scorecardresearch
Saturday, 27 April, 2024
होमफीचर‘बस्तर से अनुच्छेद 370’ तक — बॉलीवुड में प्रोपेगेंडा फिल्में BJP की ताकत को बढ़ा रही हैं

‘बस्तर से अनुच्छेद 370’ तक — बॉलीवुड में प्रोपेगेंडा फिल्में BJP की ताकत को बढ़ा रही हैं

जैसे-जैसे देश आम चुनाव की ओर बढ़ रहा है, अधिक प्रोपेगेंडा फिल्में आने वाली हैं: ‘एक्सीडेंट या कॉन्सपिरेसी: गोधरा’, ‘साबरमती रिपोर्ट’ और ‘इमरजेंसी’.

Text Size:

जैसा कि भारतीय जनता पार्टी लोकसभा चुनाव से पहले अपने अभियान भाषणों, घोषणापत्रों और उम्मीदवारों की सूची तैयार कर रही है, उसके पास अपने शस्त्रागार में नई फिल्मों का एक गुलदस्ता है जो भारतीय मतदाताओं के दिल और दिमाग को प्रभावित करने के लिए काम कर रहा है.

‘बस्तर: द नक्सल स्टोरी’, ‘जेएनयू: जहांगीर नेशनल यूनिवर्सिटी’, ‘मैं अटल हूं’, और ‘आर्टिकल 370’ बोल्ड नई बॉलीवुड प्रोपेगेंडा मशीनरी का हिस्सा हैं और तो और इन फिल्मों में एक तरह से आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन भी होता है.

कथानकों को विश्वसनीयता के प्रमाण के जैसा तैयार किया गया है, जो गोधरा ट्रेन जलाने की घटना जैसी वास्तविक घटनाओं पर आधारित है, जिसने 2002 में गुजरात में दंगे भड़काए थे, वीडी सावरकर जैसी शख्सियतें, जो उदारवादी अभिजात वर्ग के खिलाफ खड़े हैं, मुसलमानों के खिलाफ हिंदुओं और दिल्ली की जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) जैसे वाम-प्रभुत्व वाले शैक्षणिक स्थान जैसे विषयों पर आधारित हैं.

जैसे-जैसे देश आम चुनाव की ओर बढ़ रहा है, आने वाले हफ्तों में और अधिक प्रोपेगेंडा चार फिल्में आने वाली हैं: ‘एक्सीडेंट या कॉन्सपिरेसी: गोधरा’, ‘साबरमती रिपोर्ट’ और कंगना रनौत अभिनीत ‘इमरजेंसी’. शुक्रवार को रणदीप हुडा की ‘स्वातंत्र्य वीर सावरकर’ रिलीज़ हुई.

राजनीतिक और जासूसी थ्रिलर, युद्ध फिल्में और देशभक्ति की भावनाओं को झकझोरने वाली बायोपिक्स मनोरंजन इंडस्ट्री का आधार रही हैं, चाहे वह भारत में हो या विदेश में, लेकिन इससे पहले कभी भी बॉलीवुड ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आलोचकों पर हमला करते हुए या बढ़ते दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद को बढ़ावा देते हुए ध्रुवीकरण विषयों पर इतनी सारी फिल्में बनाने की जल्दबाज़ी नहीं की थी.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

बस्तर में नीरजा माधवन (अदाह शर्मा) गरज़ती हैं, “जब बस्तर में 76 जवान मारे गए तो जेएनयू ने जश्न मनाया. बस इसके बारे में सोचिए. वे ऐसी मानसिकता कहां से अपनाते हैं? बस्तर में जो लोग भारत को विभाजित करने की योजना बना रहे हैं, उनके पीछे वामपंथी, उदारवादी, शहरों के छद्म बुद्धिजीवी हैं. मैं इन वामपंथियों को सरेआम गोली मार दूंगी. मुझे फांसी पर लटका दो.” वान्या रॉय के रूप में राइमा सेन के पास हथौड़े की तरह सूक्ष्मता है, जिसमें बारीकियों के लिए कोई जगह नहीं है. ‘नैरेटिव’, ‘लिबरल्स’ और ‘रेड कॉरिडोर’ जैसे शब्द तेज़ी से इधर-उधर उछाले जाते हैं क्योंकि सेन नक्सलवाद की तुलना साम्यवाद से करने की पुरजोर कोशिश करती हैं, जिसके बारे में उनका मानना है कि यह उन लोगों द्वारा चलाए जा रहे विदेशी एजेंडे का परिणाम है जो केवल अधिक धन अर्जित करने में रुचि रखते हैं.

लगभग सभी फिल्मों में एक बात समान है: वे अतिराजनीतिक, राष्ट्रवादी और भारत के उदारवादियों और वामपंथियों पर संदेह करने वाली हैं. रंजन चंदेल की ‘द साबरमती रिपोर्ट’ का टीज़र, जो 3 मई को रिलीज़ होगा — तीसरे चरण के मतदान से ठीक पहले — ऐसे समाप्त होता है: “27 फरवरी 2002, गोधरा, गुजरात. जलकर मारी गई 59-निर्दोष ज़िंदगियों को श्रद्धांजलि…” लगभग वैसा ही जैसे फिल्म निर्माताओं और अभिनेताओं ने ‘द कश्मीर फाइल्स (2022)’ और ‘द केरला स्टोरी (2023)’ से एक पन्ना निकाल लिया हो.

लेकिन ऐसी फिल्में आने से बहुत पहले से विवेक अग्निहोत्री इस एजेंडे को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे थे: ‘बुद्ध इन ए ट्रैफिक जाम (2016)’ में एक हॉटचपॉट नक्सली साजिश थी, जबकि लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु पर ‘द ताशकंद फाइल्स (2019)’ में एनजीओ को “सामाजिक आतंकवादी” और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश “न्यायिक आतंकवादी” दिखाया गया.

वरिष्ठ पत्रकार और ‘द थ्री खान्स’ की लेखिका कावेरी बामज़ई कहती हैं, “ये फिल्में या तो विचारधारा या अवसरवाद से प्रेरित होती हैं. अक्सर उत्तरार्द्ध सत्ता-समर्थक झुकाव के रूप में प्रच्छन्न होता है. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्हें चरम मनोरंजन के रूप में स्वीकार किया जा रहा है.”


यह भी पढ़ें: रक्तबीज और प्रधान से बोनबीबी तक-क्या फिल्में बंगाल में राजनीतिक विरोध की भूमिका निभा रही हैं?


‘केरल आपके पड़ोस में’

भारतीय पटकथा लेखक, निर्देशक और निर्माता असल ज़िंदगी की घटनाओं से सांस्कृतिक और राजनीतिक विचारधारा का लाभ उठा रहे हैं.

गृह मंत्री अमित शाह ने 2023 में कर्नाटक में एक रैली में राज्य में कथित “राष्ट्र-विरोधी” तत्वों की ओर इशारा करते हुए कहा, “आपके पड़ोस में केरल है. मैं इससे अधिक कुछ नहीं कहना चाहता.” उन्होंने पहले केरल के मलप्पुरम जिले को “मिनी पाकिस्तान” कहा था.

सुदीप्तो सेन की ‘द केरला स्टोरी (2023)’ इस भावना को आगे बढ़ाती है. केरल की 32,000 महिलाओं की “सच्ची कहानी” की खोज करती है, जिन्हें जिहादी संगठन इस्लामिक स्टेट इन इराक एंड दी लीवेंट (आईएसआईएस) शिविरों में बंदी बनाकर इस्लाम कबूल करवाया गया. आलोचकों ने इसकी आलोचना की, लेकिन मोदी द्वारा प्रशंसित, फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर 200 करोड़ रुपये का आंकड़ा पार किया.

कई लोगों ने इसकी तुलना 1990 के दशक में कश्मीरी पंडितों के पलायन पर अग्निहोत्री की ‘द कश्मीर फाइल्स’ से की, एक ऐसी फिल्म जिसकी मोदी और भाजपा ने भी प्रशंसा की थी. पूरे भारत में छिड़े विवादों और राजनीतिक बहसों ने इसके पक्ष में काम किया — फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर 252 करोड़ रुपये कमाए.

जेएनयू में फिल्म अध्ययन विद्वान अपेक्षा प्रियदर्शिनी ने कहा, “कश्मीर या केरल जैसी जगहों पर जटिल मुद्दों पर पर्याप्त जानकारी के बिना, फिल्में एक ऐतिहासिक उपकरण बन जाती हैं और लोगों ने हमेशा फिल्मों को ऐतिहासिक रूप से सटीक माना है. तो, एक फिल्म निर्माता द्वारा किसी व्यक्ति या घटना का अत्यधिक प्रतिनिधित्व लोगों को ऐतिहासिक सटीकता बनाए रखने की जिम्मेदारी के बिना एक निश्चित प्रकार की कथा पर विश्वास करने के लिए प्रेरित करता है.” यह कहते हुए डिस्कलेमक कि फिल्में ‘सत्य घटनाओं पर आधारित’ हैं, इस प्रवृत्ति को बढ़ाने का काम करती है.

इनमें से कोई भी फिल्म डरपोक नहीं है. फिल्म विद्वान प्रियदर्शिनी के अनुसार, नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी अभिनीत अभिजीत पानसे की हिट फिल्म ‘ठाकरे (2019)’ एक महत्वपूर्ण मोड़ थी।

उन्होंने कहा, “इतिहास को फिर से लिखने के लिए बायोपिक्स और स्थापना-समर्थक फिल्में बनाने का यह चलन, ठाकरे के साथ शुरू हुआ. पहले, फिल्मों में बाबरी मस्जिद के विध्वंस का ज़िक्र होता था, लेकिन इस फिल्म के साथ, इसे और हिंसक ऐतिहासिक क्षणों के अन्य उदाहरणों को दिखाना वैध हो गया है.” मराठी भाषा की इस फिल्म का निर्माण राज्यसभा सांसद संजय राउत ने किया था.

तब से ध्रुवीकरण वाली घटनाओं को दोबारा देखने के मामले में निर्देशक और अधिक बेशर्म हो गए हैं और दर्शक भी इसके आदी हो गए हैं. ‘बस्तर: द नक्सल स्टोरी’ शाब्दिक, उद्योगपतियों, अदालतों और मीडिया की निंदा में व्यापक सामान्यीकरण से भरी हुई है, लेकिन अमरनाथ झा, जिन्होंने सेन और विपुल शाह के साथ इसकी पटकथा लिखी थी, जोर देकर कहते हैं कि “यह राजनीतिक” नहीं है.

झा जो खुद को पूर्व माओवादी मानते हैं, ने कहा, “यह माओवाद की वास्तविकता है और बस्तर की माताओं को नक्सली आंदोलन के कारण सबसे अधिक पीड़ा झेलनी पड़ी. यह एक राजनीतिक फिल्म नहीं है, बल्कि एक भावनात्मक फिल्म है.”

फरवरी 2024 में आदित्य धर की ‘आर्टिकल 370’ ने सिनेमाघरों में दस्तक दी, जिसने अपने केंद्रीय संदेश के साथ दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया: मोदी सरकार अनुच्छेद-370 को निरस्त करके जम्मू और कश्मीर में शांति और समृद्धि के लिए अकेले ज़िम्मेदार है. उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती जैसे राजनेताओं को दिखाया गया है — अलगाववाद और उग्रवाद के सत्ता के भूखे समर्थक. फिल्म ने अपने पहले हफ्ते में करीब 50 करोड़ रुपये की कमाई की.

व्यापार विश्लेषक तरण आदर्श बताते हैं, “हर फिल्म नहीं चल रही है, लेकिन हां, ‘आर्टिकल 370’ और ‘द केरला स्टोरी’ जैसी फिल्मों की सफलता ऐसी फिल्में बनाने के लिए प्रेरणा देती है. यहां तक कि एक्टर्स भी अपने किरदारों की सार्थकता के अनुसार, चयन करते हैं.”

इसी तरह का चलन अन्य भाषाई फिल्मों में भी जोर पकड़ रहा है. तेलुगु फिल्म, ‘रज़ाकर: द साइलेंट जेनोसाइड’, जो 15 मार्च को रिलीज़ हुई थी, हैदराबाद के इतिहास के उस खूनी अध्याय को फिर से दर्शाती है जब आज़ादी के बाद सातवें निज़ाम, मीर उस्मान अली खान का शासन था. यह फिल्म 17 सितंबर 1948 को राज्य के संघ में एकीकृत होने तक उनके शासन के तहत किए गए अत्याचारों पर केंद्रित है. फिल्म का निर्माण कर्नाटक बीजेपी के गुडूर नारायण रेड्डी ने किया है, जो भुवनागिरी विधानसभा क्षेत्र से आगामी चुनावों में उम्मीदवार हैं.

जबरन धर्म परिवर्तन दिखाने और रज़ाकारों के उग्रवादी समूह द्वारा हिंदुओं को कैसे आतंकित किया गया था, यह दिखाने के उत्साह में फिल्म उन कम्युनिस्ट नेताओं की भूमिका को स्वीकार नहीं करती है, जिन्होंने निज़ाम शासक के खिलाफ एक जन आंदोलन का नेतृत्व किया था. एक तरह से ‘रज़ाकर दक्षिण की कश्मीर फाइल्स’ है.


यह भी पढ़ें: खालिद सैफुल्लाह क्लिक-बैट ऐप्स के हीरो हैं, भारतीय मुसलमानों को ‘बचाने’ के लिए तकनीक को बढ़ा रहे हैं


रियल से रील तक—फिल्मों में जेएनयू

ऐसा लगता है कि फिल्म निर्माता इस मंत्र पर काम कर रहे हैं कि खराब प्रचार जैसी कोई चीज़ नहीं है और वामपंथी राजनीति का लुप्त होता गढ़, जेएनयू, एक आदर्श पृष्ठभूमि है.

तत्कालीन-जेएनयू छात्र संघ नेता कन्हैया कुमार के नेतृत्व में कैंपस में भारत विरोधी नारे लगाने के आरोपों से भड़के कुख्यात देशद्रोह विवाद को लेकर, 2016 से ही जेएनयू विवादों में है.

जनवरी 2020 में छात्रों पर हमले से लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़ी शांतिश्री पंडित की यूनिवर्सिटी की कुलपति के रूप में नियुक्ति तक, कैंपस की कथित ‘राष्ट्र-विरोधी’ राजनीति को सेंसर करने के कई प्रयास किए गए हैं.

जेएनयू कैंपस में कुछ फिल्मों की स्क्रीनिंग सभी गुटों के अनिवार्य विरोध और तमाशे के बिना नहीं हुई है. 13 मार्च को जब सेन और झा बस्तर की स्क्रीनिंग के लिए जेएनयू जा रहे थे, तो उनके साथ बाउंसर भी थे. सेन ने दिप्रिंट को बताया कि वीसी के पास 400 छात्र जमा थे. उन्होंने कहा, “हमने केवल खुली चर्चा के लिए स्क्रीनिंग की व्यवस्था की थी. वे किसी फिल्म को देखने से पहले कैसे खारिज कर सकते हैं?” दरअसल, स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) के लगभग 40 सदस्य 22 मार्च को छात्र चुनावों के इतने करीब प्रदर्शित की जा रही फिल्म पर आपत्ति जताने के लिए एकत्र हुए थे.

फिल्म की स्क्रीनिंग के लगभग 50 मिनट बाद बिजली चली गई, जो अगले एक घंटे तक नहीं आई. इसके बाद निदेशक ने आरोप लगाया कि एसएफआई सदस्यों ने बिजली काट दी थी, जिसे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के प्रवक्ता ने भी सही ठहराया.

सेंटर फॉर अफ्रीकन स्टडीज़, स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़ के पीएचडी रिसर्च स्कॉलर रोहित बामोला कहते हैं, “जेएनयू के इतिहास के बारे में ऐसी सच्चाई हमारी किताबों में नहीं मिलती है और इसे सबके सामने लाना निर्देशक का सराहनीय कार्य है.”

लेकिन सेन जो बेच रहे थे, उसे हर छात्र ने नहीं खरीदा. फिल्म के बाद आयोजित पैनल चर्चा के दौरान, एक छात्र ने बताया कि कैसे केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के जवानों का चित्रण, जिन पर नक्सलियों ने हमला किया था, बहुत दूर की कौड़ी लग रही थी. जवाब में सेन ने दावा किया कि फिल्म बनाने के लिए उन्होंने प्रत्यक्षदर्शी खातों पर भरोसा किया.

सेन ने कहा, “यह पत्रकार का काम है कि मुझसे लगातार पूछने के बजाय कम से कम डेटा का गूगल करें.”

आपातकाल के दौर की फिल्में

नेता फिल्म इंडस्ट्री के लिए अच्छा चारा बनाते हैं.

राजनीतिक टिप्पणीकार और लेखक रशीद किदवई बताते हैं, “हमारा फिल्म निर्माण 1960 के दशक तक नेहरू, गांधी से गहराई से प्रभावित था. ये प्रोपेगेंडा फिल्में नहीं थीं, बल्कि भारतीय समाज को आधुनिक बनाने के लिए अपनाए गए आदर्श थे.”

फिल्म निर्माण में सत्ता-विरोधी प्रतिरोध का सबसे शक्तिशाली उदाहरण संभवतः आपातकाल के वर्षों के दौरान हुआ, जब राजनीतिक फिल्मों की एक लहर इंदिरा गांधी की आलोचना कर रही थी. देव आनंद जैसे लोकप्रिय मुख्यधारा के अभिनेता उनके सख्त शासन के खिलाफ मजबूती से खड़े रहे.

गुलज़ार की ‘आंधी (1975)’ में आरती देवी (सुचित्रा सेन), इंदिरा गांधी की तरह कपड़े पहनकर, राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को आगे बढ़ाने के लिए अपनी पारिवारिक ज़िम्मेदारियों को पीछे छोड़ देती हैं. जबकि गुलज़ार ने स्पष्ट रूप से इनकार किया कि फिल्म इंदिरा गांधी पर आधारित थी, समानताएं अनोखी थीं — नीली बॉर्डर वाली सफेद साड़ी से लेकर देवी के बालों पर भूरे रंग की लकीर तक.

रिलीज़ होने के कुछ महीने बाद कांग्रेस पार्टी की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने के कथित आधार पर फिल्म पर बैन लगा दिया गया. दो साल बाद, जब गांधी को पद से हटा दिया गया, गुलज़ार अंततः सहमत हुए कि यह पूर्व प्रधानमंत्री पर आधारित थी. फिल्म को दोबारा रिलीज़ किया गया और दूरदर्शन पर स्ट्रीम भी किया गया.

फिर संजय गांधी की जबरन नसबंदी पहल के बारे में आईएस जौहर की ‘नसबंदी (1978)’ आई. जौहर ने फिल्म के लिए अमिताभ बच्चन, मनोज कुमार, राजेश खन्ना और शशि कपूर जैसे लोकप्रिय बॉलीवुड अभिनेताओं के हमशक्लों को चुना. इस पर भी बैन लगा दिया गया, लेकिन बाद में इसे टीवी पर रिलीज़ किया गया.

अमृत नाहटा की ‘किस्सा कुर्सी का (1978)’ को भी इसी तरह का सामना करना पड़ा जब सेंसर बोर्ड की समीक्षा के बाद इसमें कई कट लगे और अंततः, संजय गांधी और तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री वीसी शुक्ला ने कथित तौर पर फिल्म के प्रिंट नष्ट कर दिए.

लेकिन पिछले कुछ साल में राजनीतिक चर्चाओं, भाषणों, सोशल मीडिया और अब फिल्मों में जो कुछ हुआ है, वे नेहरू को कोसने का चलन है. यह सत्तारूढ़ दल से अनुग्रह प्राप्त करने का सबसे अच्छा तरीका है.

अभिनेता और फंड

बॉलीवुड के इस नए अध्याय में अक्षय कुमार और कंगना रनौत बीजेपी विचारधारा के पोस्टर चाइल्ड बनकर उभरे हैं. उनके अलावा ‘द कश्मीर फाइल्स’ में अनुपम खेर, ‘द वैक्सीन वॉर’ में नाना पाटेकर, ‘आर्टिकल 370’ में यामी गौतम धर हैं.

‘जेएनयू: जहांगीर नेशनल यूनिवर्सिटी’ के टीज़र में कथावाचक पीयूष मिश्रा ने पिछले साल दिप्रिंट को बताया था, “जो लोग यह मानकर निराश हो रहे हैं कि मैं भाजपा का समर्थन करता हूं, वे मूर्ख हैं. मैं एक राजनेता और प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी को पसंद करता हूं. मैं उनमें ‘चाणक्य’ देखता हूं.”.

राइमा सेन, जिनकी आखिरी हिंदी फिल्म 2016 में थी, ने पिछले साल ‘द वैक्सीन वॉर’ से बॉलीवुड में वापसी की और ‘बस्तर’ में भी अभिनय किया. दोनों फिल्मों में उन्होंने असल ज़िंदगी से जुड़े किरदार निभाए हैं. ‘बस्तर’ में वे कार्यकर्ता, लेखिका और दिल्ली यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर नंदिनी सुंदर के किरदार में हैं, जिन्होंने आतंकवाद-रोधी समूह ‘सलवा जुडूम’ पर बैन लगाने के लिए याचिका दायर की थी, इस मामले के कारण अंततः सरकार समर्थित निगरानी संगठन को भंग करना पड़ा, लेकिन फिल्म में सुंदर को नक्सली आंदोलन से जुड़े एक बुद्धिजीवी के रूप में दिखाया गया है जो छत्तीसगढ़ में हिंसा के चक्र को जारी रखने के लिए धन इकट्ठा करती है और विदेशी आतंकवादी संगठनों के साथ गठबंधन साधती हैं.

‘द वैक्सीन वॉर’ में वे न्यूज़ पोर्टल ‘द वायर’ के लिए काम करने वालीं पत्रकार रोहिणी सिंह की नकल कर रही हैं. फिल्म में उन्हें भारत में कोविड वैक्सीन के खिलाफ ‘टूलकिट’ बांटते और वैक्सीन की प्रभावकारिता पर सवाल उठाने के लिए विदेशी फार्मा कंपनियों से पैसे लेते हुए दिखाया गया है.

इसके अलावा एक्टर्स दक्षिणपंथी राजनीति और घटनाओं को अपनी स्टार पावर दे रहे हैं. 22 जनवरी को अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन के लिए आलिया भट्ट, रणबीर कपूर, कैटरीना कैफ, विक्की कौशल, आयुष्मान खुराना और रोहित शेट्टी को आमंत्रित किया गया था. प्रियंका चोपड़ा ने 20 मार्च को पति और गायक निक जोनास और बेटी मालती के साथ अयोध्या की यात्रा की.

हालांकि, राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के माध्यम के रूप में बॉलीवुड का उपयोग भाजपा के लिए नया नहीं है. नेहरू से लेकर बराक ओबामा तक लगभग सभी राजनीतिक नेताओं ने ध्यान आकर्षित करने के लिए स्टार पावर पर भरोसा किया है.

किदवई बताते हैं, “यहां तक कि नेहरू ने भारत की सांस्कृतिक कूटनीति को बढ़ाने के लिए बॉलीवुड का इस्तेमाल किया. मोदी अपने स्वच्छ भारत मिशन या राम मंदिर के निर्माण जैसी नरम शक्ति को आगे बढ़ाने के लिए ऐसा कर रहे हैं.”

ऐसा लगता है कि कोई भी सत्ता में बैठे व्यक्ति या पार्टी के गलत पक्ष में नहीं रहना चाहता.

सॉफ्ट पॉवर, नैरेटिव को फिर से गढ़ना

राजनीतिक फिल्में सॉफ्ट पॉवर का प्रयोग करने का एक तरीका हैं और अधिकांश को केंद्र सरकार का समर्थन प्राप्त होता है. उत्तर प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड और गोवा जैसे भाजपा शासित राज्यों में कश्मीर फाइल्स को टैक्स-फ्री घोषित किया गया था.

मोदी ने 20 फरवरी को जम्मू के मौलाना आज़ाद स्टेडियम में एक रैली के दौरान घोषणा की, “मैंने सुना है कि शायद इस हफ्ते आर्टिकल-370 पर एक फिल्म रिलीज़ होने वाली है. मुझे लगता है कि आपका ‘जय जय कार’ पूरे देश में सुनाई देगा.”

यहां तक कि आलोचक भी एकमत हैं. ‘द कश्मीर फाइल्स’ ने 69वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में दो पुरस्कार जीते; ‘उरी: द सर्जिकल स्ट्राइक’ को 66वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में चार पुरस्कार मिले.

किदवई कहते हैं, “आखिरकार, फिल्म निर्माता व्यवसायी हैं और अगर कोई सत्ता विरोधी फिल्म बनाता है और वह अच्छा प्रदर्शन नहीं करती है तो यह दोहरी मार है.”

दूसरा मुद्दा विपक्ष द्वारा मनोरंजन कंटेंट और इसी तरह की सांस्कृतिक लामबंदी के रूप में प्रतिरोध की कमी है.

किदवई बताते हैं, “बीजेपी के सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक संगठनों में दूरदराज के स्थानों में स्क्रीनिंग आयोजित करने से लेकर करों में ढील देने तक सर्वांगीण एकजुटता और उद्देश्य की भावना है. इसने न केवल फिल्मों के लिए व्यवसाय बनाया है, बल्कि शुद्ध सामाजिक-सांस्कृतिक हस्तक्षेप के माध्यम से भाजपा के एजेंडे को भी आगे बढ़ाया है.”

उन्होंने आगे बताया, “ममता (बनर्जी), (अरविंद) केजरीवाल, और (एमके) स्टालिन शक्तिशाली शख्सियतें हैं, उन्होंने सांस्कृतिक अभिव्यक्ति में निवेश नहीं किया. उनकी पार्टियों में कोई सांस्कृतिक या साहित्यिक शाखा नहीं है.”

प्रोपेगेंडा फिल्मों की इस व्यापक बाढ़ में इस हफ्ते के अंत में रिलीज़ हुई ‘ऐ वतन मेरे वतन’ जैसी ऐतिहासिक फिल्मों पर लगभग किसी का ध्यान नहीं गया. यह कथानक स्वतंत्रता संग्राम के गुमनाम नायकों और कैसे 22-वर्षीय उषा मेहता ने भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान एक अंडरग्राउंड रेडियो स्टेशन शुरू किया, के इर्द-गिर्द केंद्रित है.

हालांकि, किदवई भारतीय फिल्म देखने वालों को कमतर आंकने या उनका अपमान करने के खिलाफ चेतावनी देते हैं. उनका आशावादी दृष्टिकोण इस तथ्य से उत्साहित है कि प्रत्येक सत्ता-समर्थक फिल्म व्यावसायिक रूप से सफल नहीं होती है. यहां तक कि अक्षय कुमार और कंगना रनौत को भी कई मौकों पर ‘सम्राट पृथ्वीराज (2022)’ और ‘मणिकर्णिका: द क्वीन ऑफ झांसी (2019)’ जैसी फ्लॉप फिल्मों से मुंह की खानी पड़ी है.

किदवई ने कहा, “आप वोटिंग पैटर्न की भविष्यवाणी कर सकते हैं, लेकिन आप हमेशा दर्शकों के स्वाद की भविष्यवाणी नहीं कर सकते. अक्सर, प्रतिकूल परिस्थितियां सर्वश्रेष्ठ रचनात्मकता को सामने लाती हैं. ऐसा यहां भी हो सकता है.”

व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.

(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)

(इस फीचर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: बंगाली सिनेमा कोलकाता की लीक पर चल रहा है, क्या सुंदरबन की देवी बोनबीबी इसे बाहर निकाल पाएंगी?


 

share & View comments