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Thursday, 25 April, 2024
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भारत में 7,000 से ज्यादा कोविड म्यूटेशंस- ये कहां से आए हैं और इन्हें कैसे समझा जाए

‘पैतृक’ म्यूटेशन से लेकर इम्यून इवेशन तक, भारत में प्रचलित बहुत से कोविड वेरिएंट्स के बारे में बुनियादी बातें जानिए.

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बेंगलुरू: जैसे-जैसे सार्स-सीओवी-2 फैलता जा रहा है और भारत में मामलों की संख्या फिर से बढ़ने लगी है, देश में फैल रहे वायरस के विभिन्न वेरिएंट्स फिर से ध्यान आकर्षित कर रहे हैं.

ये वेरिएंट्स और इनके म्यूटेशंस, देश के कई राज्यों में पाए गए हैं जिनमें दिल्ली, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, केरल, कर्नाटक, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और तेलंगाना शामिल हैं.

भारत में 7,000 से ज़्यादा म्यूटेशंस पाए गए हैं. स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार, इनमें से कुछ म्यूटेशंस देश में ज़्यादा प्रचलित हैं लेकिन मामलों के बढ़ने में इनका कोई योगदान नहीं है.

ये एक प्रारंभिक जानकारी है, इन वेरिएंट्स, इनके म्यूटेशंस और इनकी ज्ञात क्षमताओं के बारे में.


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वायरस वर्ड क्लाउड को समझना

‘स्ट्रेन’ शब्द को अक्सर ‘वेरिएंट’ और ‘लीनिएज’ शब्दों के स्थान पर इस्तेमाल कर लिया जाता है. लेकिन इन तीनों में अंतर है.

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स्ट्रेन जिनेटिक रूप से वायरस के परिवार में, एक अलग उप-प्रकार होता है. स्ट्रेन क्या है इसकी सार्वभौमिक रूप से स्वीकार्य, कोई परिभाषा तो नहीं है लेकिन इसके अंदर एक वायरस परिवार के भीतर अलग-अलग तरह के वायरस होते हैं.

मसलन, कोरोनावायरस परिवार के अंदर, सार्स-सीओवी-2 एक अलग स्ट्रेन है, जैसा कि सार्स-सीओवी वायरस है, जिसने 2003 में प्रकोप फैलाया था, और मर्स-सीओवी वायरस जो 2012 में प्रकोप लाया था. कोरोनावायरस के कुछ दूसरे स्ट्रेन्स, जैसे 229ई, एनएल63, ओसी43, और एचकेयू1, इंसानों में हल्का कॉमन कोल्ड पैदा करते हैं.

वेरिएंट किसी स्ट्रेन का उप-प्रकार होता है, जो जिनेटिक रूप से उस स्ट्रेन के मूल रूप से अलग होता है लेकिन इतना अलग नहीं होता कि उसे खुद से स्ट्रेन की श्रेणी में रखा जा सके.

उदाहरण के तौर पर, अधिक संक्रामक वेरिएंट बी.1.1.17, जिसे यूके वेरिएंट कहा जाता है, तकनीकी रूप से एक वेरिएंट है, स्ट्रेन नहीं है. वेरिएंट एक या कई म्यूटेशंस से मिलकर बनता है, जिसकी वजह से ये वायरस के मूल रूप से अलग हो गया है. बी.1.1.17 वेरिएंट कई म्यूटेशंस कैरी करता है, जैसे एन501वाई, पी681एच आदि.

वर्तमान में, दुनिया भर में फैले प्रमुख वेरिएंट्स में, बी.1.1.17 यूके वेरिएंट, ब्राज़ील के मनॉस से पी.1 वेरिएंट, ब्राज़ील से ही बी.1.1.248, और दक्षिणी अफ्रीका से 501.वी2 वेरिएंट शामिल हैं.

‘वेरिएंट’ के साथ ‘लीनिएज’ और ‘क्लेड’ शब्द भी इस्तेमाल किए जा रहे हैं.

एक वेरिएंट अलग-अलग म्यूटेशंस से बना होता है, जो किसी वायरस की जिनेटिक्स में एक विशेष बदलाव होता है.

कोरोनावायरस दरअसल रीबोन्यूकलेक एसिड (आरएनए) वायरस होते हैं, जो लगातार बढ़ते रहते हैं. जैसे-जैसे वायरस बढ़ते हैं, हर आरएनए सीक्वेंस के कोड में मामूली एरर्स और बदलाव होते हैं और ऐसे हर बदलाव को म्यूटेशन कहा जाता है.

म्यूटेशंस को न्यूक्लियोटाइड बदलावों की शक्ल में लिखा जाता है- जब बदला हुआ आरएनए कोड एक एमिनो एसिड पैदा करता है, जो वायरस के पिछले रूप द्वारा पैदा किए गए एसिड से अलग होता है और वो स्थिति जहां ये बदलाव होता है.

मसलन, डी614जी म्यूटेशन सार्स-सीओवी-2 वायरस के स्पाइक प्रोटीन को, इस तरह प्रभावित करता है कि 614वीं पोज़ीशन पर डी (ग्लाइसीन) एमिनो एसिड की जगह, जी (ग्लाइसीन) एमिनो एसिड ले लेता है.


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भारत में प्रमुख म्यूटेशंस

D614G

जो म्यूटेशंस सामने आए, उनमें डी614जी उन देशों में तेज़ी से फैला, जहां बीमारी पर ठीक से काबू नहीं पाया गया था. वो भारत (ए2ए वेरिएंट के हिस्से के तौर पर, जो यूरोप में शुरू हुआ) फ्रांस और अमेरिका जैसे देशों में फैला और इन देशों में एक प्रमुख म्यूटेंट बन गया.

इसे अब ‘पैतृक’ म्यूटेशन जी614 कहा जाता है- डी एमिनो एसिड की जगह जी एमिनो एसिड ने ले ली. इसे महामारी का एक प्रमुख म्यूटेशन भी माना जाता है, जिसने एल और एस प्रकार के वायरस की जगह ले ली है, जो पिछले साल महामारी के शुरूआती दिनों में पाए जाते थे.

उसके बाद से इसने दूसरे म्यूटेशंस के साथ, नए वेरिएंट्स पैदा किए हैं, जो आज फैल रहे हैं.

कृत्रिम परिवेशीय या लैब में तैयार इस म्यूटेशन ने, ऊंचे वायरल लोड्स और संक्रामकता (संक्रमण फैलाने की क्षमता) फैलाने की क्षमता तो दिखाई लेकिन बीमारी की गंभीरता नहीं बढ़ाई. कुछ प्रयोगों में इसने जानवरों के अंदर संक्रमण पहुंचाया और प्रतिकृति का भी प्रदर्शन किया.

विशेष रूप से, वैक्सीन के असर में म्यूटेशन कोई चिंता का विषय नहीं है.

N501Y

ये म्यूटेशन एमिनो एसिड पोज़ीशन 501 को, एस्पेरेजीन (एन) से बदलकर टायरोसीन (वाई) कर देता है. स्पाइक प्रोटीन में इसकी पोज़ीशन की वजह से, इसकी बाइंडिंग एबिलिटी बढ़ जाती है और ये हमारे शरीर के एसीई2 रिसेप्टर्स से बंध जाता है, जो हमारे सेल मेंब्रेन्स पर एंज़ाइम्स होते हैं, जहां से वायरस अंदर घुसकर इंसानी सेल्स की एक व्यापक रेंज को संक्रमित कर देते हैं. इस तरह, ये ज़्यादा संक्रामक होता है और अधिक तेज़ी से फैलता है.

ये म्यूटेशन स्वतंत्र रूप से, दक्षिण अफ्रीकी, ब्राज़ीली और यूके वेरिएंट में विकसित हुआ. ये इम्यून से बचने वाला म्यूटेशन है, जिसका मतलब है कि ये शरीर के इम्यून सिस्टम की पकड़ से बच सकता है. इस प्रकार, एंटीबॉडी उपचार इसे प्रभावी ढंग से बेअसर नहीं कर पाते.

चूंकि सभी वेरिएंट्स भारत में भी पाए गए हैं, भले ही वो कम हों, इसलिए कहा जा सकता है कि ये म्यूटेशन भी देश में मौजूद है.

लेकिन, अभी तक ऐसा कोई सबूत नहीं है जिससे पता चले कि वैक्सीन्स इस म्यूटेशन के खिलाफ बेअसर साबित होंगी. लेकिन, कुछ रिपोर्ट्स से पता चलता है कि ऑक्सफोर्ड-एस्त्राज़ेनेका जैसी कुछ वैक्सीन्स, दक्षिण अफ्रीकी वेरिएंट के खिलाफ उतनी असरदार नहीं हैं और उसका एक कारण ये म्यूटेशन हो सकता है.

N440K

एन440के म्यूटेशन की खोज भारत के दक्षिणी सूबों में जून के आखिर में हुई थी और तब से ये एक नई ताकत के साथ फैल रहा है. हाल ही में आंध्र प्रदेश से लिए गए जिन नमूनों की सीक्वेंसिंग की गई, उनमें लगभग 42 प्रतिशत में इसका पता चला.

इस म्यूटेशन ने अभी तक बढ़ी हुई संचरणशीलता या इम्यून से बचाव का प्रदर्शन नहीं किया है और वैक्सीन के असर के लिए, ये कोई चिंता का विषय नहीं है. विशेषज्ञों ने कहा कि आंध्र प्रदेश में इसके प्रचलन का सिर्फ ये कारण हो सकता है कि देश के दूसरे राज्यों में सीक्वेंसिंग नहीं हुई है.

इस म्यूटेशन का संबंध भारत में दोबारा संक्रमण के एक मामले से जोड़ा गया था. लेकिन, मंगलवार को स्वास्थ्य मंत्रालय ने स्पष्ट किया कि बढ़ी हुई संचरणशीलता या महाराष्ट्र में मामलों में उछाल से, उसका कोई संबंध नहीं है.

E484K

ये म्यूटेशन भी, जिसमें पोज़ीशन 484 पर ग्लूटैमिक एसिड (ई) की जगह, लाइसीन (के) ले लेता है, भारत में खोजा गया है. ये इम्यून से बचने वाला म्यूटेशन है, जिसका मतलब है कि इसके अंदर, शरीर के इम्यून सिस्टम की पकड़ से बचने की क्षमता है.

ये स्वतंत्र रूप से दो ब्राज़ील वेरिएंट्स और दक्षिण अफ्रीकी वेरिएंट में विकसित हुआ. बाद में ये यूके वेरिएंट में भी विकसित हुआ. अभी तक, ये महाराष्ट्र के तीन नमूनों में भी पाया जा चुका है.

ये म्यूटेशन या ई484 की जगह पर कोई दूसरा म्यूटेशन, एंटीबॉडीज़ द्वारा विफल किए जाने के प्रति, कम संवेदनशील होता है. इसका मतलब है कि वायरस के शरीर के एंटीबॉडीज़ द्वारा विफल किए जाने की संभावना कम है.

ऐसा माना जाता है कि एस्ट्राज़ेनेका, नोवावैक्स, और जॉनसन एंड जॉनसन वैक्सीन्स की, दक्षिण अफ्रीकी वेरिएंट के प्रति घटी प्रभावशीलता के पीछे का कारण, संभवत: यही म्यूटेशन है.

इस म्यूटेशन का संबंध भी दोबार हुए संक्रमण के मामलों से जोड़ा गया है.

E484Q

इस म्यूटेशन का भारत में पहली बार, मार्च से जुलाई 2020 के बीच पता चला था और उसके बाद ये अब फिर सामने आया है.

इस म्यूटेशन में, 484 पोज़ीशन पर ग्लूटैमिक एसिड (ई) की जगह, ग्सूटैमीन (क्यू) ले लेता है, और ये 11 दूसरे देशों में भी पाया गया है, जैसे अमेरिका, यूके, स्विटज़रलैंड, इटली, स्वीडन और दक्षिण अफ्रीका.

ये म्यूटेशन ई484 साइट पर स्थित होता है और ई484के की तरह, एंटीबॉडीज़ द्वारा विफल किए जाने के प्रति, कम संवेदनशील होता है. ई484 म्यूटेशंस दक्षिण अफ्रीकी और ब्राज़ीली वेरिएंट्स में भी विकसित हुए हैं.


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अन्य म्यूटेशंस

जैसे-जैसे वायरस निरंतर विकसित होता है, हज़ारों की संख्या में म्यूटेशंस भी लगातार सामने आते रहते हैं.

भारत में अभी तक 7,000 से ज़्यादा म्यूटेशंस की पहचान की गई है, जिनमें एन439के और क्यू493के जैसे म्यूटेशंस शामिल हैं. अभी तक इनमें से किसी ने भी बढ़ी हुई संचरणशीलता (फैलाने की क्षमता), संक्रामकता (संक्रमित करने की क्षमता) या प्रतिरक्षा से बचाव का संकेत नहीं दिया है.

लेकिन, ऐसा हो सकता है कि सीक्वेंसिंग न होने की वजह से बहुत से दूसरे म्यूटेशंस और वेरिएंट्स, तथा उनके वास्तविक फैलाव को कम करके आंका जा रहा हो.

भारत की शीर्ष वैज्ञानिक अनुसंधान संस्था, वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के, एक हालिया पेपर में कहा गया, ‘भारत में अभी तक सार्स-सीओवी-2 आईसोलेट्स की पूरी क्षमता पर सीक्वेंसिंग नहीं की जा रही है और 1.04 करोड़ दर्ज मामलों में से केवल 6,400 जिनोम्स (0.06%) जमा किए गए हैं’.

स्टडी के लेखकों ने ये भी कहा कि जिस क्षेत्र में मामलों में उछाल दर्ज हो, वहां निगरानी और सीक्वेंसिंग के प्रयास बढ़ाने से वायरस म्यूटेशन की कारगर ढंग से पहचान करने में सहायता मिलेगी. जब उनके प्रभावों का बारीकी से अध्ययन किया जा रहा हो, तो उस दौरान इससे चिंताजनक म्यूटेशंस पर नियंत्रण बनाए रखने में भी सहायता मिलेगी.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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