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Saturday, 20 April, 2024
होमइलानॉमिक्स'RCEP’ से भारत में आयातों की बाढ़ आ जाती, निर्यातों को बढ़ाने का एक ही रास्ता है— सुधार

‘RCEP’ से भारत में आयातों की बाढ़ आ जाती, निर्यातों को बढ़ाने का एक ही रास्ता है— सुधार

अलग-थलग पड़ने की आशंका में भारत ‘आरसीईपी’ समझौते में शामिल नहीं हुआ, चीन-केंद्रित यह समझौता भारत के निर्यातों के लिए शायद ही फायदेमंद होता.    

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हाल में 15 देशों ने क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक सहयोग (‘आरसीईपी’) समझौते पर दस्तखत किए. दुनिया के इस सबसे बड़े मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) से भारत ने खुद को नवंबर 2019 में ही अलग कर लिया था. इसकी वजह यह थी कि भारत अपने बढ़ते व्यापार घाटे से चिंतित था. लद्दाख में चीन के साथ तनाव भी एक वजह है. वैसे, भारत को बाद में इस समझौते में शामिल होने की छूट दी गई है.

मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) पर दस्तखत करने पर भारत को प्रायः अपने आयात शुल्कों में कटौती करनी पड़ी है, क्योंकि अधिकतर साझीदार देशों में आयात शुल्क नीचा है. एफटीए का मतलब है इसमें शामिल देशों को दूसरे देशों के मुक़ाबले ज्यादा फायदे देना. इसके कारण भारत के निर्यातों में शायद ही कभी वृद्धि हुई है.

‘आरसीईपी’ पर दस्तखत करने का मतलब यह होता कि भारत अपने शुल्कों को बढ़ाने की सुविधा खो देता. इस मामले में भारत को लगा कि इससे चीन को ही फायदा होता. चीन के साथ भारत के व्यापार घाटे और विश्व स्तर पर कई सेक्टरों में चीन के वर्चस्व ने भारत को शंकालु बना दिया है. ‘आरसीईपी’ के कारण अगले 20 वर्षों तक आयातित सामान पर शुल्कों में कटौती हो जाती. माना जाता है कि इस समझौते से एशियाई सप्लाई चेन मजबूत होगा और ग्लोबल मार्केट में इसके सदस्य देशों की प्रतिस्पर्द्धा क्षमता को बढ़ावा मिलेगा. समझौते के प्रस्तावकों का मानना है कि ‘आरसीईपी’ इसके सदस्य देशों को क्षेत्रीय सप्लाइ चेन से जोड़ कर कोरोना महामारी के कारण हुए आर्थिक विनाश से उबरने में मदद करेगा.


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भारत को लेकर चिंताएं

आशंकाएं जाहिर की गई हैं कि भारत अगर ग्लोबल सप्लाई चेन से जुड़ना चाहता है और विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्द्धी बनना चाहता है तो उसे संरक्षणवाद से तौबा कर लेनी चाहिए. बल्कि उसे ‘आरसीईपी’ की तरह एफटीए से भी जुड़ना चाहिए. व्यापार का किताबी सिद्धान्त हमें व्यापार के उदारीकरण की, खासकर शुल्कों की एकतरफा कटौती की सीख देता है जिससे अर्थव्यवस्था अंततः प्रतिस्पर्द्धी बनती है. लेकिन उत्पादन का स्तर बढ़ाकर लागत घटाने की नीति पर चलने वाले चीन के पदार्पण ने दुनिया भर में संरक्षणवाद की लहर पैदा कर दी, क्योंकि इस नीति के बूते उसने पिछले दो दशकों में अपना निर्यात बढ़ाया और कई देशों में घरेलू मैन्युफैक्चरिंग को बर्बाद कर डाला.

‘आरसीईपी’ का पहली बार प्रस्ताव नवंबर 2011 में रखा गया था ताकि ‘आशियान’ के सदस्य देशों और एफटीए के साझीदार देशों को मिलाकर एकीकृत बाज़ार विकसित हो. भारत ‘आरसीईपी’ को लेकर हुई वार्ताओं में शामिल था लेकिन नवंबर 2019 में वह इससे अलग हो गया. उसका कहना था कि कई महत्वपूर्ण मसले अनसुलझे ही रह गए हैं. भारत की चिंता यह है कि ‘आरसीईपी’ में शामिल होने से उसके घरेलू मैन्युफैक्चररों को चीन से सस्ते आयातों की बाढ़ के कारण चुनौती का सामना करना पड़ेगा. यह भी माना गया कि ‘आरसीईपी’ समझौते पर दस्तखत करने से भारतीय खेती, डेरी, और कपड़ा उद्योग पर— जिनमें लाखों लोगों को रोजगार मिला हुआ है— बुरा असर पड़ेगा. भारत ने ऐसी व्यवस्था बनाने का प्रस्ताव दिया था कि आयात जैसे ही एक सीमा से पार हो वैसे ही शुल्क स्वतः लागू हो जाएं. भारत के इस प्रस्ताव को नामंज़ूर कर दिया गया.

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चिंताएं जाहिर की जा रही हैं कि ‘आरसीईपी’ से बाहर होने का मतलब है अपना ही आर्थिक नुकसान, क्योंकि भारत अलग-थलग पड़ जाएगा और निर्यातों तथा आर्थिक वृद्धि के मोर्चे पर पिछड़ता रहेगा. यह चिंता भी जाहिर की जा रही है कि इस फैसले के कारण ‘आरसीईपी’ के सदस्य देशों के साथ भारत के द्विपक्षीय व्यापार को नुकसान पहुंचेगा क्योंकि ये देश अपनी खेमे के देशों के बीच ही व्यापार को बढ़ावा देना चाहेंगे.

पिछले व्यापार समझौतों के अनुभव

मुक्त व्यापार समझौतों पर दस्तखत करने के फ़ायदों और नुक़सानों पर विचार करते हुए भारत के व्यापार संतुलन; और उद्योगों, निर्यातों तथा आयातों के मामले में इसके और इसके व्यापारिक साझीदारों से जुड़े तथ्यों का भी खयाल रखना चाहिए. ‘आरसीईपी’ के सदस्य देशों के साथ भारत का व्यापार घाटे में ही है. भारत अपने व्यापारिक साझीदारों के लिए विशाल बाज़ार तो उपलब्ध कराता है लेकिन इसके व्यापार सौदे से इसके उद्योगों को भौतिक लाभ नहीं होता.

इन वर्षों में भारत ने कई द्विपक्षीय और क्षेत्रीय व्यापार समझौते किए और फिलहाल उसे करीब 54 देशों तक पहुंच बनाने की प्राथमिकता हासिल है और उनके साथ उसका एफटीए भी है. इसके अलावा 18 देशों के साथ उसने व्यापक आर्थिक सहयोग समझौता (सीईसीए)/ एफटीए किया है. एफटीए के तहत, साझीदार देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार वाले सामान पर शुल्क खत्म कर दिए जाते हैं जबकि गैर-सदस्य देशों के लिए शुल्क जारी रहते हैं. सीईसीए समझौतों का अधिक समेकित पैकेज है जिनमें माल एवं सेवाएं, निवेश, आर्थिक सहयोग और बौद्धिक संपदा आदि के मामले शामिल होते हैं.

एफटीए से आर्थिक वृद्धि होगी या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसके कारण व्यापार में वृद्धि होती है या नहीं, और यह व्यापार में किस तरह का बदलाव लाता है. व्यापार तब बढ़ता है जब एफटीए के किसी सदस्य देश को किसी सामान के उत्पादन से तुलनात्मक लाभ मिले और वह उसे मुक्त व्यापार क्षेत्र के साझीदारों को बेच सके क्योंकि व्यापार पर प्रतिबंध हटा लिये गए हैं. एफटीए के गठन के साथ व्यापार में इस तरह बदलाव आता है कि इस व्यापार समूह के बाहर के देश से कम लागत वाले आयात एफटीए के कारण बंद हो जाते हैं.

भारत के व्यापार संतुलन पर एफटीए का दोहरे किस्म का प्रभाव पड़ा है. आशियान-भारत एफटीए पर किए गए एक शोध में बताया गया है कि एफटीए लागू होने के बाद निर्यात में कमी आई. एफटीए से भारत को हुए लाभ-हानि के बारे में नीति आयोग के एक अध्ययन ने भारत के निर्यात की दिशा के कुछ तथ्यों को स्पष्ट किया है. इस अध्ययन के मुख्य निष्कर्ष ये हैं कि एफटीए वाले देशों को भारत के निर्यातों ने एफटीए से अलग देशों को भारत के निर्यातों से बाज़ी नहीं मारी है. एफटीए के कारण निर्यात के मुकाबली आयात ही ज्यादा हुए हैं. और सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह है कि भारत के निर्यात कीमतों में परिवर्तन से ज्यादा आय में परिवर्तन के प्रति संवेदनशील रहे हैं, इसलिए शुल्कों में कटौती से भारत के निर्यातों में खास वृद्धि नहीं होती. व्यवस्थागत लागत ऊंची होने और सप्लाइ के मामले में अड़चनों के चलते भारत के निर्यातों पर कीमतों में कटौती से असर नहीं पड़ता.

चीन-केंद्रित है ‘आरसीईपी’

माना जा रहा है कि ‘आरसीईपी’ चीन-केंद्रित है और इससे इस क्षेत्र में उसका आर्थिक तथा राजनीतिक प्रभाव और बढ़ सकता है. चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा उसे नुकसान पहुंचा रहा है. भारत के आयातों में चीन का हिस्सा करीब 14 फीसदी है, जबकि बाकी तमाम देशों को भारत के कुल निर्यातों में चीन का हिस्सा महज 5 फीसदी के बराबर है. व्यापार संतुलन पहले ही प्रतिकूल है और यह निर्यातों तथा आयातों के असंतुलित अनुपात के कारण और भी बिगड़ जाता है. भारत चीन को मुख्यतः अयस्कों, खनिजों और खेती में काम आने वाले रसायनों का निर्यात करता है, जबकि चीन से वह उच्च मूल्य वाले यंत्रों तथा इंजीनियरिंग सामान सरीखे पूंजीगत तथा उत्पादित माल का आयात करता है. एफटीए के कारण चीन को अनुपात से ज्यादा फायदा हो सकता है. भारत बाकी देशों को जो निर्यात करता है उसके मुक़ाबले चीन को उसके निर्यात भिन्न किस्म के हैं. इसके निर्यातों में 75 प्रतिशत हिस्सा मैन्युफैक्चर्ड सामान का होता है जिनमें इंजीनियरिंग सामान का हिस्सा 24 फीसदी है.

व्यापार समझौते द्विपक्षीय व्यापार को बढ़ावा देने के लिए किए जाते हैं, जिनके कारण शुल्कों में कटौती से दोनों पक्षों को लाभ होता है. चीन के साथ भारत का व्यापार असंतुलित है और इससे भारत में निर्यातों की बाढ़ आ सकती है. इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश और व्यापार के माहौल में सुधार के जरिए लागत घटाकर ही भारत के निर्यातों की संभावनाओं को मजबूती दी जा सकती है. इन सुधारों से भारत को यह फायदा हो सकता है कि विभिन्न क्षेत्रीय व्यापार समझौतों से बाज़ार में उसकी भागीदारी काफी बढ़ सकती है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(इला पटनायक अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं और राधिका पांडेय एनआईपीएफपी में कंसल्टेंट हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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