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Thursday, 25 April, 2024
होमहेल्थसमर्पित टीमें और सुविधाएं- भारत में 75% से ज्यादा ऑर्गन ट्रांसप्लांट प्राइवेट अस्पताल क्यों करते हैं

समर्पित टीमें और सुविधाएं- भारत में 75% से ज्यादा ऑर्गन ट्रांसप्लांट प्राइवेट अस्पताल क्यों करते हैं

हर साल 17,000-18,000 सर्जरी के साथ भारत कंप्लीट ऑर्गन ट्रांसप्लांट की संख्या के मामले में अमेरिका और चीन के बाद दुनिया में तीसरे स्थान पर है.

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नई दिल्ली: भारत में हर साल 17,000-18,000 कंप्लीट ऑर्गन ट्रांसप्लांट होते हैं, जो दुनिया में अमेरिका और चीन के बाद दूसरी सबसे ज्यादा संख्या है. लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि इनमें से तीन-चौथाई देश के निजी अस्पतालों में किए जाते हैं.

इस अंतर के बारे में सर्जन बताते हैं कि इसकी वजहें सरकारी अस्पतालों में मरीजों की संख्या बहुत ज्यादा होना, सरकारी अस्पतालों में इलाज कराने वालों की आर्थिक स्थिति, समर्पित टीमों की कमी, और मृतकों के अंगों के ट्रांसप्लांट में बाधक बनने वाली सामाजिक और सांस्कृतिक बाध्यताएं आदि हैं.

भारत का पहला सफल हार्ट ट्रांसप्लांट नई दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में 1994 में डॉ. पी. वेणुगोपाल ने किया था, जो बाद संस्थान के निदेशक बने. लेकिन उसके बाद यह कमान लगभग पूरी तरह से निजी क्षेत्र ने संभाल ली. वर्तमान में चेन्नई स्थित एमजीएम हेल्थकेयर हृदय और फेफड़ों के ट्रांसप्लांट में अग्रणी है.

हृदय, फेफड़े और अग्न्याशय सबसे कम प्रतिरोपित अंगों में शुमार हैं क्योंकि यह तभी संभव होता है जब अंगदान के लिए कोई उपयुक्त शव उपलब्ध हो. लेकिन अधिक सामान्य रूप से प्रतिरोपित अंगों जैसे लीवर और किडनी के लिए भी क्रमशः 90 प्रतिशत और 80 प्रतिशत से अधिक सर्जरी निजी क्षेत्र में होती हैं.

लखनऊ स्थित किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी और कोलकाता में सेठ सुखलाल करनानी मेमोरियल हॉस्पिटल (एसएसकेएम) जैसे कुछ सरकारी अस्पतालों ने अब ऑर्गन ट्रांसप्लांट के लिए निजी अस्पतालों के सर्जनों की मदद लेना शुरू कर दिया है, लेकिन इनकी संख्या भी बहुत कम है.

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सार्वजनिक क्षेत्र में सबसे बड़ा गुर्दा प्रत्यारोपण केंद्र चंडीगढ़ का स्नातकोत्तर चिकित्सा शिक्षा और अनुसंधान संस्थान (पीजीआईएमईआर) है, जो हर साल करीब 200 सर्जरी करता है. यह संख्या दिल्ली स्थित इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल में हर साल होने वाले ट्रांसप्लांट की एक-तिहाई ही है. लीवर ट्रांसप्लांट के मामले में देश में हर साल होने वाली 2000-2200 सर्जरी में से लगभग 250-300 अकेले दिल्ली स्थित एक निजी अस्पताल मैक्स सुपरस्पेशलिटी, साकेत में होती हैं.

डॉ. हर्ष जौहरी स्वास्थ्य मंत्रालय के तहत नेशनल ऑर्गन ट्रांसप्लांट और ऊतक संगठन (एनओटीटीओ) में सलाहकार (अंग प्रत्यारोपण) और सर गंगा राम अस्पताल, दिल्ली में गुर्दा प्रत्यारोपण मामलों के वरिष्ठ सलाहकार हैं। उनके मुताबिक, अनुमानित तौर पर भारत में सालाना 17,000-18,000 कंप्लीट ऑर्गन ट्रांसप्लांट (हृदय, लीवर, किडनी, अग्न्याशय आदि) किए जाते हैं, उनमें से 75 प्रतिशत से अधिक निजी क्षेत्र में होते हैं.

डॉ. जौहरी ने दिप्रिंट को बताया, ‘इसमें काफी हद तक विशेषज्ञता है. सर्जन और चिकित्सक समान रूप से दक्ष हैं. लेकिन ट्रांसप्लांट कार्यक्रमों के लिए जरूरी गहन बुनियादी ढांचा का अभाव होना एक बड़ी समस्या है. इसके अलावा इसमें बहुत अधिक लागत आती है. सरकारी अस्पतालों में आमतौर पर कर्मचारियों और संसाधनों की कमी होती है, इसलिए अन्य बीमारियों से जुड़े गंभीर और गैर-गंभीर मामलों में ही उनका बेहतर तरीके से इस्तेमाल किया जाता है.’

उन्होंने कहा, ‘निजी क्षेत्र में यह कारगर है क्योंकि ये काफी उत्कृष्ट स्तर के होते हैं और गंभीर किस्म की सर्जरी में सक्षम भी हैं. ये संस्थान की छवि के लिए भी अच्छा है. सरकारी क्षेत्र में, बुनियादी ढांचा बहुत अच्छा नहीं है, इसलिए जो मरीज भुगतान करने में सक्षम हैं, वे निजी क्षेत्र का विकल्प चुनना ही पसंद करते हैं.’

उन्होंने कहा कि केंद्र और राज्यों की सरकारें अब प्रत्यारोपण सर्जरी को लोकप्रिय बनाने की कोशिशों में लगी हैं लेकिन इस पर आने वाला भारी-भरकम खर्च अक्सर बड़ी बाधा साबित होता है.

जिन मरीजों का ट्रांसप्लांट होता है, उन्हें भी अपना बाकी जीवन प्रतिरक्षात्मक दवाओं पर काटना पड़ता है, और इसकी कीमत 10,000 रुपये से 15,000 रुपये के बीच हो सकती है.

हालांकि, प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना में किडनी ट्रांसप्लांट शामिल है. इसके अलावा, कई राज्य सरकारों की बीमा योजनाओं में ट्रांसप्लांट पैकेज भी शामिल हैं.

ट्रांसप्लांट से पिछड़े

भारत में ऑर्गन ट्रांसप्लांट 1980 के दशक में हुआ जब प्रतिभाशाली और विदेशों में प्रशिक्षित सर्जनों का एक समूह अपने जैसे और चिकित्सकों को प्रशिक्षित करने के लिए केंद्र स्थापित करने के लिए घर लौटा. भारत के नेशनल कंप्लीट ऑर्गन ट्रांसप्लांट कार्यक्रम की कल्पना पहली बार 2011-2012 में की गई थी.

हालांकि, विशेषज्ञों का कहना है कि इसके बावजूद ऑर्गन ट्रांसप्लांटकी जरूरत वाले भारतीयों और उनमें से जितने लोगों का ऑर्गन ट्रांसप्लांट हो पाता है, उस संख्या में एक बड़ा अंतर रहता है. स्वास्थ्य सेवा महानिदेशालय के एक अनुमान के मुताबिक, हर साल लगभग 1.8 लाख लोग गुर्दा फेल हो जाने की समस्या से पीड़ित होते हैं, लेकिन हर साल केवल 6,000 गुर्दा ट्रांसप्लांट हो पाते हैं.

डीजीएचएस के मुताबिक, ‘भारत में अनुमानित तौर पर हर साल 2 लाख मरीजों की मौत लिवर फेल फेल होने या लिवर कैंसर के कारण होती है, जिनमें से 10-15 प्रतिशत मरीजों को समय पर लिवर ट्रांसप्लांट के जरिये बचाया जा सकता है. इसलिए भारत में सालाना लगभग 25-30 हजार लिवर ट्रांसप्लांट की जरूरत है, लेकिन केवल 1,500 ही किए जा रहे हैं.’

इसके मुताबिक, ‘इसी तरह हर साल लगभग 50,000 लोग हार्ट फेल का शिकार होते हैं, लेकिन देश में सालाना 10 से 15 हार्ट ट्रांसप्लांट ही किए जाते हैं. कॉर्निया के मामले में, एक लाख की जरूरत के मुकाबले हर साल करीब 25,000 प्रत्यारोपण ही किए जाते हैं.

अंगों की तस्करी और उनकी बिक्री को लेकर पूर्व में कई रिपोर्टों का नतीजा यह है कि अंग प्रत्यारोपण देश में सबसे अधिक विनियमित चिकित्सा प्रक्रिया बन गई है. हालांकि, डॉ. जौहरी के मुताबिक, अक्सर राज्यों से केंद्र तक डेटा पहुंचने का अभाव रहता है, जिससे सर्जरी के बारे में सही ढंग से तुलना करना मुश्किल हो जाता है, हालांकि कुछ राज्य दूसरों की तुलना में बेहतर हैं.

यह अंतर आंशिक तौर पर अंगों की आसान उपलब्धता की कमी के कारण है और आंशिक तौर पर वजह यह भी है कि अंग प्रत्यारोपण के लिए शवों का इस्तेमाल अभी भी यहां बहुत लोकप्रिय नहीं है. और प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष से वित्तीय सहायता के वादे के बावजूद सार्वजनिक क्षेत्र में समर्पित प्रत्यारोपण केंद्रों की कमी भी एक बाधा है.

प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष से आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लोगों के लिए सहायता उपलब्ध है, आमतौर पर इस प्रावधान के साथ कि रोगी या उसका परिवार धन के एक हिस्से की व्यवस्था करेगा.

चंडीगढ़ के पीजीआईएमईआर में किडनी ट्रांसप्लांट सर्जरी विभाग के प्रमुख डॉ. आशीष शर्मा ने कहा कि देश में हर साल 8,000 किडनी ट्रांसप्लांट होते हैं, जिनमें से लगभग 80 प्रतिशत निजी क्षेत्र के अस्पतालों में होते हैं. इसका एक कारण यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र में समर्पित प्रत्यारोपण विभाग नहीं हैं.

उन्होंने कहा, ‘पर्याप्त प्रशिक्षण सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं. किडनी को छोड़कर किसी अन्य अंग के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के किसी भी बड़े अस्पताल में एक समर्पित प्रत्यारोपण विभाग नहीं है. आमतौर पर सर्जन इसे ऐड-ऑन के रूप में करते हैं—मसलन, गैस्ट्रो सर्जन लीवर ट्रांसप्लांट करते हैं, और यूरोलॉजी सर्जन किडनी ट्रांसप्लांट करते हैं. पूरे सार्वजनिक क्षेत्र की बात करें तो अब तक केवल दो लंग ट्रांसप्लांट हुए हैं—एक एम्स में और एक पीजीआईएमईआर चंडीगढ़ में.’

उन्होंने कहा कि पीजीआईएमईआर का रीनल ट्रांसप्लांट सर्जरी डिपार्टमेंट एक समर्पित प्रशिक्षण कार्यक्रम के साथ सार्वजनिक क्षेत्र के एकमात्र केंद्रों में शुमार है.

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘हम किडनी और अग्न्याशय का प्रतिरोपण करते हैं, जिनमें अब तक हमने लगभग 34 ट्रांसप्लांट किए हैं. लेकिन मेरे स्नातकों को सार्वजनिक क्षेत्र में काम नहीं मिलता है.’

हालांकि, निजी क्षेत्र के कई शीर्ष सर्जनों ने प्रशिक्षण सार्वजनिक क्षेत्र में ही हासिल किया है. उसके बाद निजी स्तर पर इस तरह की सर्जरी शुरू करने से पहले विदेश चले जाते हैं.


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लॉजिस्टिक के स्तर पर कई चुनौतियां

सर्जन सार्वजनिक क्षेत्र में प्रत्यारोपण कार्यक्रम चलाने में लॉजिस्टिक संबंधी बाधाएं आने की बात कहते हैं. कई वर्षों तक एम्स में काम कर चुके मैक्स सुपरस्पेशलिटी हॉस्पिटल, साकेत में सेंटर फॉर लिवर एंड बिलियरी साइंस के चेयरमैन डॉ. सुभाष गुप्ता कहते हैं, ‘लिविंग डोनर लिवर ट्रांसप्लांटेशन बहुत मुश्किल काम है और इसमें बेहतर टीम वर्क की जरूरत होती है. यह एक लंबे समय तक चलने वाला ऑपरेशन होता है.’

उन्होंने कहा, ‘सरकारी क्षेत्र में बहुत कम लोग एक-दूसरे के साथ मिलकर काम करते हैं. औसतन दिन में ऑपरेशन थियेटर सुबह 7.30 बजे शुरू होता है और शाम लगभग छह-साढ़े छह बजे तक चलता है. यह बहुत हद तक संसाधन-केंद्रित कार्यक्रम है.’

उन्होंने कहा कि शव दान को बढ़ावा देने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि इसे प्रोत्साहन के साथ जोड़ा जाए.

उन्होंने कहा, ‘अधिकांश शव दान सरकारी अस्पतालों में होते हैं, इसलिए मेरा मानना है कि सार्वजनिक क्षेत्र को अधिक प्रत्यारोपण शुरू कर देना चाहिए और यह देखना चाहिए कि क्या हम ब्रेनडेड मरीजों के अंग दान को प्रोत्साहित करना शुरू कर सकते हैं—जैसे सीजीएचएस कार्ड देना आदि—इससे शव दान बढ़ जाएगा.’

जौहरी ने सरकारी क्षेत्र में प्रत्यारोपण कार्यक्रमों को प्रोत्साहित करने के लिए शिफ्ट के समय की समस्या से निपटने के साथ-साथ इस प्रक्रिया से जुड़े डॉक्टरों, पैरामेडिकल स्टाफ समेत सभी लोगों को प्रोत्साहन देने का सुझाव भी दिया.

इस बीच, अन्य ने बताया कि सार्वजनिक क्षेत्र की अपनी सीमाएं हैं और एक समस्या यह भी है कि कोई अपनी टीम नहीं बना सकता. भर्तियां सरकार के स्तर पर होती है, और आरक्षण जैसे प्रावधानों का पालन किया जाना है, और यह विकल्पों को सीमित बनाता है.

बतौर कंसल्टेंट ट्रांसप्लांट सर्जन अपोलो जाने से पहले कई सालों तक एम्स में काम करने वाले डॉ. संदीप गुलेरिया का कहना है, ‘सार्वजनिक क्षेत्र का उद्देश्य त्रिआयामी है—शिक्षण, मरीजों की देखभाल और रिसर्च. निजी क्षेत्र में सिर्फ लाभ के बारे में सोचा जाता है. लेकिन सरकारी अस्पताल में आप अपनी टीम नहीं रख सकते हैं. एम्स बहुत सारे प्रत्यारोपण करता है—हर साल करीब 100-150. लेकिन लाइव डोनर किडनी ट्रांसप्लांट के लिए इंतजार की अवधि छह से आठ महीने लंबी है. इन अस्पतालों में मरीजों का भारी बोझ है. केवल प्रत्यारोपण के दौरान होने वाले 37 से 40 टेस्ट में एक लंबा समय लगता है.’

हालांकि, एम्स के एक वरिष्ठ प्रत्यारोपण सर्जन ने नाम न छापने की शर्त पर दिप्रिंट से बातचीत में इन चिंताओं को खारिज कर दिया.

उन्होंने कहा, ‘मैं एक स्थायी टीम के साथ क्या करूंगा? आइडिया तो यह है कि लोगों को प्रशिक्षित किया जाए ताकि वे नए केंद्र खोल सकें. मेरे सिखाए तमाम लोग निजी क्षेत्र में काम कर रहे हैं; उनमें से कुछ अब एम्स रायबरेली में एक प्रत्यारोपण केंद्र खोल रहे हैं. और, यह सब निजी क्षेत्र की तरह पैसा कमाने से नहीं जुड़ा है, जो रात को दो बजे भी सर्जरी करेंगे. हम एक समर्पित केंद्र नहीं हैं क्योंकि मेरे रेजिडेंट डॉक्टरों को अन्य सर्जरी में भी प्रशिक्षित होने की जरूरत है, न कि केवल प्रत्यारोपण में.’

कंसल्टेंट ने कहा, ‘हमारे पास सीमित क्षमता, सीमित संसाधन हैं. लेकिन निजी क्षेत्र के पास प्रशिक्षण और अनुसंधान जैसी जिम्मेदारियां नहीं हैं.’

‘हर राज्य में एक समर्पित अस्पताल की जरूरत’

देश में सबसे बड़ा हार्ट और लंग ट्रांसप्लांट प्रोग्राम चेन्नई स्थित एमजीएम हेल्थकेयर में चलता है. इंस्टीट्यूट ऑफ हार्ट एंड लंग ट्रांसप्लांट एंड मैकेनिकल सर्कुलेटरी सपोर्ट के निदेशक डॉ. के.आर. बालकृष्णन ने कहा कि निजी क्षेत्र में प्रत्यारोपण कार्यक्रम चलाना आसान है क्योंकि यह अधिक ‘चुस्त’ है.

उन्होंने कहा, ‘अगर आधी रात को किसी शव दान के बारे में जानकारी मिले, मानो पता चले कि वह चंडीगढ़ में उपलब्ध है, तो बिना किसी तरह की मंजूरी का इंतजार किए उसे लाने आदि के बारे में तत्काल फैसले लिए जाते हैं.’

भारत में प्रत्यारोपण बढ़ाने के लिए उनका सुझाव यही है कि हर राज्य में प्रत्यारोपण के लिए एक समर्पित अस्पताल होना चाहिए.

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘तमाम जरूरी टेस्ट के लिए एक तय प्रयोगशाला हो सकती है ताकि इसमें लगने वाला समय घट सके.’

उन्होंने कहा, ‘किसी को यह समझने की जरूरत है कि सर्जरी की लागत और सर्जरी पर खर्च होने वाला पैसा दो अलग-अलग चीजें हैं. लागत तो वही रहेगी जो है लेकिन सरकारों को उस पर लगने वाला शुल्क घटाने के लिए कदम उठाने की जरूरत है. उदाहरण के तौर पर तमिलनाडु में राज्य सरकार अपनी स्वास्थ्य योजना के तहत हार्ट और लंग का ट्रांसप्लांट कवर करती है. वे प्रति सर्जरी 16-20 लाख रुपये की एक निश्चित कीमत चुकाते हैं. इसके अलावा आने वाला खर्च मरीज को वहन करना पड़ता है.’

सभी सर्जन इस पर लगभग एक राय है कि शव दान को बढ़ावा देने की जरूरत है. और डॉ. जौहरी के मुताबिक ऐसा करने का एक तरीका यह भी है कि ब्रेन डेड मरीजों को लेकर जन जागरूकता पैदा की जाए.

उनका कहा है, ‘लोग कार्डियोरेस्पिरेटरी डेथ को समझते हैं लेकिन धड़कते दिल वाले आदमी के जिंदा नहीं होने की अवधारणा को अक्सर समझ नहीं पाते हैं. सरकारी क्षेत्र पर इतना अधिक बोझ है कि वो प्रत्यारोपण कार्यक्रम आगे बढ़ाने के बारे में सोच भी नहीं सकता. इसलिए जरूरी है कि हम इसे प्रोत्साहित करें. प्रोत्साहन कोई प्रलोभन नहीं हैं, हमें इस अंतर को समझने की जरूरत है.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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