नई दिल्ली: फरवरी 2022 में राज्यसभा भाषण के दौरान, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्षी दल को “टुकड़े-टुकड़े गैंग” कहा और आरोप लगाया कि कांग्रेस पार्टी “शहरी नक्सलियों की चपेट में” थी. कुछ ही घंटों में ये दोनों शब्द सोशल मीडिया पर ट्रेंड करने लगे. बीते 10 साल में मोदी क्रोधित और चिंतित राष्ट्र के लिए एक प्रमुख नारा देने वाले व्यक्ति की तरह उभरे हैं. उससे एक साल पहले, 2021 में कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन कर रहे किसानों और विरोध करने वाले कार्यकर्ताओं को चिढ़ाने के लिए ‘आंदोलनजीवी’ शब्द गढ़ा था.
हर एक नया राजनीतिक युग अपने जुमलों के साथ आता है. पीएम मोदी के सत्ता में दस साल पूरे होने वाले हैं और भारतीय बातचीत ऐसे जुमलों से समृद्ध हुई है जो उस समय की राजनीतिक संस्कृति का संकेत देते हैं. टुकड़े-टुकड़े गैंग से लेकर एंटी नेशनल, आंदोलनजीवी, सेक्युलर, घर वापसी, टूलकिट गैंग, खान मार्केट गैंग, गो टू पाकिस्तान, लाभार्थी, यूपीएससी-जिहाद, रेवड़ी, बुलडोजर, स्वच्छता, आत्मनिर्भर, आपदा में अवसर से लेकर वोकल से लोकल तक — के अलावा सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास और प्रधान सेवक. ये कुछ लोकप्रिय जुमले बन गए हैं. इन्होंने यूपीए-युग के कीवर्ड जैसे ‘राइट टू…’, आम आदमी, भगवाकरण, मनरेगा, इनक्लूसिव ग्रोथ, मौत का सौदागर, चड्ढी, सांप्रदायिकरण की भाषा को बदल दिया है जो एक दशक पहले लोकप्रिय बोलचाल का हिस्सा थे.
मोदी के आलोचकों और विपक्षी दलों ने भी सार्वजनिक शब्दावली में अपनी वापसी के नारे दिए हैं — भक्तों से लेकर जुमला, फेकू, क्लोजेट-संघी से लेकर सूट-बूट की सरकार, डेमोक्रेसी-स्लाइड, चौकीदार चोर है, नफरत का बाज़ार-मोहब्बत की दुकान से लेकर सबसे नया मैच फिक्सिंग तक.
ट्रेंडिंग हैशटैग की एल्गोरिथम राजनीति में आप जो कहते हैं वे कायम रहना चाहिए. मोदी की भाजपा ने आलोचकों पर लेबल लगाने के खेल में महारत हासिल कर ली है. अगर यह मीम-मटेरियल में नहीं आता है, यानी की प्रभाव नहीं पड़ा है.
इंटरनेट पर असहमति को भयावह रूप देने के लिए रोज़मर्रा की भाषा का राजनीतिकरण न केवल सामाजिक-राजनीतिक रुझानों में बदलाव को रेखांकित करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि भाषा कैसे धारणाओं, विचारधाराओं और शक्ति की गतिशीलता को आकार देती है.
2022 में लोकसभा सचिवालय ने लोकसभा और राज्यसभा दोनों में उपयोग होने वाले “असंसदीय” शब्दों और नारों को एक नई मैगज़ीन में सूचीबद्ध किया. इनमें “जुमलाजीवी”, “स्नूपगेट”, “कोविड स्प्रेडर”, “अराजकतावादी”, “तनाशाह” शामिल हैं. विपक्ष ने इसे “तुगलकी फरमान” करार दिया था.
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में भारतीय सैद्धांतिक भाषाविद् आयशा किदवई ने कहा, “शब्दों को भाषा में रचने-बसने में समय लगता है, लेकिन यहां लक्ष्य भाषा के शब्दकोष को समृद्ध करना नहीं है. ये बहिष्कृत शब्द सार्वजनिक शब्दावली का हिस्सा बन गए हैं और यह खतरनाक है.”
इन शब्दों को लोकप्रिय बनाने, उन्हें हैशटैग की आड़ में एक निजी अभिव्यक्ति में बदलने में सोशल मीडिया की अहम भूमिका रही है. 2014 में सोशल मीडिया साइट एक्स पर अपने पहले ट्वीट में, पीएम नरेंद्र मोदी ने कहा था, “मैं दुनिया भर के लोगों के साथ संवाद करने के लिए प्रौद्योगिकी और सोशल मीडिया की शक्ति में दृढ़ विश्वास रखता हूं.”
इतने साल में ट्वीट और हैशटैग में शब्दों के युद्ध को एक नया नाम मिला है: “हैशटैग डिप्लोमेसी”. यह कूटनीति तब दिखाई दी जब मार्च 2019 में ट्वीट्स में अकेले हैशटैग “मैं भी चौकीदार” 32 लाख बार इस्तेमाल किया गया. उसी दिन विपक्ष ने एक और हैशटैग “चौकीदार ही चोर है” लॉन्च किया जो इस “हैशटैग की लड़ाई” में हार गया.
किदवई ने कहा, “सोशल मीडिया यही करता है. यह शब्दों को राजनीतिक भाषण के दायरे से बाहर निकालकर निजी अभिव्यक्ति बना देता है और तर्क की सामग्री खो गई है, यह महज़ एक हैशटैग बनकर रह गया है.”
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हैशटैग की शब्दावली
कांग्रेस के राज्यसभा सांसद और महासचिव संचार प्रभारी जयराम रमेश ने कहा, “यूपीए सरकार के दौरान, हमने अधिकार-आधारित कानूनों और कानून, आरटीआई, खाद्य सुरक्षा अधिनियम के बारे में बात की, लेकिन अब, दलीलें महज़ शोर-शराबे तक सीमित रह गई हैं.”
इसकी शुरुआत 2014 के चुनाव के दौरान भाजपा के प्रचार अभियान में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा इस्तेमाल किए गए लोकप्रिय जुमले: “अच्छे दिन आएंगे” से हुई. यह जुमले तेज़ी से हैशटैग, मीम्स और ऑनलाइन प्रवचन की सोशल मीडिया शब्दावली में बदल गए.
‘पप्पू’ जैसे शब्द विपक्षी नेता राहुल गांधी के लिए इस्तेमाल किए गए, कोविड महामारी के दौरान ‘थूक जिहाद’ और जब उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा घरों पर बुलडोजर चलाया गया तो ‘बुलडोजर’ भाजपा और उसके फॉलोअर्स द्वारा इस्तेमाल की गई शब्दावली को दर्शाते हैं – हर एक शब्द इसके राजनीतिक विमर्श के विभिन्न पहलू का प्रतिनिधित्व करता है.
2020 में सुरेश चव्हाणके द्वारा संचालित सुदर्शन टीवी ने अपने शो ‘बिंदास बोल-यूपीएससी जिहाद’ के माध्यम से भारतीय सिविल सेवाओं में मुसलमानों की घुसपैठ की एक कथित साजिश को उजागर करने की मांग की. चव्हाणके ने एक्स पर हैशटैग #UPSCJihad के साथ शो का 48 सेकंड का ट्रेलर रिलीज़ किया था.
इसके तुरंत बाद, हैशटैग वायरल हो गया, जिससे सोशल मीडिया निगरानीकर्ताओं को एक विशेष समुदाय को निशाना बनाने का उपकरण मिल गया. शो में केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने हस्तक्षेप करते हुए इसे “आक्रामक, अच्छा नहीं और सांप्रदायिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देने वाला करार दिया.”
जयराम रमेश ने कहा, “क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि यूपीएससी जिहाद जैसा कोई शब्द है. तो आप क्या कहना चाह रहे हैं कि मुसलमानों को शिक्षित नहीं किया जाना चाहिए, उन्हें परीक्षा में नहीं बैठने देना चाहिए. अब जिस भाषा का प्रयोग किया गया है वो अभूतपूर्व है. वाजपेयी के समय ऐसा नहीं था. यह भाषा अब हाशिए की भाषा नहीं रही. यह सामान्य हो गया है.”
किसी नेता द्वारा कही गई कोई भी बात तुरंत सोशल मीडिया पर राजनीतिक दलों के अकाउंट से वायरल हो जाती है. शब्द हैशटैग में बदल जाते हैं और इन राजनीतिक हैशटैग के काम करने के तरीके पर भी शोध किया गया है. 2022 में अंतर्राष्ट्रीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान, हैदराबाद के प्रोफेसर पोन्नुरंगम कुमारगुरु, मिशिगन यूनिवर्सिटी के जोयोजीत पाल, शोधकर्ता अस्मित सिंह, जिवितेश जैन और ललिता कामेश्वर की एक टीम ने सितंबर 2021 और जनवरी 2022 के बीच हैशटैग्स का विश्लेषण किया.
टीम ने हैशटैग को तीन प्रकार से बांटा: व्यक्तिगत नेताओं पर निजी हमले, नाम-पुकारना या पार्टी की विचारधारा की आलोचना करना और अंत में राजनीतिक दलों के कार्यों या उसके अभाव पर हमला करना.
सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (CSDS) के सहायक प्रोफेसर हिलाल अहमद ने कहा, लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है. अगर गालियां और नारे राजनीति की भाषा हैं, तो लड़ो, शेक्सपियर ने आज अपनी पंक्तियों को दोहराया होगा. अरविंद केजरीवाल के ‘यह सब मिले हुए हैं’ से लेकर अखिलेश यादव के ‘राहुल अच्छा लड़का है’ तक, भारतीय राजनीतिक बातचीत अधिक चर्चापूर्ण और बोलचाल की होती जा रही है.
अहमद ने कहा कि सार्वजनिक शब्दकोष भारतीय राजनीति के चार आख्यानों से निकला है जो पिछले कुछ साल में विकसित हुए हैं.
अहमद ने कहा, “पहला नैरेटिव 1950 के दशक में था जब हर कोई समाजवाद के बारे में बात कर रहा था और यही राजनीति का प्रमुख नैरेटिव था. इसलिए हर राजनीतिक दल समाजवाद को लेकर किसी न किसी प्रकार की टिप्पणी करने में लगा हुआ है. यहां तक कि जनसंघ भी कहेगा कि वे समाजवाद के लिए प्रतिबद्ध हैं.”
90 के दशक में समाजवाद, गरीबी हटाओ के नारे की जगह साम्यवाद बनाम धर्मनिरपेक्षता की भाषा ने ले ली. यह वही समय था जब बीजेपी नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने “pseudo secular (छद्म धर्मनिरपेक्ष)” शब्द गढ़ा — धर्मनिरपेक्ष शब्द को वोट बैंक की राजनीति और तुष्टिकरण की व्यंजना कहा. यह शब्द अभी भी वैचारिक स्पेक्ट्रम के दक्षिणपंथी पक्ष द्वारा धर्मनिरपेक्ष राजनीति को त्यागने के लिए उपयोग किया जाता है.
“90 के दशक के मध्य और 2000 के शुरुआती साल के बाद, समावेशन और बहिष्कार की राजनीति का तीसरा नैरेटिव आया, जिसमें न्याय का अधिकार, आम आदमी, नरेगा जैसे शब्द शामिल थे.
अहमद ने कहा, फिर राष्ट्रवाद का नैरेटिव आया और शब्दावली हिंदुत्व-संचालित राष्ट्रवाद तक सिमट कर रह गई.
अहमद ने आगे कहा, “लेकिन ये सभी शब्द राजनीतिक नैरेटिव से आए हैं. सार्वजनिक जीवन हमेशा राजनीति खेलने के तरीके से निर्धारित होता है.”
ट्रंप के अमेरिका में covfefe हर उस चीज़ के लिए एक रूपक बन गया जो उनकी पुरानी खुशहाल राजनीति का प्रतीक था, जैसे कि हैम्बरडर और बिगली, MAGA, ऑल्ट-राइट, एंटीफा, लॉक-हर-अप और ड्रेन-द-स्वैम्प. उनके युग ने अमेरिकियों को एक बिल्कुल नया शब्दकोष गढ़ा.
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विपक्ष ने पकड़ा जोर
भाजपा इस शब्दाडंबर खेल में जीत रही है, इसका कारण यह नहीं है कि यह एकमात्र पार्टी है जिसके पास सब है.
2021 में पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने राज्य में चुनाव प्रचार कर रहे भाजपा कार्यकर्ताओं के खिलाफ तंज के लिए “बाहिरगोट्टो” (बाहरी व्यक्ति) शब्द का इस्तेमाल किया था. तब से, जब भी बनर्जी यूपी में आईं, यह शब्द बीजेपी ने दोहराया. सोशल मीडिया पर इसे वायरल किया गया और आम लोगों की शब्दावली बनाया गया. ‘खेला होबे’ एक और सिक्का था जो 2021 के बंगाल चुनावों के दौरान विपक्ष की ‘च्यूत्ज़पाह’ की मुद्रा बन गया.
कम्युनिकेशन एक्स्पर्ट डॉ. आलोक ठाकोर ने कहा, “ऐसा नहीं है कि बीजेपी ने कुछ खास किया है. देश के किसी भी हिस्से में सत्ता में रहने वाला कोई भी व्यक्ति ऐसे शब्दों, जुमलों या नारों का इस्तेमाल कर रहा है जो लोगों को प्रभावित कर सकते हैं. पहले, यह बड़े पैमाने पर मीडियेटर कम्युनिकेशन के जरिए से किया जाता था, लेकिन अब यह सीधे तौर पर किया जा रहा है.”
ठाकोर ने कहा कि महात्मा गांधी के शब्दों का उपयोग – स्वदेशी या स्वराज या सत्याग्रह केवल सरल शाब्दिक विकल्प नहीं थे, बल्कि भारत की आज़ादी और अंग्रेज़ों के खिलाफ एक राजनीतिक संदेश देते थे.
ठाकोर ने आगे कहा, “इन शब्दों में अभ्यास का दृढ़ विश्वास था, लेकिन ये शब्द नारे अब भी गूंजते हैं. भारतीय दिमाग में स्वदेशी के अवशेष के बिना आत्मनिर्भर की कल्पना करना, संभव नहीं है.”
1965 में प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने सैनिकों और किसानों का मनोबल बढ़ाने के लिए “जय जवान, जय किसान” के नारे का इस्तेमाल किया. यह जुमला लोकप्रिय हो गया और अभी भी राजनीतिक भाषणों, सार्वजनिक प्रवचनों, विरोध प्रदर्शनों और कार्यकर्ता इसका इस्तेमाल करते हैं. 1998 में पोखरण परीक्षण के बाद, अटल बिहारी वाजपेयी ने इसमें बदलाव करते हुए “जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान” जोड़ा. 2004 के संसदीय चुनावों में एनडीए सरकार की हार के पीछे कई कारणों में से एक के रूप में ‘इंडिया शाइनिंग’ जुमला जोड़ा. जवाहरलाल नेहरू के “पहला सेवक” से लेकर पीएम मोदी के “प्रधान सेवक” तक, भारतीय राजनीति में राजनीतिक बदलाव को जुमलों में कैद किया गया है.
ठाकोर ने कहा, “इंदिरा गांधी “एकता और अखंडता” का निरंतर पालन करती थीं और आज आपके पास मोदी नारे गढ़ रहे हैं.”
चुनाव नज़दीक आते ही मुहावरों का चलन फिर से शुरू हो गया है. “मोदी है तो मुमकिन है”, “मोदी की गारंटी”, “लखपति दीदी” – यह जुमले मीमवर्स, व्हाट्सएप ग्रुप और सार्वजनिक शब्दावली तक पहुंच गए हैं.
भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के अध्यक्ष और पूर्व भाजपा नेता विनय सहस्रबुद्धे ने बदलते समय और सोशल मीडिया के आगमन के लिए बदलती भाषा को जिम्मेदार ठहराया.
सहस्रबुद्धे ने कहा, “सोशल मीडिया की बदौलत लोग राजनीतिक रूप से अधिक सतर्क, सक्रिय और विचारशील हैं. लोगों में अभिव्यक्त करने की इच्छा होती है और धीरे-धीरे वे ऐसा करने की क्षमता हासिल कर रहे हैं. इसलिए नई शब्दावली उसी का प्रतिबिंब है.”
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