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Friday, 19 April, 2024
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कपड़े का इस्तेमाल अब और नहीं, ‘मेंस्ट्रुअल कप’ बना तेलंगाना महिला पुलिसकर्मियों के लिए बड़ा मिशन

पैड की बजाय मेंस्ट्रुअल कप इस्तेमाल करने के लिए अधिकारियों को मनाना आसान नहीं था. उनके मन में इसे लेकर डर और तमाम तरह की आशंकाएं थी. इसके अलावा पीरियड्स को लेकर बनीं वर्जनाओं को तोड़ना भी एक मुश्किल काम था.

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महिलाओं को होने वाले ‘पीरियड्स’ के बारे में आज भी किसी से खुलकर बात नहीं की जा सकती है, भले ही वह एक महिला हो या फिर पुरुष. यह विषय काफी हद तक वर्जित माना जाता रहा है. शायद इसी वजह से तेलंगाना के सिद्दीपेट जिला पुलिस आयुक्त एन. स्वेता उस समय थोड़ा झिझकी थीं, जब उन्होंने स्वास्थ्य मंत्री टी. हरीश राव से मासिक धर्म और उससे जुड़ी सेहत संबंधी परेशानियों व सुझावों के बारे में बात की. लेकिन फिर वह पूरे आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ीं और तब स्वास्थ्य मंत्री ने भी कोई हिचक नहीं दिखाई. अब ‘मिशन मेंस्ट्रुअल कप’ जोर पकड़ रहा है.

इस बारे में बात करना सिर्फ एक छोटा कदम था. लक्ष्य तो बहुत बड़ा है- सिद्दीपेट की लाखों महिलाओं को मेंस्ट्रुअल कप की तरफ ले जाना और उन्हें पीरियड्स के दौरान गंदे कपड़े का इस्तेमाल करने से रोकना. यहां तक कि उन महिलाओं को भी राजी करना, जो कपड़ा छोड़कर सैनिटरी पैड की ओर बढ़ चुकी है. क्योंकि सैनेटरी पैड का निपटान भी प्रशासन के लिए एक बड़ी समस्या है. नालियां जाम होने लगी हैं. इस पर्यावरणीय क्षति को शीघ्रता से रोकना जरूरी था.

पुलिसकर्मी स्वेता चाहती थी कि प्रचार करने से पहले उनके विभाग को इस ओर जाकर इसका अनुभव करना चाहिए. एक मेंस्ट्रुअल कप उनकी ही अलमारी में तीन साल से बेकार पड़ा धूल फांक रहा था.

पहले कदम के रूप में उन्होंने खुद मेंस्ट्रुअल कप का इस्तेमाल करना शुरू किया और धीरे-धीरे अपनी 160 महिला पुलिस कर्मचारियों को भी ऐसा करने के लिए मना लिया. स्वेता ने दिप्रिंट को बताया, ‘मुझे लगा कि बाहर जाकर दूसरी महिलाओं को इसके फायदे के बारे में बताने से पहले हमें इसका यूज करना होगा और अनुभवों को जानना होगा.’ तब तक उन्हें सैनिटरी पैड से पर्यावरण को होने वाले नुकसान के बारे नहीं पता था. यह भारत की लैंडफिल समस्या से निपटने के लिए एक प्रभावी रणनीति हो सकती है – हर साल देश के कचरे के ढेर में 12.3 बिलियन टन सैनिटरी नैपकिन शामिल हो जाते हैं.

दशकों से पैड का इस्तेमाल करती आ रहीं उन महिला अधिकारियों के लिए उसे छोड़ना आसान नहीं था. मेंस्ट्रुअल कप को लेकर उनके मन में डर और तमाम तरह की आशंकाएं भी थीं. इन सबको दूर किया गया. और फिर जोर-शोर से प्रचार-प्रसार किया गया. इसमें स्त्री रोग विशेषज्ञों के साथ वर्कशॉप, इस्तेमाल करने के तौर-तरीकों के लिए निर्देश, वीडियो और एक महत्वपूर्ण व्हाट्सएप ग्रुप शामिल था. महिला पुलिस अधिकारियों ने ग्रुप पर अपने अनुभव साझा किए. इससे जुड़े सवाल को पोस्ट किया और फिर सलाह देने का सिलसिला शुरू हो गया.

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और इस तरह से पीरियड को लेकर बनीं वर्जनाओं को तोड़ा गया.


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Women in the Telangana district are proud to use menstrual cups | Special arrangement
तेलंगाना जिले में महिलाओं को मेंस्ट्रुअल कप का उपयोग करने पर गर्व है | फोटो- विशेष व्यवस्था से.

कैसे कदम-दर कदम आगे बढ़े

बेंगलुरु की कंपनी स्टोन्सअप ने सीएसआर (कॉर्पोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी) प्रोजेक्ट के हिस्से के रूप में जिले के एक वार्ड में पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर इसे शुरू किया था और फिर हरीश राव ने औपचारिक रूप से अप्रैल में सिद्दीपेट में रुतु प्रेमा (सुरक्षित अवधि) नामक एक पहल शुरू करने के साथ इसे एक पूर्ण अभियान में बदल दिया. इसका मकसद स्थायी और स्वस्थ मासिक धर्म की आदतों को बढ़ावा देना था. पहल के हिस्से के रूप में, जिला प्रशासन अब छह लाख महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान कप का इस्तेमाल करने की दिशा में काम कर रहा है.

जिला एडिशनल कलेक्टर मुज़्ज़मिल खान कहते हैं, ‘यह एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य है. हम धीरे-धीरे इस पर आगे बढ़ रहे हैं. पहला कदम व्यवहार में बदलाव लाना है ताकि महिलाएं इसके बारे में खुलकर बात कर सकें.’

भारत में मेंस्ट्रुअल कप को लेकर मुख्यधारा के मीडिया प्लेटफॉर्म पर या उत्पाद की ओवर-द-काउंटर बिक्री के बारे में ज्यादा चर्चा नहीं है. खान कहते हैं, ‘हमने महसूस किया कि जागरूकता को जमीनी स्तर तक ले जाने के लिए फ्रंटलाइन कार्यकर्ता सबसे बेहतर काम करेंगे.’

मिशन मेंस्ट्रुअल कप अब तकरीबन एक चुनाव या जनगणना की कवायद जैसा बन गया है. संदेश फैलाने के लिए सरकारी अधिकारियों, शिक्षकों और स्वास्थ्यकर्मियों को इसके साथ जोड़ा गया है.

पुलिस से लेकर पंचायत सचिवों, विभाग की महिला कर्मचारियों और आंगनवाड़ी, आशा (मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) कार्यकर्ताओं और स्वास्थ्य सेवा से जुड़ी महिलाओं तक – जिले में लगभग 7,000 महिला फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं को जागरूकता सत्र में भाग लेने के बाद मेन्सट्रुअल कप दिया गया. सभी सरकारी स्कूल के शिक्षकों को पहले इसके फायदा के बारे में समझाया गया और फिर रियायती कीमतों पर उन्हें खरीदने के लिए कहा गया.


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बात करने का खुलापन

जैसे-जैसे अभियान ने जोर पकड़ा, मासिक धर्म के बारे में बात करने की इच्छा बढ़ती गई- एक समय में एक महिला, एक परिवार और फिर पूरा एक गांव.

जब गुररालगोंडी गांव की पंचायत सचिव अरुणा श्री को रात 11 बजे फोन आया, तो उन्होंने अगले 20 मिनट यह समझाने में बिता दिए कि उक्त महिला को मासिक धर्म कप का इस्तेमाल कैसे करना है, जिसे अभी-अभी माहवारी हुई है. उन्होंने बताया, ‘मैं हैरान थी और खुश भी कि महिलाएं वास्तव में इस विकल्प पर विचार कर रही हैं. मैंने उसे बताया कि इसे कैसे मोड़ना है ताकि यह अच्छी तरह से फिट हो जाए. वह खुद को चोट पहुंचाने या अपने शरीर को नुकसान पहुंचाने से बहुत डरती थी, लेकिन मैं उससे बात करती रही.’

अरुणा श्री के मुताबिक, ‘बात करने के लिए आगे आने का ये बदलाव रातोंरात नहीं हुआ. अभी भी एक लंबा रास्ता तय करना है.’ वह जिले के गुररालगोंडी गांव में मासिक धर्म कप के बारे में जानकारी देने के ले घर-घर जा रही हैं.

वह आशा कार्यकर्ताओं को इसके इस्तेमाल करने का तरीका बताते हुए कृषि क्षेत्रों में भी गईं. उन्होंने गांव के स्वच्छता विभाग में काम करने वाली महिलाओं को इकट्ठा किया और उनसे भी बात की. श्री गर्व के साथ बताती हैं कि 440 मासिक धर्म वाली महिलाओं में से अब 80 फीसदी, मेंस्ट्रुअल कप यूज कर रही हैं.

अन्य जिला अधिकारियों ने भी अपनी ‘सफलता की कहानियों’ का लिखना करना शुरू कर दिया है. स्वेता के अनुसार, उनकी 90 फीसदी से ज्यादा महिला पुलिस कर्मचारियों ने मेंस्ट्रुअल कप का उपयोग करना शुरू कर दिया है. विभाग अब पुरुष पुलिस अधिकारियों के परिवारों तक भी पहुंच रहा है.

कप का एक और फायदा है कि वे लीक नहीं करते हैं. महिला अधिकारी मैदान पर घंटों ड्यूटी करने के बाद या बारिश में भीगने पर भी अपने कपड़ों पर दाग लगने को लेकर चिंता नहीं करती हैं.

स्वेता कहती हैं, ‘मेरे सबऑर्डिनेट की बेटी उसी मैदान पर क्रिकेट की प्रैक्टिस किया करती है जहां मैं सुबह दौड़ने जाती हूं. मैंने उससे कप यूज करने के लिए कहा. उसके बाद उसने आकर मुझे बताया कि वह इसके साथ कितनी सहज थी, यहां तक कि अपनी सफेद वर्दी में भी.’

इस तरह के फीडबैक पुलिस अफसर को खुश कर देते हैं. श्री कहती हैं, ‘जिस बारे में बात करना सहज नहीं था, मैं अब अपने जिले की सभी महिलाओं से उसे लेकर खुलकर बात कर रही हूं.’ जिला परिषद की चेयरपर्सन वी. रोजा शर्मा ने मेंस्ट्रुअल कप को अपनाया और अपने परिवार की 10 महिलाओं को भी इसका इस्तेमाल करने के लिए कहा.

उन्होंने कहा, ‘पैड की तुलना में कप एक बेहतर विकल्प है. इस पर बस एक ही बार पैसा खर्च करना पड़ता है. यह कपड़े से ज्यादा स्वच्छ है, जिन्हें अक्सर बिना धूप वाले कोनों में छिपाकर सुखाया जाता है.’

डॉक्टरों का कहना है कि जो महिलाओं सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल करती हैं, उन्हें अक्सर खुजली, चकत्ते और त्वचा की एलर्जी जैसी समस्याएं सामने आती है. इसके दीर्घकालिक प्रभावों में एंडोक्राइन डिसरप्शन भी शामिल हैं.

जिला प्रशासन अब यह संदेश फैलाने के लिए गांवों में स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) तक पहुंच रहा है. लगभग हर विभाग में सदस्यों के रूप में डॉक्टरों के साथ व्हाट्सएप ग्रुप बनाया गया है.

मिशन सिर्फ महिलाओं को कप का इस्तेमाल करने के लिए जागरूक करने पर खत्म नहीं हो जाता है. जमीन स्तर पर कर्मचारी उन महिलाओं से संपर्क करते हैं और उनकी प्रतिक्रिया लेते हैं, जो पुराने तरीके को छोड़ कप की तरफ बढ़ चुकी हैं. यह आपसी बातचीत पर आधारित एक लगातार चलने वाली प्रक्रिया है.

वर्जिनिटी मिथ

सबसे बड़ी चिंता यह है कि एक कप को सुरक्षित रूप से कैसे डाला जाए? क्या यह अंदर रह जाएगा? क्या यह दर्दनाक होगा? कुंवारी लड़कियों के बारे में क्या – क्या कप से हाइमन टूट जाएगा? जागरूकता कार्यक्रम की हिस्सा रहीं बेंगलुरू की डॉक्टर और पर्यावरणविद शांति तुम्माला कहती हैं कि निजी कॉल पर शंकाओं का समाधान किया जा रहा है.

वह कहती हैं, ‘मेंस्ट्रुअल कप को वेजिना के अंदर डालना होता है. इसलिए पुलिस और अन्य विभागों में बहुत सारी अविवाहित महिलाएं इसे लेकर खासा परेशान थीं कि यह उनके हाइमन को नुकसान पहुंचा सकता है.’

यहां तक कि प्रशासन के भीतर महिला अधिकारी और कर्मी भी उन्हें इस बारे में बात करने के लिए बुलाते हैं. डॉ शांति ने दिप्रिंट को बताया, ‘उन्होंने मुझसे कहा कि उनकी मां कप का इस्तेमाल नहीं करने दे रहीं हैं क्योंकि उनकी अभी तक शादी नहीं हुई है. इंसर्शन उनकी वर्जिनिटी को नुकसान पहुंचा सकती है. इससे उनकी शादी पर असर पड़ सकता है.’

डॉक्टर को उन्हें समझाना पड़ा कि ‘होल वर्जिनिटी कॉन्सेप्ट’ एक मिथक है. तेज शारीरिक गतिविधि भी हाइमन के टूटने का कारण बन सकती है. वह आगे कहती हैं, ‘हम उन्हें यह भी बताते हैं कि कप किसी भी तरह से कोई नुकसान नहीं पहुंचाते हैं.’

इतने लंबे से किया जा रहा प्रयास आखिरकार रंग ले ही आया. जिले में फिलहाल 15,000 महिलाएं कप का इस्तेमाल कर रही हैं. इसे अगले साल तक एक लाख तक ले जाने का लक्ष्य है.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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