बिहार के सहरसा जिला के विशनपुर गांव में जब एक दिन सुनील शाह अपने घर में खाना खा रहे थे उसी वक्त उनके पड़ोसी आकर उन्हें बताते हैं कि उनकी पुश्तैनी जमीन पर कोई कब्जा कर रहा है. शाह तुरंत हरकत में आ जाते हैं क्योंकि राज्य में भूमि के रिकॉर्ड्स का डिजिटाइजेशन तेजी से चल रहा है जिसमें घर-घर जाकर जमीन के कागजात मांगे जा रहे हैं. शाह को पता है कि अगर वे अपनी जमीन के कागज नहीं दिखा पाए तो वे उसे हमेशा के लिए खो बैठेंगे.
घर के आंगन में बैठकर खा रहे शाह तुरंत खाना छोड़कर उठते हैं और कुछ लोगों के साथ लाठी लेकर अपने खेतों की ओर बढ़ जाते हैं लेकिन उनकी वापसी बुरी तरह घायल और खून में लथपथ शरीर से होती है. जमीन पर कब्जा करने वाले दबंग लोगों ने उनके साथ बुरी तरह मारपीट की.
शाह का कहना है कि उन्होंने कभी भी अपनी पुश्तैनी जमीन नहीं बेची. उनका दावा है कि जिस 18 कट्ठा जमीन को लेकर विवाद है, उसके कुछ हिस्से को उनके ही गांव के एक दबंग व्यक्ति अशरफी मुखिया ने फर्जी तरीके से अपने नाम करा लिया.
बिहार में बीते कुछ महीनों में तेज हुए भूमि सर्वे ने ऐसे कई मामलों को जन्म दिया है. सर्वे का काम राज्य के 20 जिलों में तेजी से चल रहा है, जिसके कारण इस तरह के मामले बढ़ गए हैं. भूमि को कब्जाने और उससे जुड़े अपराध में बेतहाशा वृद्धि देखी जा रही है. पड़ोसी आपस में लड़ रहे हैं, भाईयों में टकराहट बढ़ गई है, रिश्तों में दरार आने लगी है, जो अंत में खूनी संघर्ष का रूप लेती है और मामला वर्षों तक जिला अदालतों में धूल फांकता है.
शाह की स्थिति भी कुछ इसी तरह की है. उनका मामला सहरसा के जिला अदालत में कई सालों से चल रहा है जिसकी तुरंत सुनवाई की दरकार है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राज्य में भूमि के रिकॉर्ड्स के डिजिटाइजेशन को पूरा कराने के लिए 2024 का लक्ष्य रखा है और उम्मीद जताई है कि भूमि विवाद के मामले इससे काफी घट जाएंगे.
लेकिन सबसे पहले प्रशासन को यह सुलझाना पड़ेगा कि वास्तव में भूमि का रैयत (मालिक) है कौन?
लेकिन इस बीच जिला अदालतों में भूमि विवाद के मामले बढ़ गए हैं पर न्याय मिलने में कई वर्षों का इंतज़ार करना पड़ सकता है. और शाह के पास अब समय बिल्कुल भी नहीं है.
निराशा में डूबे हुए सुनील शाह बताते हैं, ‘अपनी जमीन को वापस पाने के लिए मैं कई दिनों से दफ्तरों के चक्कर लगा रहा हूं और अब सर्वे भी सिर पर आ गया है. अगर सर्वे करने वाले आ गए और मैं अपने जमीन के कागज नहीं दिखा पाया तो, जमीन से हमेशा के लिए हाथ धो बैठूंगा.’
सिर्फ बिहार ही नहीं बल्कि भारत के कई राज्यों में भी यही हाल है. क्योंकि ग्रामीण भारत में ज्यादातर भूमि के रिकॉर्ड्स व्यवस्थित ढंग से मौजूद नहीं है. अतीत में केंद्र सरकार ने इस दिशा में जरूर कुछ कदम उठाए लेकिन वे सारे असफल ही हुए. इसी को आगे बढ़ाते हुए 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डिजिटल इंडिया लैंड रिकॉर्ड्स मॉर्डनाइजेशन प्रोग्राम लांच किया. गुजरात, आंध्र प्रदेश समेत कई राज्य जमीन के सर्वे को लेकर आगे आए लेकिन काम की गति सही तौर पर नहीं बढ़ी. अभी तक किसी भी राज्य में सर्वे का काम पूरा नहीं हो सका है.
सर्वे का मुद्दा इतना बड़ा हो गया है कि चुनाव वाले राज्य गुजरात में यह राजनीतिक मामला बन चुका है. आम आदमी पार्टी (आप) के प्रमुख और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने राज्य में फिर से सर्वे कराने का वादा किया है. बता दें कि 2018 में गुजरात भाजपा ने किसानों की तरफ से 18 हजार आपत्तियां मिलने के बाद सर्वे पर रोक लगा दी थी.
हालांकि बिहार में भूमि सर्वे कहीं-कहीं 2011 से ही चल रहा है लेकिन राज्य में 96.3 प्रतिशत गांवों में अभी तक सर्वे नहीं हो पाया है. राज्य सरकार ने हाल ही में 20 जिलों के 89 जोन में 208 कैंपों के जरिए सर्वे का काम तेज किया है. लेकिन अभी तक किसी भी जिले में यह पूरा नहीं हुआ है और इस बीच पंचायतों, पुलिस स्टेशन और अदालतों में भूमि विवाद के मामले उफान पर है.
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जिला अदालतों पर बढ़ता दबाव
सहरसा के जिला अदालत में हजारों लोगों की भीड़ रोज की बात है. अदालत का पुराना ढांचा वर्तमान में भी अपना इतिहास बनाए हुए है. पुराने पंखे चर्र-चर्र की आवाज़ तो करते हैं लेकिन शोर के बीच सिर्फ लोगों का दर्द ही रह जाता है.
सहरसा जिला अदालत में वरिष्ठ वकील भोगेंद्र मिश्रा इन दिनों भूमि विवाद के ही मामलों से घिरे रहते हैं. उनके हाथों में एक पेपर है जिसमें सात मामले दर्ज हैं, जो एक ही दिन में उनके पास आए हैं और सारे के सारे मामले भूमि से ही जुड़े हैं. इनमें तीन आपराधिक और बाकी सिविल मुद्दे हैं.
मुंह में पान चबाते हुए मिश्रा कहते हैं, ‘सरकार कहती है कि सर्वे से भूमि विवाद कम हो जाएंगे लेकिन ऐसा होता नहीं दिखता. इसने केवल मामलों को कई गुना बढ़ाया ही है. विवादों के लिए मिश्रा सर्वे को ही जवाबदेह ठहराते हैं.’ उन्होंने कहा, ‘लोगों की जमीन चोरी हो रही है. सब के पास अपनी जमीन के कागज उपलब्ध नहीं है और यह पूरी प्रक्रिया काफी महंगी है.’
मिश्रा के पास इन दिनों जो लोग आ रहे हैं, उनमें ज्यादातर वे हैं जिन्हें सर्वे में मांगे जा रहे कागजातों, टाइटल को निरस्त करने और जमाबंदी के बारे में जानकारी चाहिए. अदालतों के अलावा स्थानीय पुलिस स्टेशन में भी भूमि विवाद से जुड़े मामलों की बाढ़ आई हुई है.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक बिहार में जमीन विवाद अपराध के मुख्य कारणों में से एक है. बीते 2-3 सालों में नीतीश कुमार सरकार ने भूमि से जुड़े मुद्दों के निपटारे को लेकर कई प्रयास किए हैं लेकिन अभी तक उनके नतीजे ज्यादा बेहतर नहीं आए हैं.
पिछले साल बिहार में जमीन विवाद के 3,336 मामले आए थे. कुल 1081 मर्डर के मामलों में 635 हत्याएं संपत्ति के विवाद के कारण ही हुए थे, जो कि कुल हत्याओं का 59 प्रतिशत है.
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क्या सर्वे से बदल जाएंगे हालात?
बिहार सरकार दावे के साथ कह रही है कि भूमि सर्वे पूरा होने से जमीन विवाद के मामले कम हो जाएंगे. राजस्व विभाग में भूमि रिकॉर्ड्स के निदेशक जय सिंह ने इसे पूरा करने के लिए दो साल का लक्ष्य रखा है, जिसे सरकारें कई दशकों में नहीं कर पाई है. अक्टूबर में सिंह ने 50 कर्मचारियों पर सर्वे के काम को लेकर असंतुष्ट होने के कारण कड़ी कार्रवाई की थी. सिंह भी अपने शीर्ष अधिकारियों के निर्देश पर इस पूरी प्रक्रिया पर नज़र बनाए हुए हैं. नीतीश कुमार ने जिला स्तर पर सभी अधिकारियों को सर्वे के काम की गति बढ़ाने के लिए स्पष्ट निर्देश दिए हैं.
सहरसा के अतिरिक्त जिलाधिकारी (एडीएम) बिनय कुमार मंडल, जिले में भूमि से जुड़े मसलों के शीर्ष अधिकारी हैं. उन्होंने पूरे विश्वास से कहा कि इससे मामलों में कमी आएगी लेकिन साथ ही यह भी माना कि मुख्यमंत्री द्वारा तय किया गया दो साल का लक्ष्य ‘कई चुनौतियां’ लिए हुए है.
उन्होंने कहा, ‘ड्रोन्स और कैमरा के जरिए पूरे बिहार का हवाई सर्वेक्षण कर लिया गया है और उस आधार पर मैप भी तैयार किया जा चुका है.’ और अब सर्वे करने वालों को सरकार ने इलेक्ट्रॉनिक टोटल स्टेशन (ईटीएस) मशीन दी है ताकि जमीन की नपाई का काम जल्दी और सटीकता से किया जा सके.
मंडल ने कहा, ‘विवाद तो यहां जरूर है लेकिन कई चीज़ें अभी स्पष्ट नहीं है. जैसे ही सर्वे होगा वैसे ही लोगों को सारी चीज़ें मालूम हो जाएंगी.’
लेकिन ड्रोन्स, कैमरा और हाई-टेक मशीने इन भूमि विवादों के पीछे के सारे सवालों के जवाब देने में नाकाफी है. आखिरकार जमीन का असल रैयत (मालिक) है कौन?
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औपनिवेशिक विरासत
सवाल का जवाब करीब एक सदी पहले जाकर मिल सकता है. 1902 में ब्रिटिश सरकार ने बिहार में जमीन का सर्वे कराया था, जिसे कैडेस्ट्रल सर्वे कहा जाता है. 1965 में आजाद भारत में फिर से नए सिरे से सर्वे शुरू हुआ, जिसे रिवीज़नल सर्वे कहा गया लेकिन कई खामियों और बढ़ते विवादों के कारण ये अपने अंजाम तक नहीं पहुंच सका.
भूमि के स्वामित्व के लिए रिवीजनल सर्वे के दौरान भी आधार के तौर पर कैडेस्ट्रल सर्वे को ही लिया गया. पटना के एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज में सहायक प्रोफेसर अविरल पांडे बताते हैं, ‘उस समय लोगों में साक्षरता काफी कम थी. लोग जागरूक नहीं थे और संसाधनों की भी कमी थी. इस कारण कई लोगों के पास कागजात उपलब्ध नहीं हो सके.’
हालांकि विवाद ब्रिटिश शासन के वक्त भी हुए लेकिन पांडे का मानना है कि उस समय का प्रशासन लोगों के हित में नहीं थी. ‘उन्होंने सर्वे के काम में तेजी दिखाई लेकिन आज के लोकतंत्र में लोगों को नाराज कर के इस तरह के काम को तेजी से नहीं कराया जा सकता.’
सरकार के पास जमीन के सारे कागजात उपलब्ध होने चाहिए थे लेकिन पांडे ने कहा, ‘टाइटल विवादों में पता चलता है कि कागज सरकार के पास भी मौजूद नहीं है.’
भूमि के रिकॉर्ड्स उस दौरान भी क्षतिग्रस्त हुए जब बिहार में कई नए जिले बने. समय के साथ भी कागजों को नुकसान पहुंचा. डिजिटाइजेशन की प्रक्रिया में भी मैन्यूल ढंग से ही जमीन का डेटाबेस तैयार किया जा रहा है और थोड़ी सी भी गलती रैयतों (जमीन मालिकों) को मुसीबत में डाल सकती है.
पांडे ने बताया, ‘इस व्यवस्था ने लोगों को परेशान और निराश कर दिया है. लोगों से दस्तावेज मांगकर सरकार अपनी नाकामी जनता पर डाल रही है.’
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कागजातों की दुरूह खोज
कौतूहल और घबराहट इन दिनों बिहार के पंचायत सरकार भवनों में आम बात हो चली है. ऐसा ही एक भवन जो कि सहरसा से 15 किलोमीटर दूर स्थित है, जो बांस के बड़े-बड़े पेड़ों से घिरा है और सामने दूर तक फैले खेत हैं.
62 वर्षीय कपलेश्वर पासवान से बेहतर पंचायत सरकार भवन को कोई नहीं जानता. वे अक्सर दो छड़ियों की मदद से यहां आते हैं और अपनी 21 डिसमिल जमीन के लिए सरकारी अधिकारियों के चक्कर काट रहे हैं, जो उन्होंने अपने पिता से विरासत में पाई है. लेकिन सर्वे के दौरान ही उन्हें पता चला कि 21 में से 9 डिसमिल जमीन बिक गई है. उनका दावा है कि जमीन की रजिस्ट्री गलत तरीके से हुई है.
उन्होंने कहा, ‘जब स्पेशल सर्वे के दौरान मुझसे जमीन के कागज मांगे गए तो मुझे इस बारे में पता चला.’ इसी वजह से उन्हें पंचायत सरकार भवन की राह बार-बार देखनी पड़ती है. उन्होंने कहा, ‘जमीन की रसीद उन्हें नहीं दी जा रही है क्योंकि इलाके के दबंग व्यक्ति ने कुछ हिस्सा बेच दिया है.’
पतरघट के पंचायत सरकार भवन में इन दिनों रोज ही रैयत फाइल्स और दस्तावेजों के साथ आ रहे हैं और स्वामित्व का दावा कर रहे हैं. लेकिन घंटों के इंतजार के बाद उन्हें निराशा के साथ ही घर लौटना पड़ता है.
पतरघट में चल रहे सर्वे कैंप के प्रभारी राहुल कुमार, पंचायत भवन में मुखिया के लिए आवंटित कमरे में बैठकर काम करते हैं. अपने दो सहयोगियों के साथ कमरे में घुसते हुए उन्होंने बताया, ‘अभी जो सर्वे चल रहा है वो 1965 के रीविजनल सर्वे के आधार पर हो रहा है. लेकिन उस सर्वे में काफी खामियां थीं और वो कई जगहों पर अमान्य भी है.’
जमीन के रैयत (मालिक) अपनी जमीन के कागजात ढूंढने में इन दिनों व्यस्त हैं. कुमार ने कहा, ‘किसी के पास कागज नहीं है. अगर किसी के पास है भी तो वो अपने भाईयों को नहीं दे रहा है क्योंकि उसे अपने नाम पर सारी जमीन चाहिए.’
सहरसा के ही रहने वाले विनोद कुमार जब अपने भाईयों से जमीन के कागज मांगते हैं तो वे देने से इनकार कर देते हैं. उनके पास न ही अपने जमीन के कागज हैं और न ही सर्वे दफ्तर और ब्लॉक में ही कागजात उपलब्ध हैं. उन्होंने कहा, ‘हम पहले से ही लड़ रहे हैं और अगर गलत सर्वे हो गया तो विवाद और बढ़ेगा ही.’
ग्रामीण स्तर पर भूमि के रिकॉर्ड्स रखने वाले और जमीन के जानकार जोगेंद्र चौधरी का कहना है कि खतियान में अंतर, वंशवृक्ष में दिक्कत, बहुत सारी जमीन के बारे में भूस्वामी को जानकारी न होना, कुछ ऐसे कारण है जो सर्वे के दौरान विवाद को बढ़ा रहे हैं और यह सफल होता हुआ नहीं दिखता है.
भूमि विवाद प्रशासनिक तौर पर एक भयानक स्वप्न बन चुका है. इस प्रक्रिया के तहत रैयतों को अपनी जमीन के कागज दिखाने होते हैं जिनका पुराने खतियान से मिलान किया जाता है. उसके बाद ही प्रशासन की तरफ से जमीन की नापी कर के रैयतों को लैंड पार्सल मैप (एलपीएम) दिया जाता है. अगर इसमें कोई खामी होती है तो जमीन मालिकों को अपील करने का भी अधिकार हासिल है.
सहरसा के जिला सहायक बंदोबस्त अधिकारी नीरज कुमार ने कहा कि अगर जमीन के कागज मौजूद नहीं है या विवाद की स्थिति के लिए एक मैकेनिज्म मौजूद है. उन्होंने कहा, ‘वैसी स्थिति में हम रैयतों के पास जाते हैं और मामले की जांच करते हैं.’
बिहार और अन्य राज्यों के ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए गांववालों में भय की स्थिति है और कईयों का दावा है कि कागज और डिजिटाइजेशन के कारण उनका शोषण हो रहा है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 2020 में कहा था कि राज्य में 60 प्रतिशत से ज्यादा आपराधिक मामले जमीन से जुड़े हैं.
वहीं इस जटिल प्रक्रिया में सरकारी अधिकारियों को भी काफी जूझना पड़ता है, जिनके पास असंख्य तादाद में मामले आते हैं.
सहरसा कलेक्ट्रेट के एक वरिष्ठ कर्मचारी ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, ‘डीएम के दफ्तर में 75 प्रतिशत से ज्यादा मामले जमीन विवाद के आते हैं. लोगों के मामले अदालत में होते हैं फिर भी वे शिकायत लेकर प्रशासन के पास आ जाते हैं.’ यही स्थिति स्थानीय पुलिस थानों में भी है जहां हर सप्ताह जनता दरबार लगाया जाता है.
जमीन विवाद के मामलों के निपटारे में देरी की एक वजह राज्य में अमीनों की भारी कमी भी है. हालांकि नीतीश कुमार सरकार ने हाल ही में 8 हजार से ज्यादा अमीन की भर्ती की प्रक्रिया शुरू की है, जो सभी सिविल इंजीनियर हैं. लेकिन एक सरकारी अमीन ने कहा कि जिन नए अमीनों की भर्ती की जा रही है उनमें कौशल की कमी है और उन्हें ठीक तरह से ट्रेनिंग नहीं दी गई है.
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ग्राम कचहरी में भी नहीं सुलझते मामले
भूमि से जुड़े विवादों को सुलझाने के लिए बिहार सरकार ने ग्रामीण स्तर पर सरपंचों को सशक्त बनाया है, जिसके तहत ग्राम कचहरी में मामलों की सुनवाई होती है. पहले की तुलना में अब सप्ताह में दो बार पंचायत होती है ताकि मामलों का निपटारा जल्दी से हो सके.
ऐसे ही मामलों ने इन दिनों टमाटर पासवान को व्यस्त कर रखा है. विशनपुर पंचायत के सरपंच के पास भूमि विवाद की लंबी लिस्ट है और असंख्य कहानियां भी, जिनसे उनका रोज राब्ता होता है. अपने घर के आंगन के बाहर बांस के मचान पर कुछ लोगों की उपस्थिति के बीच पासवान विवादों की कहानियां इत्मीनान से सुनाते हैं.
टमाटर पासवान ने बताया, ‘ज्यादातर लोगों के पास जमीन के कागज नहीं हैं. इसलिए विवाद बढ़ रहा है. कभी-कभी लड़ाई भी हो जाती है. साथ ही लोगों में यह भी भय है कि उनकी विवादित जमीन बिहार सरकार को न चली जाए.’
अविरल पांडे कहते हैं कि बिहार में जमीन सिर्फ स्वामित्व से जुड़ा मसला नहीं है बल्कि यह सम्मान और सामाजिक प्रतिष्ठा को प्रदर्शित करता है. और इस बीच सभी की उम्मीद सिर्फ जिला अदालतों से ही है. इसी साल मई में आरा की एक अदालत ने भूमि विवाद के 108 साल के मामले में फैसला सुनाकर, इस उम्मीद को बरकरार रखा है.
भोगेंद्र मिश्रा कहते हैं, ‘अदालतों में तो न्याय होता है, भले ही देरी हो जाए. लेकिन इस लंबी प्रक्रिया के बीच कभी-कभी कुछ लोग मर भी जाते हैं.’
हालांकि कुछ लोग तो शांति से अदालतों की देरी भी सहे जा रहे हैं लेकिन सर्वे ने लोगों के बीच खतरे को बढ़ा दिया है. भूमि रिकॉर्ड्स के डिजिटाइजेशन ने न केवल नए द्वंद को जन्म दिया है बल्कि दशकों से शिथिल पड़े पारिवारिक विवादों को भी अब हवा दे दी है.
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