कोविड-19 महामारी के दौरान कई परिस्थितियों ने भारत का बहुत साथ दिया है. तथ्यात्मक रूप से देखें तो दो प्रमुख फैक्टर भारत के हित में रहे हैं, एक यह कि बीमारी देश में थोड़े अंतराल के बाद आई— जिसने डॉक्टरों को इसे बेहतर ढंग से समझने का मौका दे दियाऔर अपेक्षाकृत युवा आबादी के कारण ही यहां इसके शिकार लोगों की संख्या कम रहना सुनिश्चित हो सका. इसलिए दुनिया के बाकी हिस्सों की तुलना में भारत का रिपोर्ट कार्ड बेहतर ही रहा है.
लेकिन महीनों तक लगातार गिरावट के बाद यह बीमारी कई राज्यों में एक बार फिर बढ़ रही है. इस सबकी परवाह न करते हुए बुजुर्गों के लिए टीकाकरण अभियान को आगे बढ़ाने का मोदी सरकार का फैसला एक और सुखद संयोग बन सकता है जिससे भारत को कर्व में आगे रहने में मदद मिलती रहे. और यही वजह है कि 60 साल या उससे अधिक उम्र के लोगों और कोमोर्बिडिटी वाले 45 से 60 साल की उम्र के लोगों के लिए टीकाकरण अभियान शुरू करने का कैबिनेट का फैसला दिप्रिंट के लिए न्यूज़ मेकर ऑफ द वीक है.
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हिचकिचाहट
पिछले 24 घंटों के दौरान सामने आए 16,577 नए केस में 86.18 प्रतिशत अकेले छह राज्यों— महाराष्ट्र, केरल, पंजाब, तमिलनाडु, कर्नाटक और गुजरात के हैं. एक तरह से देखा जाए तो अच्छी बात है कि भारत में टीकाकरण अभियान का पहला चरण, स्वास्थ्य सुरक्षा और फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं को खुराक दिया जाना, थोड़ी-बहुत हिचकिचाहट के साथ ही शुरू हुआ था. सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर घोषित तौर पर यह माना जाता है कि किसी बीमारी के प्रति डर की घटना वैक्सीन को लेकर हिचकिचाहट का एक प्रमुख कारण होता है.
16 जनवरी को शुरू हुए टीकाकरण कार्यक्रम के तहत लक्षित कुल तीन करोड़ हेल्थकेयर और फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं में सिर्फ 1.34 करोड़ को शुक्रवार तक कवर किया जा सका है. यह लक्षित आबादी के एक-तिहाई से थोड़ा ज्यादा है. सरकार की ओर से कई बार अपील करना और यहां तक कि ऐसी ‘चेतावनियां’ देना भी कुछ खास कारगर नहीं रहा कि यदि पंजीकृत व्यक्ति ने अपनी बारी आने पर खुराक न ली तो फिर उसे वैक्सीन नहीं दी जाएगी, जब तक कि वह उम्र के मानदंड पर खरा न उतरता हो. नौ राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में कुल पंजीकृत स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं (एचसीडब्ल्यू) में से 60 फीसदी से कम का और 13 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों में पंजीकृत फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं (एफएलडब्ल्यू) में 40 प्रतिशत से कम का टीकाकरण हुआ है.
देश में 45 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों को वैक्सीनेशन के दायरे में लाते हुए टीकाकरण अभियान का विस्तार करना ऐसे समय में एक बहुत अच्छा कदम कहा जाएगा जब महाराष्ट्र एक और लॉकडाउन की तरफ बढ़ रहा है, कई राज्यों ने सर्वाधिक प्रभावित राज्यों से आने वालों के लिए आरटी-पीसीआर निगेटिव सर्टिफिकेट अनिवार्य कर दिया है और कंटेनमेंट जोन की वापसी (वासिम का हॉस्टल जहां 200 लोगों पॉजिटिव निकले) हो रही है. लोग अब एक महीने या उससे थोड़ा पहले के समय की तुलना में खुराक लेने के लिए ज्यादा तैयार होंगे, जब ऐसा लग रहा था कि महामारी खत्म होने के कगार पर हैं.
यद्यपि यह एक अच्छी बात है कि देश में अनुमानित 27 करोड़ लोगों के वैक्सीनेशन का कार्यक्रम तकनीकी खामी मुक्त एप (कोविन) पर पंजीकरण के जरिये चलाया जा रहा है. इस विविधता भरे देश में किसी के पास रजिस्ट्रेशन के लिए बस एक स्मार्टफोन ही होने की जरूरत पहली बाधा भी है. यही अंतिम या सबसे बड़ी चुनौती साबित होगी.
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…बनाम वैक्सीन की हड़बड़ाहट
सरकार के सामने एक बड़ी समस्या यह हो सकती है कि पहले चरण की वैक्सीन को लेकर जो हिचकिचाहट दिख रही थी वो उतनी ही तेजी से वैक्सीन लेने की आम लोगों की हड़बड़ाहट में बदलने लगे और इसके साथ ही कोमोर्बिडिटी, जो अन्य गंभीर रोगों के कारण लोगों में कोविड-19 का जोखिम बढ़ा देती है, के प्रमाणपत्रों का तेजी से अंबार लग जाए.
सरकार के ये घोषित कर देने के साथ कि एक रजिस्ट्रर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर का पर्चा ही पर्याप्त होगा, एक ऐसे देश में कागजात सही होने की गारंटी कौन ले सकता है जहां सिक लीव के लिए मेडिकल सर्टिफिकेट खुलेआम खरीदे जाते हैं? टीके को लेकर उत्सुकता बढ़ने की संभावना इसलिए भी है क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राज्य के मुख्यमंत्रियों द्वारा इसी दूसरे चरण में खुराक लिए जाने की उम्मीद है. मोदी को आदर्श मानने वालों के आगे आने से जनता में कोविड-19 वैक्सीन को लेकर भरोसा और ज्यादा बढ़ सकता है, जिसकी बहुत जरूरत भी है.
बहरहाल, जब बुजुर्गों और गंभीर रोगों से पीड़ित लोगों को बड़ी संख्या में वैक्सीन लगेगी तो टीकाकरण के बाद होने वाले प्रतिकूल असर (एईएफआई) का जोखिम भी बढ़ सकता है. भारत ने टीकाकरण के बाद मौत की 39 घटनाएं देखी हैं और आधिकारिक स्थिति यह है कि कोई भी मौत टीकाकरण से नहीं ‘जुड़ी’ है.
यह तो बाद में ही पता चलेगा कि आम तौर पर अभी तक स्वस्थ स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को दी गई वैक्सीन का बुजुर्गों और अन्य रोगों से पीड़ित लोगों पर क्या असर होता है. किसी भी अप्रिय घटना को टालने और यहां तक कि वैक्सीन को लेकर फिर हिचकिचाहट की स्थिति न आने देने का सारा दारोमदार पूरे तौर पर सरकारी तंत्र की सक्रियता पर टिका हुआ है.
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लागत और कम्युनिकेशन
महामारी पर मोदी सरकार के कम्युनिकेशन में राज्यों की संचार मशीनरी का वास्तविक सूचनाओं के साथ कदमताल मिलाने में अनिच्छा दिखाना खुलकर सामने आया है, यह अब भी एक समस्या बनी हुई है. बुजुर्गों को शामिल करने वाले टीकाकरण के विस्तारित चरण के लॉन्च में तीन दिन भी नहीं बचे हैं लेकिन कोविन वेबसाइट पब्लिक के लिए नहीं खुली है और इस पर भी कोई बयान नहीं आया है कि लॉन्च की तारीख से पहले पंजीकरण संभव होगा या नहीं. इस पर भी कोई स्पष्टता नहीं है कि क्या निजी अस्पतालों को वैक्सीन फ्री मिलेगी, या फिर यहां दी जाने वाली प्रति खुराक की कीमत कितनी होगी और सबसे बड़ी बात कि टीकाकरण के बाद अस्पताल में भर्ती होने की नौबत आने पर खासकर निजी अस्पतालों में, इसका खर्च कौन वहन करेगा.
मोदी सरकार पहले ही कह चुकी है कि कोविड-19 टीकाकरण को प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना— जो एनडीए सरकार के महत्वाकांक्षी स्वास्थ्य कार्यक्रम आयुष्मान भारत की तीसरे स्तर की स्वास्थ्य देखभाल व्यवस्था है— के तहत कवर नहीं किया जाएगा, यहां तक कि जिन निजी अस्पतालों को टीका दिया जाएगा उनके लिए भी नेशनल हेल्थ अथॉरिटी या केंद्र की सरकारी स्वास्थ्य योजना (सीजीएचएस) के तहत पैनल में सूचीबद्ध होना जरूरी होगा. क्या एईएफआई जैसी स्वास्थ्य समस्याओं पर होने वाला खर्च पीएमजेएवाई या सीजीएचएस के तहत कवर होगा? हमें इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है.
(व्यक्त विचार निजी हैं)
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