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Thursday, 31 October, 2024
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नागालैंड बैट स्टडी, वुहान की ‘बैट लेडी’, अमेरिकी फंडिंग, ICMR की जांच- क्या है भारत की वायरस मिस्ट्री स्टोरी

आईसीएमआर ने एनसीबीएस के नागालैंड अध्ययन की जांच की घोषणा की और वो भी यह बताए बिना कि जांच किस वजह से की जा रही है और इसके पीछे क्या वजह हैं. सरकार में कोई भी इसका जिम्मा लेने को तैयार नहीं है.

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नई दिल्ली: यह भारतीय वैज्ञानिक अनुसंधान से जुड़ी रहस्यमय स्टोरी है जो कुछ वजहों से कहीं न कहीं इस समय के सबसे विवादास्पद मुद्दे से जुड़ी नज़र आती है, जिसमें पूरी दुनिया कोरोनावायरस या सार्स-कोव-2 की उत्पत्ति पर नए सिरे से सवाल उठा रही है.

इसमें बेंगलुरू के प्रतिष्ठित नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज (एनसीबीएस) की तरफ से नागालैंड के दूरदराज के जंगली इलाकों में चमगादड़ों से इंसानों में घातक वायरस के ट्रांसमिशन से संबंधित अध्ययन शामिल है- यह उसी तरह का एक मोड है जैसा कि कोविड के मामले में होने का संदेह है.

एनसीबीएस के सहयोगियों में शामिल हैं सिंगापुर स्थित ड्यूक-एनयूएस मेडिकल स्कूल और अमेरिकी रक्षा विभाग (डीओडी) द्वारा वित्त पोषित एक संस्था यूनिफॉर्मड सर्विसेज यूनिवर्सिटी ऑफ द हेल्थ साइंसेज (यूएसयूएचएस), जो बेथेस्डा, मैरीलैंड में स्थित है. अध्ययन खुद यूएस डिफेंस थ्रेट रिडक्शन एजेंसी (डीटीआरए) की तरफ से वित्त पोषित है, जो कि यूएस डीओडी की एक एजेंसी भी है.

पहले ही प्रकाशित हो चुके अध्ययन में शोध के सह-लेखक के तौर पर विवादों में घिरे वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी (डब्ल्यूआईवी) की शी झेंगली का नाम भी हैं, जो अब दुनिया भर में ‘बैट लेडी’ के नाम से ख्यात हो चुकी है. वुहान इंस्टीट्यूट में बैट कोरोनावायरस पर रिसर्च करने वाली एक शीर्ष शोधकर्ता शी ने पूर्व में घातक नए वायरस की उत्पत्ति को लेकर सवाल उठने के दौरान मार्च 2020 में कहा था कि सार्स-कोव-2 का जेनेटिक कोड उनकी लैब में किसी भी नमूने से मेल नहीं खाता है.

निश्चित रूप से नागालैंड के अध्ययन का सार्स-कोव-2 से कोई लेना-देना नहीं था.

एनसीबीएस के मुताबिक, इसे ‘ऑब्जर्वेशनल’ अध्ययन कहा जाना चाहिए जो ये बताता है कि नागालैंड में बैट हार्वेस्टिंग आदि के जरिये इंसानों और वन्यजीवों के बीच उच्च जोखिम वाले संपर्कों से जूनोटिक स्पिलओवर के मौके बढ़ते हैं. जूनोसिस से आशय है ऐसी बीमारियां जो जानवरों से मनुष्यों में फैल सकती है. नागालैंड की बात करें तो बैट हार्वेस्टिंग अक्टूबर में मनाए जाने वाले एक त्योहार से संबद्ध है जिसमें मांस के लिए चमगादड़ों का शिकार किया जाता है. ऐसा माना जाता है कि इससे पौरुष क्षमता बढ़ती है. यूएस डीटीआरए ने इबोला, सार्स और मर्स के प्रकोप के मद्देनजर चमगादड़ों पर ऐसे कई अध्ययनों को वित्त पोषित किया है.

नागालैंड में अध्ययन के लिए फील्ड वर्क 2017 में किया गया था और इसकी रिपोर्ट अक्टूबर 2019 में वैज्ञानिक पत्रिका पीएलओएस नेग्लेक्टेड ट्रॉपिकल डिजीज में प्रकाशित की गई थी. और माना गया था कि यह शोध वहीं पर खत्म हो गया था.

एक अहम बात यह है कि फरवरी 2020 में जब दुनिया ने कोविड महामारी का सामना करना शुरू किया था, भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने एनसीबीएस के नागालैंड अध्ययन की जांच की घोषणा की और वो भी यह बताए बिना कि जांच किस वजह से की जा रही और शीर्ष चिकित्सा अनुसंधान निकाय इसके पीछे क्या वजहें तलाश रहा है. यह ऐसा था कि सरकार का ही एक अंग दूसरे अंग की जांच कर रहा था.

सबसे ज्यादा अचरज की बात है कि 15 महीने बाद भी आईसीएमआर ने अपने निष्कर्षों को सार्वजनिक नहीं किया है और दिप्रिंट की तरफ से संपर्क किए जाने पर कोई ब्योरा साझा करने से इनकार कर दिया. और जिस अध्ययन के बारे में माना जा रहा था कि पूरा हो चुका है, दिप्रिंट को मिली जानकारी के मुताबिक वह अभी भी चल रहा है, जैसा कि एनसीबीएस प्रोजेक्ट की प्रमुख शोधकर्ता का कहना है कि ‘आगे काम करना आवश्यक है.’

लेकिन सरकार में कोई भी इसका जिम्मा लेने को तैयार नहीं है.

Graphic by Soham Sen | ThePrint
चित्रण: सोहम सेन | दिप्रिंट

इसमें ‘फायदे’ की बात क्या थी?

अभी जो बड़ा सवाल उपजा है- खासकर सार्स-कोव-2 को लेकर इसी तरह के सवालों के बाद, वो यह है कि क्या एनसीबीएस का अध्ययन एक गेन ऑफ फंक्शन रिसर्च है या इसके पीछे कोई गेन ऑफ फंक्शन एलीमेंट था.

गेन ऑफ फंक्शन’ ऐसी रिसर्च से जुड़ा क्षेत्र है जिसमें वायरस के म्यूटेशन के कारण माइक्रोऑर्गनिज्म की बढ़ती पीढ़ियों पर फोकस किया जाता है. इन प्रयोगों को ‘गेन ऑफ फंक्शन’ कहा जाता है क्योंकि इनमें पैथोजन में इस तरह से बदलाव किया जाना शामिल होता है कि वे किसी फंक्शन में या उसके जरिये कुछ वृद्धि हासिल करते हैं जैसे कि संक्रामक क्षमता बढ़ जाना आदि.

गेन ऑफ फंक्शन शब्द पिछले कुछ हफ्तों से दुनिभाभर में सुर्खियों में है, खासकर सार्स कोव-2 की उत्पत्ति और इसमें वुहान इंस्टीट्यूट की संभावित भूमिका को लेकर वुहान और अमेरिका से आने वाली रिपोर्टों की वजह से. खासकर ऐसी रिपोर्ट चिंताजनक रही हैं जिनमें कहा गया है कि वुहान में अमेरिकी सरकार के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ (एनआईएच) की तरफ से ब्रिटिश जूलॉजिस्ट पीटर दासजक के न्यूयॉर्क स्थित गैर-लाभकारी संगठन इकोहेल्थ एलायंस (ईएचए) के माध्यम से चमगादड़ों पर गेन ऑफ फंक्शन रिसर्च कराए जाने का पता लगा है.

दासजक भी संदेह के घेरे में हैं क्योंकि उन्होंने ही फरवरी 2020 की शुरुआत में लांसेट में प्रकाशित उस ओपन लेटर का मसौदा तैयार किया था और हस्ताक्षर किए थे, साथ ही 12 अन्य वैज्ञानिकों का समर्थन हासिल किया था जिसमें वायरस के लैब से लीक होने संबंधी किसी भी संभावना पर चर्चा को खत्म करने की जरूरत बताई गई थी.

दिप्रिंट की रिपोर्ट के मुताबिक ईएचए ने भारत में भी काम किया है लेकिन पशुपालन और निपाह वायरस के क्षेत्र में ही सक्रिय रहा है.

एनसीबीएस के निदेशक प्रो. सत्यजीत मेयर ने स्पष्ट किया है कि नागालैंड का अध्ययन कोई गेन ऑफ फंक्शन प्रोजेक्ट नहीं है और किसी भी तरह से सार्स कोव-2 की उत्पत्ति को लेकर मौजूदा विवादों से भी जुड़ा नहीं है.

मेयर ने दिप्रिंट को बताया, ‘यह पूरी तरह वैध शोध है और गेन ऑफ फंक्शन जैसा कुछ नहीं है. यह सिर्फ ऑब्जर्वेशनल स्टडी है. हम देश में संस्थागत सुरक्षा और नैतिकता संबंधी समितियों के कड़े मानक रखते हैं. वे सिर्फ रबर स्टैंप नहीं हैं. हमने हर स्तर पर जरूरी मंजूरियां हासिल की हैं.’

मेयर ने कहा कि एनसीबीएस ने कभी भी वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी के साथ कोई सहयोग नहीं लिया है.

उन्होंने कहा, ‘सिंगापुर में हमारे सहयोगियों ने वुहान इंस्टीट्यूट से रीएजेंट लिए थे- वे दुनियाभर से मिलने वाले रीएजेंट का इस्तेमाल करते हैं. विज्ञान के क्षेत्र में इसी तरह काम होता है. हम एक-दूसरे के ज्ञान का इस्तेमाल करके आगे बढ़ते हैं. अगर हम ऐसा नहीं करते तो पाषाण युग में ही होते और फिर से पहिये की खोज में जुटे होते. ग्रांट को डीएई की तरफ से मंजूरी दी गई थी.’

चमगादड़ पर अध्ययन के लिए रीएजेंट और टूल आसानी से उपलब्ध नहीं होते हैं और रीएजेंट में चमगादड़ के वायरस के सिंथेटिक रीकॉम्बीनेंट हिस्से भी शामिल किए जा सकते हैं जिस पर अध्ययन जारी है.

एनसीबीएस टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (टीआईएफआर) का हिस्सा है, जो कि परमाणु ऊर्जा विभाग (डीएई) के अंतर्गत आता है.

मेयर ने यह भी कहा कि उन्होंने जांच पर आईसीएमआर की तरफ से कुछ नहीं सुना है. उन्होंने कहा, ‘चूंकि इसे डीएई की तरफ से मंजूरी दी गई थी तो यह कुछ इसी तरह का मामला है कि सरकार का ही एक हिस्सा दूसरे हिस्से की जांच कर रहा हो.’


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अध्ययन के लिए नागालैंड को क्यों चुना गया

जैसा कि सर्वविदित है कि चमगादड़ फिलोवायरस समेत कई जूनोटिक पैथोजेन का भंडार हैं. फिलोवायरस में घातक इबोला भी शामिल होता है और इसे मनुष्यों में बुखार के साथ रक्तस्राव की समस्या उत्पन्न करने वाले के तौर पर जाना जाता है. फिलोवायरस वायरस की एक फैमिली है, संरचना के लिहाज से कोरोनावायरस से भिन्न है क्योंकि इसमें एक फिलामेंटस स्ट्रक्चर होता है.

एनसीबीएस अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं को नागालैंड और वहां भी खासकर एक छोटे से गांव मिमि ले जाया गया जो म्यांमार के साथ लगी सीमा पर स्थित किफिर जिले में हैं. सरामती पर्वत की तलहटी में बसे इस गांव में लांगपफुरि यिमचुंगी की एक उप-जनजाति बोमर कबीले के लोग रहते हैं.

पिछली सात पीढ़ियों से बोमर हर साल अक्टूबर में एक बैट हार्वेस्टिंग उत्सव मनाते हैं जिसमें चमगादड़ों से भरे गुफाओं में धुंआ करते हैं. इस दौरान अक्सर ही इन शिकारियों को चमगादड़ खरोंच मारते हैं और काट लेते है, जिससे वे वायरस के संपर्क में आ जाते हैं.

यही स्पिलओवर है जो एनसीबीएस के अध्ययन का विषय था.

एनसीबीएस चमगाड़दों से मनुष्यों में होने वाले ट्रांसमिशन पर 2012 से ही काम कर रहा है. इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में 2015 के एक लेख के अनुसार, बोमर कबीले के लोग चमगादड़ के औषधीय महत्व में विश्वास करते हैं. उनके मुताबिक इनके सेवन से डायरिया, बदन दर्द जैसी बीमारियों का इलाज हो सकता है. साथ ही ये पौरुष भी बढ़ाते हैं.

2014-15 में इबोला प्रकोप के दौरान ट्रांसमिशन मैकेनिज्म को लेकर शोध करने वालों की मिमि गांव के प्रति रुचि एकदम चरम पर थी. माना जाता है कि इबोला वायरस चमगादड़ से इंसानों में आया है, संभवत: किसी एक अन्य जानवर के माध्यम से.

एनसीबीएस के प्रोजेक्ट में शीर्ष शोधकर्ता डॉ. उमा राधाकृष्णन ने पुष्ट किया कि ऐसा प्रोजेक्ट चल रहा था. उन्होंने दिप्रिंट के सवालों के जवाब में कहा, ‘अध्ययन जारी है लेकिन हमारे पास इस समय साझा करने के लिए कोई निश्चित निष्कर्ष नहीं है. आगे काम करना आवश्यक है.’

राधाकृष्णन ने कहा, ‘अध्ययन दर्शाते हैं कि बैट हार्वेस्टिंग जैसे उच्च जोखिम वाले मानव-वन्यजीव संपर्कों से जूनोटिक स्पिलओवर की संभावनाएं बढ़ती हैं. हम अभी कोरोनवाइरिडी सहित कई अन्य वायरल फैमिली इसमें शामिल करने की प्रक्रिया में हैं. भविष्य में महामारियों के खतरे से निपटने के लिए मोटे तौर पर पूर्वोत्तर जैसे क्षेत्रों में स्पिलओवर की डॉयनमिक्स समझने की जरूरत है जहां व्यापक स्तर पर मानव-वन्यजीव संपर्क होता है.’

कोरोनावायरस कोरोनावाइरिडी की ही एक सब-फैमिली से संबंधित हैं.

राधाकृष्णन ने कहा कि अध्ययन में ‘चमगादड़ और इंसानों में कुछ फिलोवायरस के स्पिलओवर, जिसे शेयर्ड सीरोलॉजिकल रिस्पांस (फिलोवायरस के लिए) के जरिये मापा गया, की संभावनाओं को आंका गया. फिलोवायरस मौजूदा महामारी का कारण बने कोरोनावायरस से अलग होते हैं.

आईसीएमआर की तरफ से अध्ययन की जांच का ऐलान किए जाने के बाद एनसीबीएस ने 3 फरवरी 2020 को जारी एक बयान में कहा था, ‘2017 में एनसीबीएस और ड्यूक-एनयूएस ने एक सहयोग किया था जिसके तहत एनसीबीएस के शोधकर्ताओं ने चमगादड़ और मनुष्यों से सीरम के नमूने एकत्र किए. ड्यूक-एनयूएस की तरफ से उपलब्ध कराई गई टेक्नोलॉजी का एनसीबीएस में इन नमूनों का टेस्ट किया था. फिर इन नतीजों को ड्यूक-एनयूएस टीम के साथ साझा किया गया ताकि वे अपने दक्षिणपूर्व एशियाई अध्ययनों से हासिल आंकड़ों से इनकी तुलना कर सकें.’

इसमें बताया गया है, ‘यह अध्ययन अक्टूबर 2019 में ‘फिलोवायरस-रिएक्टिव एंटीबॉडीज इन ह्यूमन एंड बैट इन नॉर्थईस्ट इंडिया इंप्लाई जूनोटिक स्पिलओवर ’ शीर्षक वाले पेपर में प्रकाशित हुआ था. यह पीएलओएस नेगलेक्टेड ट्रॉपिकल डिजीज में भी प्रकाशित हुआ, जो एक बहु-प्रतिष्ठित पीर रिव्यू वाला ओपन-एक्सेस जर्नल है, जिसके लेख सभी पाठकों के लिए बिना किसी सदस्यता शुल्क के उपलब्ध होते हैं.

वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी के शोधकर्ता सीधे तौर पर इस अध्ययन में शामिल नहीं थे. उन्हें केवल को-ऑथर (सह-लेखक) के तौर पर सूचीबद्ध किया गया क्योंकि उन्होंने ड्यूक-एनयूएस को अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण रीएजेंट की आपूर्ति की थी. यह साइंटिफिक ऑथरशिप में एक सामान्य प्रक्रिया है.’

इसमें यह भी बताया गया था कि चूंकि अध्ययन के प्रमुख लेखक ड्यूक-एनयूएस से संबद्ध हैं, इसलिए पेपर के फंडिंग स्टेटमेंट में यूएस डिफेंस थ्रेट रिडक्शन एजेंसी (डीटीआरए) से ड्यूक-एनयूएस को फंडिंग मिलने का उल्लेख है. साथ ही जोड़ा गया, ‘एनसीबीएस को सीधे तौर पर डीटीआरए से रिसर्च फंड नहीं मिला है.’


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‘उपयुक्त स्थान’

अपना पक्ष रखते हुए अमेरिकी डीटीआरए का कहना है कि उसने इबोला, सार्स और मर्स के प्रकोप के मद्देनज़र चमगादड़ों पर कई अध्ययनों को वित्त पोषित किया है.

डीटीआरए के साइंस प्रोग्राम पर एक नज़र डालें तो पता चलता है कि एनसीबीएस नागालैंड के अध्ययन को वित्तपोषित करने के साथ यह अमेरिका, जॉर्डन, युगांडा, तंजानिया और कंबोडिया समेत कई अन्य देशों में भी चमगादड़ों पर शोध को वित्त पोषित कर रहा था. उनमें से कुछ कोरोनावायरस पर थे.

एनसीबीएस के संबंध में डीटीआरए का 2017 का साइंस प्रोग्राम रिव्यू कहता है, ‘भारत में बैट हार्वेस्टिंग एक आम बात है क्योंकि इससे उनकी संख्या में काफी इजाफा हो सकता है. उनके संपर्क में आने और मृत चमगादड़ों के मांस के इस्तेमाल से क्रॉस स्पीशीज ट्रांसमिशन के लिए यह जगह एकदम उपयुक्त होती है.’

इसमें आगे कहा गया, ‘जहां पर बैट हार्वेस्टिंग होती है, वहां शिकार के पहले और बाद में चमगादड़ों की आबादी का नमूना लेकर हम यह पता लगा सकते हैं कि क्या हार्वेस्टिंग से वायरस फैलने में तेजी आती है और मेडिकल क्षेत्र के लिहाज से बात करें तो इन चमगादड़ों में कौन से अहम वायरस संचरण कर रहे हैं, इससे हमें ये जोखिम मॉडल स्थापित करने का मौका भी मिलेगा कि भारत में कौन-सी प्रजाति नेचुरल वायरस का भंडार हो सकती है.’

हालांकि, सबसे बड़ी बात यह है कि भारत सरकार की तरफ से कोई भी सार्वजनिक रूप से इस अध्ययन या अध्ययन में निकले नतीजों की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता है.

दिप्रिंट ने आईसीएमआर की जांच के नतीजों से संबंधित ब्योरे के लिए फोन और ई-मेल के जरिये आईसीएमआर, ई-मेल के जरिये प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार प्रोफेसर के. विजयराघवन तक से संपर्क साधा.

विजयराघवन ने कहा, ‘कृपया डीएई के चेयरमैन और एनसीबीएस-टीआईएफआर के डायरेक्टर से संपर्क साधें. वही इस पर उपयुक्त ब्योरा मुहैया करा सकते हैं.’

पीएमओ की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई. डीएई सचिव के.एन. व्यास ने भी कोई उत्तर नहीं दिया.

पूर्व स्वास्थ्य सचिव प्रीति सूदन ने कहा कि उन्हें जांच के निष्कर्षों के बारे में कोई जानकारी नहीं है. आईसीएमआर के महानिदेशक डॉ. बलराम भार्गव ने ई-मेल, फोन कॉल और व्हाट्सएप मैसेज पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.

आईसीएमआर के एक वरिष्ठ अधिकारी ने जरूर नाम न छापने की शर्त पर कहा, ‘हां, एक जांच शुरू की गई थी लेकिन हम निष्कर्षों को जाहिर नहीं कर सकते क्योंकि इस तरह की जांच आमतौर पर या तो पीएमओ या विदेश मंत्रालय की तरफ से की जाती है. इसके नतीजे सार्वजनिक करना भी उन पर ही निर्भर करता है.’

दिप्रिंट ने अध्ययन के प्रमुख शोधकर्ता ड्यूक-नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर मेडिकल स्कूल, प्रोग्राम इन इमर्जिंग इंफेक्शियस डिजीज के इयान मेंडेनहॉल से भी संपर्क साधा. लेकिन यह रिपोर्ट प्रकाशित होने तक उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं आया था.


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स्वामी के आरोप

आईसीएमआर के पूर्व डीजी डॉ. एन.के. गांगुली, जिन्हें भारत के स्वास्थ्य एवं वैज्ञानिक प्रतिष्ठान में काम करने का अच्छा-खासा अनुभव रहा है, का कहना है कि अमेरिकी संगठन एनआईएच भारतीय प्रोजेक्ट के लिए फंडिंग करता है लेकिन यूएस डीओडी की तरफ से ऐसा किया जाना सामान्य बात नहीं है.

उन्होंने कहा कि चमगादड़ों से वायरस का फैलना खतरनाक नहीं है लेकिन भारत में ऐसे किसी भी प्रोजेक्ट के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय की स्क्रीनिंग कमेटी (एचएमएससी) की तरफ से मंजूरी लिए जाने की जरूरत है, जिसकी अध्यक्षता आईसीएमआर के डीजी करते हैं.

गांगुली ने कहा, ‘मुझे नहीं पता कि उन्हें फंडिंग कैसे मिली.’

एचएमएससी की मंजूरी के बाबत समझने के उद्देश्य से दिप्रिंट ने जिनेवा में विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्रमुख वैज्ञानिक डॉ. सौम्या स्वामीनाथन से संपर्क साधा, क्योंकि वह अगस्त 2015 और नवंबर 2017 के बीच आईसीएमआर की डीजी थीं. भारत में विदेशी फंडिंग से चमगादड़ों पर रिसर्च के बाबत पूछे जाने पर उनका जवाब था, ‘मुझे चमगादड़ों पर किसी रिसर्च के लिए आईसीएमआर की तरफ से फंडिंग के बारे में कोई जानकारी नहीं है.’

हालांकि, इस अध्ययन ने तब राजनीतिक मोड़ ले लिया जब भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने इस मुद्दे को उठाया.

उन्होंने 3 जनवरी 2021 को ट्वीट किया, ‘वुहान यूनिवर्सिटी और पीएलए के सहयोग से टाटा के एनसीबीएस द्वारा नागालैंड में चमगादड़ों पर किए गए अवैध अध्ययन के खिलाफ सीबीआई में शिकायत दर्ज कराऊंगा. एनसीबीएस के साथ अमेरिकी सेना भी शामिल हो सकती है. यह पूरी तरह राष्ट्र-विरोधी और अवैध है क्योंकि आईसीएमआर से अनिवार्य मंजूरी नहीं ली गई थी.’

उसी दिन उन्होंने एक दूसरे ट्वीट में लिखा, ‘नागालैंड में बैट वायरस पर अध्ययन स्वास्थ्य मंत्रालय के तहत आने वाले आईसीएमआर को नहीं सौंपा गया था जबकि यह अनिवार्य है. गैरकानूनी तरीके से किए गए अध्ययन की रिपोर्ट पर वुहान यूनिवर्सिटी की बैट वुमेन शी झेंगली और टाटा के एनसीबीएस की उमा रामकृष्णन की तरफ से हस्ताक्षर किए गए थे. स्थायी समिति की सुनवाई के दौरान मेरी तरफ से पूछे गए सवाल पर यह बात स्वीकार भी की गई थी.’

दिप्रिंट ने जब स्वामी से संपर्क किया, तो उन्होंने कोई टिप्पणी करने से इनकार कर दिया.

(वाई.पी. राजेश द्वारा संपादित)

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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