पर कोई नया पेपर अपलोड नहीं करेगा. 6 जनवरी 2021 को कोर्ट ने कहा कि यह अंडरटेकिंग अगली सुनवाई तक जारी रहेगी. हालांकि, बाद के किसी भी अदालती आदेश ने इसे आगे नहीं बढ़ाया गया. 5 सितंबर 2021 को एल्बाक्यान ने साइंस-हब की 10वीं वर्षगांठ मनाने के मौके पर 23 लाख से अधिक नए लेखों के प्रकाशन की घोषणा की.
उसी महीने, प्रकाशकों के वकीलों ने यह दावा करते हुए मामला कोर्ट के समक्ष उठाया कि साइंस-हब ने अपने वादे का उल्लंघन किया है. हालांकि, साइंस-हब ने कहा कि अंडरटेकिंग खत्म हो गई थी क्योंकि अदालत ने अपने जनवरी के आदेश के बाद इसे आगे नहीं बढ़ाया था.
मामले की अगली सुनवाई इस साल 12 जुलाई को होगी और अदालत इस पर विचार करेगी कि क्या इस मामले में अंतरिम पाबंदी लगाई जानी चाहिए.
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शोध के लिए भी एक नेटफ्लिक्स हो?
बौद्धिक संपदा ब्लॉग स्पाइसीआईपी के प्रबंध संपादक स्वराज पॉल बरूआ ने कहा कि मामला चाहे जिस भी रास्ते पर जाए, इसने एक महत्वपूर्ण सवाल सामने ला दिया है, जिस पर वैज्ञानिक समुदाय और सरकार को ध्यान देने की जरूरत है.
उन्होंने कहा, ‘‘यह सवाल इस पर गौर करने से उपजा है कि साइंस-हब और लिबजेन जैसी साइटें अस्तित्व में क्यों आईं और क्यों इस हद तक लोकप्रिय हो गईं. यह समझना होगा कि इन साइटों ने अपनी ऐसी मजबूत जगह कैसे बना ली यह सब अधिक प्रणालीगत मुद्दों की ओर इशारा करता है जिन पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है.’’
बरुआ ने कहा कि जब तक कॉपीराइट अधिनियम की धारा-52 के तहत वास्तव में अपवाद के उपयोग करने संबंधी कोई व्यावहारिक तरीका नहीं अपनाया जाता, तब तक यह सब ‘महज कागज़ी’ प्रावधान बना रहेगा. उन्होंने सवाल उठाया, ‘‘जर्नल्स के लेख पेवॉल्स पर होने और पेवॉल्स के उल्लंघन पर कानूनी प्रतिबंधों के खतरे के साथ तकनीकी ज्ञान की आवश्यकता को देखते हुए कोई वास्तव में व्यक्तिगत उपयोग या रिसर्च उद्देश्य के अपवाद का वास्तविक फायदा कैसे उठा सकता है.’’
उन्होंने आगे कहा कि यदि कोई शोधकर्ता वास्तव में निष्पक्ष व्यवहार अपवाद का लाभ उठाना चाहता है और शोध के लिए किसी कॉपीराइट वर्क का इस्तेमाल करना चाहता है—जिसकी कानूनी अनुमति है—तो ‘ऐसा करने का अमूमन कोई स्पष्ट तरीका नहीं है’, क्योंकि जर्नल्स के लेख पेवॉल्स के साथ होते हैं. बरूआ का मानना है कि इसे संभव बनाने के कई और तरीके हैं. उदाहरण के तौर पर उन्होंने बताया कि सार्वजनिक पुस्तकें और समाचार पत्र अधिनियम, 1954 के वितरण के लिए देश में प्रत्येक प्रकाशन की दो प्रतियों को भारत में दो सार्वजनिक पुस्तकालयों में जमा करने की आवश्यकता होती है.
हालांकि, बरूआ ने इसे भी नाकाफी बतया और कहा कि यह प्रावधान, ‘‘बहुत ज्यादा अमल में न आने की वजह से सिर्फ दिखावटी बना हुआ है. साथ ही जोड़ा, ‘‘यदि इसका पालन किया जा रहा होता, तो शायद पहले से आंशिक ही सही वास्तविक तौर पर लाभ उठाने का एक तरीका तो बना होता जो हमारे कानून में फेयर डीलिंग का अपवाद होता.’’
कम्प्यूटेशनल बायोलॉजिस्ट, सिद्धार्थन ने कहा, ‘मैंने देखा है कि मामूली कॉलेजों के छात्र भी ओपन कोर्सवेयर के माध्यम से ऑनलाइन सीखते हैं और उत्साहपूर्वक साइंटिफिक लिटरेचर भी पढ़ते हैं.’’
ऐसे में, उनकी राय है कि ऐसे छात्रों के लिए साइंटिफिक लिटरेचर तक एक्सेस रोकना ‘गंभीर हानिकारक’ होगा. उनके मुताबिक, इसका समाधान वैज्ञानिक प्रकाशन उद्योग को आम जनता के लिए किफायती पहुंच के विकल्पों का पता लगाने के लिए प्रोत्साहित करने में निहित हो सकता है.
उन्होंने बताया, ‘‘20 साल पहले फिल्म और संगीत उद्योग में नैप्स्टर, बिटटोरेंट आदि को लेकर इसी तरह की घबराहट उभरी थी. उस समस्या को प्रतिबंधों के माध्यम से नहीं बल्कि आईट्यून्स, अमेज़न प्राइम और नेटफ्लिक्स जैसी सस्ती वैधानिक सेवाओं के माध्यम से उसी सामग्री की पेशकश के माध्यम से हल किया गया है.’’
उन्होंने कहा, ‘‘लोगों को एक तय सीमा तक भुगतान करने में कोई दिक्कत नहीं होगी.’’
(अनुवाद: रावी द्विवेदी | संपादन: फाल्गुनी शर्मा)
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