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Friday, 22 November, 2024
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वास्तविक सुधारों के लिए PSU बैंकों का प्रभुत्व खत्म होना चाहिए, उनमें फिर से पैसा डालने से बात नहीं बनेगी

बेजान कंपनियों को और अशक्त बैंकों को थोड़ी और अवधि के लिए उनके हाल पर छोड़ देना चाहिए यदि ऐसा करने से व्यापक सुधारों की भूमिका बनती हो, ताकि भारत 1980 के दशक वाली विफल वित्तीय प्रणाली से छुटकारा पा सके.

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पिछले कुछ हफ़्तों के दौरान जीडीपी वृद्धि में जान फूंकने के नाम पर सरकारी बैंकों के पुनर्पूंजीकरण की मांग तेज़ हुई है. हालांकि पुनर्पूंजीकरण की पिछली कवायदों की मिसाल लें तो इससे अर्थव्यवस्था की अल्पकालिक मदद ही संभव दिखती है, वो भी दीर्घावधि में बड़े नुकसान की कीमत पर.

ऋण अदायगी को टालने के सरकार के फैसले की अवधि समाप्त होते ही, आशंका है कि बैंकों के बहुत से ऋण वसूली लायक नहीं रह जाएंगे. पुनर्पूंजीकरण की मांग के पीछे दलील दी जाती है कि कंपनियों को इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड (आईबीसी) के दायरे में लाकर उनकी वित्तीय समस्या को हल करने की ज़रूरत है. ये कहा जा रहा है कि महामारी के बाद भारत में कई कंपनियां दिवालिया हो गई हैं. बिज़नेस स्टैंडर्ड में हाल के एक लेख में, अजय शाह का तर्क था कि नकदी के संकट से जूझ रही कई कंपनियां ‘बेजान’ हो चुकी हैं, और अर्थव्यवस्था को विकास की पटरी पर लाने के लिए आईबीसी के माध्यम से उनके वित्तीय संकट का समाधान किया जाना ज़रूरी है.

जब कोई कंपनी मुश्किलों में घिरती है, तो शेयरधारकों और उधारदाताओं को नुकसान होता है. कोविड-19 इस तरह के नुकसान का कारण बनी है; और इस तथ्य से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है. अल्पावधि में, बुरी तरह विनियमित बैंकों को इस नुकसान का अंदाज़ा नहीं लग पाता है. संकटग्रस्त कंपनियों को समाधान प्रक्रिया के दायरे में लाने पर यह अदृश्य नुकसान बैंक की बैलेंस शीट में स्पष्ट हानि के रूप में दिखने लगता है. यानि समाधान की प्रक्रिया पर ज़ोर देने से भारतीय बैंकों की समस्याएं अधिक स्पष्टता से नज़र आ सकेंगी.

गत वर्ष अपने एक शोध पत्र में अरविंद सुब्रमण्यन और जोश फेलमैन ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को सरकार द्वारा अतिरिक्त पूंजी उपलब्ध कराए जाने की दलील दी थी, ताकि बैंक अपनी पूंजीगत ज़रूरतों को पूरा कर सकें. इस तरह का नीतिगत पैकेज बैंकों की बैलेंस शीट को सुदृढ़ कर सकेगा, और वे दोबारा कर्ज देने में सक्षम हो सकेंगे.

इन दोनों ही परिदृश्यों को मिलाकर देखने पर भारत के लिए यही राह नज़र आती है कि वित्तीय संकट से जूझ रहे व्यवसायों की समस्याओं को आईबीसी के ज़रिए निपटाया जाए, साथ ही सरकारी बैंकों में बड़ी मात्रा में अतिरिक्त पूंजी डाली जाए. हालांकि इस प्रस्तावित समाधान की अपनी कई महत्वपूर्ण सीमाएं हैं.


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सरकारी बैंकों की समस्याएं

हमें सरकारी बैंकों की समस्याओं की तह में जाने की जरूरत है. भले ही वरिष्ठ नीति निर्माताओं को लगता हो कि सरकारी बैंकों को अपने बुरे ऋणों की समस्या को खुद हल करना चाहिए, लेकिन क्या वास्तव में इन बैंकों के कर्मचारियों के ऐसा करने और आईबीसी की प्रक्रिया में ठोस फैसले लेने के लिए पर्याप्त प्रोत्साहन की व्यवस्था है? और, भले ही बैलेंस शीट को संभाल लिया जाता हो, लेकिन क्या सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के कर्मचारियों को कर्ज देने, और समझदारी से कर्ज देने के लिए सही प्रोत्साहन दिया जाता है?

इस मामले में भावी परिदृश्य बिल्कुल अलग तरह का रहने की संभावना है. सबसे पहले तो, सरकारी बैंकों के अधिकारी फैसले लेने, फंसे कर्जों (एनपीए) की घोषणा करने और कंपनियों को दिवालिया घोषित करने की कार्रवाई करने में हिचकिचाते हैं. दरअसल ऐसा करने पर उनकी समस्याएं उजागर हो जाएंगी और अधिकारी विशेष को एजेंसियों और नियामकों का कोपभाजन बनना पड़ेगा. आईबीसी की सबसे अच्छी बात ये है कि दिवालियेपन की यह प्रक्रिया बातचीत के ज़रिए समाधान का अवसर देती है, जहां कंपनी का प्रोमोटर थोड़ी जमा पूंजी लाने पर और कर्जदाता थोड़ा नुकसान सहने पर सहमत हो सकता है. लेकिन ऐसा करने वाले बैंक कर्मचारी के खिलाफ एजेंसियों और नियामकों की जांच शुरू होने का ख़तरा रहता है. लेकिन मामला निपटाने के लिए नुकसान सहने पर राज़ी होने पर जांच शुरू होने का ख़तरा है, वहीं समाधान के लिए तैयार नहीं होने पर संबंधित कर्मचारी का कुछ नहीं बिगड़ता. मतलब एजेंसियों, नियामकों और सरकारी बैंकों की बुनियादी प्रकृति ही समाधान को बढ़ावा नहीं देने की है.

दूसरे, सरकारी बैंकों के अधिकारियों में उधार देने का सहज उत्साह नहीं होता है. अभिजीत बनर्जी, शॉन कोल और एस्थर डुफ्लो के शोध से पता चलता है कि सरकारी बैंक ऋण देने, जमा राशि जुटाने और शाखाओं की स्थापना में निजी बैंकों की तुलना में कम आक्रामक रहे हैं. सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकर अक्सर एजेंसियों और नियामकों के डर से ऋण देने संबंधी फैसले लेने में हिचकते हैं.

मान लेते हैं कि व्यवसायों के वित्तीय संकट को हल करने में कुछ प्रगति होती है और बैंकों द्वारा कर्ज के वितरण में भी थोड़ी तेज़ी आती है. जीडीपी का लगभग 10 प्रतिशत बैंक पुनर्पूंजीकरण में लगाने पर हम कुछ वृद्धि की उम्मीद कर सकते हैं. लेकिन इसका कहीं बड़ा परिणाम ये होगा कि बैंकिंग प्रणाली काफी हद तक सरकारी स्वामित्व वाली ही रह जाएगी, और एजेंसियों एवं नियामकों का वर्तमान रवैया भी चलता रहेगा.

भारत में, हम बैंक पुनर्पूंजीकरण के मद में 10 लाख करोड़ रुपये डालने के बड़े फैसले पर खूब बहस करते हैं कि ऐसा किया जाना चाहिए या नहीं. लेकिन सच्चाई ये है कि आमतौर पर हम हर साल इस काम में 2 लाख करोड़ रुपये झोंक रहे हैं, यानि एक तरह से हम हर पांच साल में एक बड़ा पुनर्पूंजीकरण कर रहे हैं. क्या ये जनता के पैसे का सही उपयोग है?

क्या कोई बेहतर तरीका भी है?

हमें इस बात पर विचार करने की ज़रूरत है कि क्या मौजूदा नीति लागत के अनुरूप फायदे दे रही है, या फिर कोई बेहतर उपाय मौजूद है.

हमें नियामक संस्थाओं की क्षमता के बारे में सोचने की जरूरत है. नीरव मोदी का पीएनबी घोटाला हो या यस बैंक में धन के गबन का मामला, हम रिज़र्व बैंक (आरबीआई) द्वारा बैंकों की निगरानी की प्रक्रिया में कमियों को देख चुके हैं.

आरबीआई के मौजूदा और भूतपूर्व कर्मचारियों ने यह कहकर इस तथ्य को झुठलाने की कोशिश की है कि आरबीआई सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को विनियमित करने में सक्षम नहीं है. लेकिन यह दलील केवल आंशिक रूप से सही है.

बैंकिंग सेक्टर में निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा का अभाव है. ऐतिहासिक रूप से, सरकारी बैंकों के संरक्षण के उ्ददेश्य से, निजी और विदेशी बैंकों के कामकाज शुरू करने और शाखाएं खोलने के संबंध में कई तरह की पाबंदियां लगाई गई थीं. इसी तरह अनेक नियम ऐसे हैं जो गैर-बैंकिंग संस्थानों की कीमत पर बैंकों की तरफदारी करते हैं. प्रतिस्पर्धा संबंधी ये सारी बाधाएं राष्ट्रहित में नहीं हैं. एक ओर जहां मौजूदा कमजोर बैंक लंबे समय तक लड़खड़ाते रहेंगे, वहीं बेहतर प्रतिस्पर्धी माहौल निर्मित करने से ग्राहकों की जरूरतों को पूरा करने के अन्य रास्ते निकल सकेंगे.

गैर-वित्तीय कंपनियों के लिए तो आईबीसी की समाधान प्रक्रिया है, लेकिन वित्तीय फर्मों के लिए समाधान का कोई तंत्र नहीं है. ये सच है कि खासकर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक विफल नहीं होते हैं. यह भी एक स्वीकार्य तथ्य है कि नए निजी बैंकों को अपना काम शुरू करने की अनुमति तो मिलनी चाहिए, लेकिन उनकी विफलता का बोझ करदाताओं पर नहीं पड़ना चाहिए. बड़ी संख्या में निजी बैंकों को कामकाज़ की अनुमति देने के साथ ही संकटग्रस्त बैंकों की समस्या के समाधान के तंत्र की भी व्यवस्था की जानी चाहिए. इस संबंध में एक समाधान प्राधिकरण बैंकों पर नज़र रखे, समय रहते संकट की पहचान करे और शीघ्रता से समाधान की प्रक्रिया शुरू करे. इसके लिए वित्तीय समाधान एवं जमा बीमा विधेयक (एफआरडीआई बिल) को लागू करने की आवश्यकता है, जिसमें निगरानी और निर्णय लेने के सक्षम प्राधिकार संबंधी प्रावधान हो.

और फिर, पूंजी के अप्रभावी उपयोग की भी समस्या है. शाह, सुब्रमण्यम और फेलमैन ने चिंता व्यक्त की है कि समाधान तंत्र और बैंकिंग संबंधी समस्याओं ने भारतीय जीडीपी की वृद्धि को रोक रखा है. लेकिन बैंकों और बैंकिंग पर निगरानी का वर्तमान ढांचा पूंजी के दुरुपयोग, फंसने की आशंका वाले ऋण वितरित करने और गैर-वित्तीय फर्मों के लिए दोषपूर्ण प्रोत्साहन को बढ़ावा देता है. भारत के परंपरागत तौर-तरीकों के तहत उधार की रकम अक्सर गलत लोगों के हाथों में जाती है. इसलिए हमारा उद्देश्य पुराने तौर-तरीकों पर लौटने का नहीं होना चाहिए.

हमें ये सवाल पूछने की ज़रूरत है: बेजान कंपनियां यदि थोड़ी और अवधि के लिए लड़खड़ाती रहती है तो ये भारत के लिए कितना नुकसानदेह होगा? यदि बैंक कुछ और समय के लिए अशक्त रहते हैं तो ये भारत के लिए यह कितना बुरा होगा? हमें इन दोनों परिणामों को स्वीकार करना चाहिए, यदि यही व्यापक सुधार लागू करने, और भारत के आर्थिक विकास में बाधक 1980 के दशक के नाकाम वित्तीय मॉडल से छुटकारा पाने की कीमत है. ये व्यापक सुधार कानूनों में परिवर्तन करने, नियामक संस्थाओं एवं एजेंसियों के संगठनात्मक ढांचे में बदलाव लाने, तथा सरकारी बैंकों के प्रभुत्व वाले बैंकिंग सेक्टर से दूर जाने से संबंधित होंगे.


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(इला पटनायक अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं, यहां व्यक्त विचार निजी हैं)

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2 टिप्पणी

  1. Before supporting Private banks, you must consider that they only focuses to serve upper class and making profits. While A public sector banker serves to each segment including lower class( which is a mass chunk of population) , plays important role in implementing govt welfare schemes for common man. I would like to please consider a suggestion.Visit a public sector bank branch where a few staff members are serving thousands of people with limited resources and work load of theirs is significantly more than any private sector banker.
    The challenges they are facing in their profession and it’s impact on their personal lives,banking from their point of view.

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