पटना/बख्तियारपुर/पूर्णिया: मंगलवार को 85 वर्षीय रामबरन सिंह के घर पर जब एक जाति जनगणना करने वाली गणनाकर्मी एक बड़ा सा काला थैला लेकर पहुंची तो काफी हलचल थी. वहां मौजूद लोगों के मन में कई आशंकाएं भी थी. जनगणना करने वाली गणनाकर्मी ने जब राजनीतिक रूप से विवादास्पद और कुछ हद तक खतरनाक शब्द ‘जातिगत जनगणना’ के बारे में बताया तो सभी के चेहरे पर एक अलग तरह की खामोशी थी.
सिंह की जाति ‘कुशवाहा’ है जिसका कोड 26 है. यह बिहार में ओबीसी के भीतर किसानों का एक समुदाय है. उनका कहना है कि उन्हें नहीं पता कि जनगणना से क्या फायदे होंगे. पूर्णिया जिले के थडा गांव के इस निवासी ने कहा, ‘अगर कोई फायदा होता भी है, तो मैं शायद ही तब तक जिंदा रहूंगा.’
7 से 21 जनवरी 2023 के पहले चरण के बाद, नीतीश कुमार द्वारा शासित बिहार में महत्वाकांक्षी जातिगत जनगणना का दूसरा चरण 15 अप्रैल से शुरू हुआ है जिसमें शहरी इलाकों से गणनाकर्मी इस भीषण गर्मी में राज्य के विभिन्न इलाकों में लोगों के घर-घर जा रहे थे ताकि विस्तृत जानकारी एकत्र किया जा सके. गणनाकर्मी कोई दस्तावेज नहीं मांगते हैं, केवल उन्हीं विवरणों को रिकॉर्ड करते हैं जो लोग उन्हें स्वेच्छा से देते हैं. जातिगत जनगणना एक ऐसी कवायद है जो नीतीश कुमार की विपक्षी राजनीति में सामाजिक से ज्यादा राजनीतिक है.
लेकिन यह एक गिनती है जिसका आखिरकार समय आ गया है.
1990 के दशक में मंडल आयोग की रिपोर्ट के बाद से जातिगत बातचीत के सारे खुलासे ने इस स्थिति को जन्म दिया है. लाखों लोगों की गिनती की जा चुकी है और सीएम नीतीश कुमार के बख्तियारपुर स्थित पैतृक आवास से शुरू हुई जनगणना को 15 मई तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है.
रामबरन सिंह के आंगन में मक्के के दाने का ढेर लगा हुआ है. दीवार पर टंगा एक बल्ब पर्याप्त रोशनी नहीं दे रहा है और इन सब के बीच रामबरन सिंह को सत्रह प्रश्नों का जवाब देना है.
उन्होंने कहा, ‘इतनी जानकारी भरनी है. माथा पागल हो गया है.’
गणनाकर्मी के बारे में बात चारों ओर फैल गई. अन्य जिज्ञासु ग्रामीण अपनी बारी आने से पहले ही इस प्रक्रिया को देखने के लिए आ रहे थे. बहुत से लोग अपना आधार कार्ड ले जा रहे हैं, जबकि इसकी कोई आवश्यकता नहीं है.
यह एक कठिन बातचीत है
41 साल कहकशां शिक्षिका हैं, लेकिन वह आजकल सिर्फ हाजिरी बनाने के लिए स्कूल जा रही हैं. इस पेचीदा और संवेदनशील काम के लिए उन्हें बिहार सरकार द्वारा जनगणना करने वाले गणनाकर्मी के रूप में सूचीबद्ध किया गया है और वह हर दिन सुबह 6 बजे पूर्णिया स्थित अपने घर से इस काम के लिए निकल जाती हैं और 15 किमी की यात्रा करके थडा गांव पहुंचती हैं. वहां उन्हें 100 घरों में जनगणना करनी होती है. लेकिन कई बार लोगों से बातचीत काफी मुश्किल हो जाती है और वह लोगों से सीधे जातीय जनगणना के प्रश्न नहीं पूछ पाती हैं. गणनाकर्मी पहले अन्य विषयों पर ध्यान देते हैं.
वह जनगणना के दौरान परिवार के सदस्यों को कंफर्ट करने के लिए खेती, गर्मी, उनका स्वास्थ्य, यहां तक की पितृसत्ता से जुड़े प्रश्न पहले पूछती हैं.
कहकशां ने कहा, ‘रमजान का महीना चल रहा है और बहुत गर्मी है, इसलिए हमें सुबह जल्दी घर से निकलना होता है. जब हम आते हैं तो लोग आमतौर पर लोग सो रहे होते हैं. उन्हें बताना होता है कि हम जातिगत जनगणना के लिए आए हैं. अधिकांश को इसके बारे में पता भी नहीं होता है. वे यह सुनकर अवाक रहते हैं.’
गणनाकर्मी की शिकायत है कि जनगणना में मदद करने के लिए उनके पास कोई सहायक नहीं है. सारी जानकारी अकेले भरना मुश्किल हो जाता है. उन्हें दी गई पुस्तिका में 215 जातियों के कोड हैं. जनगणना के फार्म में कुल 17 प्रश्न रहते हैं जिसमें शैक्षणिक योग्यता, परिवार में सदस्यों, उनके लिंग और आवासीय स्थिति आदि की जानकारी देनी होती है. प्रत्येक जाति का अपना एक विशिष्ट कोड है.
इसलिए गणनाकर्मी फॉर्म भरने के लिए पेंसिल का इस्तेमाल करते हैं लेकिन परिवार के मुखिया का हस्ताक्षर पेन से लेते हैं और घर लौटकर पूरे फार्म को बिजागा (बिहार जातिगत जनगणना) ऐप पर अपलोड करने से पहले पेन से भरते हैं. यह ऐप ट्राइजन टेक्नोलॉजीज द्वारा विकसित किया गया है. एक शिक्षक, जो अपना नाम नहीं बताना चाहते हैं, ने कहा, ‘ऐप ही चिंता का कारण है. इसमें सिर्फ यह नीतीश कुमार का चेहरा दिखता है, उससे आगे बढ़ता ही नहीं है.’
कहकशां धीरे-धीरे और सावधानी से कोड को देखती हैं, पुस्तिका के साथ कई बार क्रॉस-चेकिंग करती है. इसलिए कुछ शिक्षिकाएं अपने पतियों को भी साथ ले आती हैं. उनके पति इस काम में उनकी मदद करते हैं.
दूर-दराज के गांव में नेविगेट करने में कठिनाई होती है लेकिन शहर में गणनाकर्मियों को और कठिनाई का सामना करना पड़ता है. शहर में कई घर खाली मिलते हैं, साथ ही उन्हें लोगों की ‘सार्वजनिक उदासीनता’, गुस्सा का भी सामना करना पड़ता है.
पटना की एक स्कूल शिक्षिका 45 वर्षीय शुभा कुमारी जब सोमवार सुबह करीब 10 बजे जनगणना के लिए अपने निर्धारित क्षेत्र में पहुंचीं, तब तक लोग काम पर जा चुके थे. उनके घरों पर ताला लगा हुआ था.
एक बगल के घर में रहने वाली चांदनी कुमारी ने अपने तीन वर्षीय बेटे के देखभाल करने का हवाला देते हुए उनसे बात करने से मना कर दिया. वहीं बगल के घर की रहने वाली एक महिला ने शुभा को कहा कि उनके पास इस फालतू के काम के लिए समय नहीं है.
मीठापुर में कारू यादव चुपचाप जमीन पर बैठ कर इस प्रक्रिया को देखते हैं. उन्हें जातिगत जनगणना की जानकारी नहीं है. वह कहते हैं, ‘एको क्लास नहीं पढ़े हैं. महंगाई इतनी बढ़ गई है. हम रोजी-रोटी में मशगूल हैं. जाति जनगणना के बारे में बात करने का समय किसके पास है?’
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जनगणना और मुसीबतों की सूची
बिहार में जातिगत जनगणना पर विवाद या असहमति किसी के लिए नई बात नहीं है. इसका उद्देश्य 12 करोड़ नागरिकों की जानकारी एकत्र करना है. राज्य के 38 जिलों में लगभग 2.58 करोड़ परिवार निवास करते हैं.
हालांकि नई चिंता ट्रांसजेंडरों को एक जाति के रूप में बताने को लेकर है. इसके खिलाफ मंगलवार को पटना हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई.
दूसरी ओर, राज्य में 50,000 से अधिक जनसंख्या वाला मजबूत सिख समुदाय अपना जाति कोड चाहता है.
श्री सनातन सिख सभा, पटना साहिब के प्रमुख त्रिलोक सिंह निषाद ने कहा, ‘सिखों को ईसाइयों और मुसलमानों की तरह एक अलग जाति कोड नहीं दिया गया है. सिखों का भी एक कोड होना चाहिए.’
उप-जातियों की गिनती नहीं करने के मुख्यमंत्री के फैसले ने भी चर्चा का विषय बनाया है. दरअसल ग्वालों और अहीरों की गणना नहीं की जाएगी.
जब पटना में एक परिवार ने गणनाकर्मी शुभा कुमारी को अपनी जाति बताई, तो उन्होंने जो जवाब दिया, वह उनकी जाति नहीं, उनकी उप-जाति थी. शुभा उस परिवार से कहती हैं, ‘आप यादव हैं. आपका जाति कोड 165 है. इसे याद रख लीजिए. यही अब आपकी पहचान है.’
सहरसा के बत्तीस वर्षीय विनोद मिश्रा जाति जनगणना का समर्थन नहीं करते हैं. मिश्रा कहते हैं, ‘यादव और कुर्मी पिछले 30 वर्षों से बिहार पर शासन कर रहे हैं. जाति जनगणना के बाद, अगड़ी जातियों के लिए और मुश्किलें पैदा होंगी.’
मजिस्ट्रेट के कार्यालय के बाहर, 55 वर्षीय जोगेंद्र को उम्मीद है कि जातिगत जनगणना राज्य और उनके जीवन में कई चीजों को बदल देगी. वह कहते हैं, ‘मैं एक निचली जाति- तेली से हूं. हमारा जाति कोड संख्या 83 है. इसकी गणना की जानी चाहिए. सरकार ने नारा तो दिया कि सब बराबर हैं लेकिन हमें ठीक से प्रतिनिधित्व नहीं मिला है.’
हालांकि भाजपा ने इसपर असंतोष जताते हुए चेतावनी दी है कि उप-जातियों को हटाने से कोटा प्रणाली पटरी से उतर सकती है.
जनगणना के पहले चरण के दौरान बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल ने द इंडियन एक्सप्रेस के साथ एक साक्षात्कार में कहा था, ‘सीएम शायद उप-जातियों की गणना इसलिए नहीं करना चाहते हैं ताकि यह पता न चले कि उनकी अपनी ओबीसी कुर्मी की उप-जाति अवधिया की संख्या बहुत कम है.’
अकेले हिंदुत्व का मुद्दा बिहार में पैठ बनाने के लिए पर्याप्त नहीं था, जहां लगभग हर जाति की एक उप-जाति होती है. राज्य में 2,500 से 3,000 उप-जातियां हैं. अगर इसकी तुलना दूसरे राज्यों से करें तो कर्नाटक में केवल इसकी संख्या 101 है.
अपनी रणनीति के तहत, भाजपा ने सामाजिक समरसता (सामाजिक समरसता) अभियानों के माध्यम से अति पिछड़े वर्गों (ईबीसी) में से कुछ तक पहुंचना शुरू कर दिया.
अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के एसोसिएट प्रोफेसर विकास कुमार कहते हैं, ‘एक हिंदुत्व पहचान के अलावा, भाजपा राज्य-स्तरीय पार्टियों के वोट बैंकों के बीच अपनी उपस्थिति का विस्तार करना चाहती है, जो ओबीसी वोट पर निर्भर हैं. नीतीश कुमार जातिगत जनगणना के जरिए भाजपा के इस राजनीतिक खेल का मुकाबला कर रहे हैं.’
ऐप में खामियां, ट्रांसजेंडरों के द्वारा दायर जनहित याचिका, उप-जातियों को लेकर चूक, अड़ियल नागरिक और गर्मी और चिलचिलाती धूप ही जातिगत जनगणना में एकमात्र बाधा नहीं हैं. नए भर्ती नियमों से नाखुश शिक्षकों का लगातार विरोध परेशानी बढ़ा रहा है. अधिकांश जनगणना करने वाले नियोजित शिक्षक हैं- जो 2006 से नियुक्त हैं जिन्हें अब स्थायी सरकारी कर्मचारी बनने के लिए फिर से परीक्षा देनी होगी.
18 अप्रैल को, उन्होंने पूरे राज्य में ब्लॉक के बाहर प्रदर्शन किया. जबकि कई शिक्षक संघों ने जातिगत जनगणना का बहिष्कार किया है. लेकिन इसके बावजूद सरकार अपने फैसले पर अडिग बनी हुई है.
राजद प्रवक्ता मृत्युंजय तिवारी ने कहा, ‘गिनती करना सरकारी काम है. उनके पास सरकारी नौकरियां हैं और वे इससे भाग नहीं सकते. उन्हें इसे निर्धारित समय के भीतर करना ही होगा.’
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दुर्लभ जाति जनगणना
बिहार में हो रहे घटनाक्रम पर अन्य राज्य भी पैनी नजर रख रहे हैं. छत्तीसगढ़, कर्नाटक, महाराष्ट्र, ओडिशा और उत्तर प्रदेश में इसी तरह की जातिगत जनगणना की काफी चर्चा है. हालांकि जातिगत जनगणना की मांग कोई नई बात नहीं है, यह पहली बार है जब देश भर के राजनीतिक दलों ने व्यापक रूप से इसका समर्थन किया है.
एमके स्टालिन, शरद पवार, मायावती, अखिलेश यादव- सभी ने केंद्र से भारत की दशकीय जनगणना के साथ-साथ जातिगत जनगणना कराने का आग्रह किया है. तर्क यह है कि जाति पर नवीनतम डेटा – जो कई केंद्रीय और राज्य के कल्याणकारी योजनाओं का आधार है – भाजपा का मुकाबला करने के लिए समर्थन जुटाने की कोशिश कर रहे क्षेत्रीय दलों को बढ़ावा दे सकता है.
कांग्रेस नेता राहुल गांधी, जो कर्नाटक में चुनाव प्रचार कर रहे हैं, जहां अगले महीने चुनाव होने हैं, ने पिछड़े वर्गों का ध्यान केंद्रित करने वाली एक नई राजनीतिक रणनीति के बारे में बात की. 16 अप्रैल को कोलार में एक रैली में, उन्होंने कहा था कि राजनीतिक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए प्रत्येक वर्ग की संख्या जानना आवश्यक है. राहुल ने इस दौरान कहा कि ‘जितनी आबादी, उतना हक’. उन्होंने मोदी सरकार पर यूपीए सरकार द्वारा 2011 में कराई गई सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना (एसईसीसी) के आंकड़ों को ‘छिपाने’ का आरोप लगाया. कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने पीएम मोदी को पत्र लिखकर एसईसीसी डेटा जारी करने की मांग की है.
1931 की जातिगत जनगणना-ब्रिटिश शासन के तहत-प्रकाशित होने वाली आखिरी जातिगत जनगणना थी. SECC-2011 के निष्कर्षों को इस आधार पर कभी सार्वजनिक नहीं किया गया था कि इसमें कई त्रुटियां थी और डेटा अनुपयोगी था.
जातिगत जनगणना की मांग का सीधा संबंध आरक्षण पर 50 फीसदी की सीमा से है. विपक्षी दलों ने बार-बार कहा है कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए आरक्षण ने इस सीमा को तोड़ दिया है, और जातिगत जनगणना जहां ओबीसी की गणना की जाती है, आरक्षण को आसान बना देगी. यह ‘मंडल’ को फिर से ईजाद करने का एक प्रयास है – एक शब्द जिसका इस्तेमाल जाति-आधारित राजनीति का वर्णन करने के लिए किया जाता है – और भाजपा के ‘कमंडल’ या हिंदुत्व के मुद्दे का मुकाबला करने के लिए, जैसा कि दिप्रिंट ने 19 अप्रैल को रिपोर्ट किया था.
एक समय था जब लगभग कोई भी राजनीतिक दल जातिगत जनगणना करके अपने पैर पर कुल्हाड़ी नहीं मारना चाहती थी. उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में एक ‘सामाजिक न्याय’ (सामाजिक न्याय) सर्वेक्षण किया था, जिसमें कम प्रतिनिधित्व वाले दलित और ओबीसी समूहों के लिए अधिक प्रतिनिधित्व की रूपरेखा तैयार की गई थी, लेकिन रिपोर्ट अभी तक लागू नहीं की गई है. कर्नाटक, जिसने 2013-2018 के बीच जातिगत जनगणना की थी, जब कांग्रेस पार्टी के सिद्धारमैया मुख्यमंत्री थे. लेकिन डेटा को अभी तक सार्वजनिक नहीं किया गया है.
2005 में बिहार में पहली बार सत्ता में आने के बाद, नीतीश कुमार अक्सर कहते थे कि उन्हें जमात (जनता) का समर्थन मिला है, जात (जाति) का नहीं. लेकिन हर बीतते साल के साथ उनका स्टैंड बदलता गया. 2006 में, उन्होंने पंचायतों और स्थानीय निकायों में ईबीसी के लिए 20 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की. और 2007 में, कुमार ने एक आयोग का गठन किया जिसमें 21 अनुसूचित जाति समूहों को ‘महादलित’ के रूप में दलितों का एक उप-समूह बनाया गया.
2018 और 2019 में बिहार विधानसभा में जातिगत जनगणना को लेकर प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किया गया था. हालांकि भाजपा सहित सभी दलों ने जनगणना का समर्थन किया, लेकिन मोदी सरकार ने सितंबर 2021 में सर्वोच्च न्यायालय में एक हलफनामा दायर कर कहा था कि जातिगत जनगणना ‘संभव नहीं’ है.
बिहार में गठबंधन के दौरान जदयू और भाजपा के बीच यह विवाद का कारण बना था. अगस्त 2021 में जनगणना को लेकर बिहार के सीएम कुमार ने पीएम मोदी से मुलाकात की थी. अगले वर्ष, जदयू ने भाजपा के साथ अपना रिश्ता खत्म कर दिया और राजद के साथ मिलकर सरकार बनाई. 6 जून 2022 को, बिहार सरकार ने एक अधिसूचना जारी कर कहा कि जातिगत जनगणना की जाएगी.
बीजेपी जोर देकर कहती रही है कि वह जाति आधारित जनगणना के खिलाफ नहीं है.
बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता और राज्य के पूर्व उद्योग मंत्री शाहनवाज हुसैन ने कहा, ‘हमारी पार्टी ने शुरू से ही राज्य में जातिगत जनगणना का समर्थन किया है. केंद्र सरकार जो फैसला करेगी उसके आधार पर चीजें राष्ट्रीय स्तर पर होंगी.’
हालांकि नीतीश कुमार की पार्टी जदयू राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली जनगणना की उम्मीद कर रही है.
जदयू एमएलसी रविंद्र सिंह कहते हैं, ‘केंद्र ने नाइंसाफी की है. अभी हम इसे राज्य स्तर पर कर रहे हैं. अगर यह राष्ट्रीय स्तर पर किया जाता, तो लोगों को बहुत लाभ मिलता.’
जातिगत जनगणना के परिणाम अन्य धार्मिक समुदायों के बीच भी महसूस किए जाएंगे. अब जब उत्तर भारत में पसमांदा राजनीति नया नारा बन रही है तो जनगणना के नतीजे उसमें भी भूमिका निभाएंगे.
बीजेपी एक साथ ओबीसी और पसमांदा समुदायों को अपने साथ जोड़ने में लगी है, जो उसकी सोशल इंजीनियरिंग का हिस्सा हैं. प्रोफेसर विकास कुमार कहते हैं, ‘जातिगत जनगणना बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग का जवाब है.’
जातिगत जनगणना बिहार में पसमांदा समुदाय की प्रमुख मांगों में से एक रही है. पसमांदा आंदोलन से जुड़े अली अनवर अंसारी ने कहा कि 2009 में उन्होंने इस मुद्दे को राज्यसभा में उठाया था, लेकिन उस समय किसी सांसद ने इसका समर्थन नहीं किया था.
अंसारी कहते हैं, ‘2010 में लोकसभा में लालू प्रसाद यादव, शरद यादव और मुलायम सिंह यादव ने इस मुद्दे को उठाया था. बीजेपी नेता गोपीनाथ मुंडे ने भी इसका समर्थन किया था. यूपीए सरकार ने हमारी मांग मान ली थी, लेकिन यह आगे नहीं बढ़ी. अगर जातिगत जनगणना सही तरीके से की जाए तो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति की धज्जियां उड़ा दी जाएंगी.’
आरक्षण की मांग हो सकती है तेज
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि जनगणना के बाद और यदि परिणाम प्रकाशित होते हैं तो समाज में अलग-अलग शक्ति केंद्र उभरेंगे, जो दबाव समूहों के रूप में काम करेंगे.
प्रोफेसर संजय कुमार कहते हैं, ‘यह पहचान की राजनीति में नई ऊर्जा लाएगा. बिहार में जातिगत समीकरण और जाति आधारित समस्याओं को दरकिनार नहीं किया जा सकता है. उन्हें पहचानने की जरूरत है.’
1931 की जातिगत जनगणना के आधार पर मंडल आयोग ने निष्कर्ष निकाला कि ओबीसी देश की आबादी का 52 प्रतिशत है.
बिहार में अगड़ी जाति समूह, खासकर ब्राह्मण और भूमिहार इससे अधिक चिंतित हैं.
सहरसा के मिश्रा कहते हैं, ‘आरक्षण की मांग तेज होगी. अगड़ी जातियां पहले ही हाशिए पर आ चुकी हैं. जातिगत जनगणना के बाद हमारी स्थिति और खराब होगी.’
वहीं विकास कुमार ने कहा, ‘2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों और राज्य विधानसभा चुनावों में बीजेपी की जीत में ओबीसी समुदाय का बड़ा योगदान रहा है.’
लोकनीति-सीएसडीएस के आंकड़ों से पता चलता है कि 2009 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 22 फीसदी ओबीसी वोट मिले थे, जो 2019 में बढ़कर 44 फीसदी हो गए. सटीक डेटा एकत्र करना महत्वपूर्ण है.
2017 में, ओबीसी के भीतर उप-जातियों की पहचान करने के लिए न्यायमूर्ति जी रोहिणी की अध्यक्षता में चार सदस्यीय आयोग का गठन किया गया था. लेकिन इसका कार्यकाल 13 बार बढ़ाया गया है, आखिरी बार जनवरी में छह महीने की अवधि के लिए यह बढ़ाया गया था.
ए एन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज, पटना के पूर्व निदेशक डीएम दिवाकर ने बताया कि कई जातियों के सदस्य राज्य और देश में गूंज रहे विकास के शोर के अनुरूप नहीं हैं.
वह कहते हैं, ‘कई जातियां विलुप्त हो रही हैं. पमरिया और मल्हा जैसी जातियों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है. यदि डेटा उपलब्ध नहीं होगा, तो विकास नहीं हो पाएगा.’
ऐसी आशंकाएं हैं कि यह एक बार फिर मंडल मूमेंट जैसी स्थिति बन सकती है. चुनावी राजनीति में ध्रुवीकरण का कारक जिसने उत्तर भारत की राजनीति में तीन दशक तक एक अलग आकार दिया और उसे अलग तरीके से परिभाषित किया. लेकिन विकास कुमार एक साधारण से सवाल से ऐसी तमाम आशंकाओं को खारिज कर देते हैं.
‘पिछले 70 वर्षों में जाति की जनगणना नहीं हुई थी. क्या इससे जाति की राजनीति कम हुई है? ठीक ढ़ंग से अगर जाति की जनगणना होती है तो ‘अफरमेटिव एक्शन’ पर होने वाली बहस एकदम साफ हो जाएगी.’
(संपादन: ऋषभ राज)
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