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Thursday, 28 March, 2024
होमदेश‘अदालतों को वर्कप्लेस नहीं माना जाता’-हापुड़ में 13 महिला जजों, 200 वकीलों के लिए सिर्फ 1 टॉयलेट इस्तेमाल के लायक

‘अदालतों को वर्कप्लेस नहीं माना जाता’-हापुड़ में 13 महिला जजों, 200 वकीलों के लिए सिर्फ 1 टॉयलेट इस्तेमाल के लायक

भारतीय न्यायपालिका में महिलाओं के तेजी से उभरने के मामले में हापुड़ को तो एक मिसाल होना चाहिए. लेकिन यहां कोर्ट के शौचालय कुछ और ही तस्वीर पेश करते हैं.

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नई दिल्ली: स्टेनलेस स्टील पाइप बनाने के लिए ख्यात पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक छोटा-से जिले का जूडिशियल सिस्टम देश के किसी भी अन्य जिले के लिए ईर्ष्या का सबब बन सकता है. वजह, यहां पर 13 महिला जज हैं और महिला वकीलों की संख्या भी 200 से ऊपर है.

हापुड़ को तो छोटे शहरों में न्यायपालिका, खासकर न्यायाधीशों के स्तर में महिलाओं की बढ़ती संख्या के मामले में एक मिसाल होना चाहिए. लेकिन यहां अदालतों का चरमराता बुनियादी ढांचा, महिलाओं के हौसले एकदम पस्त कर देने वाला है. इसमें सबसे बड़ी कमी तो टॉयलेट की सुविधा न होना ही है.

हापुड़ जिला अदालत में वैसे तो महिलाओं के लिए चार छोटे टॉयलेट हैं लेकिन इनमें से सिर्फ एक ही चालू है. हालांकि, इसका दरवाजा टूट गया है और महिलाओं के लिए प्राइवेसी जैसा कुछ नहीं बचा है. यहां तक कि इसमें पानी भी नहीं आता है.

हाल ही में एक दोपहर उस समय अजीब स्थिति उत्पन्न हो गई जब जज श्वेता दीक्षित के पॉक्सो कोर्ट रूम, कॉरिडोर और चैंबर से पेशाब की बदबू आने लगी.

कोर्ट रूम की एक स्टाफ इंद्रायी द्विवेदी ने बताया कि वह आमतौर पर यहां टॉयलेट इस्तेमाल नहीं करतीं, यहां तक कि अपने पीरियड के दौरान भी नहीं. भले ही घर पहुंचने तक आठ घंटे इंतजार क्यों न करना पड़े. घुंघराला नाम के नजदीकी गांव की रहने वाली अपने परिवार की पहली वकील गुरबहार चौधरी को इस्तेमाल लायक एकमात्र टॉयलेट तक पहुंचने के लिए पुरुषों से भरे एक संकरे से रास्ते से होकर जाना पड़ता है.

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कई लोगों ने कहा कि यह विडंबना ही है कि इतनी सशक्त महिलाओं वाली कोर्ट में यह स्थिति है. यहां तक कि जिले में शीर्ष तीन पदों—जिला मजिस्ट्रेट (डीएम), अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट (एडीएम) और मुख्य विकास अधिकारी (सीडीओ)—पर भी महिला अधिकारी ही हैं. लेकिन महिलाओं को अपनी शिक्षा और नौकरी के जरिए मिलने वाला सारा आत्मविश्वास तब कमजोर पड़ जाता है जब उन्हें इस तरह के घटिया बुनियादी ढांचे और कार्यस्थलों में साफ-सुथरे टॉयलेट की कमी का सामना करना पड़ता है. यह कोई मामूली बात नहीं है.

देश के पूर्व चीफ जस्टिस एन.वी. रमन्ना ने पिछले साल कहा था कि भारत में अदालतें अभी भी किराए के परिसरों में चलती हैं, जिनमें से कई में टॉयलेट और कंप्यूटर जैसी बुनियादी सुविधाओं की कमी है. उनके भाषण के बाद ही सुप्रीम कोर्ट की तरफ से नेशनल जूडिशियल इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट अथॉरिटी ऑफ इंडिया का प्रस्ताव लाया गया. लेकिन इसे राज्यों या केंद्र सरकार ने स्वीकार नहीं किया. एक साल बाद, केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू ने लोकसभा को बताया कि प्रस्ताव वापस ले लिया गया है.

विधि सेंटर फॉर लीगल रिफॉर्म पॉलिसी की सीनियर रेजिडेंट फेलो दीपिका किन्हल ने कहा, ‘हमेशा से अदालतों को मंदिर जैसा दर्जा दिया जाता रहा है जहां लोगों को न्याय मिलता है और यह सिर्फ कार्यस्थल नहीं है. शायद, इसीलिए बुनियादी ढांचे में सुधार नहीं हो पाया है.’

The functional toilet in the Hapur district courtroom | Jyoti Yadav/ThePrint
हापुड़ जिला न्यायालय में चालू शौचालय | ज्योति यादव | दिप्रिंट

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वॉशरूम नदारद

जिला अदालतों में भले ही न्याय मिलता हो लेकिन महिलाओं की गरिमा को यहां कोई अहमियत मिलती नजर नहीं आती.

विधि सेंटर की 2019 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि उत्तर प्रदेश की 74 जिला अदालतों में से चार में कोई वॉशरूम नहीं है, जबकि सात में महिलाओं के लिए कोई सुविधा नहीं है.

केवल आठ कोर्ट परिसरों में पूरी तरह से इस्तेमाल लायक वॉशरूम थे.

किन्हल ने बताया कि खराब बुनियादी ढांचे से महिला-पुरुष दोनों प्रभावित होते हैं, लेकिन यह महिला न्यायाधीशों के लिए ज्यादा कष्टाकारी होता है.

रिपोर्ट में स्पष्ट तौर पर नजर आने वाली बुनियादी ढांचे से जुड़ी अन्य समस्याओं को भी उजागर किया गया—केवल 22 कोर्ट परिसरों में वेटिंग एरिया है और बमुश्किल छह में हेल्प डेस्क हैं. जिला अदालतों को साफ-सफाई से लेकर सुरक्षा तक नौ मानकों के आधार पर वर्गीकृत किया गया था. इनमें केवल 12 जिला अदालतों ने 50 प्रतिशत या उससे अधिक अंक हासिल किए. बुनियादी ढांचे के मामले में हापुड़ को 30 फीसदी अंक ही मिले.

हापुड़ कोर्ट परिसर में बंद शौचालयों में से एक | ज्योति यादव | दिप्रिंट

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पुराने बुनियादी ढांचे से जूझती महिलाएं

यूपी ही नहीं देशभर के विभिन्न हिस्सों में जिला अदालतें ऐसे समय में गठित हुईं हैं जब महिलाएं इस पुरुष-प्रधान गढ़ में ठीक से अपनी जगह नहीं बना पाई थीं.

कभी गाजियाबाद का हिस्सा रहा हापुड़ 2011 में एक स्वतंत्र जिले के तौर पर अस्तित्व में आया. जहां अधिकांश प्रशासनिक अधिकारी अस्थायी दफ्तरों से काम करते थे, जिला अदालत ने एक नगर पालिका और तहसील भवन से काम करना शुरू किया.

बाद में प्रशासन को तो अपना नया कलेक्ट्रेट भवन मिल गया, लेकिन पुराने जिला न्यायालय की स्थिति नहीं बदली. इस बीच, केस लोड बढ़ा और न्यायिक अधिकारियों की मांग में भी बढ़ोतरी हुई. इसके साथ ही अधिक महिलाएं न्यायिक तंत्र का हिस्सा बनने लगीं.

अन्य युवा महिलाओं की तरह ही जिला कोर्ट रूम से अपने पेशेवर करियर की शुरुआत करने वाली इलाहाबाद हाई कोर्ट की एक पूर्व न्यायाधीश ने कहा, ‘आज बड़ी संख्या में युवतियां इस क्षेत्र में आ रही हैं, लेकिन राज्य अभी भी उनकी जरूरतों के मुताबिक बदलाव के लिए तैयार नहीं है. बार और बेंच एक ऐसी जगह है जहां हमेशा से ही उन्हें बाहर रखा गया है.’

एक लंबी दूरी तय करके वॉशरूम तक जाना एक ऐसी व्यवस्था थी जो उनके समय पर भी थी. यह सब दो दशक से अधिक समय पहले की बात हैं और आज भी कुछ बदला नहीं है.

बार सचिव रविंदर सिंह निमेश ने बताया, ‘2014 में, जब नए कोर्ट रूम के लिए जगह नहीं मिली तो हमने अपना बार एसोसिएशन कार्यालय छोड़ दिया और कोर्ट रूम बनाने के लिए 4.5 लाख रुपये जुटाए. कार्यालय को जजों के लिए दो कक्षों में बदल दिया गया था—कोर्टरूम 13 और 14. उन्होंने आगे कहा, ‘लेकिन फिर हमें एहसास हुआ कि कोई वॉशरूम नहीं था, इसलिए तीन फीट की एक छोटी-सी जगह का इस्तेमाल जजों के लिए एक कॉमन वॉशरूम के तौर पर किया गया.’

अन्य चैंबर को भी इसी तरीके से पार्टिशन के जरिये बांटा गया. स्थान और प्राइवेसी की कमी को देखते हुए यह सुनिश्चित किया गया था कि पार्टिशन वाले कक्ष में बैठने वाले या तो विवाहित हों या फिर एक ही लिंग के हैं.

निमेश ने बताया, ‘जिला जज के लिए किसी पति-पत्नी, या दो महिला न्यायाधीश या दो पुरुष न्यायाधीशों को वहां तैनात करना एक दायित्व बन गया.’

लेकिन इस तरह की व्यवस्था करना वास्तव में कोई समाधान नहीं है. छोटा-सा कक्ष और लगातार होता हंगामा कुछ ऐसी स्थिति है जिससे अतिरिक्त जिला जज (पॉक्सो) श्वेता दीक्षित को लगभग हर दिन ही जूझना पड़ता है, यहां तक कि फैसला सुनाते वक्त भी वहां इसी तरह की हलचल जारी रही है. 37 वर्षीय श्वेता दीक्षित ने 2006 में जब न्यायिक परीक्षा पास की थी, तब उन्होंने शायद इसकी कल्पना भी नहीं की होगी.

जुलाई में जिला मजिस्ट्रेट मेधा रूपम ने हापुड़ जिला अदालत का निरीक्षण किया ताकि बुनियादी ढांचे की जानकारी हासिल कर उसमें आवश्यक सुधार किया जा सके. उन्होंने माना कि पब्लिक टॉयलेट की ‘स्थिति बहुत खराब’ थी.

उन्होंने बताया, ‘दरवाजे टूटे हुए थे और चारों तरफ झाड़ियां उगी आई थीं. मैंने चार नए वॉशरूम बनाने का ऑर्डर किया है.’

लेकिन समस्या सिर्फ वॉशरूम से कहीं ज्यादा है. 2022 की शुरुआत से ही वकील अदालत परिसर के लिए ‘उपयुक्त’ जमीन की मांग को लेकर कई बार विरोध प्रदर्शन कर चुके रहे हैं. इस सिलसिले में उन्होंने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से भी मुलाकात की है.

रूपम के मुताबिक, अभी तक प्रशासन इसके लिए प्लॉट फाइनल नहीं कर पाया है. उन्होंने कहा, ‘उन लोगों (वकीलों) ने एक निजी भूखंड देखा है जिस पर राज्य सरकार को 143 करोड़ रुपये खर्च करने पड़ेंगे. हम उनसे कोई सरकारी जमीन चुनने को कह रहे हैं.’

प्रशासन में सबसे वरिष्ठ महिला अधिकारियों में एक रूपम को उन महिला ‘लेखपालों, नायब तहसीलदारों और अर्दलियों’ के साथ पूरी सहानुभूति है जिनके बिना अदालत परिसर में कोई भी काम सुचारू ढंग से नहीं चल सकता.’

उन्होंने कहा, ‘सिस्टम अब कार्यबल में शामिल होने वाली महिलाओं की बढ़ती संख्या के मद्देनजर भी स्थिति का आकलन कर रहा है.’

और उत्तर प्रदेश भर की अदालतें उन्हें समायोजित करने की कोशिश में जुटी हैं.

हापुड़ के जिला न्यायालय में एक व्यस्त दिन | ज्योति यादव | दिप्रिंट

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कामकाजी महिला और एक जज

पश्चिमी यूपी में कानूनी शिक्षा के केंद्र के तौर पर उभरे मेरठ में भी न्यायिक व्यवस्था में महिलाओं का दखल बढ़ रहा है.

मेरठ स्थित चौधरी चरण सिंह यूनिवर्सिटी में लॉ प्रोफेसर एम.पी. वर्मा कहते हैं, ‘लॉ क्लासरूम अब सिर्फ बॉयज क्लब नहीं रह गए हैं. आसपास के ग्रामीण जिलों की नई पीढ़ी की छात्राएं यहां आगे आ रही हैं.’

यूनिवर्सिटी के विधि संकाय की तरफ से उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के मुताबिक, 2022-23 में महिला कैंडीडेट का नामांकन बढ़कर 32 प्रतिशत हो गया, जो कि 2015-16 में 16 प्रतिशत था.

बढ़ती डिमांड पूरी करने के लिए यूनिवर्सिटी ने यूपी के 150 निजी और सरकारी कॉलेजों में लॉ कोर्स की पढ़ाई शुरू कर दी है.

ज्योति यादव | दिप्रिंट

2003 बैच की एक जज ने कहा, ‘इस मामले में 2003 का बैच वास्तव में नई राह खोलने वाला था. हमने महिलाओं को न्यायिक परीक्षा पास करते देखा.’ उन्होंने कहा, ‘युवतियों ने अपने परिवारों से साफ कह दिया कि वे कानून की पढ़ाई करने जा रही हैं, और हमारे लिए सबसे आश्चर्य की बात थी कि इसका कोई बहुत ज्यादा विरोध नहीं किया गया.’

प्रशिक्षण पूरा होने के बाद श्वेता दीक्षित को मथुरा में एक अतिरिक्त सिविल जज (जूनियर डिवीजन) के तौर पर अपनी पहली पोस्टिंग मिली थी. इसके बाद से वह बिजनौर, बागपत, इलाहाबाद, बस्ती में तैनात रहीं और अब हापुड़ में हैं.

लखनऊ में पैदा हुई और वहीं पली-बढ़ी बीएससी स्नातक श्वेता दीक्षित उन तीन बहनों में शामिल हैं, जो अपने परिवार में कामकाजी महिलाओं की पहली पीढ़ी है. यह सम्मान काफी मुश्किलों से हासिल हुआ है.

वहीं, आज 25 साल की रीना अंसारी उसी राह पर हैं. लॉ स्कूल में पढ़ने के लिए अपने गृहनगर लावार से मेरठ तक 25 किलोमीटर का सफर करने वाली अंसारी ने अपने लक्ष्य पर ही नजरें टिका रखी हैं.

2018 में उसने अपने परिवार और पूरे गांव के खिलाफ एकदम मोर्चा ही खोल दिया जो उसकी शादी कराना चाहते थे. उसी वर्ष जब वह ‘क्लैरिटी के लिए’ एक कोचिंग सेंटर गई, तो उसने एक युवती को मॉक इंटरव्यू की तैयारी करते देखा. उस युवती का नाम जीनत परवीन था जो एकदम उसके दिमाग में बस गई.

अंसारी ने बताया, ‘कुछ महीने बाद, मैंने एक अखबार के लेख में उसका नाम देखा जिसमें बताया गया था कि वह एक जज हैं. उसी दिन मुझे अपना रास्ता मिल गया.’

बहुत संभव है कि उसे भी किसी छोटे से चैंबर में काम करना पड़े और ऐसे टॉयलेट का इस्तेमाल करना पड़े जिसका दरवाजा टूटा हुआ हो. लेकिन यह एक लड़ाई है और अंसारी खुद महिला जज बनने के बाद इसका हिस्सा बनने को तैयार है.

यह रिपोर्ट भारत में निचले स्तर की न्यायपालिका में महिला न्यायाधीशों पर एक सीरिज का हिस्सा है. बाकी के सभी आर्टिकल यहां पढ़ें.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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